दुःख और ग़म

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Ashutosh Kumar

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Sep 8, 2010, 10:46:54 PM9/8/10
to शब्द चर्चा
फैज़ की मशहूर पंक्ति है - और भी दुःख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा.. .
लेकिन लाईब्रेरी ऑफ कौंग्रेस के जालठिकाने पर , तथा अन्यत्र भी , यह
लिखा मिलता है-
और भी ग़म हैं जमाने में ......!
इस बदलाव के पीछे की राजनीति का अनुमान लगाना कठिन नहीं हैं.
बहरहाल , जिज्ञासा यह है कि दुःख और ग़म की अर्थछायाओं में अगर कोई बारीक
फर्क मौजूद है , तो वह क्या है?

Dr. Durgaprasad Agrawal

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Sep 8, 2010, 11:39:08 PM9/8/10
to shabdc...@googlegroups.com
इस बात को रेखांकित करने के लिए आपका आभार आशुतोष जी, कि फैज़ की नज़्म में दु:ख शब्द प्रयुक्त हुआ है, न कि ग़म, जैसा कि बहुत सारे लोगों का खयाल है. 

दुर्गाप्रसाद

2010/9/9 Ashutosh Kumar <ashuv...@gmail.com>



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Rangnath Singh

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Sep 9, 2010, 12:37:15 AM9/9/10
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उर्दू के कई शायरों खासतौर पर मीर तकी मीर और इब्ने इंशा ने तत्सम शब्दों
का काफी अच्छा प्रयोग किया है। लेकिन जहां तक मेरी सलाहियत है इन
प्रयोगों का मामला कोई वैचारिक नहीं था, बल्कि शेर के वजन को दुरुस्त
रखने से जुड़ा हुआ होगा। यह स्पष्ट है कि इन शायरों में भाषा को लेकर कोई
दुराग्रह नहीं था। उन्होंने सायास हिन्दी को दूर करने कोई प्रयास नहीं
किया। जैसा कि बाद में होने लगा। उनके लिए हिन्दी हिन्दु की और उर्दू
मुसलमान की भाषा कत्तई नहीं थी।

मैंने जिसे भी इस बात के लिए टोका होगा कि इस शेर में दुख है गम नहीं
उसने मुझसे बहस जरूर किया कि गम ही होगा !! लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके
पीछे कोई राजनीति है। राजनीति से ज्यादा इसमें विकृत सहजबोध की भूमिका
लगती है कि उर्दू है तो गम ही होगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि अब्दुल
बिस्मिल्लाह द्वारा संपादित सारे सुखन हमारे पढ़ने से पहले मैं भी गम ही
पढ़ता था। गम को प्रचारित करने के पीछे किसी लापरवाह आलसी शै का हाथ होगा।

गौरतलब है कि गालिब या अन्य शायरों के बहुत से प्रचलित शेरों से है,ही कि
का, का प्रचलित पाठ में विलोप कर दिया जाता है,बिला किसी राजनीति के।
यहां अहमद फराज के प्रसिद्व शेर रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ.....का
उदाहरण लिया जा सकता है। जहां तक मुझे पता है, शायर ने दिल ही दुखाने के
लिए आ....का प्रयोग किया है। अतः राजनीति वाली बात यदि कोई गूढ़ार्थ रखती
है तो उसे स्पष्ट करें।

On 9/9/10, Dr. Durgaprasad Agrawal <dpagr...@gmail.com> wrote:
> इस बात को रेखांकित करने के लिए आपका आभार आशुतोष जी, कि फैज़ की नज़्म में *
> दु:ख* शब्द प्रयुक्त हुआ है, न कि *ग़म*, जैसा कि बहुत सारे लोगों का खयाल है.

अजित वडनेरकर

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Sep 9, 2010, 7:04:57 AM9/9/10
to shabdc...@googlegroups.com
लेकिन जहां तक मेरी सलाहियत है इन
प्रयोगों का मामला कोई वैचारिक नहीं था, बल्कि शेर के वजन को दुरुस्त
रखने से जुड़ा हुआ होगा।


बात में वज़न है

2010/9/9 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com>



--
शुभकामनाओं सहित
अजित
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Pritish Barahath

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Sep 9, 2010, 8:29:14 AM9/9/10
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अतः राजनीति वाली बात यदि कोई गूढ़ार्थ रखती
है तो उसे स्पष्ट करें।

 

दुःख और ग़म की व्युत्पत्ति अभी नहीं आई हैं , यदि पूर्व में चर्चा हो चुकी है तो भी यहाँ वे दर्ज होनी चाहियें। इससे आसानी रहेगी। मुझे भी ग़म ही यहाँ ज्यादा जम रहा है, महोब्बत को दुःख कहते कभी किसी को सुना नहीं है। कई बार शब्दों के ऐसे परिवर्तन कवि स्वयं भी कर लेता है जब वह बार-बार रचना को माँजता है। किसी रचना में कवि स्वयं तो जाने कितनी ही बार शब्दों के चयन को बदलता है उसे पेश करने से पहले। फिर भी इस प्रकार से दुर्भावनापूर्वक छेड़छाड़ की प्रवृत्ति से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
 
@रंगनाथ जी !
चर्चा चल पड़ी है तो गूढ़ार्थ या गूढ़ राजनीति, जो भी हो स्पष्ट हो ही जानी चाहिये।


 
2010/9/9 अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com>



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Pritish Barahath
Jaipur
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ई-स्वामी

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Sep 9, 2010, 10:05:43 AM9/9/10
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धन्यवाद!
हमने हमेशा से "और भी ग़म हैं..." ही सुना था.
बहुतेरी फ़िल्मों मे भी इसे गलत ही पढा गया है!
मेरे जैसों के लिये दु:ख और गम समानार्थी हैं..

