लौटा ही हूँ । मेरा अभी तक यही स्पष्ट मत है कि यह सैन्य संस्कृति से
उपजा है । मुझे भी इस पर विचार करने का मौका दिया जाए ।
जय हो ।
On 4/20/12, हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com> wrote:
>
> चाकर को चक्र से निष्पन्न मान लेने व स्वामी की सेवा में परिक्रमा रत रहने के
> अर्थ में ग्रहण करते हुए भी इसका राज्य व सैन्य शब्दावली में प्रयोग का औचित्य
> खोजना पडेगा। क्या सैन्य के घेरा डालने से इसका सम्बंध हो सकता है?
>
> सविनय,
> हंसराज "सुज्ञ"
>
> Date: Thu, 19 Apr 2012 09:10:49 -0700
> Subject: Re: [शब्द चर्चा] चाकरी
> From: pratibha...@gmail.com
> To: shabdc...@googlegroups.com
>
> इस प्रकार भी देखा जा सकता है -चाकर <चक्कर<चक्र..जो चक्कर लगाता रहे (प्रयास
> करता रहे )- सेवा बजा लाने के लिये .जैसे हरकारा .सादर,प्रतिभा सक्सेना
>
> 2012/4/19 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>
>
>
>
>
>
> दिनेशराय जी वाला विकासमार्ग भी विचारणीय तो है ही चक्र> चाक> चाकर। किन्तु यह
> तथ्य भी विचारणीय है कि राज्य के सैन्य योद्धाओं को भी सम्बंधित राज्य के चाकर
> कहना प्रचलित था। अनिल जी की इस बात से भी आभास यही मिलता है कि मुख्यतः
> राजकर्मचारी के लिए चाकर प्रचलित था।
>
>
>
> सविनय,
> हंसराज "सुज्ञ"
>
>
>
> From: hansra...@msn.com
> To: shabdc...@googlegroups.com
> Subject: RE: [शब्द चर्चा] चाकरी
>
>
> Date: Thu, 19 Apr 2012 18:31:30 +0530
>
>
>
>
> नौकरी-चाकरी में तो चाकरी शब्द सार्थक होते हुए भी निर्थक शब्दों जैसे पैन-वैन,
> कागज़-वागज की तरह जुड गया है। सेवक तो अब नौकर के लिए भी आम हो गया है जैसे
> नोकरी के लिए सेवा। इस मुहावरे "देवी जी, हम तो चाकर हैं आपके" में उन सारे
> शब्दों का आरोपण किया जा सकता है, जैसे-"देवी जी, हम तो दास हैं आपके", "देवी
> जी, हम तो नौकर हैं आपके" "देवी जी, हम तो सेवक हैं आपके" और "देवी जी, हम तो
> बिन पैसे के नौकर हैं आपके" अभिप्राय एक ही निकलता है :)
>
>
> मात्र 'सेवक' से 'चाकर' अर्थभिन्नता प्रकट नहीं कर रहा, ऐसा मेरा अभिप्रायः है।
>
>
>
> सविनय,
>
>
> हंसराज "सुज्ञ"
>
>
>
>
>
> Date: Thu, 19 Apr 2012 16:37:33 +0400
> Subject: Re: [शब्द चर्चा] चाकरी
> From: anilja...@gmail.com
> To: shabdc...@googlegroups.com
>
>
>
> मेरे ख़याल से इसे 'अवैतनिक' सेवक कहना उचित नहीं है। चाकरी भी सवेतन होती है।
> नौकरी-चाकरी भी। हाँ, पहले चाकर का एक अर्थ दास होता था। लेकिन आज के समय में
> आप 'चाकर' का मतलब अवैतनिक दास नहीं कर सकते। बस्स, सेवक कह सकते हैं। मेरे
> पिता ज़रूर मेरी माँ से मज़ाक में कहा करते थे-- "देवी जी, हम तो चाकर हैं आपके"।
> शायद उनके इस कथन में कहीं दास का भाव निहित था। लेकिन वह मज़ाक था।
>
>
>
>
> 2012/4/19 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>
>
>
>
> अनिल जी, अजित जी आभार,
> तो क्या 'चाकर' को प्रारंभिक 'मुस्तैद' और वर्तमान अर्थपरिवर्तन के कारण
> 'अवैतनिक सेवक' से लिया हा सकता है?
