मैंने जिसे भी इस बात के लिए टोका होगा कि इस शेर में दुख है गम नहीं
उसने मुझसे बहस जरूर किया कि गम ही होगा !! लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके
पीछे कोई राजनीति है। राजनीति से ज्यादा इसमें विकृत सहजबोध की भूमिका
लगती है कि उर्दू है तो गम ही होगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि अब्दुल
बिस्मिल्लाह द्वारा संपादित सारे सुखन हमारे पढ़ने से पहले मैं भी गम ही
पढ़ता था। गम को प्रचारित करने के पीछे किसी लापरवाह आलसी शै का हाथ होगा।
गौरतलब है कि गालिब या अन्य शायरों के बहुत से प्रचलित शेरों से है,ही कि
का, का प्रचलित पाठ में विलोप कर दिया जाता है,बिला किसी राजनीति के।
यहां अहमद फराज के प्रसिद्व शेर रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ.....का
उदाहरण लिया जा सकता है। जहां तक मुझे पता है, शायर ने दिल ही दुखाने के
लिए आ....का प्रयोग किया है। अतः राजनीति वाली बात यदि कोई गूढ़ार्थ रखती
है तो उसे स्पष्ट करें।
On 9/9/10, Dr. Durgaprasad Agrawal <dpagr...@gmail.com> wrote:
> इस बात को रेखांकित करने के लिए आपका आभार आशुतोष जी, कि फैज़ की नज़्म में *
> दु:ख* शब्द प्रयुक्त हुआ है, न कि *ग़म*, जैसा कि बहुत सारे लोगों का खयाल है.
बलजीत बासी
Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe, solicitude, care, concern:—g̠am-ālūda,
और दुख़ के -
Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble, sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation, annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-ā), Painful,
बेहद दिलचस्प यह है कि ग्रीफ और सौरो के सिवा गम और दुख में कुछ भी एक जैसा नहीं है.
दिलचस्पी की दूसरी बात यह है कि दुख का दायरा गम से खासा बड़ा है.क्या यह सोचना असंगत है कि मोहब्बत के सिवा इंसान के दुखों का जो एक बड़ा दायरा है , उस की खातिर फैज़ साहब ने जान बूझ कर गम की जगह दुख को चुना होगा?यह एक अटकलपच्ची है , लेकिन लेकिन फैज़ सरीखा सिद्ध शायर एक भी लफ्ज़ वगैर सोचे समझे इस्तेमाल नहीं करता !ऐसे में दुख का गम हो जाना उन की कविता के साथ अन्याय है.सभी भाषाओं में संकीर्ण शुद्धतावादी प्रवृत्तियाँ पायी जातीं है. कभी सचेत रूप से यह राजनीति चलती है , और कभी, जैसा कि रंगनाथ ने ठीक ही इशारा किया है, गैर - सचेत रूप से भी.जिस की कीमत भाषा को , साहित्य को और समाज को चुकानी पड़ती है.इस अटकल और इस से निकलते इस बेहद परेशान्कुन अहसास पर संतों की कीमती राय का इंतज़ार है ....व्युत्पत्तिपरक विश्लेषण की प्रतीक्षा तो जारी है ही.
दुष्टों की जो ख़ान है वही दुःख है, आप्टे जी ने यही व्युत्पत्ति दी है.. दुष्टानि खानि यस्मिन। अर्थ आप के सही हैं। ग़म्म/गम अरबी शब्द है जिसके लगभग वही सब अर्थ हैं जो दुःख के- खेद, शोक, क्षोभ, रंज, कष्ट, क्लेश, दुःख, डाह, ईर्ष्या, हसद, मनस्ताप, संताप, अंदरूनी ख़लिश, चिन्ता, फ़िक्र। ये सारे अर्थ मद्दाह के कोष से।
उर्दू में दुख काफ़ी प्रचलित शब्द है, उसे और भी शाएरों ने इस्तेमाल किया है.. गम के ऊपर दुख के
ज़ के इस चुनाव में बहुत अर्थ देखने की गुंज़ाईश है नहीं मेरी समझ से..
