प्रस्तुत श्वेतपत्र को निम्न लिंक पर विभिन्न भाषाओँ में अविकल रूप में देखा जा सकता है :-
https://centerforinnersciences.org/white-paper.html
उपासना पर श्वेतपत्र : सायंस के नये युग की ओर
(डॉ. हरिश्चन्द्र, सेण्टर फॉर इनर सायंसेज, www.centerforinnersciences.org, centerforin...@gmail.com)
[प्रकाशन तिथि - २८ मार्च २०२४]
भूमिका - प्राचीन काल से मनुष्य ने मन की हलचल को थाम कर उपासना को शुद्ध रूप में बनाये रखा था। उपासना की समुचित व्याख्या सांख्य और योग में उपलब्ध है। सांख्य में सूक्ष्म मन के अन्तर्गत बुद्धि, अहंकार और मनस् हैं। बुद्धि मननपूर्वक निश्चय कराती है किन्तु जब वह विचार-चिन्तन से रहित हो कर इस सामर्थ्य का उपयोग नहीं करती है तब वह चित्त कहलाती है। अहंकार द्वारा पिछले ज्ञान (स्मृति) आदि के संस्कार धारण किये जाते हैं। उपासना की विधि चित्तवृत्तिनिरोध के उद्देश्य से ध्यान करने में है - योग १.२। ध्यान का आसान उपाय (चित्तवृत्तिनिरोध) सांख्य ३.३३ (जिसके तत्सम योग १.३४) में है। इनकी सही व्याख्या उपलब्ध न होने से मानवता अनेक शताब्दियों से उपासनाविहीन है। अब प्रत्येक मनुष्य शुद्ध उपासना से लाभान्वित हो सकता है। प्रस्तुत श्वेतपत्र के लेखक ने सांख्य का नवीन व्याख्याग्रन्थ लिखा है जिसमें उपासना के अनेक लुप्त रहस्यों का उद्घाटन किया है। लेखक का अनुमान है कि वह सांख्य की अंग्रेजी में व्याख्या सन् २०२५ के अन्त तक कर देगा। श्वेतपत्र का मुख्य प्रयोजन इस विधि का जन-जन में प्रचार-प्रसार करना है। उपासना की आसान, शुद्ध और समग्र विधि श्वेतपत्र के अन्त में विस्तार से दी है - ध्यान-उपासना का आह्वान। इसकी सहायता से प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन १० मिनट में मन को स्नान करा सकता है कि मन में एकत्र दैनिक कचरा निकल सके। इस ध्यानविधि के बल पर मिशन उपासना की परिकल्पना प्रस्तुत की है। इस विधि को अपना कर सन् २०३५ तक लगभग १० लाख उपासक तैयार हो सकते हैं। इन उपासकों द्वारा प्रकाशित मार्ग पर चल कर सन् २०५० तक एक नयी पीढ़ी तैयार हो सकेगी जब विश्व-भ्रातृत्व-बन्धुत्व से विश्व-शान्ति उत्पन्न हो सकेगी।
उपासना से तात्पर्य है, मन की सारी हलचल रोक कर, उससे वियुक्त हो कर ऊर्जा के असीमित स्रोत से युक्त होना जहाँ से सृष्टि बनी है। इस ऊर्जा से युक्त होने पर मनुष्य का सर्वांगीण अभ्युदय होता है जो उसमें शुद्ध स्नेह-प्रेम का संचार करता है। प्रेम के दो प्रमुख तत्त्व हैं - त्याग और सहनशक्ति। त्याग में देने के लिए ऊर्जा चाहिये और सहनशक्ति के लिए अन्य व्यक्ति की सही-गलत अभिव्यक्ति को ग्रहण करने के लिए ऊर्जा चाहिये जैसी माता में अपनी सन्तान के प्रति दिखायी देती है। स्नेह-प्रेम की न्यूनता आज सर्वत्र बहुतायत में दीख रही है कि परिवार के टूटने-बिखरने से बच्चे स्वयं को परित्यक्त समझते हैं और गहरी हीनभावना से ग्रस्त हो कर आत्मविश्वास खो बैठते हैं। ऐसे बच्चे बड़े हो कर विवाह के बाद परिवार का दायित्त्व उठाने में असमर्थ हो कर परिवार टूटने का कारक बन सकते हैं कि शाखा से प्रशाखाओं में समस्या विकसित हो जाती है। परिवार की अपेक्षा वृहत् समूह में देखें तो स्नेह-प्रेम की न्यूनता से ग्रस्त व्यक्ति शासनाध्यक्ष हो तो युद्ध आदि की सम्भावना बढ़ जाती है जिसमें लाखों के जीवन-परिवार नष्ट हो सकते हैं। विश्व की अधिकांश समस्याओं का मूल कारण स्नेह-प्रेम की न्यूनता है।
उपासना का महत्त्व प्राचीन काल से माना गया है क्यों कि गाढ़ी नींद (सुषुप्ति) में दुःख नहीं होता है जब मन में कोई हलचल नहीं होती है। अतः उपासना का आविष्कार किया गया कि मनुष्य एक आसन में बैठ कर मन की सारी हलचल रोक कर सुषुप्ति-जैसी अवस्था को प्राप्त करे। इस अभ्यास से उसके दुःख क्रमशः कम होते जाते हैं। इस अवस्था के प्रति मनुष्यों में सदा से आकर्षण रहा है कि अनेक लोग इसे औषधि (मदिरा, ड्रग्स आदि) से प्राप्त करते हैं किन्तु इससे तन-मन के स्वास्थ्य की क्षति होती है और फिर यह भय भी रहता है कि मनुष्य उन औषधियों का गुलाम बन जाये जब कि उपासना मार्ग से वह मन का तथा सांसारिक पदार्थों का स्वामी बन सकता है। दुःखों में कमी के अतिरिक्त ऊर्जा की प्राप्ति - उपासना से लाभद्वय हैं।