>
>
>
>
>
> सविनय,
> हंसराज "सुज्ञ"
>
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अजित*
मंगोल नौकर, तुर्की चाकर
“नौकर-चाकर” या “नौकरी-चाकरी” हिन्दी के बहुप्रयुक्त शब्दयुग्म है । आमतौर पर इसे विदेशज और देशज शब्दों के मेल से बना संकर युग्म माना जाता है । कई शब्द विदेशी मूल के होते हुए भी दूसरी भाषाओं में इतने समरस हो जाते हैं कि रूप-संरचना के आधार पर उनमें भिन्नता नज़र नहीं आती । ‘चाकरी’ भी हिन्दी का अपना तद्भव या देशज शब्द ही जान पड़ता है । ‘नौकर’ शब्द तो पहली नज़र में ही अरबी-फ़ारसी मूल का नज़र आता है जबकि ‘चाकर’ शब्द को देशज समझा जाता है । दरअसल इस शब्दयुग्म के में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं । ‘नौकर-चाकर’ का पहला सर्ग मंगोलियाई भाषा का है और इसका मूल ‘नुकुर’ है तो दूसरा सर्ग ‘चाकर’ तुर्किश ज़बान का शब्द है जिसका मूल ‘चाकुर’ है । फ़ारसी में आकर दोनों शब्दों का रूप ‘नौकर’, ‘चाकर’ हुआ । हिन्दी में ये दोनों ही शब्द बरास्ता फ़ारसी आए । इसीलिए हिन्दी, अंग्रेजी, सिन्धी, मराठी आदि अधिकांश शब्दकोशों में इन्हें फ़ारसी का बताया गया है । मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नौकर और चाकर मंगोल और तुर्क कबीलों की सैन्य शब्दावली से अर्थान्तरित शब्द है ।
‘चाकर’ को कई लोग
भारतीय मूल का समझते हैं और ऐसा समझने के पीछे ‘चाकर’ की ‘चक्र’ से सादृश्यता है । ‘चक्र’ से बने ‘चाक्रिक’, ‘चक्कर’, ‘चकरी’, ‘चाकोर’, ‘चाकर’ जैसे शब्द संस्कृत,
हिन्दी, मराठी, बलूच या फ़ारसी में मौजूद हैं जिनमें कुम्हार, घेरा, घुमाव, फिरकनी,
गोलाकार, जैसे भाव हैं । सेवक अपने स्वामी द्वारा सौपे गए कामों को अंजाम देने के
लिए उसके इर्द-गिर्द चक्करघिन्नी बना रहता है इस भाव को लक्ष्य कर चक्र से ‘चाकर’ ( सेवक ) का रिश्ता जोड़ा जाता है, जबकि ‘चाकर’ ( सेवक ) की अर्थवत्ता इससे अलहदा है । अपने
मूल रूप में ‘चाकुर’ यानी ‘चाकर’, सेवक नहीं बल्कि मित्र, सखा और स्वयंसेवक है
। तुर्की ‘चाकुर’ दरअसल मंगोलियाई
ज़बान के ‘नुकुर’ की तर्ज़ पर बना है ।
‘चाकर’ को समझने के लिए मंगोल शब्द ‘नुकुर’ यानी ‘नौकर’ को जान लेना ज़रूरी है ।
विभिन्न संदर्भ बताते हैं कि मंगोलियाई ‘नुकुर /नोकोर’ की तर्ज़ पर ही
तुर्की के ‘चाकुर / चाकर’ का जन्म हुआ है । कहीं कहीं इसका उच्चारण ‘चाकोर’ भी है । मंगोल भाषा के ‘नुकुर [ nukur / nokor- प्रोटो मंगोलियन रूप । Nuokur- औपनिवेशिक इंग्लिश ] में
बंधु, सखा, मित्र का भाव है । संस्थागत रूप में इसका बहुवचन नोकोद ( nokod
) होता है । प्राचीन मंगोल
कबीलों के सैन्य ढाँचे में ‘नूकुर’ का
अर्थ विस्तार हुआ और इसमें मित्र-योद्धा का भाव समाहित हुआ । बाद में इसमें
अंगरक्षक या निजी सहायक का आशय समाहित हुआ और धीरे-धीरे इस शब्द (नुकुर) ने एक ऐसी
संस्था का रूप ले लिया जो मंगोल कबीलों के सामाजिक ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा थी
। ये लोग मूलतः स्वतंत्र योद्धा होते थे खुद को खाकान की सेवा में समर्पित करते थे
। मंगोल कबीलों के सरदार को खाकान कहा जाता । प्रत्येक ख़ाक़ान के साथ अनुयायियों
का जमावड़ा लाज़मी था जिसमें पारम्परिक तौर पर उसकी माँ और पत्नी के पक्ष के
रिश्तेदार खास होते थे । मगर कुछ समर्थक कुटुम्बी न होकर सामान्य जन होते थे ।
सरदार के प्रति निजी आस्था के चलते वे उसके नज़दीकी दायरे में आ जाते थे । ऐसे लोगों को ‘नुकुर’ या ‘नोकोर’ कहा जाता था । अमेरिकी अध्येता लुईस एम.जे. शर्म “ द
मंगर्स ऑफ द कान्सु-तिब्बतन फ़्रन्टियर ” में लिखते हैं कि इस
वर्ग के लोग स्वेच्छा से खाकान को अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे । इनमें गुलाम भी
हो सकते थे और युद्बबंदी भी । वैसे आमतौर पर ये स्वयंसेवक होते थे और युद्ध के
दौरान हरावल दस्ते की तरह सबसे आगे चलते थे । चंगेज़ खान के दौर तक नुकुर / नोकोर परिपाटी ने संस्थागत रूप ले लिया था और नोकोर वर्ग के लोग राज्य में
उच्चपदों पर तैनात थे । कई नुकुर /नोकोर तो सूबेदार का ओहदा