----- Original Message -----From: ashutosh kumarSent: Thursday, September 09, 2010 11:04 PMSubject: Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़मग्रीफ और सौरो के साथ अन्हैप्पिनेस भी जोड़ लें.
2010/9/9 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
प्लाट्स ने ग़म के ये मतलब बताये हैं-Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe, solicitude, care, concern:—g̠am-ālūda,
और दुख़ के -
Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble, sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation, annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-ā), Painful,
बेहद दिलचस्प यह है कि ग्रीफ और सौरो के सिवा गम और दुख में कुछ भी एक जैसा नहीं है.
दिलचस्पी की दूसरी बात यह है कि दुख का दायरा गम से खासा बड़ा है.क्या यह सोचना असंगत है कि मोहब्बत के सिवा इंसान के दुखों का जो एक बड़ा दायरा है , उस की खातिर फैज़ साहब ने जान बूझ कर गम की जगह दुख को चुना होगा?यह एक अटकलपच्ची है , लेकिन लेकिन फैज़ सरीखा सिद्ध शायर एक भी लफ्ज़ वगैर सोचे समझे इस्तेमाल नहीं करता !ऐसे में दुख का गम हो जाना उन की कविता के साथ अन्याय है.सभी भाषाओं में संकीर्ण शुद्धतावादी प्रवृत्तियाँ पायी जातीं है. कभी सचेत रूप से यह राजनीति चलती है , और कभी, जैसा कि रंगनाथ ने ठीक ही इशारा किया है, गैर - सचेत रूप से भी.जिस की कीमत भाषा को , साहित्य को और समाज को चुकानी पड़ती है.इस अटकल और इस से निकलते इस बेहद परेशान्कुन अहसास पर संतों की कीमती राय का इंतज़ार है ....व्युत्पत्तिपरक विश्लेषण की प्रतीक्षा तो जारी है ही.
एक बात ध्यान देने की है कि यह पंक्ति उस शेर में है जिसकी केन्द्रिय
भावना है कि मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग........
संभव है कि शायर ने इश्क और हुश्न के प्रचलित शायराना गम से अलगा कर
दुनियावी गम की तरफ जोर देने के लिए दुख का प्रयोग किया हो। आगे की
पंक्तियां भी दुनियावी मसाइल की तरफ ही जोर देती है। सबके ध्यान में फैज
की वो पंक्तियां जरूर होंगी कि-
चली जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे।
अब भी दिलकश है तेरा हुश्न मगर क्या कीजे।।
फैज को जितना मैंने पढ़ा है उसमें मुझे उनकी और एक नज्म याद आ रही है-
जब दुख की नदिया में हमने जीवन की नैया डाली थी।
था कितना कसबल बांहो में,लोहु में कितनी लाली थी।।
इस कविता में भी फैज निजी गम के बरक्स व्यापक सामाजिक दुख का जिक्र कर
रहे हैं। कुछ साथियों ने हिन्दी के दुख और उर्दू के गम के समानार्थी होने
की बात की है। यह बात बहुत हद तक ठीक लगेगी क्योंकि यहां मामला लास्ट इन
ट्रांसलेशन का भी हो सकता है। हम इस काव्य-चर्चा के संग तभी न्याय कर
पाएंगे जब हम इन दोनों शब्दों के उर्दू गजल के भीतर किए गए प्रयोग कं
अंतर पर विचार करें। अभी-अभी मुझे गालिब का प्रसिद्ध शेर याद आ रहा है-
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई/ मेरे दुख की दवा करे कोई।।
तो संभव है कि उर्दू गजल में दुख का प्रयोग ज्यादा व्यापक और गाढ़े गम के
लिए किया जाता रहा हो। बेहतर हो कि सभी साथी कुछ ऐसे अन्य शेर का जिक्र
करें जिनमें दुख का प्रयोग किया गया हो। तो शायद बात और खुले।
>> *From:* ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>> *Sent:* Thursday, September 09, 2010 11:04 PM
>> *Subject:* Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म
>>
>> ग्रीफ और सौरो के साथ अन्हैप्पिनेस भी जोड़ लें.
