honest शब्द का हिंदी अर्थ

317 views
Skip to first unread message

anamika ghatak

unread,
Aug 2, 2012, 10:33:28 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
honest  शब्द का हिंदी अर्थ क्या है ???इमानदार तो उर्दू शब्द है 

Vinod Sharma

unread,
Aug 2, 2012, 11:04:25 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
सत्यवादी
निष्कपट
सच्चरित्र

2012/8/2 anamika ghatak <ghat...@gmail.com>

Vinod Sharma

unread,
Aug 2, 2012, 11:05:46 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
सच्चा
खरा

2012/8/2 anamika ghatak <ghat...@gmail.com>

Abhay Tiwari

unread,
Aug 2, 2012, 11:09:27 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
ईमानदार हिन्दी शब्द है! हिन्दी में फ़ारसी और अरबी मूल के इतने शब्द भरे हुए हैं कि अगर उनको दूसरी भाषा का समझकर परहेज़ बरतने लगे तो भाषा का कबाड़ा हो जाएगा। हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत है, बहुत कुछ साझा है! 

2012/8/2 anamika ghatak <ghat...@gmail.com>

Baljit Basi

unread,
Aug 2, 2012, 11:11:17 AM8/2/12
to शब्द चर्चा
अगर आपको honest का 'इमानदार' उपयुक्त अर्थ नहीं लगता तो फिर honest को
हिंदी में भी honest रहने दो.
बलजीत बासी

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 2, 2012, 11:12:10 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
"प्रामाणिक"  गुजराती -और --मराठी  दोनो में चलता है। भार्गव कोष  में भी है ही, अर्थ छटा देख लीजिए।


From: "Vinod Sharma" <vinodj...@gmail.com>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Thursday, August 2, 2012 11:05:46 AM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] honest शब्द का हिंदी अर्थ

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 2, 2012, 11:21:24 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com



From: "Madhusudan H Jhaveri" <mjha...@umassd.edu>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Thursday, August 2, 2012 11:12:10 AM

Anil Janvijay

unread,
Aug 2, 2012, 11:56:00 AM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
ईमानदार से अच्छा और कोई हिन्दी शब्द नहीं है। हिन्दी-उर्दू का झगड़ा खड़ा करना है तो अनामिका जी कृपया,कहीं और जाकर चर्चा करें। इस मंच पर यह सब नहीं चलेगा। 

2012/8/2 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>



--
anil janvijay
कृपया हमारी ये वेबसाइट देखें


Moscow, Russia
+7 495 422 66 89 ( office)
+7 916 611 48 64 ( mobile)

anamika ghatak

unread,
Aug 2, 2012, 12:02:43 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
हिंदी में संस्कृत के भी शब्द प्रयोग में आते है ...मुझे कहीं वास्तविक अर्थ में honest   शब्द का अर्थ  नहीं मिला इसीलिए मेरा ये प्रश्न था ....हिंदी -उर्दू लेकर झगडा करना मेरा उद्देश्य नहीं है  

eg

unread,
Aug 2, 2012, 12:10:39 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
नैष्ठिक 

2012/8/2 anamika ghatak <ghat...@gmail.com>

Anil Janvijay

unread,
Aug 2, 2012, 12:14:22 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
अनामिका जी, तब आप ईमानदार की जगह निष्कपट शब्द का इस्तेमाल करिए। संस्कृत के निकट है और अंग्रेज़ी शब्द के अर्थ से भी इसका नाता बनता है।


 
2012/8/2 anamika ghatak <ghat...@gmail.com>

हिंदी में संस्कृत के भी शब्द प्रयोग में आते है ...मुझे कहीं वास्तविक अर्थ में honest   शब्द का अर्थ  नहीं मिला इसीलिए मेरा ये प्रश्न था ....हिंदी -उर्दू लेकर झगडा करना मेरा उद्देश्य नहीं है  


On Thursday, 2 August 2012 20:03:28 UTC+5:30, anamika ghatak wrote:
honest  शब्द का हिंदी अर्थ क्या है ???इमानदार तो उर्दू शब्द है 

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 2, 2012, 12:51:45 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
शब्द यदि संस्कृत मूलका होता है, तो हिन्दी को( राष्ट्र भाषा के रूपमें) अहिन्दी प्रदेशों में भी स्वीकृत कराने में कम कठिनाई होगी। दक्षिण के मुसलमान भी स्थानिक भाषाएं ही बोलते हैं। नुक्ता इत्यादि भी गुजराती मराठी शब्द कोषों में नहीं है। तमिल में तो सारे वर्ण भी नहीं है। क ख ग घ सारे क जैसे ही सुनायी पडते हैं।
एक बार उर्दू के पीछे हिन्दी को  ले जाकर हम उसे राष्ट्र भाषा बनाने में असफल हुए।
संस्कृत प्रचुर हिन्दी ही सारे भारत में स्वीकार कराने में कठिनाई कम होगी।
मैं मानता हूँ, कि संस्कृत निष्ठ नया शब्द सरलता से दक्षिण में भी स्वीकृत कराने में कम कठिनाई होगी, ऐसी मेरी दृढ धारणा बनती जा रही है।
कुछ उर्दू के शब्द तो रहेंगे ही। रास्ता, राह इत्यादि जो घुल मिल गये हैं।
 
इस विषय पर दो लेख डालने जा रहा हूँ।
चर्चा के लिए --खुला मानस रखते हुए।
हिन्दी का एकाधिकार केवल उत्तर भारतीयों का नहीं हो सकता, जब सारे भारत की राष्ट्र भाषा उसे बनना है।
सभी हिन्दी हितैषी हैं, इस प्रेम के आधार पर लिखने का साहस किया है।

अलग अलग दृष्टि कोण ही हमें दिशा निर्देश करा सकते हैं।
मेरे लेख में अनेकानेक पहलु स्पष्ट किए जाएंगे।कुछ राह देखें।
विनम्रता सहित--
मधुसूदन


From: "Anil Janvijay" <anilja...@gmail.com>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Thursday, August 2, 2012 12:14:22 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: honest शब्द का हिंदी अर्थ

Abhay Tiwari

unread,
Aug 2, 2012, 1:16:58 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
राष्ट्रभाषा बनाने के चक्कर में हिन्दी की काफ़ी फ़जीहत हो चुकी है.. हैदराबाद, मुम्बई, कोलकाता या आसाम-अरुणाचल जैसी जगहों पर जो हिन्दी बरती जाती है, उसमें चालू-चलताऊ शब्दों की ही भरमार रहती है। संस्कृत कोशों को खंगाल कर गढ़े हुए शब्द सुनकर वो कहीं ये न बोलने लगें- कि भइया, हिन्दी में समझाओ न कहना क्या चाहते हो?  

