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ॐ नमः शिवाय
शिवपुराण में शिव-शक्ति का संयोग
शिव
पुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति
है उससे चित् शक्ति प्रकट होती है। चित् शक्ति से आनंद शक्ति का
प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है,
इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई
है। इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं।
चित् शक्ति से
नाद और आनंदशक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्ति से 'म'
कार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर 'उ' कार उत्पन्न हुआ है और
क्रियाशक्ति से 'अ' कार की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रणव (ॐ) की
उत्पत्ति हुई है।
शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का
प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से
सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर
और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है।
उत्पत्ति क्रम में ईशान से शांत्यतीताकला उत्पन्न हुई है। ईशान से चित्
शक्ति द्वारा मिथुनपंचक की उत्पत्ति होती है।
अनुग्रह, तिरोभाव,
संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक
कहते हैं। यह बात तत्वदर्शी ज्ञानी मुनियों ने कह है। वाच्य वाचक के संबंध
से उनमें मिथुनत्व की प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचक में भूतपंचक
की गणना है। आकाशादि के क्रम से इन पांचों मिथुनों की उत्पत्ति हुई है।
इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां
मिथुन पृथ्वी है।
इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा
स्वरूप बताया गया है, वह इस प्रकार है - आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है,
वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन
गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए
हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न
है। यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है अर्थात् शब्दादि गुणों द्वारा
आकाशदि भूत वायु आदि परवर्ती भूतों में किस प्रकार व्यापक है, यह दिखाया
गया है।
इसके विपरीत गंधादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती
भूतों से व्याप्य हैं अर्थात् गंध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल
अग्नि का व्याप्य है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्यता को समझना चाहिए। पांच
भूतों (महत् तत्व) का यह विस्तार ही प्रपंच कहलाता है।
सर्वसमष्टि
का जो आत्मा है, उसी का नाम विराट है और पृथ्वी तल से लेकर क्रमशः शिवतत्व
तक जो तत्वों का समुदाय है वही ब्रह्मांड है। वह क्रमशः तत्वसमूह में लीन
होता हुआ अंततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वर में ही लय को प्राप्त
होता है और सृष्टिकाल में फिर शक्ति द्वारा शिव से निकल कर स्थूल प्रपंच के
रूप में प्रलयकालपर्यंत सुखपूर्वक स्थित रहता है।
अपनी इच्छा से
संसार की सृष्टि के लिए उद्यत हुए महेश्वर का जो प्रथम परिस्पंद है, उसे
शिवतत्व कहते हैं। यही इच्छाशक्ति तत्व है, क्योंकि संपूर्ण कृत्यों में
इसी का अनुवर्तन होता है। ज्ञान और क्रिया, इन दो शक्तियों में जब ज्ञान का
आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्व समझना चाहिए, जब क्रियाशक्ति का उद्रेक हो
तब उसे महेश्वर तत्व जानना चाहिए तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियां
समान हों तब वहां शुद्ध विद्यात्मक तत्व समझना चाहिए ।
जब शिव अपने रूप को माया से निग्रहीत करके संपूर्ण पदार्थों को ग्रहण करने लगता है, तब उसका नाम पुरुष होता है।