>>
>> 2010/9/9 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>
>>
>>>
>>>
>>> प्लाट्स ने ग़म के ये मतलब बताये हैं-
>>>
>>> Grief, mourning, lamentation, sorrow, sadness, unhappiness, woe,
>>> solicitude, care, concern:—*g̠am-ālūda*,
>>>
>>> और दुख़ के -
>>>
>>> Pain, ache, ailment, affliction, suffering, distress; misery, trouble,
>>> sorrow, grief, uneasiness, unhappiness; difficulty; oppression; vexation,
>>> annoyance, bother; fatigue, labour, toil;—adj. (f.-*ā*), Painful,
फैज का दुख और गालिब का दुख एक ही था ऐसा कोई सरलमति ही कह सकता है। फैज
ने इश्किया शायरी में बहुप्रचलित गम के बरक्स दुख का विशिष्ट प्रयोग किया
है इसके दो उदाहरण तो हमारे सामने हैं। और आपने भी माना ही है।
गालिब के संदर्भ में मैंने कोई जोर नहीं दिया था। मैंने लिखा था कि संभव
है.....। लेकिन आपने मेरा प्रस्ताव को मेरी स्थापना ही समझ ली। लेकिन
मुद्दे की बात यह है कि गालिब की जिस शेर का मैंने हवाला दिया है उसमें
भी गालिब ने दुख का प्रयोग इश्किया शायरी के गम से विलगाने का प्रयास
जरूर किया है।
गालिब के इस शेर में मनुष्य के अस्तित्व से बहुत गहरे जुड़े विडम्बनामूलक
अस्तित्ववादी दुख की बात की गई है। जाहिर है कि इस गजल में गालिब ईसा
मसीह यानी पैगम्बर से इश्क के गम की बात नहीं कर रहे हैं। गालिब कुछ
दूसरे ही दुख की बात कर रहे हैं।
जहां तक हिन्दी-उर्दू वाली बात है, मैंने शुरु में ही कहा कि हम इन
शब्दों को हिन्दी-उर्दू के शब्दों के रूप में न देखें। हम इन दोनों को
एक ही भाषा,यहां पर उर्दू का ही मान लें। और देखें कि शायर इन दोनों
शब्दों का प्रयोग किन खास अर्थों में करते हैं। यहां सिर्फ यही जानने का
प्रयास था,जैसा कि आशुतोष जी ने सुझाव दिया था, कि क्या क्लासिकल उर्दू
शायरी में गम और दुख दोनों शब्दों के बीच वैसा कोई अर्थगत भेद किया जाता
है जैसा कि हम हम स्वयं हिन्दी में दुख,पीड़ा,क्षोभ,विषाद इत्यादि शब्दों
के बीच करते हैं।
यह भी कहना चाहुंगा कि आपके लिखे से लग रहा है कि हम उर्दू शायरी में
तत्सम शब्द को देखकर कौतुक या प्रमाद से भर गए हैं और क्रीड़ाभाव से यह
चर्चा किए जा रहे हैं ! मैंने पहले ही कमेंट में मीर और इब्ने इंशा के
शायरी में हिन्दी के सुंदर प्रयोग की बात रखी थी। तो जाहिर है कि यहां
कोई भी इस बात पर बात नहीं कर रहा कि गालिब या फैज ने हिन्दी शब्द का
प्रयोग कैसे कर लिया ?? मैंने पहले भी लिखा था इन शायरों के लिए ये दोनों
शब्द अपने थे जिसे वो सहजता से प्रयोग करते थे।
>>>>> *From:* दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com>
>>>>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>>>>> *Sent:* Friday, September 10, 2010 5:21 PM
>>>>> *Subject:* Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म
>>>>>
>>>>> चलिए, बात कुछ स्पष्ट हुई।
>>>>>
>>>>> 2010/9/10 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>
>>>>>
>>>>>> @वैसे ही अगर मेरे ऊपर के वाक्य में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के
>>>>>> इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई व्यञ्जना खोजने लगे..!