2012/8/2 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>
शब्द यदि संस्कृत मूलका होता है, तो हिन्दी को( राष्ट्र भाषा के रूपमें) अहिन्दी प्रदेशों में भी स्वीकृत कराने में कम कठिनाई होगी। दक्षिण के मुसलमान भी स्थानिक भाषाएं ही बोलते हैं। नुक्ता इत्यादि भी गुजराती मराठी शब्द कोषों में नहीं है। तमिल में तो सारे वर्ण भी नहीं है। क ख ग घ सारे क जैसे ही सुनायी पडते हैं।
333.png

Bharatbhooshan Tiwari

unread,
Aug 2, 2012, 2:00:46 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
<<संस्कृत प्रचुर हिंदी के सन्दर्भ में>>


गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस शब्दों के तद्भवीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण है. संस्कृत में लिखी गई वाल्मीकि रामायण को तुलसीदास ने पुरोहितों और पंडितों की क़ैद में से निकाल कर जनसाधारण की सम्पदा बना दिया. यही नहीं कि साहित्यिक दृष्टि से रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण से किसी भी तरह कम नहीं, बल्कि उसे तुलसीदास की आश्चर्यजनक प्रतिभा और परिश्रम ने संसार-साहित्य का विशिष्ट ग्रन्थ बनने का सम्मान दिलवाया है. शेक्सपियर के बारे में कहा गया है कि संसार में कोई ऐसी कहने लायक बात नहीं है, जो उसने अपने नाटकों में न कह दी हो. वही कथन तुलसीदास पर भी पूरा उतरता है. मानव-जीवन के गहन से गहन अनुभव, सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव और प्रकृति के अतीव मनोरम चित्र तुलसीदास के काव्य पाए जाते हैं. लेकिन किसी स्थान पर भी उन्होंने अपनी शैली को संस्कृत के तत्सम शब्दों से बोझिल नहीं किया. उन्होंने सुरुचिपूर्ण ढंग से संस्कृत के शब्दों के केवल तद्भव और अपभ्रंश रूपों का प्रयोग किया है. साहित्य सौंदर्य का इससे बढ़िया उदाहरण ढूंढें नहीं मिल सकता.

हमारे पंजाब के भक्ति-साहित्य की परंपरा भी यही है. बल्कि गुरुनानक, भाई गुरुदास और बुल्लेशाह ने महान कवियों ने इस परंपरा को इतना परिपक्व बना दिया है कि वर्तमान पंजाबी साहित्य में संस्कृत और फ़ारसी के तत्सम शब्द कोशिश करने पर भी सुन्दर नहीं लगते और पढ़ते समय बुरी तरह खटकते हैं.

यही प्रवृत्ति मैंने गुजराती, मराठी, बंगाली आदि में भी देखी है. पहली नज़र में ये भाषाएँ संस्कृत से लदी हुई प्रतीत होती हैं, लेकिन असलियत यह नहीं है. 'विस्माद' जैसा संस्कृत शब्द बंगाली में 'विशाद' बोला जाता है, चाहे लिखने में वह तत्सम ही प्रतीत हो. 'सभा-मौकूफी' शब्द मैंने आज के गुजरात समाचार-पत्र से लिया है. कितनी आज़ादी के साथ संस्कृत के एक शब्द को फ़ारसी के साथ जोड़ दिया गया है. 'शिक्षा' शब्द का अर्थ मराठी में 'सज़ा' और 'साक्षर' शब्द का अर्थ गुजराती में 'साहित्यिक व्यक्ति' हो जाता है. हरकत, गनीमत, तहाकुब जकात, आमदार, खासदार, आदि शब्द मराठी में आम प्रयोग के शब्द हैं. ये फ़ारसी से आये हैं, या और कहीं से, इस बात की किसी भी मराठी भाषी को परवाह नहीं है. शब्द चाहे संस्कृत का हो, या फ़ारसी का, मराठी व्याकरण के अनुसार ही उसका प्रयोग किया जाता है. यह बात मराठी भाषियों की की खुलदिली और आत्मविश्वास का सबूत देती है.

जो बात पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजराती आदि के लिए उपयुक्त और सही है, मैं समझता हूँ कि वह उर्दू-हिंदी के लिए भी उतनी ही सही होनी चाहिए. शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी को हज़म करना खड़ी बोली के लिए भी उतना ही मुश्किल है. खड़ी-बोली वालों को भी संस्कृत-फ़ारसी और उसके व्याकरण की दासता से छुटकारा पाना चाहिए. इन भाषाओँ में से लिए गए शब्दों का अपनी भाषा के स्वभाव के अनुसार अपभ्रन्शीकरण या तद्भवीकरण बहुत ज़रूरी है. ऐसा न करना भाषा को निर्जीव और दुर्बल बनाना है. इस बारे में जब तक आप अपना दृष्टिकोण नहीं बदलेंगे, तब तक आप तटवर्ती इलाकों की भाषाओँ के साथ आँख नहीं मिला सकेंगे, अंग्रेजी को गर्दन से पकड़ना तो अलग रहा.

कहने का मतलब यह, मेरे प्यारे दोस्तो, कि आपकी वर्तमान हिंदी शैली, जिसमें संस्कृत का अंधाधुंध प्रवेश और फ़ारसी शब्दों का अंधाधुंध बहिष्कार हो रहा है, उसकी उन्नति और विकास का सूचक नहीं है. इस रुझान की बदौलत यह शैली आपके अपने प्रांत में भी, और बाकी भारत की जनता के प्रिय होने की बजाय अप्रिय बनती जा रही है. इस असलियत को आप जितनी जल्दी समझ सकें, उतना ही आपके लिए अच्छा होगा.