2010/9/9 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>



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http://hindini.com
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Baljit Basi

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Sep 9, 2010, 11:44:17 AM9/9/10
to शब्द चर्चा
फैज़ की अपनी आवाज़ में दुःख शब्द आया है . सुनिए:
http://lcweb2.loc.gov/mbrs/master/salrp/08203.mp3

बलजीत बासी

अजित वडनेरकर

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Sep 9, 2010, 11:56:33 AM9/9/10
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हम भी दुःख ही वापरते हैं

2010/9/9 Baljit Basi <balji...@yahoo.com>
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ashutosh kumar

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Sep 9, 2010, 1:12:49 PM9/9/10
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प्लाट्स ने ग़म के ये मतलब बताये हैं-

Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe, solicitude, care, concern:—g̠am-ālūda,

और दुख़ के -

Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble, sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation, annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-ā), Painful,

बेहद दिलचस्प यह है कि ग्रीफ और सौरो के सिवा गम और दुख में कुछ भी एक जैसा नहीं है. 

दिलचस्पी की दूसरी बात यह है कि दुख का दायरा गम से खासा बड़ा है.
क्या यह सोचना असंगत है  कि मोहब्बत के सिवा इंसान के दुखों का जो  एक बड़ा दायरा है , उस की खातिर  फैज़ साहब ने जान बूझ कर गम की जगह दुख को चुना होगा?
यह एक  अटकलपच्ची है , लेकिन लेकिन फैज़ सरीखा सिद्ध शायर एक भी लफ्ज़ वगैर सोचे समझे इस्तेमाल नहीं करता !
ऐसे में दुख का गम हो जाना उन की कविता के साथ अन्याय है. 
सभी भाषाओं में संकीर्ण शुद्धतावादी प्रवृत्तियाँ पायी जातीं है. कभी सचेत रूप से यह राजनीति चलती है  , और कभी, जैसा कि  रंगनाथ ने  ठीक ही इशारा किया है, गैर - सचेत रूप से भी. 
जिस की कीमत भाषा को , साहित्य को और समाज को चुकानी पड़ती है.
इस अटकल और इस से निकलते इस बेहद परेशान्कुन अहसास पर संतों की कीमती राय का इंतज़ार है . 
...व्युत्पत्तिपरक विश्लेषण की प्रतीक्षा तो जारी है ही.         

ashutosh kumar

unread,
Sep 9, 2010, 1:34:37 PM9/9/10
to shabdc...@googlegroups.com
ग्रीफ और सौरो के साथ अन्हैप्पिनेस भी जोड़ लें. 

2010/9/9 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>

Abhay Tiwari

unread,
Sep 9, 2010, 1:50:13 PM9/9/10
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दुष्टों की जो ख़ान है वही दुःख है, आप्टे जी ने यही व्युत्पत्ति दी है.. दुष्टानि खानि यस्मिन। अर्थ आप के सही हैं। ग़म्म/गम अरबी शब्द है जिसके लगभग वही सब अर्थ हैं जो दुःख के- खेद, शोक, क्षोभ, रंज, कष्ट, क्लेश, दुःख, डाह, ईर्ष्या, हसद, मनस्ताप, संताप, अंदरूनी ख़लिश, चिन्ता, फ़िक्र। ये सारे अर्थ मद्दाह के कोष से।
 
उर्दू में दुख काफ़ी प्रचलित शब्द है, उसे और भी शाएरों ने इस्तेमाल किया है.. गम के ऊपर दुख के फ़ैज़ के इस चुनाव में बहुत अर्थ देखने की गुंज़ाईश है नहीं मेरी समझ से..

Bodhi Sattva

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Sep 9, 2010, 2:25:08 PM9/9/10
to shabdc...@googlegroups.com
दशरथ के मौत के गम (दुख) से रानियाँ जीवन भर दुखी रहीं। कैकेयी तो खास कर।
वे गमी में आते हैं खुशी में नहीं।
दोनों लगभग बराबर हैं।

2010/9/9 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>



--
Dr. Bodhisatva, mumbai
0-9820212573

Pritish Barahath

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Sep 10, 2010, 2:17:33 AM9/10/10
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यदि यहाँ रेखांकित की गई अचेत राजनीति के कारण वाकई भाषा, साहित्य और समाज को कोई कीमत चुकानी पडी है या आगे चुकाई जानी अवश्यम्भावी है तो अब यह खोज भी कर लेनी चाहिये कि इस शब्द को किसने बदला, किसने प्रचारित किया । साथ ही यह भी कि उसने अन्यत्र कहाँ-कहाँ भाषा के साथ यह दुर्भावनापूर्ण व्यवहार दोहराया है। यदि यह अचेत या सचेत राजनीति का परिणाम है तो अवश्य ही उस व्यक्ति ने सब जगह हिन्दी शब्दों से परहेज़ किया होगा।
 
@ अभय जी !
"गम के ऊपर दुख के फ़ैज़ के इस चुनाव में बहुत अर्थ देखने की गुंज़ाईश है नहीं मेरी समझ से.. "
मेरे आग्रह को रखने और उक्त व्युत्पत्तिजनक निष्कर्ष के लिये आभार !
फ़ैज़ साहब ने स्वयं दुःख शब्द का चुनाव बिना सोचे-समझे किया होगा यह सोचना तो नादानी की हद है पर मुझे नहीं लगता कि फ़ैज़ साहब अपनी रचना को पहली बार में ही अन्तिम रूप दे देते होंगें। और यह भी नामुमकिन है कि किसी कवि के चुने हुये शब्द का कोई स्थानापन्न शब्द भाषा में हो ही नहीं। ऐसे दो शब्दों के बीच चुनाव करने में कवि की अपनी प्रकृत्ति भी ख़ास महत्त्व रखती है। यदि यह शेर मैंने लिखा होता तो मैं ग़म ही लिखता क्यूँकि मेरी समझ के अनुसार (व्युत्पत्तिपरक नहीं) ग़म भावात्मक दुःख की ज्यादा अपील रखता है।
2010/9/9 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>
दुष्टों की जो ख़ान है वही दुःख है, आप्टे जी ने यही व्युत्पत्ति दी है.. दुष्टानि खानि यस्मिन। अर्थ आप के सही हैं। ग़म्म/गम अरबी शब्द है जिसके लगभग वही सब अर्थ हैं जो दुःख के- खेद, शोक, क्षोभ, रंज, कष्ट, क्लेश, दुःख, डाह, ईर्ष्या, हसद, मनस्ताप, संताप, अंदरूनी ख़लिश, चिन्ता, फ़िक्र। ये सारे अर्थ मद्दाह के कोष से।
 