>>>>>>
>>>>>> व्यंजना नहीं राजनीति खोजने (करने) लगे-
>>>>>>
>>>>>>
>>>>>>
>>>>>> 2010/9/10 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>
>>>>>>
>>>>>> दिन्रेश जी, बावजूद इसके कि आप ने अपनी सन्देश में अधिक शब्द का
>>>>>>> इस्तेमाल किया है मैं यही कहूँगा कि यह आरोपित अर्थ हैं.. नहीं तो ग़मे
>>>>>>> दुनिया भी ग़मे यार में शामिल कर लो जैसा जुमला बेमानी हो रहेगा..*
>>>>>>> *क्योंकि
>>>>>>> आप की इस बात को अगर मान लिया जाय तो 'ग़म' तो दुनिया से बाबस्ता हो ही
>>>>>>> नहीं
>>>>>>> सकता? और क्या 'दुखी मन मेरे' गाने वाले क्या सब क्रांति नहीं हो पाने
>>>>>>> के चलते
>>>>>>> दुखी रहे हैं? 'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है' में कौन सा
>>>>>>> सामाजिक दुख
>>>>>>> था.. निरा वैयक्तिक ही तो था..
>>>>>>>
>>>>>>> चूंकि ग़म उर्दू शाएरी में बहुत अधिक इश्क़िया सन्दर्भों में इस्तेमाल हो
>>>>>>> चुका है सम्भ्वतः इसलिए फ़ैज़ ने दुख का प्रयोग कर लिया होगा.. उस से अधिक
>>>>>>> इस
>>>>>>> प्रयोग में कुछ पढ़ना व्यर्थ की माथापच्ची है.. वैसे ही अगर मेरे ऊपर के
>>>>>>> वाक्य
>>>>>>> में कोई इस्तेमाल और प्रयोग के इस्तेमाल/प्रयोग में कोई छिपी हुई
>>>>>>> व्यञ्जना
>>>>>>> खोजने लगे..!
>>>>>>>
>>>>>>> ----- Original Message -----
>>>>>>> *From:* दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com>
>>>>>>> *To:* shabdc...@googlegroups.com
>>>>>>> *Sent:* Friday, September 10, 2010 4:50 PM
>>>>>>> *क्लिक करें, ब्लाग पढ़ें ... अनवरत <http://anvarat.blogspot.com/>
>>>>>>> तीसरा खंबा <http://teesarakhamba.blogspot.com/>*
>>>>>>>
>>>>>>>
>>>>>>
>>>>>>
>>>>>> --
>>>>>> Pritish Barahath
>>>>>> Jaipur
>>>>>>
>>>>>
>>>>>
>>>>>
>>>>> --
>>>>> दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
>>>>> Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan,
>>>>> *क्लिक करें, ब्लाग पढ़ें ... अनवरत <http://anvarat.blogspot.com/>
>>>>> तीसरा
>>>>> खंबा <http://teesarakhamba.blogspot.com/>*
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
तो दुःख का दायरा गम और गमेदहर दोनों से बड़ा है.
आज कल राजनीति का जिक्र भर करने से जुबान कटती है.
हिंदी की अमर कहानी ' उस ने कहा था ' हम में से किसी ने मूल रूप में नहीं पढी . क्यों ?क्योंकि उस में एक लुच्चा गीत था , जो उस जमाने में हिंदी गुरुओं के लिए नाकाबिले बर्दाश्त था. उसे सेंसर कर दिया गया. हिंदी एक खूबसूरत गीत से महरूम हो गयी. और ऐसे तमाम गीत साहित्यिक गरिमा से महरूम कर दिए गए.
सौन्दर्यबोध और भाषाबोध की भी एक राजनीति होती है .अधिकतर यह अचेतन ढंग से काम करती है . इसी लिए जब उस की ओर इशारा किया जाता तो बात बाल की खाल सी लगती है. लेकिन मार उस की दूर तक जाती है.