उपासना का व्यापक क्षेत्र है जैसे कर्म और ज्ञान का है। मनुष्य तन-मन-स्व/सेल्फ का संघात है। कर्म मुख्यतः तन से किये जाते हैं; मन की भी भूमिका है। ज्ञान का सम्बन्ध मुख्यतः मन से है; तन की भूमिका अल्प है। उपासना का सम्बन्ध मुख्यतः स्व/सेल्फ-मन की गाँठ से है जिसकी पराकाष्ठा की प्राप्ति सुषुप्ति-जैसी अवस्था से है जब तन-मन की हलचल पूर्णतः थम जाती है। जैसे कर्म और ज्ञान मनुष्य की गतिविधियों के लिए विशाल क्षेत्र प्रदान करते हैं वैसे ही उपासना भी करता है। इसमें भी सिद्धान्त और विधि के दो भाग हैं - थ्योरी और प्रैक्टिस। किन्तु, दुर्भाग्य कि मानवता का उपासना से सम्पर्क अनेक शताब्दियों पूर्व टूट गया था। मध्ययुग में योग का अवमूल्यन हुआ कि योग के अनेक मार्ग बताये जाने लगे जैसे ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, इत्यादि। योग को राजयोग अथवा ध्यानयोग कहने लगे। जब कि तथ्य है कि योग एक ही है जिसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति इत्यादि का समावेश है। सम्भव है कि जनसामान्य में योग और हठयोग (शरीर और प्राण के व्यायाम) के अन्तर के प्रति जागरुकता विकसित होने पर संयुक्त राष्ट्र २१ जून के दिवस को अन्तरराष्ट्रीय हठयोग दिवस कहने लगे, न कि योग दिवस।
उपासना का व्याख्यान सांख्य-योग में है। सांख्य का क्षेत्र अधिक व्यापक है कि उसमें स्व/सेल्फ-मन की गाँठ के स्वरूप और मन पर नियन्त्रण करने के उपाय पर गंभीरता से विचार किया गया है। अनेक शताब्दियों बाद, सांख्य की नींव पर योग की रचना की गयी जिसमें मुख्य्तः मन पर नियन्त्रण के उपाय को विस्तार दिया गया। योग में उपासना का लक्ष्य चित्तवृत्तिनिरोध है। सांख्य के तीन मुख्य बिन्दुओं का आशय न समझ सकने से मनुष्य उपासना से भटक गया :- (१) चित्त, (२) चित्तवृत्तियों का स्रोत, और (३) उपासना/चित्तवृत्तिनिरोध की विधि का आसान ढंग। इनके सही आशय अगली पंक्तियों में दिये हैं।
१) बुद्धि डिफॉल्ट स्थिति में विचार-चिन्तन द्वारा ज्ञान का निश्चय कराती है जैसे सम्मुख उपस्थित फूल गुलाब का है; गेंदे का नहीं है। ऐसे निश्चय कराने को बुद्धि का अध्यवसाय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, सामान्यतः बुद्धि अध्यवसायरत रहती है कि वह विचार-चिन्तन में संलग्न रहती है। यही बुद्धि जब अध्यवसायरहित हो जाये तब वह चित्त कहलाती है। अर्थात्, बुद्धि जब विचारशून्य है तब वह चित्त कहलाती है।
दूसरे शब्दों में, बुद्धि और चित्त एक ही करण/साधन हैं। उनमें सूक्ष्म अन्तर इस प्रकार से है कि बुद्धि पूरे सामर्थ्य से काम करती है और चित्त अत्यल्प सामर्थ्य से काम करता है। वस्तुतः बुद्धि में चित्त का अंतर्भाव है कि चित्त अहंकार में रखी स्मृति से कुछ-न-कुछ लाता रहता है। जब बुद्धि विचार-चिन्तन बन्द कर देती है तो वह चित्त बन कर चित्त पर कुछ उपस्थित करती रहती है जिसे चित्तवृत्ति कहा है; ध्यान का अभ्यास करते समय साधक इनसे जूझता है और इन्हें चित्त से हटाना चाहता है। इस कारण, योग को चित्तवृत्तिनिरोध कहा गया है न कि बुद्धिवृत्तिनिरोध।
२) ध्यान का अभ्यास आरम्भ करने से पूर्व बुद्धि को विचारशून्य करके चित्त के स्तर पर लाते हैं। उसके बाद पाते हैं कि चित्त पर वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं जो अहंकार से आती हैं और जिनसे छुटकारा पाना कठिन होता है। अहंकार स्मृति, अनुभव और कर्म के संस्कारों को धारण करता है।
३) ध्यान के अभ्यास के समय चित्तवृत्तियों से छुटकारा पाने का आसान उपाय सांख्य ३.३३ (जिसके तत्सम योग १.३४) में है। मनुष्य जाति का अत्यन्त दुर्भाग्य कि इस आसान उपाय की सही व्याख्या अनेक शताब्दियों से लुप्त हो गयी थी जिससे शुद्ध ध्यान के प्रवेश द्वार पर ताला लग गया; इसका सही अर्थ अब उपलब्ध है जो प्रस्तुत श्वेतपत्र के अन्त में दिया है - ध्यान-उपासना का आह्वान : शुद्ध उपासना के लिए शुद्ध और आसान ध्यानविधि।
सांख्य से सायंस शब्द की उत्पत्ति हुई है - ऐसी मान्यता कुछ भाषाविद् ने व्यक्त की है कि जैसे-जैसे ‘सांख्य’ शब्द ने पूर्व से पश्चिम की ओर मौखिक यात्रा की वैसे-वैसे उसमें विकार आता गया कि पश्चिमी जगत् में वह ‘सायंस’ बन गया। तथ्य कुछ भी हो, आज के सायंटिस्टों को सांख्य में अनेक नये रहस्य मिलेंगे। आज सायंस में प्रचलित मान्यता है कि मस्तिष्क/ब्रेन के एक विशेष ढंग से कार्यरत रहने से चेतना-मन अस्तित्व में आते हैं और जब मस्तिष्क इस ढंग से कार्य करने में असमर्थ हो जाता है तो मृत्यु होती है। सांख्य-योग के अनुसार मनुष्य का स्व/सेल्फ-मन का युग्म पिता के एक शुक्राणु द्वारा माता के गर्भ में पहुँचता है जहाँ उस पर देह/शरीर की परतें चढ़ती हैं। जब शिशु गर्भ से बाहर आता है तो उसके प्रथम क्रन्दन के साथ उसके प्राण सक्रिय हो जाते हैं जिसके अन्तर्गत उसका मस्तिष्क भी है। मस्तिष्क शरीर का प्रमुख जीवनप्रद अंग है जिसके निष्क्रिय हो जाने पर स्व/सेल्फ-मन का युग्म शरीर से प्रस्थान कर देता है जिसे मृत्यु कहते हैं। दोनों मान्यताओं में समानता है कि मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने पर मृत्यु होती है किन्तु अन्तर भी है कि :-