--बलराज साहनी के आलेख 'आज के साहित्यकारों से अपील' से उद्धृत जो दिल्ली के एक प्रेस से 1972 में पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित हुआ था. इंस्टिटयूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी द्वारा 2011 में पुनर्प्रकाशित.

Baljit Basi

unread,
Aug 2, 2012, 5:04:34 PM8/2/12
to शब्द चर्चा
बहुत सही कहा.साहनी जी ने
बलजीत बासी
On 2 अग, 14:00, Bharatbhooshan Tiwari

<bharatbhooshan.tiw...@gmail.com> wrote:
> <<संस्कृत प्रचुर हिंदी के सन्दर्भ में>>
> *
> *

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 2, 2012, 6:07:59 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com


सहानी जी का आप का उदाहरण क्या तमिलनाडु,केरल, आंध्र या कर्नाटक में भी चल जाएगा?


अपनी उत्तर भारतीय प्रादेशिकता और हिन्दी वर्चस्वता का भाव त्यागकर, आप तटस्थ हो कर,निम्न उदाहरण पर सोचें।
जब रामायण धारावाही बंगलूर निकट किसी देहात में, दूर दर्शन पर दिखायी जा रही थी। उस समय की एक घटना  जाननी उचित होगी।
आंगन से जनता खिडकी से  दूरदर्शन पर रामानन्द सागर की धारावाही रामायण देख रही थी। उस दिन दूरदर्शन पर दशरथ की मृत्यु का प्रसंग था। दर्शक रो रहे थे।
मेरा मित्र जो वहां रुका हुआ था, उस के पूछने पर कि,  क्या उन्हें धारावाही की हिन्दी समझ में आती है? तो उन ग्रामीण जनों का पहला प्रश्न यह था, कि, क्या यह हिन्दी है? कहने लगे कि, यह तो समझमें आती है। अब रामानन्द सागर की धारावाही रामायण की हिन्दी संस्कृत प्रचुर ही माननी होगी।
तो फिर कौनसी हिन्दी समझमें नहीं आती? तो बोले वो सिनेमा वाली हिन्दी समझ में नहीं आती।
अभी सिनेमा वाली हिन्दी, रामायण की हिन्दी जैसी संस्कृत निष्ठ हिन्दी नहीं होती। उस में कठिन फारसी और अरबी के शब्द होते हैं। जिनका चलन दक्षिण मे नहीं है। यह बात साधारण उत्तर भारतीयों के समझमें नहीं आती। इसमें अरबी या फारसी का विरोध या द्वेष नहीं है। कुछ शब्द होंगे भी। वैसे दक्षिण के इस्लाम धर्मी बंधु भी वहां की प्रादेशिक भाषाएं ही बोलते हैं।



From: "Bharatbhooshan Tiwari" <bharatbhoo...@gmail.com>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Thursday, August 2, 2012 2:00:46 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: honest शब्द का हिंदी अर्थ

Abhay Tiwari

unread,
Aug 2, 2012, 9:13:33 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
ये बुनियाद ही ग़लत है। भाषाएं गढ़ी नहीं जातीं.. सड़कों पर, बाज़ारों में, लोगों के आपसी लेन-देन के बीच पैदा होती हैं.. एक चल रही भाषा में छेनी-हथौड़ी चलाने वाले लोग असल में एक ऐसी मूर्ति बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी सब लोग पूजा करने लगें.. केरल और तमिलनाडु की चिन्ता छोड़ दीजिये..जिस तरह की हिन्दी की बात आप कर रहे हैं उसे हिन्दी प्रदेश के ही लोग नहीं समझेंगे.. और रही बात सिनेमा की- हिन्दी सिनेमा ही अभी हिन्दी का उद्धारक है। उसके गीत व संवाद तो जैसे  हिन्दी की आधुनिक लोक-परम्परा बन गए हैं.. और सरकारी हिन्दी, हिन्दी विभागों, और हिन्दी भाषा अधिकारियों ने ही तो हिन्दी का बेड़ा ग़र्क़ किया है। जहाँ तक स्वीकार्यता का सवाल है- सत्ता जो भाषा बोलती है- उसे सब स्वीकार लेते हैं। कितने भी संस्कृत के शब्द गढ़ डालिये, जब तक हिन्दी सत्ता की भाषा न होगी- कोई अभियन्ता ना बोलेगा, इंजीनियर ही चलेगा! 

2012/8/3 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>

Rahul Singh

unread,
Aug 2, 2012, 9:30:00 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
संभवतः गुजराती मराठी का प्रामाणिक शब्‍द, जेनुइन और आथेन्टिक के अधिक
करीब का अर्थ देता है न कि honest जैसा.

2012/8/2 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>:

--
राहुल कुमार सिंह
छत्‍तीसगढ
+919425227484
http://akaltara.blogspot.com

narayan prasad

unread,
Aug 2, 2012, 11:53:36 PM8/2/12
to shabdc...@googlegroups.com
<< भाषाएं गढ़ी नहीं जातीं..>>

वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्द गढ़े ही जाते हैं ।


<<कितने भी संस्कृत के शब्द गढ़ डालिये, जब तक हिन्दी सत्ता की भाषा न होगी- कोई अभियन्ता ना बोलेगा, इंजीनियर ही चलेगा! >>

अंग्रेज़ी शब्दों से उधार लिए गए शब्दों की भी कोई सीमा होनी ( 5 % या ऐसा ही कुछ) चाहिए । नहीं तो, जिस प्रकार की हिन्दी आजकल के समाचारपत्रों  ('नवभारत टाइम्स' आदि) में घुसेड़ी जा रही है, उससे हिन्दी तो विकृत ही होगी ।

--- नारायण प्रसाद


2012/8/3 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 3, 2012, 12:19:49 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com


