water.community
unread,May 30, 2008, 11:58:07 PM5/30/08Sign in to reply to author
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to Sujalam, sunilku...@indiatimes.com
श्री पद्रे
दक्षिण कन्नडा के किसान ए महालिंगा नाईक महालिंगा नाईक पोथी की इकाई-
दहाई नहीं जानते लेकिन उन्हें पता है कि बूंदों की इकाई-दहाई सैकड़ा हजार
और फिर लाख-करोड़ में कैसे बदल जाती है.
58 साल के अमई महालिंगा नाईक कभी स्कूल नहीं गये. उनकी शिक्षा दीक्षा और
समझ खेतों में रहते हुए ही विकसित हुई. इसलिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली के
वे घोषित निरक्षर हैं. लेकिन दक्षिण कन्नडा जिले के अडयानडका में पहाड़ी
पर 2 एकड़ की जमीन पर जब कोई उनके पानी के काम को देखता है तो यह बताने
की जरूरत नहीं रह जाती कि केवल गिटपिट रंटत विद्या ही साक्षरता नहीं
होती. असली साक्षरता को प्रकृति के गोद में प्राप्त होती है जिसमें
महालिंगा नाईक पीएचडी है. पानी का जो काम उन्होंने अपने खेतों के लिए
किया है उसमें कठिन श्रम के साथ-साथ दूरदृष्टि और पर्यावरण का दर्शन साफ
झलकता है.
महालिंगा नाईक बताते हैं कि "पहले इस पहाड़ी पर केवल सूखी घास दिखाई देती
थी." उनकी बात में कुछ भी अतिरेक नहीं है. आस पास के इलाकों में फैली
सूखी घास उनकी बात की तस्दीक करती है. महालिंगा तो किसान भी नहीं थे.
जबसे होश संभाला नारियल और सुपारी के बगीचों में मजदूरी करते थे. मेहनती
थे और इमानदार भी. किसी ने प्रसन्न होकर कहा कि यह लो 2 एकड़ जमीन और इस
पर अपना खुद का कुछ काम करो. यह सत्तर के दशक की बात होगी. उन्होंने सबसे
पहले एक झोपड़ी बनाई और बीबी बच्चों के साथ वहां रहना शुरू कर दिया. यह
जमीन पहाड़ी पर थी और मुश्किल में बडी मुश्किल यह कि ढलान पर थी. एक तो
पानी नहीं था और पानी आये भी तो रूकने की कोई गुंजाईश नहीं थी. फसल के
लिए इस जमीन पर पानी रोकना बहुत जरूरी था.
पानी रूके इसके लिए पानी का होना जरूरी था. अब मुश्किल यह थी कि पानी
यहां तक लाया कैसे जाए? कुंआ खोदना हो तो उसके लिए बहुत पैसे चाहिए थे.
क्योंकि यहां से पानी निकालने के लिए गहरे कुएं की खुदाई करनी पड़ती. फिर
खतरा यह भी था कि इतनी गहरी खुदाई करने के बाद वह कुंआ पानी निकलने से
पहले ही बैठ भी सकता था. इसलिए कुएं की बात सोचना संभव नहीं था. तभी
अचानक उन्हें पानी की सुरंग का ख्याल आया.
असफलताओं के बीच पानी की सुरंग
अब यही एक रास्ता था कि सुरंग के रास्ते पानी को यहां तक लाया जाए. पानी
की सुरंग बनाने के लिए बहुत श्रम और समय चाहिए था. दूसरा कोई होता तो
शायद हाथ खड़े कर देता लेकिन महालिंगा नाईक ने अपनी मजदूरी भी जारी रखी
और सुरंग खोदने के काम पर लग गये. वे किसी भी तरह पानी को अपने खेतों तक
लाना चाहते थे क्योंकि उनका सपना था कि उनके पास जमीन का ऐसा हरा-भरा
टुकड़ा हो जिस पर वे अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें. और इस काम में
अकेले ही जुट गये. काम चल पड़ा लेकिन अभी भी उन्हें नहीं पता था कि पानी
मिलेगा या नहीं?