उर्दू में दुख काफ़ी प्रचलित शब्द है, उसे और भी शाएरों ने इस्तेमाल किया है.. गम के ऊपर दुख के
 
ज़ के इस चुनाव में बहुत अर्थ देखने की गुंज़ाईश है नहीं मेरी समझ से..
----- Original Message -----
Sent: Thursday, September 09, 2010 11:04 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म

ग्रीफ और सौरो के साथ अन्हैप्पिनेस भी जोड़ लें. 

2010/9/9 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>


प्लाट्स ने ग़म के ये मतलब बताये हैं-

Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe, solicitude, care, concern:—g̠am-ālūda,

और दुख़ के -

Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble, sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation, annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-ā), Painful,

बेहद दिलचस्प यह है कि ग्रीफ और सौरो के सिवा गम और दुख में कुछ भी एक जैसा नहीं है. 

दिलचस्पी की दूसरी बात यह है कि दुख का दायरा गम से खासा बड़ा है.
क्या यह सोचना असंगत है  कि मोहब्बत के सिवा इंसान के दुखों का जो  एक बड़ा दायरा है , उस की खातिर  फैज़ साहब ने जान बूझ कर गम की जगह दुख को चुना होगा?
यह एक  अटकलपच्ची है , लेकिन लेकिन फैज़ सरीखा सिद्ध शायर एक भी लफ्ज़ वगैर सोचे समझे इस्तेमाल नहीं करता !
ऐसे में दुख का गम हो जाना उन की कविता के साथ अन्याय है. 
सभी भाषाओं में संकीर्ण शुद्धतावादी प्रवृत्तियाँ पायी जातीं है. कभी सचेत रूप से यह राजनीति चलती है  , और कभी, जैसा कि  रंगनाथ ने  ठीक ही इशारा किया है, गैर - सचेत रूप से भी. 
जिस की कीमत भाषा को , साहित्य को और समाज को चुकानी पड़ती है.
इस अटकल और इस से निकलते इस बेहद परेशान्कुन अहसास पर संतों की कीमती राय का इंतज़ार है . 
...व्युत्पत्तिपरक विश्लेषण की प्रतीक्षा तो जारी है ही.         





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Pritish Barahath
Jaipur

Rangnath Singh

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Sep 10, 2010, 3:03:01 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
यह तो तय है कि फैज जैसे शायरे-अजीम ने यूं ही इस शब्द का एक बहुप्रचलित
शब्द की जगह प्रयोग नहीं किया है। उनके काव्य-विवेक को चुनौति देने की
मेरी हिम्मत नहीं है। मैं उसे समझने भर की कोशिश कर सकता हूं।

एक बात ध्यान देने की है कि यह पंक्ति उस शेर में है जिसकी केन्द्रिय
भावना है कि मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग........

संभव है कि शायर ने इश्क और हुश्न के प्रचलित शायराना गम से अलगा कर
दुनियावी गम की तरफ जोर देने के लिए दुख का प्रयोग किया हो। आगे की
पंक्तियां भी दुनियावी मसाइल की तरफ ही जोर देती है। सबके ध्यान में फैज
की वो पंक्तियां जरूर होंगी कि-

चली जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे।
अब भी दिलकश है तेरा हुश्न मगर क्या कीजे।।

फैज को जितना मैंने पढ़ा है उसमें मुझे उनकी और एक नज्म याद आ रही है-

जब दुख की नदिया में हमने जीवन की नैया डाली थी।
था कितना कसबल बांहो में,लोहु में कितनी लाली थी।।

इस कविता में भी फैज निजी गम के बरक्स व्यापक सामाजिक दुख का जिक्र कर
रहे हैं। कुछ साथियों ने हिन्दी के दुख और उर्दू के गम के समानार्थी होने
की बात की है। यह बात बहुत हद तक ठीक लगेगी क्योंकि यहां मामला लास्ट इन
ट्रांसलेशन का भी हो सकता है। हम इस काव्य-चर्चा के संग तभी न्याय कर
पाएंगे जब हम इन दोनों शब्दों के उर्दू गजल के भीतर किए गए प्रयोग कं
अंतर पर विचार करें। अभी-अभी मुझे गालिब का प्रसिद्ध शेर याद आ रहा है-

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई/ मेरे दुख की दवा करे कोई।।

तो संभव है कि उर्दू गजल में दुख का प्रयोग ज्यादा व्यापक और गाढ़े गम के
लिए किया जाता रहा हो। बेहतर हो कि सभी साथी कुछ ऐसे अन्य शेर का जिक्र
करें जिनमें दुख का प्रयोग किया गया हो। तो शायद बात और खुले।

>> *From:* ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>> *Sent:* Thursday, September 09, 2010 11:04 PM
>> *Subject:* Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म


>>
>> ग्रीफ और सौरो के साथ अन्हैप्पिनेस भी जोड़ लें.
>>
>> 2010/9/9 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
>>
>>>
>>>
>>> प्लाट्स ने ग़म के ये मतलब बताये हैं-
>>>
>>> Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe,

>>> solicitude, care, concern:—*g̠am-ālūda*,


>>>
>>> और दुख़ के -
>>>
>>> Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble,
>>> sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation,

>>> annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-*ā*), Painful,

Rangnath Singh

unread,
Sep 10, 2010, 3:15:25 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
कोई जानकार शेर के वजन वाली बात पर प्रकाश डाले तो मदद होगी। यह भी
अनुरोध है कि दुख के प्रयोग वाले उन्हीं शेरों का जिक्र करें जो गणमान्य
शायरों ने लिखी हों। (बेहतर हो कि मरहूम शायरों ने।) शब्द-चर्चा के
स्वास्थ्य के लिए यह बेहतर होगा। :-)

Pritish Barahath

unread,
Sep 10, 2010, 4:28:05 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
@रंगनाथ जी !
 
