श्रृंगार शब्द को हमेशा से इसी रूप में लिखा देख रहीं हूँ जो गलत है पर अंतर्जाल पर भी इस शब्द को उचित रूप में लिखने का कोई और तरीका यदि है तो बस इस प्रकार है शृंगार दोनों में अधिक उचित क्या होगा ?
उच्चारण की दृष्टि से 'शृंगार' ठीक है। यूनिकोड में वह रेफ है ही नहीं जो कि बिल्कुल ठीक हो। 'श्रृंगार' ठीक नहीं है क्यों कि यह श्+र+ऋ को दर्शाता है।
2012/10/12 seema agrawal <thinkpos...@gmail.com>
श्रृंगार शब्द को हमेशा से इसी रूप में लिखा देख रहीं हूँ जो गलत है पर अंतर्जाल पर भी इस शब्द को उचित रूप में लिखने का कोई और तरीका यदि है तो बस इस प्रकार है शृंगार दोनों में अधिक उचित क्या होगा ?
जहाँ तक ऋ के रि-री उच्चारण का सवाल है, इसका रु उच्चारण भी पूर्ववैदिक दौर में मान्य था।
हिन्दी में तो दोनों रूप (शृंगार और श्रंगार) चलते हैं,
धन्यवाद सर मैं आपकी बात से सहमत हूँ यदि निरंतर गलत प्रयोग से किसी शब्द या अक्षरी का रूप परिवर्तित हो रहा है तो उसके सही रूप को सामने लाना भी जरूरी है ..चर्चा उठाने का एक कारण यह भी था
सब ठीक है भाऊ! इस तर्क से ळ की भी आवश्यकता नहीं है। जब मैं ऋ के लिये इतना टेंशन ले रहा हूँ तो मेरी दृष्टि में पीढ़ी दर पीढ़ी हजारो वर्षों से सुरक्षित छान्दस की ध्वनि है। जो उपलब्ध है उसे यूँ ही फेंक देना ठीक नहीं। श्रंगार तो ग़लत है, एकदम ग़लत।
अपने यहाँ ‘अक्षर’ की अवधारणा है यानि जिसका क्षरण न हो। जैसा सुना, वैसा लिखा पढ़ा और उलट को भी बहुत हद तक वर्णमाला में साध लिया गया। इसी कारण सही वर्तनी के प्रश्न स्वत: ही सही उच्चारण से जुड़ जाते हैं। यदि कोई ग़लत बोलेगा, सुनेगा तो ग़लत लिखेगा भी। एक सलेबल के लिये तमाम अक्षर समूह, उनके उच्चारण में तमाम फोनेटिक्स, लुप्त अक्षर, बलाघात आदि के द्वारा जो कुछ इतर भाषाओं में साधा गया उसे यहाँ सहज ही साध लिया गया। आम और निरंतर विकसित होती भाषा में रिसि हो या ऋषि, अक्षर हो, अच्छर हो या आखर, सब चल जाते हैं लेकिन उंन्मुक्त प्रवाह के लिये भी किनारों की आवश्यकता होती है जिसे मानक कहते हैं। इसलिये किसी अकादमिक पेपर में कोई अच्छर लिखेगा या श्रंगार तो उस पर ऑबजेक्शन उठेगा ही।
अपने यहाँ मानक संस्कृत ध्वनियाँ और अक्षर हैं। जब वर्णमाला में ही ‘ऋ’ से निकसे अर्द्धस्वर ‘र’ की व्यवस्था बताई गयी है तो वैदिक और छान्दस ध्वनियों के लिये ‘ऋ’ के सही उच्चारण यानि ‘र के निकट’ सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है, तब और जब अभी भी सही उचारने वाले लोग बचे हुये हैं।
सरलीकरण के नाम पर पश्चिम अगर Pseudo की जगह sudo, Knowledge की जगह nolege नहीं अपना पा रहा, यूरोपीय संघ का अंग्रेजी सरलीकरण का प्रयास परवान नहीं चढ़ रहा तो उसके मात्र राजनैतिक और सांस्कृतिक कारण ही नहीं, भाषा के अपने कारण भी हैं। इसे अपने यहाँ भी समझना होगा। कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि अरबी/फारसी और अंग्रेजी में क्रमश: नुक्तों और सलेबल की बारीकियों को लेकर संतप्त हो जाने वाले जन जब संस्कृत या मानक हिन्दी की बात आती है तो कथित सरलीकरण के लिये इतने लालायित क्यों हो जाते हैं!
यह बस एक पक्ष भर है, किसी पर आरोप नहीं। मुझे जो कहना था/है, मेरे खयाल से इतना कह चुका हूँ कि लोग समझना चाहें तो समझ सकते हैं। बाकी तो मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना लेकिन मैं सिर्फ इसलिये अपना मुंड नहीं फेंक सकता कि बहुतों के मुंड मुझसे अलग हैं J इस ‘शृंगार/ श्रृंगार/श्रंगार’ चर्चा में मेरी यह अंतिम प्रविष्टि है। हाँ, मैं जो कह रहा हूँ, वह अन्धेरे में तीर कत्तई नहीं है।