प्रश्न:(१)
क्या रामानन्द सागर की रामायण समान भाषा स्वीकार्य नहीं है?
(हाँ/ना)
प्रश्न:(२)
यदि "भाषाएं गढी नहीं जाती"----ऐसा है, तो फिर हम शब्द चर्चा से शब्द क्यों रच रहे हैं।
उत्तर:
प्रश्न: (३)
 उपसर्गों प्रत्ययों, समास और संधिका उपयोग कर नया शब्द क्यों उपजा रहें हैं?
उत्तर:
प्रश्न: (४)
 तद्भव भी तत्सम के बिना कहां से जन्मता है?
 उत्तर:
कुछ फारसी अरबी शब्द भाषाओं में घुल मिल गए हैं,मुझे  स्वीकार्य है।
 तिवारी जी हम सब एक ही उद्देश्य से जुडे हुए,और हिन्दी के हितैषि हैं।
 जब आज तक, ===>विधान, संविधान,विधान सभा, विधेयक, वैध, अवैध, विधायक, ----ऐसे अनेक शब्द उपजाये गये हैं। मैं ने गढे कहा, इतना ही तो अन्तर मैं स्वीकार करता हूँ।
मधुसूदन।
 





From: "Abhay Tiwari" <abha...@gmail.com>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Thursday, August 2, 2012 9:13:33 PM
Subject: Re: [शब्द चर्चा] राष्ट्र भाषा भारती-चिन्तनार्थ

hitendra

unread,
Aug 3, 2012, 12:45:57 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
आप निष्ठ और निष्ठावान शब्दों का उपयोग कर सकती हैं। 

Arvind Kumar

unread,
Aug 3, 2012, 12:58:18 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com

ईमानदार हिंदी का ही शब्द है. हिंदी को इतना सीमित मत कीजिए कि ऐसे शब्द निकालने पड़ें.

Madan Mohan Sharma

unread,
Aug 3, 2012, 1:00:05 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
'सत्यनिष्ठ' भी हो सकता है.

2012/8/3 hitendra <mail.h...@gmail.com>

संजय | sanjay

unread,
Aug 3, 2012, 1:07:06 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
मुझे दक्षिण की भाषाएं समझ नहीं आती मगर जब सुनता हूँ तो लगता है संस्कृत के निकट है. श्रीलंका का राष्ट्रगीत सुन कर देखें. तो कोई कारण नहीं कि हिन्दी संस्कृतमय न हो. ब्लात ठूंसे गए अरबी-अंग्रेजी शब्द स्वरूप को बिगाड़ते ही है.  
--
संजय बेंगाणी | sanjay bengani
छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन
ए-507, स्मिता टावर, गुरूकुल रोड़,
मेमनगर , अहमदाबाद, गुजरात. 



Abhay Tiwari

unread,
Aug 3, 2012, 1:20:46 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
जो वैज्ञानिक और तकनीकि शब्द गढ़े जाते हैं उनमें से कितने आम प्रचलन में आ पाते हैं?इस पर विचार करने की ज़रूरत है!  भाषा को तकनीकि और वैज्ञानिक ग्रंथों तक ही सीमित नहीं होती.. उसका एक व्यापक दायरा होता है.. लिखने वाली भाषा से बहुत पहले बोलने वाली भाषा होती है। हिन्दी के समाचार पत्रों में जो अंग्रेजी मिश्रित भाषा लिखी जा रही वो लिखने वाली हिन्दी और बोलने वाली हिन्दी में आए इसी अन्तर को कम करने का एक प्रयास है! अच्छे-अच्छे साहित्यकारों को मैंने वही नवभारत टाइम्स वाली हिन्दी बोलते सुना है। 

फिर भी मैं उस तरह की हिन्दी के पक्ष में नहीं हूँ.. न ही नए शब्द गढ़ने का पूरी तरह विरोधी हूँ.. मगर  ईमानदार जैसे शब्दों को हटाने की प्रवृत्ति घातक है! जो शब्द हमारी बोल-चाल की भाषा मे पहले से हो ही ना, उनके लिए नए शब्द बनाने के बारे में सोचा जा सकता है, पर पहले से मौजूद अरबी-फ़ारसी के शब्द को  हटाकर संस्कृत का शब्द ले आने को मैं बेकार की कसरत समझता हूँ। इसलिए नहीं कि मुझे अरबी-फ़ारसी प्यार है बल्कि इसलिए कि ऐसे शब्द चार-पाँच सौ या और भी अधिक समय से चलन में हैं,  उन्हे आप नया शब्द गढ़कर नहीं हटा सकते.. 

शब्द चर्चा का मंच नए शब्द गढ़ने के लिए है- ये एक ग़लतफ़हमी है! कुछ सदस्य ऐसा करने लगते है, उन्हे विनम्रता से कई बार ऐसा बताया जा चुका है.. फिर भी वो करते हैं तो हम उनके प्रति एक सहिष्णु बरताव रखते हैं.. किसी के साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं है! 

तत्सम से तद्भव (साहित्य) का जन्म होता है..  पर उसके बहुत पहले प्राकृत थी जिससे संस्कृत का संस्कार होता है! जो संस्कार किया गया था, जनता ने बाद में उसे फिर कोने घिसकर अपने लायक़ बना लिया.. 

Vinod Sharma

unread,
Aug 3, 2012, 2:50:47 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
भाषा तो बहती नदी की भांति होती है, जो उसमें आ मिलने वाली छोटी नदियों और नालों को समाविष्ट करती हुई सतत प्रवाहित होती रहती है। हाँ जैसा गंगा, जमुना के साथ हो रहा है कि हम लोगों ने उनमें अपशिष्ट और विषाक्त पदार्थ डालने शुरू कर दिए तो इन्हीं पवित्र नदियों का जल उपयोग के योग्य नहीं रहा।  इस प्रकार बाजार वाद की नई संस्कृति के पोषक जबर्दस्ती हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को शामिल कर प्रदूषित गंगा या जमुना बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसका परिणाम यह होगा कि सिर्फ नाम ही गंगा या जमुना रह जाएगा उसका जल किसी काम का नहीं होगा। जिस प्रकार गंगा कानपुर में और यमुना दिल्ली में आकर गंदे नाले में परिवर्तित हो जाती हैं, उसी तरह से विश्व का सर्वाधिक समृद्ध भाषा को प्रदूषित कर गंदे नाले में परिवर्तित करने के प्रयासों का निश्चय ही विरोध और प्रतिकार किया जाना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार नदी उसमें मिलने वाले प्राकृतिक नदी-नालों को सहज रूप में आत्मसात कर लेती है, उसी प्रकार लंबे चलन के बाद सहज रूप से हिंदी में समाविष्ट होने वाले विदेशज शब्दों के विरोध का कोई औचित्य नहीं है।  यह तो स्वाभाविक और सहज प्रक्रिया है।
सादर,
विनोद शर्मा 