धन्यवाद, आपने तब या अब की राजनीति से विलगाकर बहस को एक ऊँचा धरातल प्रदान किया है जिससे मुझे विशेष लाभ होगा। आपने पहले भी सचेत या अचेत राजनीति से साफ असहमति दर्ज कराई थी।

2010/9/10 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com>



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Pritish Barahath
Jaipur

दिनेशराय द्विवेदी

unread,
Sep 10, 2010, 7:20:50 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
अब यह बात सामने आ चुकी है कि  गम शब्द का प्रयोग वैयक्तिक अर्थों में अधिक होता है और दुख का विस्तार सामाजिक सीमा तक है। इस तरह दुख के स्थान पर गम शब्द का प्रयोग करने वालों ने उस शायरी के अर्थ को सीमित भी किया है।

2010/9/10 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>



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दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan,
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Abhay Tiwari

unread,
Sep 10, 2010, 7:37:52 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
दिन्रेश जी, बावजूद इसके कि आप ने अपनी सन्देश में अधिक शब्द का इस्तेमाल किया है मैं यही कहूँगा कि यह आरोपित अर्थ हैं.. नहीं तो ग़मे दुनिया भी ग़मे यार में शामिल कर लो जैसा जुमला बेमानी हो रहेगा.. क्योंकि आप की इस बात को अगर मान लिया जाय तो 'ग़म' तो दुनिया से बाबस्ता हो ही नहीं सकता? और क्या 'दुखी मन मेरे' गाने वाले क्या सब क्रांति नहीं हो पाने के चलते दुखी रहे हैं? 'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है' में कौन सा सामाजिक दुख था.. निरा वैयक्तिक ही तो था..
 
चूंकि ग़म उर्दू शाएरी में बहुत अधिक इश्क़िया सन्दर्भों में इस्तेमाल हो चुका है सम्भ्वतः इसलिए फ़ैज़ ने दुख का प्रयोग कर लिया होगा.. उस से अधिक इस प्रयोग में कुछ पढ़ना व्यर्थ की माथापच्ची है.. वैसे ही अगर मेरे ऊपर के वाक्य में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई व्यञ्जना खोजने लगे..!

Pritish Barahath

unread,
Sep 10, 2010, 7:44:54 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
@वैसे ही अगर मेरे ऊपर के वाक्य में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई व्यञ्जना खोजने लगे..!
 
व्यंजना नहीं राजनीति खोजने (करने)  लगे-


 
2010/9/10 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>



--
Pritish Barahath
Jaipur

दिनेशराय द्विवेदी

unread,
Sep 10, 2010, 7:51:51 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
चलिए, बात कुछ स्पष्ट हुई।

2010/9/10 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>

Abhay Tiwari

unread,
Sep 10, 2010, 8:40:23 AM9/10/10
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और भैया रंगनाथ, चचा ग़ालिब का कौन सा दुख दुनियावी मसाइल से उपज रहा था.. जीवन भर तो पेंशन के लिए दौड़भाग करते रहे.. ग़दर के वक़्त भी उन्होने सामाजिक परिवर्तन की धारा में हाथ नहीं धोए.. घर में ही बैठे रहे.. जब तक लाल क़िले में बादशाह था उस की चाकरी की बाद में गोरे साब को हाकिम मान लिया.. उनके भीतर भयंकर अहंकार था श्रेष्ठ होने का अहंकार; और अधिकतर 'दुख' उनके इस अहंकार और कर्ज़े की हालत से उपज रहे थे.. इसी को आप चाहे तों व्यापक और गाढ़ा ग़म मान सकते हैं..
 
लेकिन दुख और ग़म के भेद पर इस चर्चा के पीछे मानसिकता यह काम कर रही है कि उर्दू के भीतर संस्कृत मूल के शब्द होने का क्या मतलब है? अगर किसी ने इस्तेमाल किया है तो उसके पीछे कोई बड़ा भारी कारण होना चाहिये? अरे भाई इस भाषा को उर्दू ए मुअल्ला कहने के पहले इस का नाम हिन्दवी/हिन्दी/रेख़्ता था.. जिसके भीतर फ़ारसी के शब्द कम और खड़ी बोली के ही शब्द अधिक होते थे। रेख़्ता भी उसे इसलिए कहते थे क्योंकि वह शुद्ध नहीं गिरी हुई भ्रष्ट ज़ुबान थी.. जो लोग हिन्दी पर संस्कृतनिष्ठ होने का आरोप लगाते हैं वे ख़ुद उर्दू के भीतर इस आधार भूत परिवर्तन को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। जिसके चलते उर्दू बन गई ज़ुबाने उर्दू ए मुअल्ला ए शाहजहानाबाद यानी दिल्ली के अभिजात्य वर्ग की भाषा। इस अन्तर पर ग़ौर कीजिये.. एक तरफ़ रेख़्ता याने गिरी हुई भाषा और दूसरी तरफ़ अभिजात्य वर्ग की भाषा उर्दू ए मुअल्ला जो फ़ारसी और अरबी के शब्द खड़ी बोली में डाल कर विकसित हुई.. जिसके सबसे बड़े उदाहरण है चचा ग़ालिब ख़ुद!
 
इस का अर्थ यह नहीं कि हर शाएर हर शेर फ़ारसी कोष के पन्ने पलट कर ही लिखा जा रहा था। अपनी मातृ भाषा को फ़ारसी बताने वाले ख़ुद ग़ालिब ने भी दुख जैसे सरल और सहज शब्द का इस्तेमाल किया है.. और इसके अलावा ग़ालिब के काव्य में आने वाले चर्चा, बुरा, अँधेरी, काम, भेद आदि जैसे शब्द क्या फ़ारसी (जिसे लोग उर्दू के शब्द कहते हैं) या अरबी के शब्द हैं?
 