१) सांख्य-योग की मान्यता के अनुसार चेतना स्व/सेल्फ की स्वतन्त्र सामर्थ्य है। मन में प्रकृति के सूक्ष्मतम कण हैं। जब कि सायंस के अनुसार पञ्चतत्त्व के मस्तिष्क/ब्रेन की गतिविधि ही मन/माइंड है। और, चेतना भी मस्तिष्क/ब्रेन से उपजती है।
२) मन का अति सूक्ष्म आकार है कि शुक्राणु उसका वहन करता है जिसका आयतन लगभग १५ क्यूबिक मायक्रोन बताया जाता है - तत्सम एक काल्पनिक डिब्बे का माप ०.००५१ x ०.००३१ x ०.००१ मि. मि. होगा। मन का माप इससे अत्यधिक छोटा होता है - शुक्राणु-विशेष और सामान्य शुक्राणु के आयतन में जो अन्तर है, उसके बराबर। उसका माप मायक्रो मीटर में नहीं, अपितु उससे छोटे नैनो, पिको, फेम्टो आदि पैमाने से मापने योग्य प्रतीत होता है। मन के तीन अवयव हैं :- बुद्धि/चित्त, अहंकार, और मनस्। मनस् से लगे ५ प्रवेशद्वार (इनलेट पोर्ट) हैं और ५ निकासद्वार (आउटलेट पोर्ट) हैं। मन से परे मस्तिष्क है जो शरीर का अंग है और मन से भिन्न है। मस्तिष्क के दस केन्द्र मनस् के दस प्रवेश-निकास द्वारों से जुड़ते हैं। है न आश्चर्य की बात कि हजारों वर्ष पूर्व सांख्य के रचनाकार कपिल ने ऐसा विचार प्रस्तुत किया कि इतने छोटे मन की अहंकार नामक इकाई में हमारे पूरे ज्ञान व कौशल के संस्कार सुरक्षित रहते है।
३) स्व/सेल्फ-मन का युग्म मस्तिष्क की भीतरी गुफा में निवास करता है जहाँ मस्तिष्क ५ ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सिग्नल मनस् के ५ प्रवेशद्वार के माध्यम से बुद्धि तक पहुँचाता है जिसका स्व द्वारा संज्ञान लिया जाता है। साथ ही साथ, मनस् के ५ निकासद्वार मस्तिष्क के ५ केन्द्रों को उत्तेजित कर शरीर के हाथ-पैर-वाणी आदि अंग-प्रत्यङ्ग को कर्म की ओर उन्मुख करते हैं।
४) मस्तिष्क, हृदय, श्वसन, पाचन और उत्सर्जन प्रणाली में क्रमशः ५ जीवनप्रद प्राणशक्तियां हैं जिनके सक्रिय रहते स्व/सेल्फ-मन के युग्म को शरीर निवासयोग्य लगता है जिनमें मस्तिष्क की प्रमुखता है। ये ५ शक्तियाँ अस्वैच्छिक हैं जो गर्भ में माता की शक्ति से सञ्चालित होती है और जन्म के तुरन्त बाद शिशु के प्रथम क्रन्दन के साथ उसकी स्वतन्त्र शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। सायंस की मुख्यधारा भी इन्हें अस्वैच्छिक मानती है और मस्तिष्क को प्रमुखता देती है।
अतः यह निश्चिततः कहा जा सकता है कि आधुनिक सायंटिस्टों को सांख्य के अध्ययन की महती इच्छा होगी कि अनेक शताब्दियों पूर्व सांख्य के रचनाकार प्रथम सायंटिस्ट कपिल के सायंस के विभिन्न पहलुओं पर क्या विचार थे। उन्हें विशेष कौतूहल होगा कि उसने इतने सूक्ष्म मन के तीन अवयव और मन के मस्तिष्क से समन्वय पर विस्तृत विचार कैसे बनाये होंगे। इस प्रक्रिया में उनका उपासनापथिक बनना आवश्यक होगा कि वे सांख्य को भली प्रकार समझ सकें। एक मोटे अनुमान से, मिशन उपासना की सफलता में यह निहित है कि जब पृथ्वी पर दस लाख उपासक होंगे तब उनमें लगभग दस हजार सायंटिस्ट भी होंगे। उन्होंने उपासक का साक्षात् अनुभव प्राप्त किया हुआ है कि मन से पूर्णतः वियुक्त होने पर वहाँ सुषुप्ति के समान शून्य नहीं है बल्कि स्व/सेल्फ का चेतनासहित अस्तित्व है। इस व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर, बहुत सम्भव है कि ये दस हजार उपासक सायंटिस्ट गम्भीरता से विचार करें कि क्या मनुष्य की चेतना का स्रोत उसका स्व/सेल्फ है न कि चेतना मस्तिष्क से उपजने वाली शक्ति है। वह क्षण सायंस की दुनिया का एक अति विलक्षण क्षण होगा जो सम्भवतः सायंस की दिशा बदल देगा। सांख्य के महत्त्व को देखते हुए यह प्रबल सम्भावना है कि भविष्य के सायंटिस्ट जो डॉक्टरेट उपाधि के लिए अग्रसर होते हैं उनके लिए सांख्य का अध्ययन अनिवार्य हो।
उपासनापथिक को शुद्ध उपासना से अनेक लाभ हैं :-
१) जैसे हम दैनिक स्नान से तन की शुद्धि करते हैं वैसे ही मन की दैनिक शुद्धि का यह एकमात्र ढंग है - शुद्ध उपासना की शुद्ध ध्यानविधि। ऐसा न करने से दिन प्रतिदिन मन में अनावश्यक कचरा इकट्ठा होता रहता है जो कालान्तर में विविध समस्याओं को जन्म देता है। कल्पना करना आसान है कि दैनिक स्नान से तन की अशुद्धि दूर न करने के कितने भयानक परिणाम होंगे। विश्व की अधिकांश समस्याओं का कारण यही है कि मनुष्य मन की अशुद्धि दूर करने का यह आसान तरीका खो बैठा है। मन की दैनिक शुद्धि - यह प्रथम स्तर का लाभ है।