तक पा लेते थे ।
नुकुर /नोकोर शब्द की व्याप्ति समूचे आल्ताइक भाषा
परिवार में है और सभी में इसका आशय सखा, बंधु या अंगरक्षक का है जैसे तातार भाषा
में यह नुगर है । उज्बेकी में यह नागार है जहाँ इसका अर्थ या तो खाकान का निजी
सहायक है अथवा अथवा विवाह के दौरान दूल्हा-दुल्हन का बन्नायक या बेस्टमैन ।
तुर्किक भाषा में यह नावकर या नुकुर है जिसमें सेवक का भाव है । रशियन स्टेट
यूनिवर्सिटी के एटिमोलॉजिकल डेटाबेस में संग्रहित तुर्की भाषा विज्ञानी बत्तल
अप्तुल्लाह के तुर्की और मंगोल व्युत्पत्ति कोश “इब्नु मुहेन्ना
लुगाती” के मुताबिक समूचे मंगोल क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं
मसलन-खाल्खा, बुरिअत, कल्मुक, ओर्दोस, दोम्खियन,बओअन, दागुर, शारी-योघुर और मंगर
आदि प्रमुख भाषाओं में नुकुर /नोकोर की व्याप्ति है । गौरतलब
है कि मंगोल प्रभावित क्षेत्र एशिया के सुदूर दक्षिण साइबेरिया, उत्तरी चीन से
लेकर मध्यएशिया और पूर्वी यूरोप के हंगरी तक फैला है ।
औपनिवेशिक काल के एंग्लो-इंडियन समाज और कंपनीराज जो शब्द प्रचलित थे उनका उनका संग्रह हेनरी यूल
के कोश ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ में है
। इसके मुताबिक ‘नौकर’ शब्द तुर्की मूल
का है । हेनरी यूल जर्मन भाषाविद् इसाक जेकब श्मिट (1779 –1847) के हवाले से बताते हैं कि ‘नौकर’ शब्द मंगोल मूल
के ‘नुकुर’ से निकला है जिसका अर्थ
स्वयंसेवक, मित्र या आश्रित है । मंगोल-तुर्क क्षेत्र से लगते सोग्दियाना जैसे
उत्तर-पूर्वी ईरान के लोग इससे पहले से ही परिचित थे ।इसका सर्वाधिक प्रसार चंगेज़
खान के सामरिक अभियानों के दौरान ही हुआ । चंगेज की अधीनता स्वीकारने वाले सरदारों
को ‘नुकुर’ का दर्जा मिला । यह लगभग
अरबी के गुलाम और माम्लुकों जैसा मामला था जो अधीनस्थ होते हुए भी ऊँचे ओहदे पर थे
। भारतीय ‘दास’ शब्द को भी इसी कड़ी
में देख सकते हैं । रामदास, रामसेवक, रामगुलाम जैसे नामों से ज़ाहिर है कि ये नाम
सर्वशक्तिमान की अधीनता की महिमा बतलाने के लिए बनाए गए । मेरे विचार में उच्चवर्ग
के इस शब्द का उपहासात्मक प्रयोग आम लोगों में शुरु हुआ । बाद में मित्रयोद्धा,
सहकारी, अंगरक्षक, सहचर की अर्थवत्ता वाला यह शब्द सिर्फ़ सेवक के अर्थ में रूढ़
हो गया । ‘नौकर’ से बने ‘नौकरी’ शब्द में असम्मान का वह भाव नहीं है जो ‘नौकर’ में समझा जाता है । ‘नौकरी’ आज आजीविका-कर्म का पर्याय है जबकि ‘नौकर’ को सिर्फ़ सेवाकर्मी समझा जाता है । अलबत्ता ‘नौकरशाह’ या ‘नौकरपेशा’ शब्दों में इस
शब्द का महत्व सुरक्षित है ।
अब आते हैं चाकर / चाकुर पर । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर की तुलना में अल्प
प्रचलित है अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’
शब्दयुग्म का बहुधा प्रयोग होता है । अकेले ‘चाकर’ का इस्तेमाल हिन्दी की लोकबोलियों में ज्यादा होता है, परिनिष्ठित हिन्दी
में कम । दरअसल यह शब्दयुग्म एक व्यवस्था का नाम है जिससे सेवकों के वरिष्ठता-क्रम
का पता चलता है । उच्च स्तरीय सेवक ‘नौकर’ के दायरे में आते हैं जैसे मुंशी, गुमाश्ता आदि और निम्नस्तरीय सेवक ‘चाकर’ जैसे रसोइया अथवा माली । मध्यकाल में ‘नौकर’ को मुसाहब समझा जाता था जबकि ‘चाकर’ की श्रेणी में टहलुआ और भृत्य आते हैं । ये
अलग बात है कि अब ‘नौकर’ और ‘चाकर’ में
कोई अंतर नहीं है । हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है ।
सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता
संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं
जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द
का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता
हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक
घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और
हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश
में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले
प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच.
विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द
दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची
में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का
बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व
व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ
थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या
फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार
एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’
शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था ।
एलेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर
सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा
तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने
वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’
भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी
दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी
हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव
महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान
में हैं । बलूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का
रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं
सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’
या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह
तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता
है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने
उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है ।
अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने
को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो
चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ
में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की
स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है ।
भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता ।
भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल
का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि
की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना
जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ
शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था ।
सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ
एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ
हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने
नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो
और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को
तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है ।
खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे
में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा
क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है ।
देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) =
काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)।
क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर )
= सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) =
चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के
अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए
बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई
रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर
सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली
) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी
।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो
अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा
परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द
हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था
इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के
चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता
है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी
शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी
नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही
माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी
हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है
तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और
आखिर किसे परिचित करा रहे थे ?
मंगोल नौकर, तुर्की चाकर
“नौकर-चाकर” या “नौकरी-चाकरी” हिन्दी के बहुप्रयुक्त शब्दयुग्म है । आमतौर पर इसे विदेशज और देशज शब्दों के मेल से बना संकर युग्म माना जाता है । कई शब्द विदेशी मूल के होते हुए भी दूसरी भाषाओं में इतने समरस हो जाते हैं कि रूप-संरचना के आधार पर उनमें भिन्नता नज़र नहीं आती । ‘चाकरी’ भी हिन्दी का अपना तद्भव या देशज शब्द ही जान पड़ता है । ‘नौकर’ शब्द तो पहली नज़र में ही अरबी-फ़ारसी मूल का नज़र आता है जबकि ‘चाकर’ शब्द को देशज समझा जाता है । दरअसल इस शब्दयुग्म के में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं । ‘नौकर-चाकर’ का पहला सर्ग मंगोलियाई भाषा का है और इसका मूल ‘नुकुर’ है तो दूसरा सर्ग ‘चाकर’ तुर्किश ज़बान का शब्द है जिसका मूल ‘चाकुर’ है । फ़ारसी में आकर दोनों शब्दों का रूप ‘नौकर’, ‘चाकर’ हुआ । हिन्दी में ये दोनों ही शब्द बरास्ता फ़ारसी आए । इसीलिए हिन्दी, अंग्रेजी, सिन्धी, मराठी आदि अधिकांश शब्दकोशों में इन्हें फ़ारसी का बताया गया है । मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नौकर और चाकर मंगोल और तुर्क कबीलों की सैन्य शब्दावली से अर्थान्तरित शब्द है ।
‘चाकर’ को कई लोग भारतीय मूल का समझते हैं और ऐसा समझने के पीछे ‘चाकर’ की ‘चक्र’ से सादृश्यता है । ‘चक्र’ से बने ‘चाक्रिक’, ‘चक्कर’, ‘चकरी’, ‘चाकोर’, ‘चाकर’ जैसे शब्द संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बलूच या फ़ारसी में मौजूद हैं जिनमें कुम्हार, घेरा, घुमाव, फिरकनी, गोलाकार, जैसे भाव हैं । सेवक अपने स्वामी द्वारा सौपे गए कामों को अंजाम देने के लिए उसके इर्द-गिर्द चक्करघिन्नी बना रहता है इस भाव को लक्ष्य कर चक्र से ‘चाकर’ ( सेवक ) का रिश्ता जोड़ा जाता है, जबकि ‘चाकर’ ( सेवक ) की अर्थवत्ता इससे अलहदा है । अपने मूल रूप में ‘चाकुर’ यानी ‘चाकर’, सेवक नहीं बल्कि मित्र, सखा और स्वयंसेवक है । तुर्की ‘चाकुर’ दरअसल मंगोलियाई ज़बान के ‘नुकुर’ की तर्ज़ पर बना है । ‘चाकर’ को समझने के लिए मंगोल शब्द ‘नुकुर’ यानी ‘नौकर’ को जान लेना ज़रूरी है ।
विभिन्न संदर्भ बताते हैं कि मंगोलियाई ‘नुकुर / नोकोर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की के ‘चाकुर / चाकर’ का जन्म हुआ है । कहीं कहीं इसका उच्चारण ‘चाकोर’ भी है । मंगोल भाषा के ‘नुकुर [ nukur / nokor- प्रोटो मंगोलियन रूप । Nuokur- औपनिवेशिक इंग्लिश ] में बंधु, सखा, मित्र का भाव है । संस्थागत रूप में इसका बहुवचन नोकोद ( nokod ) होता है । प्राचीन मंगोल कबीलों के सैन्य ढाँचे में ‘नूकुर’ का अर्थ विस्तार हुआ और इसमें मित्र-योद्धा का भाव समाहित हुआ । बाद में इसमें अंगरक्षक या निजी सहायक का आशय समाहित हुआ और धीरे-धीरे इस शब्द (नुकुर) ने एक ऐसी संस्था का रूप ले लिया जो मंगोल कबीलों के सामाजिक ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा थी । ये लोग मूलतः स्वतंत्र योद्धा होते थे खुद को खाकान की सेवा में समर्पित करते थे । मंगोल कबीलों के सरदार को खाकान कहा जाता । प्रत्येक ख़ाक़ान के साथ अनुयायियों का जमावड़ा लाज़मी था जिसमें पारम्परिक तौर पर उसकी माँ और पत्नी के पक्ष के रिश्तेदार खास होते थे । मगर कुछ समर्थक कुटुम्बी न होकर सामान्य जन होते थे । सरदार के प्रति निजी आस्था के चलते वे उसके नज़दीकी दायरे में आ जाते थे । ऐसे लोगों को ‘नुकुर’ या ‘नोकोर’ कहा जाता था । अमेरिकी अध्येता लुईस एम.जे. शर्म “ द मंगर्स ऑफ द कान्सु-तिब्बतन फ़्रन्टियर ” में लिखते हैं कि इस वर्ग के लोग स्वेच्छा से खाकान को अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे । इनमें गुलाम भी हो सकते थे और युद्बबंदी भी । वैसे आमतौर पर ये स्वयंसेवक होते थे और युद्ध के दौरान हरावल दस्ते की तरह सबसे आगे चलते थे । चंगेज़ खान के दौर तक नुकुर / नोकोर परिपाटी ने संस्थागत रूप ले लिया था और नोकोर वर्ग के लोग राज्य में उच्चपदों पर तैनात थे । कई नुकुर /नोकोर तो सूबेदार का ओहदा तक पा लेते थे ।
नुकुर /नोकोर शब्द की व्याप्ति समूचे आल्ताइक भाषा परिवार में है और सभी में इसका आशय सखा, बंधु या अंगरक्षक का है जैसे तातार भाषा में यह नुगर है । उज्बेकी में यह नागार है जहाँ इसका अर्थ या तो खाकान का निजी सहायक है अथवा अथवा विवाह के दौरान दूल्हा-दुल्हन का बन्नायक या बेस्टमैन । तुर्किक भाषा में यह नावकर या नुकुर है जिसमें सेवक का भाव है । रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी के एटिमोलॉजिकल डेटाबेस में संग्रहित तुर्की भाषा विज्ञानी बत्तल अप्तुल्लाह के तुर्की और मंगोल व्युत्पत्ति कोश “इब्नु मुहेन्ना लुगाती” के मुताबिक समूचे मंगोल क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं मसलन-खाल्खा, बुरिअत, कल्मुक, ओर्दोस, दोम्खियन,बओअन, दागुर, शारी-योघुर और मंगर आदि प्रमुख भाषाओं में नुकुर /नोकोर की व्याप्ति है । गौरतलब है कि मंगोल प्रभावित क्षेत्र एशिया के सुदूर दक्षिण साइबेरिया, उत्तरी चीन से लेकर मध्यएशिया और पूर्वी यूरोप के हंगरी तक फैला है ।