अब क्या हर ऐसे शब्द पर बहस करनी होगी जो संस्कृत मूल का है और उर्दू शाएरी में निकल आया?

अजित वडनेरकर

unread,
Sep 10, 2010, 8:43:40 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
बढ़िया है अभय भाई

2010/9/10 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>

Pritish Barahath

unread,
Sep 10, 2010, 10:26:07 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
सभी साथियों को ईद मुबारक़
 
अन्त में ये पंक्ति याद करते हुए-
दुनिया ने तेरे प्यार से बेग़ाना कर दिया तुझसे भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
एक गाना भी-
 
हज़ारों ग़म हैं इस दुनिया में अपने भी पराये भी............
 
Ed mubarak
 
Regards

2010/9/10 अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com>



--
Pritish Barahath
Jaipur

अजित वडनेरकर

unread,
Sep 10, 2010, 10:33:25 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
मुझे मिल गया बहाना तेरी दीद का
कैसी ख़ुशी लेके आया चांद ईद का

कैसी प्यारी पंक्तियां हैं....

2010/9/10 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>

Pritish Barahath

unread,
Sep 10, 2010, 10:37:08 AM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
 Ed ka din hai gale lagja jalim..
--
Pritish Barahath
Jaipur

Rangnath Singh

unread,
Sep 10, 2010, 12:37:29 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
अभय जी, आप ऐसा सरल पाठ करेंगे इसकी उम्मीद तो नहीं थी ! मैंने कब कहा
कि हमारे चचा गालिब गदर के सिपाही थे ! गालिब के बारे में आपने जो
सर्वविदित बातें बताईं है उन्हें तो सभी जानते हैं।

फैज का दुख और गालिब का दुख एक ही था ऐसा कोई सरलमति ही कह सकता है। फैज
ने इश्किया शायरी में बहुप्रचलित गम के बरक्स दुख का विशिष्ट प्रयोग किया
है इसके दो उदाहरण तो हमारे सामने हैं। और आपने भी माना ही है।

गालिब के संदर्भ में मैंने कोई जोर नहीं दिया था। मैंने लिखा था कि संभव
है.....। लेकिन आपने मेरा प्रस्ताव को मेरी स्थापना ही समझ ली। लेकिन
मुद्दे की बात यह है कि गालिब की जिस शेर का मैंने हवाला दिया है उसमें
भी गालिब ने दुख का प्रयोग इश्किया शायरी के गम से विलगाने का प्रयास
जरूर किया है।

गालिब के इस शेर में मनुष्य के अस्तित्व से बहुत गहरे जुड़े विडम्बनामूलक
अस्तित्ववादी दुख की बात की गई है। जाहिर है कि इस गजल में गालिब ईसा
मसीह यानी पैगम्बर से इश्क के गम की बात नहीं कर रहे हैं। गालिब कुछ
दूसरे ही दुख की बात कर रहे हैं।

जहां तक हिन्दी-उर्दू वाली बात है, मैंने शुरु में ही कहा कि हम इन
शब्दों को हिन्दी-उर्दू के शब्दों के रूप में न देखें। हम इन दोनों को
एक ही भाषा,यहां पर उर्दू का ही मान लें। और देखें कि शायर इन दोनों
शब्दों का प्रयोग किन खास अर्थों में करते हैं। यहां सिर्फ यही जानने का
प्रयास था,जैसा कि आशुतोष जी ने सुझाव दिया था, कि क्या क्लासिकल उर्दू
शायरी में गम और दुख दोनों शब्दों के बीच वैसा कोई अर्थगत भेद किया जाता
है जैसा कि हम हम स्वयं हिन्दी में दुख,पीड़ा,क्षोभ,विषाद इत्यादि शब्दों
के बीच करते हैं।

यह भी कहना चाहुंगा कि आपके लिखे से लग रहा है कि हम उर्दू शायरी में
तत्सम शब्द को देखकर कौतुक या प्रमाद से भर गए हैं और क्रीड़ाभाव से यह
चर्चा किए जा रहे हैं ! मैंने पहले ही कमेंट में मीर और इब्ने इंशा के
शायरी में हिन्दी के सुंदर प्रयोग की बात रखी थी। तो जाहिर है कि यहां
कोई भी इस बात पर बात नहीं कर रहा कि गालिब या फैज ने हिन्दी शब्द का
प्रयोग कैसे कर लिया ?? मैंने पहले भी लिखा था इन शायरों के लिए ये दोनों
शब्द अपने थे जिसे वो सहजता से प्रयोग करते थे।

>>>>> *From:* दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com>
>>>>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>>>>> *Sent:* Friday, September 10, 2010 5:21 PM


>>>>> *Subject:* Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म
>>>>>

>>>>> चलिए, बात कुछ स्पष्ट हुई।
>>>>>
>>>>> 2010/9/10 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>
>>>>>
>>>>>> @वैसे ही अगर मेरे ऊपर के वाक्य में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के
>>>>>> इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई व्यञ्जना खोजने लगे..!
>>>>>>
>>>>>> व्यंजना नहीं राजनीति खोजने (करने) लगे-
>>>>>>
>>>>>>
>>>>>>
>>>>>> 2010/9/10 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>
>>>>>>
>>>>>> दिन्रेश जी, बावजूद इसके कि आप ने अपनी सन्देश में अधिक शब्द का
>>>>>>> इस्तेमाल किया है मैं यही कहूँगा कि यह आरोपित अर्थ हैं.. नहीं तो ग़मे

>>>>>>> दुनिया भी ग़मे यार में शामिल कर लो जैसा जुमला बेमानी हो रहेगा..*
>>>>>>> *क्योंकि