2012/8/3 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>

हंसराज सुज्ञ

unread,
Aug 3, 2012, 3:05:27 AM8/3/12
to शब्द चर्चा
'निष्ठावान', 'नीतिवान', 'नैतिक' जैसे शब्द प्रचलित है। 
हिन्दी के पास ऑनेस्ट के लिए भिन्न भिन्न पर्यायों के भिन्न भिन्न शब्द बहु-प्रचलित है।
जहाँ तक 'ईमानदार' शब्द की बात है, वह तो आम प्रचलन में रहेगा ही,
किन्तु किसी शब्द के बोलचाल में रूढ़ और आम हो जाने मात्र से दूसरी पर्यायों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
ईमानदार का शब्दार्थ-भावार्थ देखें तो अर्थ होता है 'आस्थावान' जबकि 'निष्ठ' लगाकर ईमानदारी विशेष को उजागर किया जा सकता है जैसे सत्य के प्रति ईमानदार को सत्यनिष्ठ, कर्तव्य के प्रति ईमानदार को कर्तव्यनिष्ठ, श्रद्धा के प्रति ईमानदार को श्रद्धानिष्ठ…… समग्रता अथवा विशेषता का आग्रह न हो तो 'निष्ठावान' सही शब्द है।



 सविनय,
हंसराज "सुज्ञ"

&#2360;&#2369;&#2332;&#2381;&#2334;


Date: Fri, 3 Aug 2012 10:30:05 +0530
Subject: Re: [शब्द चर्चा] Re: honest शब्द का हिंदी अर्थ
From: madanmoh...@gmail.com
To: shabdc...@googlegroups.com

Dr. Sheo Shankar Jaiswal

unread,
Aug 3, 2012, 3:17:55 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
आपने दोनों बातें कह दी हैं. गंगा नदी-नालों को अपने में समाविष्ट करती हुई सतत बहे, किन्तु उसमें इतना अपशिष्ट और इतनी गन्दगी न डाली जाय कि वह स्वयं नाला बन जाय. अर्थात अन्य भाषाओँ के शब्द स्वीकारते हुए किसी लक्ष्मण रेखा की बात भी स्वीकारनी होगी. उसका निर्धारण भी करना होगा. उसके कुछ कायदे-क़ानून होंगे. युनिवर्सिटियों, टीचरों, स्कूलों जैसे शब्द हिन्दी में प्रयुक्त हों अथवा उनके सरलता से उपलब्ध और सुपरिचित हिन्दी समानार्थक शब्द इस्तेमाल किये जांय, यह निर्णय करना होगा. अलग भाषा के शब्दों को हिन्दी में शामिल करने के मामले में अति उदारता उतनी ही ग़लत है जितनी अति संकीर्णता. इन दोनों छोरों के बीच काफी जगह बचती है जिसमें भाषा सहज स्वाभाविक रूप से विकसित हो सकती है.     

2012/8/3 Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com>



--
Dr. S S Jaiswal

Dr. Sheo Shankar Jaiswal

unread,
Aug 3, 2012, 3:35:40 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
 सुज्ञ जी ने सही बात कही है: ''किसी शब्द के बोलचाल में रूढ़ और आम हो जाने मात्र से दूसरी भाषा के पर्यायों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।'' हम यहाँ 'ईमानदार' के लिए हिन्दी शब्द जानने की जिज्ञासा वाले व्यक्ति को मंच छोड़कर अन्यत्र जाने की बात कह रहे हैं. यह शायद उचित नहीं है. निष्ठावान, नैतिक, प्रमाणिक, नीतिवान जैसे अनेक शब्द हिन्दी में हैं जो ईमानदार के समानार्थक हैं. दूसरे के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकारने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने अस्तित्व की कुटिया ही जला डालें. यह तो कुछ ऐसा ही हुआ जैसे कोई कहे कि हम हिन्दू अथवा मुसलमान रहते हुए सर्व धर्म समभाव को आचरण में नहीं ला सकते. किसी एक जाति का होने के बाद भी हम जाति-पांति से ऊपर उठकर व्यवहार कर सकते हैं.    

2012/8/3 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>

Anil Janvijay

unread,
Aug 3, 2012, 3:56:47 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
मैं अभय तिवारी और विनोद शर्मा जी से पूरी तरह सहमत हूँ। अपनी बात इसलिए नहीं कह रहा कि दूसरे शब्दों में उसी बात को  बार-बार दोहराने से क्या फ़ायदा।

2012/8/3 Dr. Sheo Shankar Jaiswal <jais...@gmail.com>

Anil Janvijay

unread,
Aug 3, 2012, 4:06:34 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
जायसवाल जी, आप बात का बतंगड़ बना रहे हैं। किसी ने किसी से मंच छोड़कर जाने के लिए नहीं कहा। बस, इतना कहा गया है कि हिन्दी-उर्दू का झगड़ा मत खड़ा कीजिए। ज़रा, यह बताया जाए कि अभी तक संस्कृत के जितने शब्द बताए गए हैं, उनमें से कौनसा शब्द पूरी तरह से ’ईमानदार’ का स्थानापन्न हो सकता है। ये सभी शब्द निष्ठावान, नैतिक, प्रमाणिक, नीतिवान आदि अन्य अर्थछवियाँ रखते हैं और अन्य रूपों में इस्तेमाल किए जाते हैं। ये सभी शब्द ’ईमानदार’ का एक-एक अंश मात्र हैं। पूरी तरह से ईमानदार के समानार्थक नहीं। न ही ये शब्द पूरी तरह से हिन्दी में honest की अर्थ छवि देते हैं। जबकि ईमानदार पूरी तरह से honest  पूरी तरह से ईमानदार का पर्यायवाची है।


