[Uma Mahadev] कल्याण की संस्कृति ही शिव की संस्कृति

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Uma Mahadev Group

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Jan 26, 2013, 1:30:02 PM1/26/13
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ॐ नमः शिवाय


भगवान शिव की भक्ति सहज भी है और दुष्कर भी। भोले बाबा के स्वरूप को भले ही हम सहजता से लेते हों लेकिन वह ऐसे नहीं हैं।
भगवान शिव कल्याण के देव हैं और कल्याण की संस्कृति ही वास्तव में शिव की संस्कृति है। शिव ही शिव। कल्याण ही कल्याण। श्रावण मास भगवान शंकर को प्रिय है। क्यों? यह मास अकेले भगवान शंकर का नहीं है।
यह पार्वती जी का मास भी है। शक्ति और शक्तिमान दोनों का ही केंद्र। शिव परमपिता परमेश्वर हैं तो शक्ति मातृ शक्ति। थोड़ा और विचार करें तो सदाशिव और मां पार्वती प्रकृति के आधार हैं। आचार-विचार से लेकर हरियाली के प्रतीक। जीवन में हरियाली हो और वातावरण भी उससे आच्छादित हो, यही शिव और शिवांगी की आराधना है। चातुर्मास्य में जब भगवान विष्णु शयन के लिए चले जाते हैं, तब सदाशिव तीनों लोकों की सत्ता संभालते हैं। शिव का यह नया रूप होता है। वह महारुद्र बनकर नहीं बल्कि आपके-हमारे भोले बाबा बनकर आते हैं। जैसे आप विवाह करते हैं, भोले शंकर भी विवाह रचाते हैं। जैसे आपकी बारात निकलती है, वैसे ही शंकर जी भी बारात निकालते हैं। लेकिन अंतर है। यह लौकिक विवाह नहीं है, यह पारलौकिक विवाह है। ऐसा विवाह न तो हुआ और न ही हो सकता है। यही सावन की शिवरात्रि है। लोकमंगल का पर्व।
सावन को शंकरजी ने अपना मास कहा है। यह ऐसा महीना होता है, जब धरती पर पाताललोक के प्राणियों का विचरण होने लगता है। वर्षायोग से राहत भी मिलती है और आफत भी। शंकरजी तो समन्वय और संतुलन के देव हैं। लोकमंगल उनका भाव है। अस्तु, शंकर और पार्वती जी की पूजार्चना करके लोकोपकार की प्रार्थना की जाती है। कांवड़ियों के रूप में यह प्रार्थना सामूहिक उत्सव के रूप में देखने को मिलती है। लाखों कांवड़िए गंगाजल लेकर पैदल ही अपने-अपने शिवधाम पहुंचते हैं और भगवान का जलाभिषेक करते हैं। कांवड़ परंपरा के जनक भगवान परशुराम हैं जिन्होंने सर्वप्रथम कांवड़ लाकर भगवान शंकर का जलाभिषेक किया था। यह आस्था की कांवड़ है। धर्म और अर्पण का प्रतीक। वास्तव में सावन अयन को सुधारने का संदेश देता है। अयन अर्थात नेत्र। सावन में काम का आवेग बढ़ता है। शंकरजी इसी आवेग का शमन करते हैं। कामदेव को भस्म करने का प्रसंग भी सावन का ही है। सावन में ही तारकासुर का अंत सुनिश्चित हुआ था। सावन में ही गंगा पतितपावनी बनी थी और सावन में ही विवाह और विवाह परंपरा का जन्म हुआ था। इस नाते यह सावन लोकोत्पत्ति का उत्सव है। यूं इसके समस्त केंद्र में शंकर ही शंकर हैं। शिव चरित में उल्लेख मिलता है कि तारकासुर नाम के असुर का अंत शंकर जी के शुक्र से उत्पन्न संतान (कार्तिकेय) से हुआ।
चालाक तारकासुर ने ब्रह्मा जी से वरदान ही यह लिया था। उसने सोचा था कि न कभी शंकरजी विवाह रचाएंगे और न कभी उनकी संतान होगी और न कभी उसका अंत होगा। एक सुर या असुर के अजेय रहने मात्र से कोई अंतर नहीं आने वाला था। लेकिन नियम तो नियम हैं। सृष्टि चक्र की मर्यादा, परंपरा और नियमोपनियम बनें रहें, इसलिए तारकासुर को मारने के लिए शंकरजी ने विवाह रचाया। यह अवसर था श्रावण मास की शिवरात्रि का। जस दूल्हा तस बनी बाराता। जैसे शंकरजी वैसी उनकी बारात। कांवड़ियों का यह स्वरूप क्या आपको जोश, उमंग और आस्था का अनूठा संगम नहीं लगता? सोमवार और चंद्र दर्शन भगवान शंकर के शीश पर चंद्रमा शोभित है। चंद्रमा में सोलह कलाएं मानी गई हैं। चंद्रमा यौवन, सुंदरता, शांति, नव जीवन और प्रकाश का ोतक है। चंद्रमा धीरे-धीरे पूर्णता को प्राप्त होता है। यही जीव की आयु और अवस्था का भी चरण है। सोमवार चंद्रमा का दिन है। राशि के हिसाब से चंद्रमा ही इष्ट हैं। यही वजह है कि चंद्रशेखर यानी शंकरजी की आराधना होती है। 


भगवान शिव की कृपा आप सब पर बनी रहे ।

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Posted By Uma Mahadev Group to Uma Mahadev on 1/27/2013 12:00:00 am
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