>>>>>>> आप की इस बात को अगर मान लिया जाय तो 'ग़म' तो दुनिया से बाबस्ता हो ही
>>>>>>> नहीं
>>>>>>> सकता? और क्या 'दुखी मन मेरे' गाने वाले क्या सब क्रांति नहीं हो पाने
>>>>>>> के चलते
>>>>>>> दुखी रहे हैं? 'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है' में कौन सा
>>>>>>> सामाजिक दुख
>>>>>>> था.. निरा वैयक्तिक ही तो था..
>>>>>>>
>>>>>>> चूंकि ग़म उर्दू शाएरी में बहुत अधिक इश्क़िया सन्दर्भों में इस्तेमाल हो
>>>>>>> चुका है सम्भ्वतः इसलिए फ़ैज़ ने दुख का प्रयोग कर लिया होगा.. उस से अधिक
>>>>>>> इस
>>>>>>> प्रयोग में कुछ पढ़ना व्यर्थ की माथापच्ची है.. वैसे ही अगर मेरे ऊपर के
>>>>>>> वाक्य
>>>>>>> में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई
>>>>>>> व्यञ्जना
>>>>>>> खोजने लगे..!
>>>>>>>
>>>>>>> ----- Original Message -----

>>>>>>> *From:* दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com>
>>>>>>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>>>>>>> *Sent:* Friday, September 10, 2010 4:50 PM

>>>>>>> *क्लिक करें, ब्लाग पढ़ें ... अनवरत <http://anvarat.blogspot.com/>
>>>>>>> तीसरा खंबा <http://teesarakhamba.blogspot.com/>*


>>>>>>>
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>>>>>>
>>>>>>
>>>>>> --
>>>>>> Pritish Barahath
>>>>>> Jaipur
>>>>>>
>>>>>
>>>>>
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>>>>> दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
>>>>> Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan,

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>>>>> तीसरा
>>>>> खंबा <http://teesarakhamba.blogspot.com/>*

ashutosh kumar

unread,
Sep 10, 2010, 12:51:58 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com


दुःख और गम इस का है , अभय , कि आज कल तुम नैक जल्दबाज़ किस्म की फतवेबाजी करने लगे हो.
'' लेकिन दुख और ग़म के भेद पर इस चर्चा के पीछे मानसिकता यह काम कर रही है कि उर्दू के भीतर संस्कृत मूल के शब्द होने का क्या मतलब है? ''
हुजूरे आला , चर्चा यह थी कि दुःख जो था , वो गम कैसे हो गया . और इस से काव्यार्थ में क्या फरक पडा ? न कि यह , कि दुःख क्यों था , गम क्यों नहीं था .

वो  बात सारे फ़साने में जिस का जिक्र न था 
वो बात उन को बहुत नागवार गुज़री है. 

हम ने कब कहा कि दुःख हिंदी है, गम उर्दू है .दोनों दईमारी जुबानों में न दुःख की कमी है , न गम की. 

तकरीबन संतों ने इस अटकल की ताईद की है कि दुःख का दायरा गम से कुछ जियादा मालूम होता है.

वैसे  कविता में शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थों का बैंड बजाना सिद्ध शायर  अच्छी तरह जानतें हैं.

इस नज़्म की दूसरी ही पंक्ति में गम के दो दो इस्तेमाल हैं.

नज़्म का पहला बंद यूं है -

'मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग


तो दुःख का दायरा गम और गमेदहर दोनों से बड़ा है.

आज कल राजनीति का जिक्र भर करने से जुबान कटती है. 

हिंदी की अमर कहानी ' उस ने कहा था ' हम में से किसी ने मूल रूप में नहीं पढी . क्यों ?क्योंकि उस में एक लुच्चा गीत था , जो उस जमाने  में हिंदी गुरुओं के लिए नाकाबिले बर्दाश्त था. उसे सेंसर कर दिया गया. हिंदी एक खूबसूरत गीत से महरूम हो गयी. और ऐसे तमाम गीत साहित्यिक गरिमा से महरूम कर दिए गए. 

सौन्दर्यबोध और भाषाबोध की भी एक राजनीति होती है .अधिकतर यह अचेतन ढंग से काम करती है . इसी लिए जब उस की ओर इशारा किया जाता तो बात बाल की खाल सी लगती है. लेकिन मार उस की दूर तक जाती है.


लेकिन ईद तो फिर ईद है. 

आ. , गले लग जालिम. 

मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला. 

अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला.  


   

 





 
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अजित वडनेरकर

unread,
Sep 10, 2010, 12:55:06 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
रंगनाथ बाबू की बात में भी दम है।
ये भी बढ़िया रहा।
अच्छा विमर्श रहा।

आशुभाई जिंदाबाद...

2010/9/10 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
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Abhay Tiwari

unread,
Sep 10, 2010, 1:17:55 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
आशु,
बात वहाँ तक तो ठीक थी कि दुख के बदले भाई लोगों ने ग़म क्यों कर दिया..  इसमें वही चिंता थी जिसके ओर तुमने इशारा किया और मैंने भी.. लेकिन थोड़ा चलने के बाद मुझे ऐसा लगने लगा कि बात अपने सर पर खड़ी होने लगी है.. और ऐसा भास होने लगा कि फ़ैज़ साहब ने गम को होते हुए दुख लिखा तो कुछ ख़ास मतलब होगा.. इसमें मुझे कुछ हिन्दी बनाम उर्दू की बू आई.. इसीलिए मैंने तुम्हारी भाषा में 'जल्दबाज़ क़िस्म की फ़त्वेबाज़ी' कर डाली.. इसी बहाने चचा ग़ालिब के प्रति मेरी दबी हुई भड़ास भी निकल गई.. संतसमाज आहत हुआ है तो संतो वाला बड़प्पन धारण किया जाय.. और इसमें संत रंगनाथ में अपने को शामिल समझें..
 
लेकिन मेरा मानना अभी भी यह है दुख की जगह लोगों ने ग़म भिड़ा दिया वो पूरी तरह हिन्दी बनाम उर्दू वाली सोच है.. और अगर कोई यह मानता है कि ग़म छोड़कर दुख का प्रयोग करना कोई गहरे आग्रह से है.. ये भी उर्दू बनाम हिन्दी वाली सोच की ज़मीन है..और अगर नहीं मानता, जैसे कि रंगनाथ नहीं मानते, तो बात ही ख़तम हो जाती है..
 