२) जैसे-जैसे शुद्ध उपासना को पाने के लिए ध्यान के अभ्यास में प्रगति होती है, मन के प्रति हमारे स्वामित्व के भाव में बढ़त होती जाती है जिसका परिणाम यह होता है कि हम मन के रास्ते नहीं चलते हैं अपितु मन हमारे बताये रास्ते चलता है। मन का स्वामी बनने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है - यह द्वितीय स्तर का लाभ है।
३) ध्यान के अभ्यास में और प्रगति होने पर स्व/सेल्फ और मन के मध्य एक ‘दूरी’ बनने लगती है अन्यथा हम मन को ही स्व/सेल्फ समझते हुए जीवन जीते रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मन के क्रियाकलापों को हम कुछ दूरी से देख रहे होते हैं। अतः हम बेहतर स्थिति में होते हैं कि हम उन क्रियाकलापों से प्रभावित होवें या नहीं; और कितनी मात्रा में। इस सामर्थ्य से हम दैनिक जीवन के कई दुःखों से स्वयं को बचा लेते हैं - यह तृतीय स्तर का लाभ है।
४) नींद तन की थकान मिटाती है जिसमें मस्तिष्क/ब्रेन प्रमुख है। उस विश्राम की पराकाष्ठा सुषुप्ति में है - स्वप्नरहित गाढ़ निद्रा। किन्तु, सुषुप्ति में प्रवेश के समय अहंकार में जो संस्कार थे, सुषुप्ति से जागने के बाद भी वे वैसे ही बने रहते हैं। अर्थात्, सुषुप्ति से मनुष्य का व्यक्तित्व नहीं बदलता है; बस, थकान मिटती है। इसके विपरीत, उपासना के अभ्यास से अवाञ्छित संस्कार नष्ट होते जाते हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं। इसके गम्भीर परिणाम हैं कि अन्ततः मुखमण्डल पर डिफॉल्ट अवस्था में एक स्वाभाविक मुस्कान उपस्थित रहती है जैसे एक नन्हे शिशु के मुख पर होती है - यह चतुर्थ स्तर का लाभ है। इस स्तर तक पहुँचने पर जीवन के दुःखों का प्रकोप अत्यल्प हो जाता है।
५) और प्रगति होने पर, मन नये विचार/आयडिया का आश्रय बनने लगता है और आपको नवीन विचार मिलने लगते हैं जो आपने पढ़े-सुने नहीं थे - यह पञ्चम स्तर का लाभ है। इस स्तर पर पहुँचने के बाद आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ जाता है और आप निश्चिन्त हो जाते हैं कि आप अपने जीवन के उद्देश्य/करियर में अवश्य सफल होंगे।
६) उपासनापथ पर और उन्नति करने के बाद आपको लगता है कि उपासनाकाल में आप जिस ऊर्जास्रोत से जुड़ते थे, उससे आप दैनिक जीवन में लगभग हर क्षण जुड़े रहते हैं - यह षष्ठ स्तर का लाभ है; अब आप उपासक कहलाने के अधिकारी हैं। अब संसार की कोई वस्तु आपका सुख बढ़ा नहीं सकती है; आपको आपकी इस अवस्था से संसार की कोई शक्ति हटा नहीं सकती है।
शुद्ध उपासना से प्राप्त अनेक लाभ निम्न लिंक पर देखे जा सकते हैं :-
https://tinyurl.com/BenefitsUpasanaHindi
इन पंक्तियों के लेखक ने विगत दिनों सांख्य की हिन्दी-व्याख्या तैयार की है जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। प्रकाशक से तद्विषयक पूछताछ करने के लिए आप इस पते पर ईमेल भेज सकते हैं; शीर्षक पर सांख्य हिन्दी भाष्य लिखें :- centerforin...@gmail.com
ध्यान-उपासना का आह्वान : शुद्ध उपासना के लिए शुद्ध और आसान ध्यानविधि
१) आसन - यदि आप सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, भद्रासन या ऐसे किसी अन्य आसन से परिचित हैं तो अपने अनुकूल एक आसन को अपना सकते हैं जो ध्यान के अभ्यास की अवधि तक शरीर को स्थिर और सुखपूर्वक रखता हो - यह अवधि आरम्भ में १० मिनट की हो सकती है; १५ वर्ष से कम वयस्/वय/उम्र के लिए ५ मिनट। यदि घुटनों को मोड़ने में कष्ट होता हो तो भोजन-मेज की सामान्य हत्थारहित कुर्सी पर बैठ सकते हैं। आप एक गद्दी/कुशन का उपयोग कर सकते हैं किन्तु सोफा या गद्दे पर न बैठें। ध्यान रहे कि मेरुदण्ड/रीढ़/स्पाइन और गर्दन एक सीधी रेखा में हो; शरीर अकड़ा न हो, सहज ढीला रहे।
२) प्रयोग क्रमांक एक : बुद्धि और चित्त का अन्तर जानें -
क) बुद्धि को जानें - अपनी स्मृति से अपनी पसन्द के एक फूल को बुद्धिपटल (जिसे बोलचाल में दिमाग कहते हैं!) पर लाइये और उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार कीजिये - जैसे, उसका रङ्ग, रूप, माप, गन्ध, इत्यादि। आपने उसे सर्वप्रथम कहाँ और कब देखा था? इस विचार-प्रक्रिया में आपकी बुद्धि निश्चयात्मक वृत्तियों को जन्म दे रही थी कि अमुक फूल का रङ्ग-रूप ऐसा है और वैसा नहीं है, इत्यादि। इसे बुद्धि का अध्यवसाय कहते हैं। बुद्धि का अध्यवसाय विचार-मनन कर के किसी निश्चय पर पहुँचना है; उस निश्चय को बुद्धि की निश्चयात्मक वृत्ति कहते हैं।
