आस्था

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Ashutosh Kumar

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Sep 5, 2010, 11:13:18 PM9/5/10
to शब्द चर्चा
आस्था का व्युत्पत्तिपरक अर्थ क्या है?क्या संशय का निषेध आस्था के लिए
अपरिहार्य है?इस अर्थ में , क्या यह मूलतः एक धार्मिक संकल्प है?कवि
विष्णु खरे कहतें हैं कि आस्था एक पंथनिरपेक्ष/ धर्मनिरपेक्ष अवधारणा
है.शायद उन का आशय सेकुलर से है. क्या संशय के निषेध पर आधारित कोई
संकल्प सेकुलर हो सकता है?
समकालीन जनमत के पिछले दो अंकों में हुसैन विवाद पर एक बहस छापी गयी है.
इस बहस में एक उपबहस आस्था पर भी है.
सफ़र पर आस्था से सम्बंधित कड़ियाँ देख लीं हैं. लेकिन लगता है ऐन आस्था
पर विचार का संयोग अब तक नहीं बन पडा .

Abhay Tiwari

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Sep 5, 2010, 11:38:44 PM9/5/10
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भाई, संस्कृत में एक धातु है अस् जिसका अर्थ है होना, रहना, विद्यमान होना..
इसी अस् से अस्ति, नास्ति, अस्तित्व, अस्तु, एवमस्तु, तथास्तु, आस्तिक, नास्तिक
आदि बने हैं , एक मत यह हो सकता है कि आस्था भी उस से बना है..लेकिन आचार्य लोग
मानते हैं कि आस्था की व्युत्पत्ति आ+स्था है.. आ तो उपसर्ग है जो समष्टि जैसा
कुछ बोध देता है और स्था धातु का अर्थ है ठहरना, बसना, डटे रहना, खड़े होना
आदि..

तो भाई इस आस्था की व्युत्पत्ति को आप कुछ अड़े रहना की भावना से निकला माने..
धार्मिक संकल्प यह भले न हो.. निश्चित ही इस में संशय का निषेध है.. जैसे कोई
अड़ जाय कि सचिन दुनिया का बैस्ट बैट्समैन है.. और पोन्टिंग से तो अच्छा है ही..
वो भी आस्था है..

सेकुलर का अर्थ सिर्फ़ और सिर्फ़ अधार्मिक/ग़ैर-धार्मिक है.. सर्वधर्म समभाव वाली
हमारी धारणा कुछ और ही सेकुलर नहीं.. इस प्रकाश में आस्था सेकुलर हो सकती है..

दिनेशराय द्विवेदी

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Sep 6, 2010, 12:05:18 AM9/6/10
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अभय,
आप का विश्लेषण उत्तम प्रतीत होता है।

2010/9/6 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>



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दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan,
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ई-स्वामी

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Sep 6, 2010, 12:27:04 AM9/6/10
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अभय की उपरोक्त बात में कुछ जोडने का बचता नहीं है.

हाँ, मेरे विनम्र मत में आस्था एक अवधारणा नही है.. एक कंसेप्ट  या फ़ण्डा नही है. या दिमाग की एक समझ जितनी छोटी चीज नही है.
ये जीव के मूल स्वाभाव का एक हिस्सा है, जैसे की भय या प्रेम हैं. मानव के अलावा ये जानवरों में भी विद्यमान है. कुत्तों तक के व्यव्हार में ये स्वामी-भक्ति के रूप में प्रकट होती है. शेख फ़रीद और बुल्लेशाह की वाणियों में आज के इंसानी आध्यात्मिक आस्था को कुत्ते की स्वामी भक्ति से कमतर गिना गया है -  "वे बाज़ी ले गए कुत्ते तैथीं उत्ते".

नास्तिक में भी आस्था होती है - नास्तिक होना आस्थाहीन होना नही है. नास्तिक की आस्था अनुभवसिद्ध या प्रयोगाश्रित तथ्य मात्र में हो सकती है अत: आस्था मात्र धार्मिक फ़्लेवर में पाए जाने वाली आईसक्रीम नही है.