और जहाँ तक मीटर की मेरी जानकारी है ग़म और दुख का भार बराबर ही है.. वैसे भी नज़्म है.. जो मीटर से बाहर चलती है।  
 
आशु तुमने अच्छा आगे की पंक्तिया दे दीं.. अब पहले के जुमले में कह रहे हैं कि पहले मैंने सोचा कि 'तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है'  लेकिन बाद में कहते हैं कि समझ आया कि 'और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा' ..
साफ़ है कि : ज़माने के दुख = ग़मे दहर..
 
लेकिन न जाने तुम किस समझ से इस का कुछ और ही पाठ कर रहे हो? और क्या समझ रहे हो ग़मे दहर का मतलब?
 
 

 
----- Original Message -----
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ashutosh kumar

unread,
Sep 10, 2010, 1:42:32 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com


अभय प्यारे , यही तो मुश्किल है.  
गमेदहर का मतलब गमेजमाना और गमेदौरां ही है .
दुःख का भी इस नज़्म में वही मतलब है.

तब शायर को मुहब्बत के सिवा गम क्यों नहीं दिखा , दुःख क्यों दिखा. यह हिंदी उर्दू का सवाल नहीं है. रंगनाथ इस जिज्ञासा के मर्म को अछ्छी तरह स्पस्ट कर चुकें हैं .कविता में आये शब्दों की अंतर्ध्वनियों को पकड़ने की कवायद है यह. रंगनाथ ने इस को समूची  उर्दू शायरी के बड़े फलक पर जांचने की सिफारिश की है , जो अगर की जा सके तो मूल्यवान होगी.
 
हमारा कयास यह है कि  दुःख का इस्तेमाल करने वाला शायर गमे जानां और गमे दौरां की द्वैवैकल्पिकता  [ बाईनरी अपोजीशंश ]से बाहर निकालने का रास्ता ढूंढ रहा है.

लेकिन उर्दू की ग़ज़ल है तो गम ही होगा के तर्क से संचालित उस्तादों ने इन तमान संभावनाओं का पटरा कर दिया या कर देने की कोशिश की. 
अब तक भी सब कुछ संभावनाओं के दायरे में ही है. 
कल को हम निहायत गलत भी साबित सकतें है , तो कोई बात नहीं. 
लेकिन यूं बाल की खाल निकालना निरे अहमकों का काम है , इस से हम तब तक मुतमयिन     न होंगे , जब तक खुद के अहमकपने से भी न हो जाएँ .        

Abhay Tiwari

unread,
Sep 10, 2010, 2:05:51 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
अगर आप की इस बात को समझने की ईमानदार कोशिश की जाय तो भाषा में पर्यायवाचियों
की जगह ही नहीं रहेगी.. और वैसे ही विपन्न कवि (बेचारे होने के लिए अभिशप्त)
भाषा में भी विपन्न हो जायेंगे.. सोचिये तुलसीदास का क्या होगा.. मानस तो लिखी
ही न जा सकेगी.. क्योंकि तुलसी के पास वज़न और तुक मिलाने के लिए पर्याय हैं ही
नहीं.. हर शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ है..

मैं यह नहीं कह रहा कि हर शब्द विशिष्ट नहीं होता.. लेकिन आप जिस तरफ़ बात को
खींचे लिए जा रहे हैं.. वो तो ऐसी हद्द है.. जहाँ समान्तर शब्दों की जगह ही
नहीं है.. जहाँ शब्द चर्चा जैसा मंच भी बेमानी होगा क्योंकि एक शब्द दूसरी भाषा
में अनुवाद हो ही नहीं सकता क्योंक उसका एक विशिष्ट अर्थ है..

रही बात दुख के उर्दू में विशिष्ट अर्थ की.. इस मिसाल के अलावा फ़ैज़ की जो दूसरी
मिसाल रंगनाथ ने दी है वो फ़ैज़ का हिन्दी शैली में काव्य रचना का प्रयोग है..
उसमें ग़म और दुख के बीच कोई अभिव्यञ्जनात्म चुनाव करने का कोई मामला है ही
नहीं.. इसमें एक भी शब्द फ़ारसी का नहीं है.. सब संस्कृत मूल के हैं..

जब दुख की नदिया में हमने जीवन की नैया डाली थी।
था कितना कसबल बांहो में,लोहु में कितनी लाली थी।।

और ग़ालिब की बात हो ही चुकी है..

फिर भी आप ही की तरह मैं भी अपने ग़लत साबित हो जाने की सम्भावना को छोड़े रखता
हूँ और उम्मीद करता हूँ कि कोई भाषा का पहलवान करे चित इस पहेली को.. जो मुझे
कोई पहेली नहीं लगती..

----- Original Message -----
From: ashutosh kumar
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Friday, September 10, 2010 11:12 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म

Baljit Basi

unread,
Sep 10, 2010, 2:21:18 PM9/10/10
to शब्द चर्चा
और भी शब्द हैं ज़माने में दुःख और गम के सिवा !
बलजीत बासी

> न होंगे , जब तक खुद के अहमकपने से भी न हो जाएँ .- उद्धृत पाठ छिपाएँ -
>
> उद्धृत पाठ दिखाए

Rangnath Singh

unread,
Sep 10, 2010, 2:36:56 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
इस बीच मैंने कविता कोश पर जाकर 'दुख' शब्द की खोज की। नतीजा ये रहा कि
उर्दू काव्य में 'दुख' शब्द का सर्वाधिक प्रयोग परवीन शाकिर ने किया
है,उसके बाद अहमद फराज ने। फैज ने एक अन्य जगह दुख और गम दोनों का
साथ-साथ प्रयोग किया है। साथ ही कुछ अन्य शायरों के गौरतलब शेर हैं
जिनमें दुख का प्रयोग है। जिनमें से कुछ को मैं प्रस्तुत किए देता हूं।

ईन्तेसाब
आज के नाम
आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्ट-मैंनों के नाम
टांगेवालों के नाम

उन दुख़ी माँओं के नाम
रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
नींद की मार खाये हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

अजित वडनेरकर

unread,
Sep 10, 2010, 2:39:17 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
ग़मों की बाढ़ और दुख के पहाड़ से
उबरा जाए संतों?