 
2012/8/3 Dr. Sheo Shankar Jaiswal <jais...@gmail.com>
 सुज्ञ जी ने सही बात कही है: ''किसी शब्द के बोलचाल में रूढ़ और आम हो जाने मात्र से दूसरी भाषा के पर्यायों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।'' हम यहाँ 'ईमानदार' के लिए हिन्दी शब्द जानने की जिज्ञासा वाले व्यक्ति को मंच छोड़कर अन्यत्र जाने की बात कह रहे हैं. यह शायद उचित नहीं है. निष्ठावान, नैतिक, प्रमाणिक, नीतिवान जैसे अनेक शब्द हिन्दी में हैं जो ईमानदार के समानार्थक हैं. दूसरे के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकारने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने अस्तित्व की कुटिया ही जला डालें. यह तो कुछ ऐसा ही हुआ जैसे कोई कहे कि हम हिन्दू अथवा मुसलमान रहते हुए सर्व धर्म समभाव को आचरण में नहीं ला सकते. किसी एक जाति का होने के बाद भी हम जाति-पांति से ऊपर उठकर व्यवहार कर सकते हैं.    

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 3, 2012, 5:37:30 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
मै पहले भी कह चुका हूँ कि हम अक्सर अपनी प्रतिक्रियाएँ काफ़ी जल्दबाजी में देते हैं । सामूहिक विमर्श में ऐसा होना स्वाभाविक है किन्तु सावधानी और धैर्य से विचार करें तो इससे उत्पन्न अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है । अक्सर जल्दबाजी में काम बिगड़ते हैं । इस समूह से सभी सदस्यों का लगाव काबिले-तारीफ़ है । समूह पर फ़ौरी प्रतिक्रियाएँ गंभीर विमर्श के अवसर कम करती हैं । मेरा मानना है कि इस समूह के ज़रिये हम शब्दों के उत्स, पर्यायी शब्दों और भाषा-प्रयोगों पर गंभीर चर्चा करने आते हैं ।

हमें अप्रिय स्थितियां टालने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । अनिल जी की शुरुआती प्रतिक्रिया "हिन्दी-उर्दू का झगड़ा खड़ा करना है तो अनामिका जी कृपया,कहीं और जाकर चर्चा करें। इस मंच पर यह सब नहीं चलेगा।"  से मैने भी वही भाव ग्रहण किया था जैसा जायसवालजी को महसूस हुआ । जायसवाल जी ने अपनी बात कही है । इसे बतंगड़ नहीं कह सकते । अनिलजी गंभीर, सक्रिय और उत्साह सदस्य हैं । हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि शब्द विमर्श के इस गंभीर मंच  को हम उत्कृष्ट स्तर पर ले जाएँगे ।

2012/8/3 Anil Janvijay <anilja...@gmail.com>



--


अजित

http://shabdavali.blogspot.com/
औरंगाबाद/भोपाल, 07507777230


  


हंसराज सुज्ञ

unread,
Aug 3, 2012, 5:49:36 AM8/3/12
to शब्द चर्चा
भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा।

भाषा के सहज प्रवाह की बात करते है तो हमें नहीं पता कौन सा शब्द कब और कैसे सामान्य बोलचाल में प्रचलित हो जाएगा।
अतः ऐसा कोई नियम ध्यान में नहीं रखा जा सकता कि कोई खास शब्द ही सरल और सहज है। यदि भाषा सहज प्रवाहमान है
तो उसमें वे सभी धाराएं मिलनी चाहिए जो नव्य निर्विकल्प हो या पुरातन परित्यक्त हो। आस पास का नया वर्षा-जल भी मिल सकता है
और मूल स्रोत की कोई भूली बिसरी धारा भी।
सरिता बन प्रवाहमान होने का कार्य सरिता पर ही छोड देना चाहिए। किन्तु  अर्पण व आहूति जारी रहनी चाहिए। पता नहीं कब कोई
विस्मृत शब्द पुनः सार्थक बनकर सहज प्रचलित हो जाए।
किसी बोलचाल के प्रचलित शब्द के आग्रह पर शब्दों के विभिन्न पर्यायों की समृद्धि से क्यों वंचित होना चाहिए। वस्तुत: भाषा  उसके अतुल पर्याय शब्द भंडार  से ही समृद्ध होती है।

इस चर्चा से प्राप्त स्वर्णीम सूत्र………

"एक चल रही भाषा में छेनी-हथौड़ी चलाने वाले लोग असल में एक ऐसी मूर्ति बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी सब लोग पूजा करने लगें।"

"उसके बहुत पहले प्राकृत थी जिससे संस्कृत का संस्कार होता है! जो संस्कार किया गया था, जनता ने बाद में उसे फिर कोने घिसकर अपने लायक़ बना लिया.."

"अन्य भाषाओँ के शब्द स्वीकारते हुए किसी लक्ष्मण रेखा की बात भी स्वीकारनी होगी. उसका निर्धारण भी करना होगा."

"सहज रूप से हिंदी में समाविष्ट होने वाले विदेशज शब्दों के विरोध का कोई औचित्य नहीं है।"

निष्कर्ष है, भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा, इतनी संस्कारित भी न हो जाए कि शुद्धता की छननी से सार ही लुप्त हो जाय।  न अतिश्योक्तिपूर्वक अतिक्रमण न कर्तव्यभाव से पूरी तरह पलायन, जरूरी है बस सहज अनुशासन!!

