[Uma Mahadev] अद्वितीय शक्ति की प्रतीक शिव

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उमा महादेव ग्रुप

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Sep 24, 2013, 10:49:49 PM9/24/13
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मंगलवार 24 सितम्बर 2013
प्रस्तुतकर्ता :- उमा महादेव ग्रुप


ॐ नमः शिवाय

अद्वितीय शक्ति की प्रतीक शिव

 शिव के साथ जुड़ी हर चीज़ किसी न किसी अद्वितीय शक्ति की प्रतीक है, फिर चाहे वो त्रिशूल हो या डमरू। आइए उस शक्ति को पहचानकर अपने जीवन में धारण करें..त्रिनेत्र-मन की आंख
शिव के माथे पर उनकी तीसरी आंख है। शिव योग और ध्यान मे लीन रहते हैं। दो आंखों से साधारण दिखता है। शिव तीसरी आंख से असाधारण को देखते हैं और अपना संहार धर्म निभाते हैं। इसी तीसरी आंख से शिव ने कामदेव को जला कर उसके मूर्त रूप को ख़त्म किया था। तब से काम एक भाव है, देह नहीं। तीन आंखों के कारण शिव को ‘˜यंबक’ कहा जाता है। ˜यंबक तीन शक्तियों से संबंधित हैं।

आंखों में चंद्र की ज्योति रहती है। सृष्टि में तीन ज्योतियां हैं- सूर्य, चंद्र और अग्नि। दोनों आंखों में सूर्य और चंद्र की ज्योति बसती है, तो तीसरी आंख में अग्नि की। पहला नेत्र धरती है, दूसरा आकाश और तीसरा नेत्र है बुद्धि के देव सूर्य की ज्योति से प्राप्त ज्ञान-अग्नि का। यही ज्ञान जब खुला, तो कामदेव भस्म हुआ था। अर्थात्- जब आप अपने ज्ञान और विवेक की आंख खोलते हैं, तो कामदेव जैसी बुराई, लालच, भ्रम, अंधकार आदि से स्वयं को दूर कर सकते हैं।

इसके पीछे कथा भी है-

एक बार पार्वती ने शिव के साथ मज़ाक करने के लिए उनके पीछे से जाकर उनकी दोनों आंखें अपनी हथेलियों से मूंद दीं। इससे पूरे जगत में अंधकार फैल गया, क्योंकि शिव की एक आंख सूर्य है, दूसरी चंद्रमा। अंधकार से हाहाकार मच गया, तो शिव ने तुरंत अग्नि को अपने माथे से निकालकर पूरी दुनिया को रोशनी दे दी। लेकिन इस रोशनी से हिमालय जलने लगा। पार्वती घबरा गई और उन्होंने अपनी हथेली हटा ली। तब शिव ने मुस्कुराकर अपनी तीसरी आंख बंद की। शिवपुराण के अनुसार, यह मज़ाक करने से पहले स्वयं पार्वती को भी नहीं पता था कि शिव के तीन नेत्र हैं।

नीलकंठ-बुराई का ख़ात्मा

समुद्र-मंथन से निकले विष को शिव ने पिया और गले तक ले जाकर रोक दिया। इसलिए वह नीलकंठ कहलाए। शिव बुराई को पी जाते हैं, किंतु उसे अपने पेट में नहीं जाने देते। बुराई को ख़त्म करने का अर्थ शिव के इस नाम से यह मिलता है कि उसे मिटाओ, स्वीकार करो, लेकिन उसके असर को अपने ऊपर मत आने दो, रोक दो।

अर्धचंद्र-शीतलता का प्रतीक

शिव के माथे पर अर्धचंद्र विराजमान है, इसीलिए उन्हें चंद्रशेखर या शशिशेखर भी कहा जाता है। चंद्र शीतलता का प्रतीक है। उसे माथे पर धारण करना यानी दिमाग़ को ठंडा रखना है। इसके पीछे कथा है- समुद्र-मंथन से निकले विष को शिव ने पीकर गले में जमा कर लिया, तो विष के प्रभाव से वह क्रोध में उन्मत्त होने लगे। समुद्र-मंथन से ही चंद्रमा भी मूर्त-रूप में निकला। विष के प्रभाव को ख़त्म करने के लिए शिव ने शीतल चंद्र को माथे पर धारण कर लिया। इसी तरह हमें भी क्रोध आने पर दिमाग़ में शीतलता के चंद्र को रखना चाहिए।