ख) चित्त को जानें - अपनी स्मृति से पुनः उसी फूल को बुद्धिपटल पर लाइये। किन्तु, अब किसी प्रकार की विचार-प्रक्रिया से दूर रहें; मात्र दर्शक बन कर उस फूल को निहारते रहना है। यदि आपने उस फूल को १५-२० सेकण्ड तक - १५ वर्ष से कम वयस् के लिए ५-१० सेकण्ड तक - किसी प्रकार की विचार-प्रक्रिया के बिना उसे निहारते रहने में सफलता प्राप्त की है और उस फूल के स्थान पर किसी अन्य चित्र को उपस्थित नहीं होने दिया तो आपने अपनी बुद्धि को चित्त के रूप में जान लिया है। बुद्धि ही चित्त कहलाती है जब वह अध्यवसायरहित हो जाती है; विचार-मनन की प्रक्रिया को बन्द कर देती है कि उसके पास इस सामर्थ्य के रहते हुए भी वह उस सामर्थ्य का उपयोग नहीं करती है। इस प्रकार, बुद्धि विचारशून्य बन कर चित्त कहलाती है।
प्रयोग क्रमांक एक का निष्कर्ष - बुद्धि ही चित्त बन जाती है जब वह अध्यवसायरहित होती है और मात्र चित्तवृत्ति दर्शाती है ।
३) शुद्ध ध्यान/मैडिटेशन/माइंडफुलनेस की प्राप्ति -
अष्टाङ्ग योग के अन्तर्गत :- (१) बहिरङ्ग/बाहरी योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार, जब बुद्धि अध्य्वसायरत हो कर विचार-प्रक्रिया को जन्म देती है, (२) अन्तरङ्ग/भीतरी योग में धारणा, ध्यान और समाधि जब बुद्धि अध्यवसायरहित हो कर चित्त बन जाती है।
क) अन्तरङ्ग योग में प्रवेश के लिए बुद्धि का चित्त के स्तर पर आना - कोई विचार-प्रक्रिया न हो; न ही किसी ज्ञानेन्द्रिय से जुड़ना है कि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द का बोध होता हो और न ही किसी कर्मेन्द्रिय से गतिविधि हो जैसे वाणी से बोलना या होठों का हिलना।
ख) चित्त पर एक ही चित्तवृत्ति विद्यमान रहे न कि उनकी शोभायात्रा/जुलूस उपस्थित हो जाये जैसा स्वप्न में होता है कि चित्त पर एक वृत्ति के बाद दूसरी आती रहती है।
ग) अन्ततः, चित्त रिक्त/खाली हो जाये जैसा सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा) में होता है - चित्तवृत्तिनिरोध/योग।
४) प्रयोग क्रमांक दो - चित्त को रिक्त करना, चित्तवृत्तिनिरोध का उपाय
शरीर को चुने हुए आसन में बिठा लें; ऑंखें बन्द कर लें। कृपया समझ लें कि इस प्रयोग में एक बार ही श्वास को बाहर फेंकना है। उदरस्थ वायु को पेड़ू से ऊपर खींचते हुए नासिकाछिद्रों से बाहर निकालें - यह प्रक्रिया धीरे-धीरे आसान ढंग से करें जिसमें ४-६ सेकण्ड का समय लगे, उससे अधिक नहीं; सामान्यतः श्वास-प्रक्रिया में छाती का वायु मुँह से या नासिका से बाहर फेंका जाता है किन्तु अब हमें पेट के निचले हिस्से पर फोकस करते हुए वायु को नासिका से बाहर फेंकना है और ऐसा करते समय कोई जबर्दस्ती न हो (साङ्ख्य ३.३३ और उसके तत्सम योग १.३४)। इससे बुद्धि तुरन्त चित्त के स्तर पर तो आ ही जाती है, साथ-ही-साथ चित्त रिक्त अवस्था में भी हो जाता है जैसा कि सुषुप्ति में होता है। चित्त की इस अवस्था को हम चित्तवृत्तिनिरोध के १०० अंक के स्तर पर रखते हैं।
इस प्रकार, आप किसी भी क्षण इस उपाय से चित्त को रिक्त कर के आसानी से चित्तवृत्तिनिरोध के १०० अंक के स्तर पर पहुँच सकते हैं।
५) ध्यान के लिए तैयार -
सावधान! सर्वप्रथम आपको सावधान करना आवश्यक है। बुद्धि और चित्त के अन्तर का सही ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, भले ही उसके लिए कुछेक दिनों का और अभ्यास करना पड़े। बिना इनके अन्तर को जाने, यदि आपने इस अभ्यास को आगे बढ़ाया तो आपके साथ भी वही हो सकता है जो करोड़ों मनुष्यों के साथ हुआ है कि वे समझते रहे कि उन्होंने ध्यान का अभ्यास करना सीख लिया है किन्तु वे बहिरङ्ग योग में ही विचरते रहे। एक उदाहरण से बुद्धि-चित्त के अन्तर का महत्त्व समझाया जाता है। निम्न दो वाक्यों में ‘ध्यान’ पद का प्रयोग है :-
(१) बालक ध्यान से पुस्तक पढ़ रहा है।
(२) बालिका ध्यान का अभ्यास कर रही है।
इन दोनों वाक्यों में ‘ध्यान’ पद के अर्थ में जमीन-आसमान का अन्तर है। वाक्य क्र. १ में बालक बुद्धिपूर्वक पुस्तक में लिखी बातों का अर्थ समझते हुए पढ़ रहा है कि बुद्धि अध्यवसायरत है। यहाँ ध्यान से तात्पर्य बुद्धिवृत्ति के प्रति एकाग्रता से है। वाक्य क्र. २ में बालिका मन की समस्त हलचल रोकने के उद्देश्य से अन्तरङ्ग योग में धारणा द्वारा प्रवेश कर के ध्यान की अवस्था (चित्त की एकाग्र अवस्था) को पाना चाहती है। तदर्थ उसे प्रथमतः बुद्धि को अध्यवसायरहित बना कर चित्त के स्तर पर लाना होगा। यहाँ ध्यान से तात्पर्य एक चित्तवृत्ति के सदृश प्रवाह से है जो अनवरत बनी रहे।
हिन्दी भाषा में ‘ध्यान’ पद सामान्यतः प्रयोग होता है अतः आपको सावधान किया जाता है कि उपासनायोग का ‘ध्यान’ पद एक पारिभाषिक/टेक्निकल शब्द है। इसके आशय को समझना आवश्यक है और इससे समझौता न करें। अब आप ध्यान का अभ्यास करने के लिए पूर्णतः तैयार हैं। खाली पेट यह अभ्यास किया जाना उत्तम है जैसे शौच के बाद और भोजन से पूर्व। पहले ध्यान से सम्बन्धित विभिन्न अंक समझ लेते हैं -
क) बहिरङ्ग/बाहरी योग - अंक ० (शून्य) के स्तर पर - बुद्धि जब अध्यवसायरत है, विचार-चिन्तन करती है