Date: Fri, 3 Aug 2012 12:47:55 +0530

Subject: Re: [शब्द चर्चा] राष्ट्र भाषा भारती-चिन्तनार्थ

Vinod Sharma

unread,
Aug 3, 2012, 6:11:48 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
एक सीमारेखा तो स्वतःस्पष्ट दिखाई देती है। यह नव आंग्लप्रेम जो आंग्लभक्तों में फूटा पड़ा रहा है। हिंदी के हर वाक्य में दो या तीन अंग्रेजी के शब्द ठूंसने की जो प्रवृत्ति चली है या फिर उदारता के नाम पर सत्ताशीर्ष से भी जो यह कहा जा रहा है कि अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से हिंदी सरल और सर्वग्राह्य हो जाती है- इन प्रवृत्तियों का विरोध-प्रतिकार करने पर संभवतः कुछ अपवाद छोड़कर, सभी सहमत हो सकते हैं। यह चर्चा ईमानदार शब्द को लेकर प्रारंभ हुई थी जिसमें किसी सज्जन की अरबी/फारसी आदि विदेशज शब्दों के अस्वीकार के संबंध में टिप्पणी से प्रेरित होकर ही मैंने यह लिखा था। सदियों के चलन के बाद हिंदी में आत्मसात हो चुके शब्दों को चुनकर अब बाहर निकालना न तो संगत होगा और न ही संभव। हाँ, अब घुसपैठ करने का प्रयास कर रहे शब्दों को नकार कर हम प्रहरी की भूमिका निभा सकते हैं।

2012/8/3 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>

Dr. Sheo Shankar Jaiswal

unread,
Aug 3, 2012, 7:04:06 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
शब्द चर्चा में अनिल जी के योगदान का मैं प्रशंसक हूँ. अनामिका जी के वक्तव्य पर अनिल जी की प्रतिक्रिया उनकी उस छबि के अनुरूप नहीं लगी जो मेरे मन में है. इसी वज़ह से मैंने मंच छोड़ने की उनकी बात पर थोड़ा एतराज़ किया. बस. बाकी बात अजित जी ने कह दी है. उन्हें धन्यवाद देता हूँ.    

2012/8/3 अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com>

Abhay Tiwari

unread,
Aug 3, 2012, 7:52:54 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
सब बन्धुओं का मत सामने आ रहा है.. मैं अपनी बात में इतना औऱ जोड़ना चाहूँगा कि भाषा में एक इतिहास छिपा होता है.. और इतिहास नहीं बदला जा सकता चाहे कितना ही अप्रिय क्यों न हो.. हमारे समाज और भाषा पर अरबी-फ़ारसी का लम्बे समय तक जो प्रभाव पड़ा है न तो उस पर मिट्टी डाली जा सकती है और न ही उसके बाद अंग्रेजी का जो असर आज तक हो रहा है,उसे.. आप भले ही उसे प्रदूषण कहे पर वो ऐसा असर है जिसे साबुन से धोकर पवित्र नहीं हुआ जा सकता.. बस का आविष्कार हमारे यहाँ नहीं हुआ, कम्प्यूटर और लैपटॉप हमने नहीं बनाए, उनके लिए भले हम 'हिन्दी' के शब्द बना लें.. पर फ़ायदा क्या? क्या है जिसे हम झुठलाना चाहते हैं? फिर स्कूल जैसे शब्द का क्या करेंगे? ये बड़ी विकट ग्रंथि है अपने अन्दर.. बीच का रास्ता.. मध्यम मार्ग ही उचित है! जो सहज हो गया है, उसे मान लेना चाहिये!   

2012/8/3 Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com>

Anil Janvijay

unread,
Aug 3, 2012, 8:08:51 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
मैं ही ग़लत था। अनामिका जी और जायसवाल जी सहित सभी मित्रों से क्षमा चाहता हूँ।
सादर
अनिल जनविजय

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 3, 2012, 9:01:13 AM8/3/12
to shabdc...@googlegroups.com
  भाषा में परिवर्तन
जानता हूँ, कि भाषा में परिवर्तन होता रहता है। पर परिवर्तन परिमार्जन की दिशामें भी हो सकता है, और विकृतिकरण की दिशा में भी। विकृतिकरण से बचना है, परिमार्जित भाषा-विकास अवश्य स्वीकार्य है। भाषा के विकास में एकसूत्रता होनी चाहिए, जिसके आधारपर भाषा का विकास किया जा सकता है। भाषा को वर्तमान में रहते हुए, भूतकाल और भविष्यकाल दोनों से भी जोडना है। हम हमारे पुरखें जो कह गए, उसे भी पढना चाहते हैं; और हम जो कहेंगे वह हमारी बादकी पीढीयां भी पढ सके, यह चाहते हैं। 
"परम्परा" शब्द में, दो बार पर आया है। एक हमसे "परे" "पर"दादा "पर"नाना
और दूसरी ओर हमारे प्रपौत्र (परपौत्र)। दोनो के बीचकी कडि हम हैं। हम दोनो के साथ संवाद कर पाएं, यह आवश्यक है। इस लिए "एकसूत्रता" चाहिए। खिचडी अंग्रेज़ी का अनुकरण कर हम अपनी भाषा को बिगाडे क्यों ?



Sent: Friday, August 3, 2012 7:52:54 AM

Subject: Re: [शब्द चर्चा] राष्ट्र भाषा भारती-चिन्तनार्थ

सब बन्धुओं का मत सामने आ रहा है.. मैं अपनी बात में इतना औऱ जोड़ना चाहूँगा कि भाषा में एक इतिहास छिपा होता है.. और इतिहास नहीं बदला जा सकता चाहे कितना ही अप्रिय क्यों न हो.. हमारे समाज और भाषा पर अरबी-फ़ारसी का लम्बे समय तक जो प्रभाव पड़ा है न तो उस पर मिट्टी डाली जा सकती है और न ही उसके बाद अंग्रेजी का जो असर आज तक हो रहा है,उसे.. आप भले ही उसे प्रदूषण कहे पर वो ऐसा असर है जिसे साबुन से धोकर पवित्र नहीं हुआ जा सकता.. बस का आविष्कार हमारे यहाँ नहीं हुआ, कम्प्यूटर और लैपटॉप हमने नहीं बनाए, उनके लिए भले हम 'हिन्दी' के शब्द बना लें.. पर फ़ायदा क्या? क्या है जिसे हम झुठलाना चाहते हैं? फिर स्कूल जैसे शब्द का क्या करेंगे? ये बड़ी विकट ग्रंथि है अपने अन्दर.. बीच का रास्ता.. मध्यम मार्ग ही उचित है! जो सहज हो गया है, उसे मान लेना चाहिये!   