2010/9/5 दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com>



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Pritish Barahath

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Sep 6, 2010, 5:43:21 AM9/6/10
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आस्था यदि अनुकरण नहीं है तो वह आधारहीन नहीं होती है। आस्था में तुलना की कोई बात ही नहीं है किसी दूसरे और तीसरे से, आस्था में दो ही पक्ष होते हैं। सचिन का उदाहरण मोह  है आस्था नहीं है। आस्था मूलतः पूर्ण में होती है अंश में नहीं इसलिये इसमें संदेह का पड़ाव पहले ही पार कर लिया जाता है। और जहाँ तक मैं समझता हूँ आस्था डटे रहना नहीं, बल्कि स्थिरता है। लेकिन आशुतोष जी ने व्युत्पत्तिपरक अर्थ पूछा है जिसमें मेरी कोई गति नहीं है। सेकुलर अधार्मिक है लेकिन क्या ग़ैर-आस्तिक भी है ?

2010/9/6 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>



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Pritish Barahath
Jaipur

अजित वडनेरकर

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Sep 6, 2010, 7:07:07 AM9/6/10
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उत्तम...

2010/9/6 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>



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शुभकामनाओं सहित
अजित
http://shabdavali.blogspot.com/

Abhay Tiwari

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Sep 6, 2010, 8:30:44 AM9/6/10
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 आस्था के तमाम अर्थ लोगों द्वारा लगाए जा सकते हैं.. आप की समझ के अर्थ पूरी तरह मान्य है..लेकिन मैंने सिर्फ़ उस अर्थ की चर्चा की है जो व्युत्पत्ति से निकलती है.. तो उस अर्थ के सन्दर्भ में ही सचिन वाली बात को ऐसे समझें कि 'मोहवश' आस्था है..और स्थिर भी स्था से ही निकलता है.. चूंकि अड़ा है इसीलिए स्थिर है.. :)

अजित वडनेरकर

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Sep 6, 2010, 8:35:55 AM9/6/10
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आपकी विवेचना सौ टंच है अभय भाई।
बाकी रूढ़ अर्थ में आस्था के जितने भी आयाम है उनका विस्तार ही होता है आपकी विवेचना से।


2010/9/6 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>

Abhay Tiwari

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Sep 6, 2010, 10:05:58 AM9/6/10
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शुक्रिया अजित भाई!
और आशु प्यारे, खरे जी से तुम यह ज़रूर कह सकते हो कि आस्था सेकुलर भले हो ले मगर रहेगी वो गति के विरोध में ही.. क्योंकि उसका अर्थ ठहरने, स्थिरता से है.. जो प्रगतिशीलता के ख़िलाफ़ है.. :)

ashutosh kumar

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Sep 6, 2010, 10:14:13 AM9/6/10
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जो तर्क मैं ढूंढ रहा था , मिल गया. जियो , यारों. संत समाज की जय हो . 

Pritish Barahath

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Sep 7, 2010, 2:02:46 AM9/7/10
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@ अभय जी !
 
स्थिरता तो मैंने आपके दिये विवेचन से ही उठाया था मैं आस्था को इस अर्थ में स्थानीयता कहता हूँ सारी गति उसके चारों और कोल्हू के बैल की तरह है। आस्था की गतिशीलता काल और स्थान सापेक्ष नहीं होने के कारण भौतिकरूप में साक्षात नहीं होती (मैं किसी सचिन में आस्था की बात नहीं कर रहा हूँ) उसे जड़ता मानना उसपर भौतिकता का आरोप करना है। मोहवश आस्था..................... ये भी खूब!
आध्यात्मिक आस्था में कोई तर्क ढूँढ़ सकता है लेकिन मानवता में प्रगतिशीलता की आस्था को जड़ता शायद ही कोई कहना चाहेगा।

2010/9/6 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>



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Pritish Barahath
Jaipur
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