औपनिवेशिक काल के एंग्लो-इंडियन समाज और कंपनीराज जो शब्द प्रचलित थे उनका उनका संग्रह हेनरी यूल के कोश ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ में है । इसके मुताबिक ‘नौकर’ शब्द तुर्की मूल का है । हेनरी यूल जर्मन भाषाविद् इसाक जेकब श्मिट (1779 –1847) के हवाले से बताते हैं कि ‘नौकर’ शब्द मंगोल मूल के ‘नुकुर’ से निकला है जिसका अर्थ स्वयंसेवक, मित्र या आश्रित है । मंगोल-तुर्क क्षेत्र से लगते सोग्दियाना जैसे उत्तर-पूर्वी ईरान के लोग इससे पहले से ही परिचित थे ।इसका सर्वाधिक प्रसार चंगेज़ खान के सामरिक अभियानों के दौरान ही हुआ । चंगेज की अधीनता स्वीकारने वाले सरदारों को ‘नुकुर’ का दर्जा मिला । यह लगभग अरबी के गुलाम और माम्लुकों जैसा मामला था जो अधीनस्थ होते हुए भी ऊँचे ओहदे पर थे । भारतीय ‘दास’ शब्द को भी इसी कड़ी में देख सकते हैं । रामदास, रामसेवक, रामगुलाम जैसे नामों से ज़ाहिर है कि ये नाम सर्वशक्तिमान की अधीनता की महिमा बतलाने के लिए बनाए गए । मेरे विचार में उच्चवर्ग के इस शब्द का उपहासात्मक प्रयोग आम लोगों में शुरु हुआ । बाद में मित्रयोद्धा, सहकारी, अंगरक्षक, सहचर की अर्थवत्ता वाला यह शब्द सिर्फ़ सेवक के अर्थ में रूढ़ हो गया । ‘नौकर’ से बने ‘नौकरी’ शब्द में असम्मान का वह भाव नहीं है जो ‘नौकर’ में समझा जाता है । ‘नौकरी’ आज आजीविका-कर्म का पर्याय है जबकि ‘नौकर’ को सिर्फ़ सेवाकर्मी समझा जाता है । अलबत्ता ‘नौकरशाह’ या ‘नौकरपेशा’ शब्दों में इस शब्द का महत्व सुरक्षित है ।
अब आते हैं चाकर / चाकुर पर । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर की तुलना में अल्प प्रचलित है अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ शब्दयुग्म का बहुधा प्रयोग होता है । अकेले ‘चाकर’ का इस्तेमाल हिन्दी की लोकबोलियों में ज्यादा होता है, परिनिष्ठित हिन्दी में कम । दरअसल यह शब्दयुग्म एक व्यवस्था का नाम है जिससे सेवकों के वरिष्ठता-क्रम का पता चलता है । उच्च स्तरीय सेवक ‘नौकर’ के दायरे में आते हैं जैसे मुंशी, गुमाश्ता आदि और निम्नस्तरीय सेवक ‘चाकर’ जैसे रसोइया अथवा माली । मध्यकाल में ‘नौकर’ को मुसाहब समझा जाता था जबकि ‘चाकर’ की श्रेणी में टहलुआ और भृत्य आते हैं । ये अलग बात है कि अब ‘नौकर’ और ‘चाकर’ में कोई अंतर नहीं है । हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है । सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच. विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’ शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था ।
एलेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’ भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान में हैं । बलूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’ या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है । अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है ।
भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता ।
भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था । सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है ।
खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है । देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) = काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)। क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर ) = सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) = चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली ) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी ।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और आखिर किसे परिचित करा रहे थे ?
मंगोल नौकर, तुर्की चाकर