ख) अन्तरङ्ग/भीतरी योग - अंक १ से ९९ तक - बुद्धि की विचारशून्य अवस्था किन्तु चित्त पर कोई चित्तवृत्ति बनी रहती है
ग) अन्तरङ्ग/भीतरी योग का उत्कर्ष बिन्दु - अंक १०० के स्तर पर - प्रयोग क्रमांक दो के चित्तवृत्तिनिरोध के उपाय से प्राप्त चित्त की रिक्त अवस्था।
ध्यान के अभ्यास का उद्देश्य है कि चित्त रिक्त हो कर अंक १०० की अवस्था को अभ्यास की पूरी अवधि तक के लिए प्राप्त कर ले।
६) ध्यान का अभ्यास आरम्भ -
i) शरीर को चुने हुए आसन में बिठा लें; ऑंखें बन्द कर लें। अपने फोन के टाइमर को १० मिनट पर सेट कर लें - १५ वर्ष से कम वयस् के लिए ५ मिनट। इस प्रकार, ध्यान के अभ्यास के क्षणों में आप समय के प्रवाह की चिन्ता से मुक्त हो जायेंगे।
ii) प्रयोग क्रमांक दो के अनुसार चित्तवृत्तिनिरोध के उपाय से चित्त को अंक १०० के स्तर पर लायें।
iii) यत्न करें कि आपका चित्त उसी स्तर पर - अंक १०० पर - अधिकतम अवधि तक दृढ़ रहे।
iv) कुछ समय पश्चात् आपके चित्त पर कुछ उभर कर उपस्थित होगा - यह ‘अनचाही चित्तवृत्ति’ है जो चित्त को १०० अंक से नीचे लाती है। मात्र दर्शक बन कर उस ‘अनचाही चित्तवृत्ति’ को बिना किसी रुचि/उत्सुकता से देखिये। क्या आप चित्त पर इस ‘अनचाही चित्तवृत्ति’ के बने रहने को अपने ध्यान के अभ्यास के आरम्भिक दिनों में एक खूँटे के रूप में स्वीकार करते हैं? इसका अर्थ होगा कि आप अपने ध्यान के अभ्यास में चित्त की इस स्तर की गतिविधि से नीचे कदापि नहीं जाना चाहेंगे। दूसरे शब्दों में, क्या आप अभ्यास के आरम्भिक दिनों में चित्त के इस स्तर को ‘आसान स्तर’ के रूप में कायम रखने के पक्ष में हैं जिसे आप आसानी से प्राप्त कर सकते हैं जो अंक १ से ९९ के मध्य कहीं है; मानिये कि प्रथम दिन के अभ्यास पर यह अंक १० का आपका व्यक्तिगत ‘आसान स्तर’ है। ।
v) इस ‘अनचाही चित्तवृत्ति’ के प्रति उत्सुकता को उत्पन्न न होने दें कि यह क्या है; इसे कब कहाँ देखा था, इत्यादि। ऐसा करने से आप विचार-प्रक्रिया में चले जायेंगे जो बुद्धि का अध्यवसाय - विचार-चिन्तन - है और आप अंक शून्य पर गिर पड़ेंगे जो आपको बहिरङ्ग/बाहरी योग में धकेल देगा। स्मरण रहे कि ध्यान के अभ्यास का आरम्भ बिन्दु अंक १ है और विचारशून्य हो कर ही आप अन्तरङ्ग/भीतरी योग में प्रवेश कर सकते हैं। अब आप पुनः प्रयोग क्र. २ के चित्तवृत्तिनिरोध के उपाय द्वारा अंक १०० के चित्त-स्तर को प्राप्त करें। अर्थात्, आप सोपान/पायदान/स्टेप ६(ii) पर लौट जायें और ६ (ii, iii और iv) के चक्र का अनुसरण करें।
चित्त के स्तरों में उतार-चढ़ाव साँप-सीढ़ी के खेल जैसा लगेगा जिसमें १ से १०० तक के खाने बने होते हैं जो अन्तरङ्ग योग में चित्त के विभिन्न स्तर के द्योतक हैं। शून्य का कोई खाना नहीं बना होता है जिसका अर्थ है कि आपकी गोटी बाहर हो गयी है। अर्थात् चित्त बुद्धि बन गया है और आप बहिरङ्ग योग में हैं। हम जैसे-जैसे ऊपर की ओर जाते हैं - खाने १ से ९९ तक, तो चित्त की गतिविधि कम होती जाती है। १०० के खाने का अर्थ है कि चित्त रिक्त हो गया है - चित्तवृत्तिनिरोध पूर्णतः प्राप्त हो गया है। साँप-सीढ़ी के खेल और ध्यान के अभ्यास में अन्तर है कि खेल १ के खाने से आरम्भ होता है जब कि अभ्यास का आरम्भ १०० के खाने से है। खेल और अभ्यास में उद्देश्य एक समान है कि १०० के खाने में डटे रहना है। अभ्यास से प्रत्येक मनुष्य १०० के खाने में स्थायी रूप से स्थित होने में सफल होता है जब कि खेल में भाग्य से सफलता मिलती है।
vi) कुछ सप्ताह/महीनों के बाद अकस्मात् एक दिन आपको ऐसा प्रतीत हो सकता है कि आप अपने ‘आसान स्तर’ को अंक १० से बढ़ा कर अंक १५ पर ला सकते हैं। यह अब से आपका नया ‘आसान स्तर’ होगा। ‘आसान स्तर’ की ऐसी वृद्धि कुछ दिन/सप्ताह/महीनों के बाद उदित हो सकती है - दिखायी दे सकती है। कई बार ऐसा भी लग सकता है कि ऐसे नये ‘आसान स्तर’ को पाने के लिए अभ्यास की अवधि १० मिनट से बढ़ायी जानी चाहिये।
चित्तवृत्तिनिरोध का उपाय (प्रयोग क्र. २) आपका ब्रह्मास्त्र है जिससे आप कभी भी १०० के खाने में पहुँच सकते हैं - चाहे आप १ से ९९ के किसी खाने में हों या शून्य को पा कर बाहर निकल गये हों।
७) भविष्य के स्वागत के लिए तैयार -
