यही तो कह रहे हैं कि अगर हमे बचपन से 'ऋ" यान "रि" पढ़ाया गया है तब निश्चित ही इसका अभिप्राय "ॠ" था । आजतक अगर समूचा हिन्दी जगत "ऋ" में इ स्वर सुन-समझ रहा है तो इसके पीछे ध्वनिचिह्न भी "ॠ" होना चाहिए था । किस ग़लतफ़हमी के तहत ऐसा हुआ, ये आज़ादी के बाद हिन्दीभवन के स्वामी-मठाधीश जानें । रही बात प्रचलित ऋ में र् ध्वनि स्थापित करने की तो यह बेकार की क़वायद होगी । आधे र् का हिन्दी प्र और र्प की तरह प्रयोग होता है । एक तीसरा प्रकार मराठी में लिखा जाता है जिसका चिह्न मुझे इस कीबोर्ड पर नहीं दिख रहा है मगर इसे यूँ लिखा जाता है
वार््या अर्थात यह कुछ यूँ दिखता है
वा-या ।
हम जिन चिह्नों-ध्वनियों पर मगजमारी कर रहे हैं, वह लाहासिल है क्योंकि हिन्दी में इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । ये वैदिक काल की ध्वनियाँ हैं और यज्ञादि अनुष्टानों, साम आदि से जुड़ी रही होंगी । वैदिक काल में भी सामान्य बोलचाल में इनका प्रयोग होता होगा, इसका क्या भरोसा ।
प्रचलित हिन्दी में ऋ के लिए रि स्वर तो सही है मगर सम्भवतया इसके चिह्न में कोई घालमेल हुआ होगा । सम्भवतः "ॠ" होना चाहिए था और "ऋ" प्रचलित हुआ । इस पर जानकार कुछ कह सकते हैं ।
मेरी दो-टूक राय है कि हिन्दी को अनावश्यक वर्ण चिह्नों से मुक्ति पानी होगी । हिन्दी वालों से याज्ञिक का सही उच्चार निकलवाने के लिए एक वरिष्ठ पत्रकार को अपने नाम की वर्तनी बदल कर याग्निक करनी पड़ी क्योंकि हिन्दी वाले इसे याग्यिक की तरह बोलते हैं । हिन्दी में "ज्ञ" अपनी व्यावहारिकता खो चुका है । जबकि गुजराती और मराठी में याज्ञिक से कोई दिक्कत नहीं क्यों कि वे सहज ही इसका उच्चार
याग्निक की तरह करते हैं । इसीलिए गुजराती मराठा में
याज्ञिक ही लिखा -बोला जाता है । आज कितने लोग हैं जो ऋतु और रितु के अन्तर को जानते हैं ?
हमें वर्णमाला में संशोधन करने की आवश्यकता है । खासतौर पर ज्ञ और ऋ के बारे में सोचना चाहिए ।