गांववाले कहते थे महालिंगा व्यर्थ की मेहनत कर रहा है. लेकिन महालिंगा को
उस समय न गांव के लोगों की आलोचना सुनाई देती थी और न ही वे असफल होने के
डर से चुप बैठनेवाले थे. चार बार असफल रहे. सुरंग बनायी लेकिन पानी नहीं
मिला. सालों की मेहनत बेकार चली गयी लेकिन महालिंगा ने हार नहीं मानी. एक
के बाद असफलताओं ने उन्हें निराश नहीं किया. वे लोगों से कहते रहे कि एक
दिन ऐसा आयेगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊंगा कि यहां हरियाली
का वास होगा. और नियति ने उनका साथ दिया.
पांचवी बार वे पानी लाने में सफल हो गये. पानी तो आ गया. अब अगली जरूरत
थी जमीन को समतल करने की. उनकी पत्नी नीता उनका बहुत साथ नहीं दे सकती थी
इसलिए यह काम भी उन्होंने अपने दम अकेले ही किया. उनकी इस मेहनत और जीवट
का परिणाम है कि आज वे 300 पेड़ सुपारी और 40 पेड़ नारियल के मालिक है.
उस जमीन को उन्होंने हरा-भरा किया जो उन्हें सत्तर के दशक में मिली थी.
समय लगा, श्रम लगा लेकिन परिणाम न केवल उनके लिए सुखद है बल्कि पूरे समाज
के लिए भी प्रेरणा है.
पांचवी सुरंग की सफलता के बाद उन्होंने एक और सुरंग बनाई जिससे मिलनेवाले
पानी का उपयोग घर-बार के काम के लिए होता है. सुरंग के पानी को संभालकर
रखने के लिए उन्होंने तीन हौदियां बना रखी हैं जहां यह पानी इकट्ठा होता
है. सिंचाईं में पानी का व्यवस्थित उपयोग करने के लिए वे स्प्रिंकलर्स और
पाईपों की मदद लेते हैं.
रोज एक पाथर
नाईक ने माटी के रखरखाव के पत्थरों का जो काम अकेले किया है उसे करने के
लिए आज के समय में कम से कम 200 आदमी चाहिए. एक बार खेत को समतल करने के
बाद उस माटी को रोकना बहुत जरूरी था. इस काम के लिए पत्थर चाहिए था.
आसपास आधे किलोमीटर में कहीं पत्थर नहीं था. घाटी से काम करके लौटते समय
वे प्रतिदिन अपने सिर पर एक पत्थर लेकर लौटते थे. रोज एक-एक पत्थरों को
जोड़-जोड़ उन्होंने अपने सारे खेतों की ऐसी मेड़बंदी कर दी माटी के बहाव
का खतरा खत्म हो गया. आज अगर मजदूरों से यह काम करवाना हो तो खर्च कम से
कम 25 हजार रूपये आयेगा.
अपने खेतों के लिए इतना सब करनेवाले महालिंगा नाईक आज स्थानीय लोगों के
लिए हीरो और प्रेरणास्रोत हैं. लोग उन्हें सफल इंसान मानते हैं. लेकिन
खुद महालिंगा नाईक अपने से कुछ भी कहने में सकुचाते हैं. कम बोलते हैं और
अपने काम में लगे रहते हैं. दूसरों के लिए उदाहरण बन चुके महालिंगा नाईक
कर्ज लेने में विश्वास नहीं करते. वे मानते हैं कि जितना है उतने में ही
संयमित रूप से गुजारा करना चाहिए. आज तक खुद उन्होंने किसी से कोई कर्ज
नहीं लिया सिवाय एक बार जब वे अपना घर बना रहे थे तब बैंक से 1,000 रूपये
कर्ज लिया था. दक्षिण में कर्ज लेकर अमीर बनने का सपना पालते किसानों के
लिए महलिंगा चुपचाप बहुत कुछ कह रहे हैं. अगर लोग सुनना चाहें तो.