क) आपका ‘आसान स्तर’ किसी भी अंक पर हो, ध्यान के दैनिक अभ्यास से आपको लाभ अवश्य मिलेगा। अधिक अंक के ‘आसान स्तर’ का लाभ अधिक होगा। इसका समीकरण नींद जैसा है। गाढ़ी स्वप्नरहित नींद (सुषुप्ति) का लाभ अधिकतम होता है। किन्तु, नींद की गुणवत्ता/क्वालिटी सुषुप्ति से न्यून/कम हो तब भी प्रत्येक मनुष्य के लिए नींद परम आवश्यक है। ऐसा ही कुछ ध्यान के दैनिक अभ्यास से होता है कि हमें इसका दैनिक अभ्यास बनाये रखना है; भले ही, हमारा ‘आसान स्तर’ १०० से कम हो। नींद से तन की थकान मिटती है; ध्यान के दैनिक अभ्यास से मन (माइंड) का समग्र शोधन (पूरी सफाई) होता है और अभ्यास ‘आसान स्तर’ के जितने अधिक अंक को छूता है तो यह शोधन उतनी अधिक गहरायी तक लाभकारी होता है। आपके व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन आयेंगे क्यों कि हमारा मन ही हमारा व्यक्तित्व बनाता है। आप दैनिक अभ्यास करते रहें और शीघ्र देखेंगे कि शुद्ध उपासना की साङ्ख्य-योग आधारित यह आर्षविधि (ऋषि द्वारा बनायी विधि) आपका कैसे सशक्तीकरण करती जाती है।
ख) जहाँ ध्यान की विधि आसान है वहीं इसका प्रभाव मन की गहरायी तक है कि आप सुख, शान्ति और आनन्द के चरमोत्कर्ष को पा सकते हैं। समय के साथ आप अपने अन्दर होने वाले लाभकारी परिणाम देखते जायेंगे। आप अपनी सुन्दरता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे।
ग) शनैः-शनैः (समय के साथ धीरे-धीरे) आपका निरन्तर किया गया दैनिक अभ्यास कुछ महीनों/वर्षों में आपका ‘आसान स्तर’ अंक १०० के शिखर पर पहुँचा देगा जहाँ प्रत्येक मनुष्य पहुँचने का अधिकारी है। यह अन्तरङ्ग/भीतरी योग के चित्त का पर्वतशिखर/लक्ष्य है - पूर्ण रूप से चित्तवृत्तिनिरोध।
सारांश - मनुष्य तन-मन-स्व/सेल्फ का संघात है। कर्म व ज्ञान के अतिरिक्त वह उपासना में संलग्न हो सकता है जिसके लिए मन से वियुक्त होना है जिसके लिए मन की हलचल का थमना आवश्यक है। इस प्रकार प्राप्त अवस्था में दुःख असम्भव है जैसे गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) दुःखरहित है। प्राचीन सांख्य ग्रन्थ में मन के तीन अवयव हैं :- बुद्धि, अहंकार और मनस्। वहाँ उपासना की विस्तृत व्याख्या है जिसके विधि भाग को शताब्दियों पश्चात् योग ने और विस्तार दिया। चित्तवृत्तिनिरोध से उपासना सम्भव होती है किन्तु चित्त आदि के सही अर्थ शताब्दियों पूर्व लुप्त हो गये थे। विगत दिनों सांख्य की नयी व्याख्या से उपासना के अनेक रहस्यों का उद्घाटन हुआ है :- (१) बुद्धि डिफॉल्ट विचार-चिन्तन द्वारा निश्चय कराती है जो उसका अध्यवसाय कहलाता है; जब बुद्धि अध्यवसायरहित हो जाती है तब वह चित्त बन जाती है। (२) विगत अनुभव, ज्ञान (स्मृति) और कर्म के संस्कारों को अहंकार द्वारा धारण किया जाता है जहाँ से ध्यान के अभ्यास के समय चित्तवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। (३) सांख्य ३.३३ (जिसके तत्सम योग १.३४) में दिये उपाय से ध्यान में प्रवेश सम्भव होता है किन्तु इसका सही आशय अनेक शताब्दियों से लुप्त था। इन सही अर्थों के आधार पर सरल शुद्ध ध्यान-विधि दी गयी है। इसका अभ्यास प्रतिदिन १० मिनट करने से मन आसानी से स्नान कर सकता है कि जीवन के अनेक दुःखों से छुटकारा सम्भव है। इस सरल शुद्ध ध्यान-विधि के बल पर मिशन उपासना को परिशिष्ट में उद्घोषित किया जा रहा है कि लगभग दस लाख (१ मिलियन) उपासकों में दस हजार सायंटिस्ट-उपासक होने का अनुमान है जो उपासना की अन्तिम अवस्था से सुपरिचित होंगे जब मन से वियुक्त होने पर स्व/सेल्फ को स्वत्व/चैतन्य-मात्र का अनुभव होता है जो सुषुप्ति से भिन्न है। ये दस हजार सायंटिस्ट-उपासक इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि सृष्टि में प्रकृति/मैटर के सूक्ष्मतम कण के अतिरिक्त एक और सूक्ष्मतर पदार्थ है जिसमें चैतन्य है और चेतना मस्तिष्क से नहीं उपजती है। सायंस की दुनिया में तब एक नये युग का आरम्भ होगा। इस स्वर्णिम सम्भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रत्येक मनुष्य का दायित्व बनता है कि वह मिशन उपासना में सहभागी बने और प्रतिदिन शुद्ध उपासना का अभ्यास अपने स्वयं के कल्याण के लिए करे।
परिशिष्ट –
मिशन उपासना की परिकल्पना की जाती है कि सन् २०२५ के अन्त तक लगभग १ अरब (१०० करोड़/१ बिलियन) मनुष्य शुद्ध उपासना के अभ्यास को दैनिक जीवन में अपना कर उपासनापथिक बन जायेंगे। लगभग १० वर्षों में, सन् २०३५ तक १ अरब उपासनपथिक से लगभग १० लाख (१ मिलियन) उपासक तैयार हो सकते हैं। अर्थात्, मिशन उपासना (MU) = मिलियन उपासक (MU)। दस लाख उपासकों के प्रकाशस्तम्भ से प्रकाशित विश्व में सन् २०५० तक एक नयी पीढ़ी तैयार हो जायेगी कि नये विश्व में पारस्परिक स्नेह-प्रेम के आधार पर विश्व-भ्रातृत्व, विश्व-बन्धुत्व के बल पर विश्व-शान्ति होगी। ऐसे मिशन को सफल बनाने के इच्छुक नये उपासनापथिक शुद्ध उपासना के सही और आसान मार्ग को अपना लें तो सन् २०२५ तक १०० करोड़ लोगों के उपासनापथिक बनने की अच्छी सम्भावना है। आज अनुमानतः २०-५० करोड़ मनुष्य किसी न किसी प्रकार से ध्यान का अभ्यास करते ही हैं किन्तु अधिकांशतः बहिरङ्ग/बाहरी योग में ही विचरते हैं क्यों कि उनकी बुद्धि चित्त नहीं बन पाती है; अब उन्हें भी शुद्ध उपासना को प्राप्त करने का अवसर मिल रहा है। स्कूल के अध्यापक बच्चों में शुद्ध उपासना के प्रति रुचि उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।