“नौकर-चाकर” या “नौकरी-चाकरी” हिन्दी के बहुप्रयुक्त शब्दयुग्म है । आमतौर पर इसे विदेशज और देशज शब्दों के मेल से बना संकर युग्म माना जाता है । कई शब्द विदेशी मूल के होते हुए भी दूसरी भाषाओं में इतने समरस हो जाते हैं कि रूप-संरचना के आधार पर उनमें भिन्नता नज़र नहीं आती । ‘चाकरी’ भी हिन्दी का अपना तद्भव या देशज शब्द ही जान पड़ता है । ‘नौकर’ शब्द तो पहली नज़र में ही अरबी-फ़ारसी मूल का नज़र आता है जबकि ‘चाकर’ शब्द को देशज समझा जाता है । दरअसल इस शब्दयुग्म के में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं । ‘नौकर-चाकर’ का पहला सर्ग मंगोलियाई भाषा का है और इसका मूल ‘नुकुर’ है तो दूसरा सर्ग ‘चाकर’ तुर्किश ज़बान का शब्द है जिसका मूल ‘चाकुर’ है । फ़ारसी में आकर दोनों शब्दों का रूप ‘नौकर’, ‘चाकर’ हुआ । हिन्दी में ये दोनों ही शब्द बरास्ता फ़ारसी आए । इसीलिए हिन्दी, अंग्रेजी, सिन्धी, मराठी आदि अधिकांश शब्दकोशों में इन्हें फ़ारसी का बताया गया है । मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नौकर और चाकर मंगोल और तुर्क कबीलों की सैन्य शब्दावली से अर्थान्तरित शब्द है ।
‘चाकर’ को कई लोग भारतीय मूल का समझते हैं और ऐसा समझने के पीछे ‘चाकर’ की ‘चक्र’ से सादृश्यता है । ‘चक्र’ से बने ‘चाक्रिक’, ‘चक्कर’, ‘चकरी’, ‘चाकोर’, ‘चाकर’ जैसे शब्द संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बलूच या फ़ारसी में मौजूद हैं जिनमें कुम्हार, घेरा, घुमाव, फिरकनी, गोलाकार, जैसे भाव हैं । सेवक अपने स्वामी द्वारा सौपे गए कामों को अंजाम देने के लिए उसके इर्द-गिर्द चक्करघिन्नी बना रहता है इस भाव को लक्ष्य कर चक्र से ‘चाकर’ ( सेवक ) का रिश्ता जोड़ा जाता है, जबकि ‘चाकर’ ( सेवक ) की अर्थवत्ता इससे अलहदा है । अपने मूल रूप में ‘चाकुर’ यानी ‘चाकर’, सेवक नहीं बल्कि मित्र, सखा और स्वयंसेवक है । तुर्की ‘चाकुर’ दरअसल मंगोलियाई ज़बान के ‘नुकुर’ की तर्ज़ पर बना है । ‘चाकर’ को समझने के लिए मंगोल शब्द ‘नुकुर’ यानी ‘नौकर’ को जान लेना ज़रूरी है ।
विभिन्न संदर्भ बताते हैं कि मंगोलियाई ‘नुकुर / नोकोर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की के ‘चाकुर / चाकर’ का जन्म हुआ है । कहीं कहीं इसका उच्चारण ‘चाकोर’ भी है । मंगोल भाषा के ‘नुकुर [ nukur / nokor- प्रोटो मंगोलियन रूप । Nuokur- औपनिवेशिक इंग्लिश ] में बंधु, सखा, मित्र का भाव है । संस्थागत रूप में इसका बहुवचन नोकोद ( nokod ) होता है । प्राचीन मंगोल कबीलों के सैन्य ढाँचे में ‘नूकुर’ का अर्थ विस्तार हुआ और इसमें मित्र-योद्धा का भाव समाहित हुआ । बाद में इसमें अंगरक्षक या निजी सहायक का आशय समाहित हुआ और धीरे-धीरे इस शब्द (नुकुर) ने एक ऐसी संस्था का रूप ले लिया जो मंगोल कबीलों के सामाजिक ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा थी । ये लोग मूलतः स्वतंत्र योद्धा होते थे खुद को खाकान की सेवा में समर्पित करते थे । मंगोल कबीलों के सरदार को खाकान कहा जाता । प्रत्येक ख़ाक़ान के साथ अनुयायियों का जमावड़ा लाज़मी था जिसमें पारम्परिक तौर पर उसकी माँ और पत्नी के पक्ष के रिश्तेदार खास होते थे । मगर कुछ समर्थक कुटुम्बी न होकर सामान्य जन होते थे । सरदार के प्रति निजी आस्था के चलते वे उसके नज़दीकी दायरे में आ जाते थे । ऐसे लोगों को ‘नुकुर’ या ‘नोकोर’ कहा जाता था । अमेरिकी अध्येता लुईस एम.जे. शर्म “ द मंगर्स ऑफ द कान्सु-तिब्बतन फ़्रन्टियर ” में लिखते हैं कि इस वर्ग के लोग स्वेच्छा से खाकान को अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे । इनमें गुलाम भी हो सकते थे और युद्बबंदी भी । वैसे आमतौर पर ये स्वयंसेवक होते थे और युद्ध के दौरान हरावल दस्ते की तरह सबसे आगे चलते थे । चंगेज़ खान के दौर तक नुकुर / नोकोर परिपाटी ने संस्थागत रूप ले लिया था और नोकोर वर्ग के लोग राज्य में उच्चपदों पर तैनात थे । कई नुकुर /नोकोर तो सूबेदार का ओहदा तक पा लेते थे ।
नुकुर /नोकोर शब्द की व्याप्ति समूचे आल्ताइक भाषा परिवार में है और सभी में इसका आशय सखा, बंधु या अंगरक्षक का है जैसे तातार भाषा में यह नुगर है । उज्बेकी में यह नागार है जहाँ इसका अर्थ या तो खाकान का निजी सहायक है अथवा अथवा विवाह के दौरान दूल्हा-दुल्हन का बन्नायक या बेस्टमैन । तुर्किक भाषा में यह नावकर या नुकुर है जिसमें सेवक का भाव है । रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी के एटिमोलॉजिकल डेटाबेस में संग्रहित तुर्की भाषा विज्ञानी बत्तल अप्तुल्लाह के तुर्की और मंगोल व्युत्पत्ति कोश “इब्नु मुहेन्ना लुगाती” के मुताबिक समूचे मंगोल क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं मसलन-खाल्खा, बुरिअत, कल्मुक, ओर्दोस, दोम्खियन,बओअन, दागुर, शारी-योघुर और मंगर आदि प्रमुख भाषाओं में नुकुर /नोकोर की व्याप्ति है । गौरतलब है कि मंगोल प्रभावित क्षेत्र एशिया के सुदूर दक्षिण साइबेरिया, उत्तरी चीन से लेकर मध्यएशिया और पूर्वी यूरोप के हंगरी तक फैला है ।