लेकिन ईद तो फिर ईद है.
आ. , गले लग जालिम.
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला.
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला.
----- Original Message -----From: ashutosh kumar
मैं यह नहीं कह रहा कि हर शब्द विशिष्ट नहीं होता.. लेकिन आप जिस तरफ़ बात को
खींचे लिए जा रहे हैं.. वो तो ऐसी हद्द है.. जहाँ समान्तर शब्दों की जगह ही
नहीं है.. जहाँ शब्द चर्चा जैसा मंच भी बेमानी होगा क्योंकि एक शब्द दूसरी भाषा
में अनुवाद हो ही नहीं सकता क्योंक उसका एक विशिष्ट अर्थ है..
रही बात दुख के उर्दू में विशिष्ट अर्थ की.. इस मिसाल के अलावा फ़ैज़ की जो दूसरी
मिसाल रंगनाथ ने दी है वो फ़ैज़ का हिन्दी शैली में काव्य रचना का प्रयोग है..
उसमें ग़म और दुख के बीच कोई अभिव्यञ्जनात्म चुनाव करने का कोई मामला है ही
नहीं.. इसमें एक भी शब्द फ़ारसी का नहीं है.. सब संस्कृत मूल के हैं..
जब दुख की नदिया में हमने जीवन की नैया डाली थी।
था कितना कसबल बांहो में,लोहु में कितनी लाली थी।।
और ग़ालिब की बात हो ही चुकी है..
फिर भी आप ही की तरह मैं भी अपने ग़लत साबित हो जाने की सम्भावना को छोड़े रखता
हूँ और उम्मीद करता हूँ कि कोई भाषा का पहलवान करे चित इस पहेली को.. जो मुझे
कोई पहेली नहीं लगती..
----- Original Message -----
From: ashutosh kumar
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Friday, September 10, 2010 11:12 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: दुःख और ग़म
> न होंगे , जब तक खुद के अहमकपने से भी न हो जाएँ .- उद्धृत पाठ छिपाएँ -
>
> उद्धृत पाठ दिखाए
ईन्तेसाब
आज के नाम
आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्ट-मैंनों के नाम
टांगेवालों के नाम
उन दुख़ी माँओं के नाम
रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
नींद की मार खाये हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
On 10 सित, 14:45, Rangnath Singh <rangnathsi...@gmail.com> wrote:
> ये भी खूब रही :-)
>
> On 9/11/10, अजित वडनेरकर <wadnerkar.a...@gmail.com> wrote:
>
>
>
> > ग़मों की बाढ़ और दुख के पहाड़ से
> > उबरा जाए संतों?
>
> > 2010/9/11 Rangnath Singh <rangnathsi...@gmail.com>
>
> >> इस बीच मैंने कविता कोश पर जाकर 'दुख' शब्द की खोज की। नतीजा ये रहा कि
> >> उर्दू काव्य में 'दुख' शब्द का सर्वाधिक प्रयोग परवीन शाकिर ने किया
> >> है,उसके बाद अहमद फराज ने। फैज ने एक अन्य जगह दुख और गम दोनों का
> >> साथ-साथ प्रयोग किया है। साथ ही कुछ अन्य शायरों के गौरतलब शेर हैं
> >> जिनमें दुख का प्रयोग है। जिनमें से कुछ को मैं प्रस्तुत किए देता हूं।
>
> >> ईन्तेसाब
> >> आज के नाम
> >> आज के नाम
> >> और
> >> आज के ग़म के नाम
> >> आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
> >> ज़र्द पत्तों का बन
> >> ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
> >> दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
> >> किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
> >> किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
> >> पोस्ट-मैंनों के नाम
> >> टांगेवालों के नाम
>
> >> उन दुख़ी माँओं के नाम
> >> रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
> >> नींद की मार खाये हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
> >> दुख बताते नहीं
> >> मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
>
> >http://shabdavali.blogspot.com/- उद्धृत पाठ छिपाएँ -
>
> उद्धृत पाठ दिखाए