मिशन उपासना की सफलता का प्रत्यक्ष तब होगा जब एक युवती माता पृथ्वी के समस्त भूभाग पर अपने नन्हे शिशु को निस्संकोच स्तनपान कराती हो जैसे कि वह अपने पिता/भाई के घर में हो। एक स्त्री नैसर्गिक रूप से जान जाती है कि उसके निकट विद्यमान पुरुष उसे शुद्ध स्नेह-प्रेम की दृष्टि से देखते हैं या उनमें कामवासना का लेशमात्र है।
मिशन उपासना का आह्वान मानवमात्र के लिए है। स्त्री-पुरुष, नस्ल/रङ्ग, राष्ट्रीयता, रिलिजन/मजहब/पन्थ, आदि के भेदभाव से परे, प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध उपासना की विधि को दैनिक जीवन में अपनाना चाहिये जिसमें उसका और पूरे विश्व का कल्याण है। यदि आपने न्यूनतम ६ सप्ताह इसका अभ्यास किया है और आप इसे आजीवन अपनाने को कृतसंकल्प हैं तो आपसे आग्रह है कि निम्न लिंक के फॉर्म पर अपना विवरण लिखें :- www.tinyurl.com/MUEnroll
आपकी दी जानकारी किसी के साथ साँझा नहीं की जायेगी। यदि आप स्कूली अध्यापक और/या सायंटिस्ट हैं तो फॉर्म पर अवश्य अङ्कित करें। जब दस लाख (१ मिलियन) लोग उपासनापथिक बन जायेंगे तो जैसे कि उपासना मिशन का क्रान्तिक द्रव्यमान/मात्रा (क्रिटिकल मास) तैयार हो गया है और कालान्तर में मिशन की सफलता निश्चित है। आशा है कि सन् २०२४ के अन्त से बहुत पूर्व दस लाख उपासनापथिक बन जायेंगे।
मिशन उपासना में मानवमात्र की सहभागिता अपेक्षित है। प्रत्येक मनुष्य के लिए मन को शुद्ध करने का आसान तरीका बताया गया है जो सुग्राह्य है। जैसे, सब नींद, स्नान, दन्त-सफाई इत्यादि के लिए समय निकालते हैं वैसे ही सबके लिए शुद्ध उपासना में प्रवेश के लिए शुद्ध ध्यान का अभ्यास अपेक्षित है। ऊपर दी गयी विधि बहुत आसान है जो प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध उपासना के विभन्न चरणों से अंतिम लक्ष्य तक पहुँचा सकती है। यदि आप बेहतर विश्व में विश्वास रखते हैं तो शुद्ध ध्यानविधि को अपनाते हुए इस अभियान से अवश्य जुड़ें। अनेक शताब्दियों के बाद यह सर्वाधिक महत्त्व का आसान सशक्त मौलिक सुदृढ़ और समयबद्ध अभियान है जिसमें एक पैसे का भी व्यय नहीं है; हठयोग-चटाई (योगा-मैट) भी नहीं चाहिये। यदि आप स्त्री हैं तो स्नेह-प्रेम का महत्त्व अधिक अच्छी तरह से समझ सकती हैं और आपका दायित्त्व भी बढ़ जाता है कि इस अभियान से अवश्य जुड़ना है क्योंकि जगत् की व्यवस्था यही है कि एक नये शिशु का आगमन स्त्री की गोद में होता है। सम्भवतः महिलाएं मिशन उपासना का इंजिन बनेंगी।
‘MissionUpasana’ (मिशन उपासना) नाम से एक गूगल-समूह बनाया गया है जिसके आप सदस्य बन सकते हैं कि आपको मुख्य सूचनाएं मिलती रहेंगी। इसमें आपका स्वागत है। यदि गूगल-समूह से जुड़ने में कठिनाई होती हो तो लिखें :- centerforin...@gmail.com
कृपया प्रस्तुत श्वेतपत्र को व्यापक ढंग से प्रसारित करें - अपने पूरे सम्पर्क क्षेत्र में। यदि आप किसी संस्था के प्रमुख हैं - लाभार्थ अथवा दातव्य - तो संस्था के सब सदस्यों तक प्रसारित करने पर विचार कर सकते हैं; और/अथवा अन्य परिचित संस्था-प्रमुखों से भी ऐसा आग्रह कर सकते हैं। मिशन उपासना जनकल्याण की भावना से बना है जिसमें किसी व्यक्ति-विशेष का स्वार्थ नहीं है। प्रस्तुत श्वेतपत्र की उपयोगिता की अवधि सन् २०५० तक मानी जा सकती है। तब तक यदि यह आपको प्राप्त होता हो और आपने विगत एक वर्ष में इसे प्रसारित न किया हो तो आप इसे पुनः प्रसारित करने पर विचार कर सकते हैं। समय के साथ इस अभियान से राष्ट्राध्यक्ष/शासनाध्यक्ष, अन्य जाने-माने व्यक्ति भी जुड़ सकते हैं जब इसकी प्रगति में तीव्रता आयेगी।
प्रस्तुत श्वेतपत्र के अन्य भाषायी संस्करणों की तुरन्त आवश्यकता है; मूल लेखक द्वारा यह अंग्रेजी-हिन्दी द्विभाषीय तैयार किया गया है। यदि आप किसी अन्य भाषा के अच्छे जानकार हैं और आपने इसके विषय को भली प्रकार से हृदयंगम कर लिया है और इसका अनुवाद करने में सक्षम हैं, या आप ऐसे किसी व्यक्ति को जानते हैं जो स्वयंसेवक के रूप में इसका अन्य भाषा में अनुवाद कर सकते हैं तो आप (अथवा, अन्य व्यक्ति) ऊपर दिये पते पर ईमेल से लिखने का कष्ट करें। ऐसे अनुवाद इस अभियान को जन-जन तक पहुँचाने में सहायक होंगे।
---------------------- उपासना पर श्वेतपत्र (समाप्त) ------------------------------