औपनिवेशिक काल के एंग्लो-इंडियन समाज और कंपनीराज जो शब्द प्रचलित थे उनका उनका संग्रह हेनरी यूल के कोश ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ में है । इसके मुताबिक ‘नौकर’ शब्द तुर्की मूल का है । हेनरी यूल जर्मन भाषाविद् इसाक जेकब श्मिट (1779 –1847) के हवाले से बताते हैं कि ‘नौकर’ शब्द मंगोल मूल के ‘नुकुर’ से निकला है जिसका अर्थ स्वयंसेवक, मित्र या आश्रित है । मंगोल-तुर्क क्षेत्र से लगते सोग्दियाना जैसे उत्तर-पूर्वी ईरान के लोग इससे पहले से ही परिचित थे ।इसका सर्वाधिक प्रसार चंगेज़ खान के सामरिक अभियानों के दौरान ही हुआ । चंगेज की अधीनता स्वीकारने वाले सरदारों को ‘नुकुर’ का दर्जा मिला । यह लगभग अरबी के गुलाम और माम्लुकों जैसा मामला था जो अधीनस्थ होते हुए भी ऊँचे ओहदे पर थे । भारतीय ‘दास’ शब्द को भी इसी कड़ी में देख सकते हैं । रामदास, रामसेवक, रामगुलाम जैसे नामों से ज़ाहिर है कि ये नाम सर्वशक्तिमान की अधीनता की महिमा बतलाने के लिए बनाए गए । मेरे विचार में उच्चवर्ग के इस शब्द का उपहासात्मक प्रयोग आम लोगों में शुरु हुआ । बाद में मित्रयोद्धा, सहकारी, अंगरक्षक, सहचर की अर्थवत्ता वाला यह शब्द सिर्फ़ सेवक के अर्थ में रूढ़ हो गया । ‘नौकर’ से बने ‘नौकरी’ शब्द में असम्मान का वह भाव नहीं है जो ‘नौकर’ में समझा जाता है । ‘नौकरी’ आज आजीविका-कर्म का पर्याय है जबकि ‘नौकर’ को सिर्फ़ सेवाकर्मी समझा जाता है । अलबत्ता ‘नौकरशाह’ या ‘नौकरपेशा’ शब्दों में इस शब्द का महत्व सुरक्षित है ।
अब आते हैं चाकर / चाकुर पर । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर की तुलना में अल्प प्रचलित है अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ शब्दयुग्म का बहुधा प्रयोग होता है । अकेले ‘चाकर’ का इस्तेमाल हिन्दी की लोकबोलियों में ज्यादा होता है, परिनिष्ठित हिन्दी में कम । दरअसल यह शब्दयुग्म एक व्यवस्था का नाम है जिससे सेवकों के वरिष्ठता-क्रम का पता चलता है । उच्च स्तरीय सेवक ‘नौकर’ के दायरे में आते हैं जैसे मुंशी, गुमाश्ता आदि और निम्नस्तरीय सेवक ‘चाकर’ जैसे रसोइया अथवा माली । मध्यकाल में ‘नौकर’ को मुसाहब समझा जाता था जबकि ‘चाकर’ की श्रेणी में टहलुआ और भृत्य आते हैं । ये अलग बात है कि अब ‘नौकर’ और ‘चाकर’ में कोई अंतर नहीं है । हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है । सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच. विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’ शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था ।
एलेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’ भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान में हैं । बलूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’ या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है । अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है ।
भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता ।
भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था । सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है ।
खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है । देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) = काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)। क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर ) = सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) = चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली ) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी ।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और आखिर किसे परिचित करा रहे थे ?
प्रिय अनुराग भाई,
'चक-थल के 'चक का कथित तुर्की 'चक से कोई रिश्ता नहीं है. यह पंजाबी 'चक है जिसका मतलब उठाना होता है. 'चक दे इंडिया' में आप लोगों ने यह शब्द सुना होगा. इसका एक और उचार्ण 'चुक' होता है. अजित जी इस शब्द कि निरुक्ति से भलीभान्त परिचित हैं. चक-थल का शाब्दिक अर्थ हुआ किसी चीज़ को ऊपर उठा कर इसका तल बदल देना. अर्थात उपरी तल को नीचे करना. और इसके उल्ट.
चाकर अपने आप मेँ स्वतंत्र शब्द है.
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Sent: Monday, May 14, 2012 1:10 PM
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Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: चाकरी
प्रिय अनुराग भाई,
अजित
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