2010/9/11 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com>

Rangnath Singh

unread,
Sep 10, 2010, 2:45:56 PM9/10/10
to shabdc...@googlegroups.com
ये भी खूब रही :-)

Baljit Basi

unread,
Sep 10, 2010, 3:29:11 PM9/10/10
to शब्द चर्चा
अब संत की बात सुनो संतुह, भक्त रविदास क्या कहते हैं. बेगम पुरा सहर को
नाउ
दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ
नां तसवीस खिराजु न मालु
खउफु न खता न तरसु जवालु
अब मोहि खूब वतन गह पाई
ऊहां खैरि सदा मेरे भाई
काइमु दाइमु सदा पातिसाही
दोम न सेम एक सो आही
आबादानु सदा मसहूर
ऊहां गनी बसहि मामूर
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै
महरम महल न को अटकावै
कहि रविदास खलास चमारा
जो हम सहरी सु मीतु हमारा
यहाँ 'बेगम पुरा' से उस मानसिक अवस्था अथवा 'परमात्मा का घर है'
से लिया जाता है यहाँ कोई गम नहीं (बे+गम+पुरा). पर मेरे ख्याल में यह
रविदास जी का ऐसा वर्गहीन यूटोपिआई संसार है जिस की प्रापती के लिए फैज़
जी भी पर्यत्नशील रहे हैं. कोई शब्द समझ ना आए तो बताना.
बलजीत बासी

On 10 सित, 14:45, Rangnath Singh <rangnathsi...@gmail.com> wrote:
> ये भी खूब रही :-)
>

> On 9/11/10, अजित वडनेरकर <wadnerkar.a...@gmail.com> wrote:
>
>
>
> > ग़मों की बाढ़ और दुख के पहाड़ से
> > उबरा जाए संतों?
>

> > 2010/9/11 Rangnath Singh <rangnathsi...@gmail.com>


>
> >> इस बीच मैंने कविता कोश पर जाकर 'दुख' शब्द की खोज की। नतीजा ये रहा कि
> >> उर्दू काव्य में 'दुख' शब्द का सर्वाधिक प्रयोग परवीन शाकिर ने किया
> >> है,उसके बाद अहमद फराज ने। फैज ने एक अन्य जगह दुख और गम दोनों का
> >> साथ-साथ प्रयोग किया है। साथ ही कुछ अन्य शायरों के गौरतलब शेर हैं
> >> जिनमें दुख का प्रयोग है। जिनमें से कुछ को मैं प्रस्तुत किए देता हूं।
>
> >> ईन्तेसाब
> >> आज के नाम
> >> आज के नाम
> >> और
> >> आज के ग़म के नाम
> >> आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
> >> ज़र्द पत्तों का बन
> >> ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
> >> दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
> >> किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
> >> किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
> >> पोस्ट-मैंनों के नाम
> >> टांगेवालों के नाम
>
> >> उन दुख़ी माँओं के नाम
> >> रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
> >> नींद की मार खाये हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
> >> दुख बताते नहीं
> >> मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
>

> >http://shabdavali.blogspot.com/- उद्धृत पाठ छिपाएँ -
>
> उद्धृत पाठ दिखाए

संजय | sanjay

unread,
Sep 11, 2010, 12:33:01 AM9/11/10
to shabdc...@googlegroups.com
ईद मुबारक?! मुझे मिच्छामिदुकड़म कहें.

2010/9/11 Baljit Basi <balji...@yahoo.com>



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संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन
ए-507, स्मिता टावर, गुरूकुल रोड़, मेमनगर , अहमदाबाद, गुजरात. 
web : www.chhavi.inwww.tarakash.comwww.pinaak.org
blog:  www.tarakash.com/joglikhi


Pritish Barahath

unread,
Sep 15, 2010, 5:10:44 AM9/15/10
to shabdc...@googlegroups.com
@ आशुतोष जी !
 गले लगाने का आभार, अब गले लगने-लगाने में थोड़ी खींचतान, धक्का-मुक्की  तो होती ही है। मैं अपने अहमकपने से शर्मसार  हुआ कि मुझे इसमें चर्चा के बहाने तोड़-फोड़ की राजनीति की बू आयी। दूसरा  मैं हमारे  सामुहिक अहमकपने  से लज्जित हूँ कि हम सबने इस चर्चा में  शब्दकोश तो उलटे पर फ़ैज़ की किताब के पन्नों से धूल झाड़ना भूल गये । जब मैंनें  अपने कबाड़खाने  से सारे सुख़न हमारे की पन्ने पलटे तो मुझे उसमें ही वे प्रमाण बहुतायत में मिल गये जो ग़म और दुःख के बीच सारे भेदभावों के ख़िलाफ़ हैं, जिनकी स्थापना अभय जी ने पहले ही करदी है। मुझे तो काव्यात्मकता की दृष्टि से यह उचित ही लगता है कि पूर्व की पंक्ति में  ग़मे-दहर कहने के पश्चात अगली पंक्ति में   दुनिया का दुख कहा जाये
वरना फ़ैज तो यह भी कहते हैं कि तू गर मेरी हो भी जाये दुनिया के ग़म यूँ ही रहेंगे ....
और ग़ालिब भी ऐसी बातें करते हैं....... मरने से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यूँ..
थोड़ा झटका तो आया है पर .
बहरहाल गले लगाने के लिये झिंझोड़ने का धन्यवाद..   
 
धन्यवाद  
 
प्रीतीश

2010/9/10 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>



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Pritish Barahath
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