जटाएं-अनंत विचार शिव विचार के देव हैं। उनके बारे में कथाएं है कि वह बिना विचार किए वरदान दे देते हैं और बाद में मुसीबत में पड़ जाते हैं, पर शिव के सारे वरदान विचार से पूर्ण हैं। जटाएं प्रतीक हैं सिर नामक वृक्ष से निकली शाखाओं की, जिनका कोई ओरछोर नहीं है। यानी शिव के विचारों का कोई अंत नहीं। गंगा को शिव अपनी जटाओं में धारण करते हैं। गंगा जब धरती पर आई, तो उसके तेज को कोई धारण नहीं कर सकता था। शिव ने उसे अपनी विचार रूपी जटाओं में धारण किया और जनसाधारण को सौंपते समय एक पतली धार में बदल दिया। शिव की जटाएं पांच से तेरह तक दिखती हैं, जो बंधी रहती हैं। संहार के समय ये खुलकर इतनी बड़ी हो जाती हैं कि तीनों लोकों को ढांप लें।

भस्म-समर्पण

शिव को श्मशानवासी कहा जाता है। वह देह पर भस्म लगाते हैं। भस्म किसी वस्तु के जलने या नष्ट होने के बाद बनती है। शिव बुराई का वरण-हरण करते हैं। वह बताते हैं, जो तुमने नष्ट कर दिया, मुझे समर्पित कर दो। जीवन की राख, जो मनुष्य के काम की नहीं, वह मेरा सिंगार है। शिवपुराण के अनुसार, जब शिव संहार करके सृष्टि समाप्त कर देते हैं, तो फिर उसकी भस्म को शरीर पर लपेट कर अपने पसीने और राख से दुबारा सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं।

नाग-अंधकार का अंत गले में लटका नाग विष से उनकी नÊादीकी बताता है। जिसके गले में नाग हो, उसका विष भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। नाग का अर्थ अंधेरा भी है। शिव हमारे जीवन का अंधकार स्वयं धारण कर लेते हैं और हमें ज्ञान का प्रकाश देते हैं।

त्रिशूल-तीन नोक, तीन गुण

यह शिव का हथियार है। इसमें तीन नोक क्यों हैं? सत्व, रज और तम- ये तीनों गुण ही जीवन की बुराइयों को बढ़ाते हैं। इनका सामंजस्य न हो, तो बुराई बढ़ती है। त्रिशूल के तीन नोक तीनों गुणों का ख़ात्मा करने के लिए हैं।

डमरू-जीवन का संचार

शिव कला के भी देव हैं। उन्हें संगीत पसंद है। वह स्वयं मौन रहते हैं, पर प्रसन्न होने पर डमरू बजाते हैं। नाद या गूंज जीवन का संचार होता है। शिव डमरू बजाकर जीवन का संचार करते हैं। संस्कृत या व्याकरण स्पष्ट करने वाले पाणिनि के अनुसार, जब शिव ने पहली बार डमरू बजाया, तो उसमें से अ, इ, उ जैसे 14 सूत्र निकले। सनकादि ऋषियों ने इन सूत्रों को एकत्रित कर एक धागे में पिरोया और संस्कृत भाषा का जन्म हुआ।

नंदी-भक्ति दो, ज्ञान लो

शिव का एक रूप पशुपतिनाथ का है। वह पशुओं की रक्षा करते हैं। प्राचीन समय में पशु ही मानव जीवन का प्रमुख सहारा थे। शिव के सामने बैठा नंदी उनके पशु-प्रेम का प्रतीक है। नंदी बैल ही क्यों है? बैल को भोला माना जाता है, लेकिन काम बहुत करता है, उसमें चातुर्य भी होता है, लेकिन लोमड़ी वाली चतुराई से वह किसी का नुक़सान नहीं करता। शिव भी भोले हैं, बहुत कर्मठ और जटिल जीवन है उनका। अपनी चतुराई से किसी की हानि नहीं करते। बैल और शिव के स्वभाव में समानता है।

स्कंदपुराण के अनुसार, वृषो हि भगवान धर्म: अर्थात् जब शिव के पास कोई वाहन नहीं था और वह स्वयं ही आकाशमार्ग से विचरते थे, तब भगवान धर्म यानी यम की बड़ी इच्छा हुई कि शिव के वाहन बन जाएं। इसके लिए उन्होंने शिव की आराधना की। शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें बैल रूप में अपना वाहन बना लिया। बैल को अज्ञानी भी माना जाता है।  

‘ज्ञानेन हीना: पशुभि समाना:’ 

यानी जो ज्ञान से हीन है, वह पशु के समान है। शिव के साथ से नंदी ज्ञानी हो गया। शिव ज्ञानहीनों के देव हैं, उन्हें ज्ञान देते हैं। नंदी के प्रतीक से यह भी स्पष्ट होता है।

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Posted By उमा महादेव ग्रुप to Uma Mahadev on 9/25/2013 08:19:00 am
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