2012/8/3 Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com>
एक सीमारेखा तो स्वतःस्पष्ट दिखाई देती है। यह नव आंग्लप्रेम जो आंग्लभक्तों में फूटा पड़ा रहा है। हिंदी के हर वाक्य में दो या तीन अंग्रेजी के शब्द ठूंसने की जो प्रवृत्ति चली है या फिर उदारता के नाम पर सत्ताशीर्ष से भी जो यह कहा जा रहा है कि अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से हिंदी सरल और सर्वग्राह्य हो जाती है- इन प्रवृत्तियों का विरोध-प्रतिकार करने पर संभवतः कुछ अपवाद छोड़कर, सभी सहमत हो सकते हैं। यह चर्चा ईमानदार शब्द को लेकर प्रारंभ हुई थी जिसमें किसी सज्जन की अरबी/फारसी आदि विदेशज शब्दों के अस्वीकार के संबंध में टिप्पणी से प्रेरित होकर ही मैंने यह लिखा था। सदियों के चलन के बाद हिंदी में आत्मसात हो चुके शब्दों को चुनकर अब बाहर निकालना न तो संगत होगा और न ही संभव। हाँ, अब घुसपैठ करने का प्रयास कर रहे शब्दों को नकार कर हम प्रहरी की भूमिका निभा सकते हैं।
2012/8/3 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>
भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा।

भाषा के सहज प्रवाह की बात करते है तो हमें नहीं पता कौन सा शब्द कब और कैसे सामान्य बोलचाल में प्रचलित हो जाएगा।
अतः ऐसा कोई नियम ध्यान में नहीं रखा जा सकता कि कोई खास शब्द ही सरल और सहज है। यदि भाषा सहज प्रवाहमान है
तो उसमें वे सभी धाराएं मिलनी चाहिए जो नव्य निर्विकल्प हो या पुरातन परित्यक्त हो। आस पास का नया वर्षा-जल भी मिल सकता है
और मूल स्रोत की कोई भूली बिसरी धारा भी।
सरिता बन प्रवाहमान होने का कार्य सरिता पर ही छोड देना चाहिए। किन्तु  अर्पण व आहूति जारी रहनी चाहिए। पता नहीं कब कोई
विस्मृत शब्द पुनः सार्थक बनकर सहज प्रचलित हो जाए।
किसी बोलचाल के प्रचलित शब्द के आग्रह पर शब्दों के विभिन्न पर्यायों की समृद्धि से क्यों वंचित होना चाहिए। वस्तुत: भाषा  उसके अतुल पर्याय शब्द भंडार  से ही समृद्ध होती है।

इस चर्चा से प्राप्त स्वर्णीम सूत्र………

"एक चल रही भाषा में छेनी-हथौड़ी चलाने वाले लोग असल में एक ऐसी मूर्ति बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी सब लोग पूजा करने लगें।"
"उसके बहुत पहले प्राकृत थी जिससे संस्कृत का संस्कार होता है! जो संस्कार किया गया था, जनता ने बाद में उसे फिर कोने घिसकर अपने लायक़ बना लिया.."

"अन्य भाषाओँ के शब्द स्वीकारते हुए किसी लक्ष्मण रेखा की बात भी स्वीकारनी होगी. उसका निर्धारण भी करना होगा."

"सहज रूप से हिंदी में समाविष्ट होने वाले विदेशज शब्दों के विरोध का कोई औचित्य नहीं है।"

निष्कर्ष है, भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा, इतनी संस्कारित भी न हो जाए कि शुद्धता की छननी से सार ही लुप्त हो जाय।  न अतिश्योक्तिपूर्वक अतिक्रमण न कर्तव्यभाव से पूरी तरह पलायन, जरूरी है बस सहज अनुशासन!!



 सविनय,
हंसराज "सुज्ञ"

सुज्ञ

सृजन शिल्पी Srijan Shilpi

unread,
Aug 4, 2012, 1:48:52 AM8/4/12
to shabdc...@googlegroups.com
भाषा, सम्मुख पाठक या श्रोता को ध्यान में रखकर ही चुनी जानी चाहिए। कोई सर्वमान्य, सर्वप्रचलित भाषा नहीं होती, न हो सकती है।
 
एक ही व्यक्ति अलग-अलग श्रोता या पाठक वर्ग के लिए अलग-अलग स्तर की भाषावली इस्तेमाल में ला सकता है, उसे लाना चाहिए।
 
जहां तक राजभाषा हिन्दी की बात है, मैं पिछले एक दशक से अधिक समय तक अपने कामकाज में इसका इस्तेमाल करता रहा हूं, किंतु वह भाषा जिनके लिए संबोधित होती है, उनको समझ में आती है। वह आम जनमानस के लिए नहीं होती।
 
यदि आप चाहेंगे कि संविधान या कानून की भाषा वह हो जो कि रामचरितमानस की है, तो यह न तो संभव है और न ही उचित।
--
सृजन शिल्पी


Welcome to


Abhay Tiwari

unread,
Aug 4, 2012, 2:48:20 AM8/4/12
to shabdc...@googlegroups.com
हमें हमेशा से पता था क़ानून की भाषा आम आदमी के लिए नहीं है.. :) 

2012/8/4 सृजन शिल्पी Srijan Shilpi <srijan...@gmail.com>

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 6, 2012, 10:09:37 AM8/6/12
to shabdc...@googlegroups.com
sahi hai aap. Kanoon ityaadi PARIBHASHIK SHABADAVALI SE BANEGI.

MADHUSUDAN on travel)


----- Original Message -----
From: Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>
To: shabdc...@googlegroups.com
Sent: Sat, 04 Aug 2012 02:48:20 -0400 (EDT)
Subject: Re: [शब्द चर्चा] राष्ट्र भाषा भारती-चिन्तनार्थ

हमें हमेशा से पता था क़ानून की भाषा आम आदमी के लिए नहीं है.. :) 

2012/8/4 सृजन शिल्पी Srijan Shilpi <srijan...@gmail.com>
भाषा, सम्मुख पाठक या श्रोता को ध्यान में रखकर ही चुनी जानी चाहिए। कोई सर्वमान्य, सर्वप्रचलित भाषा नहीं होती, न हो सकती है।
 
एक ही व्यक्ति अलग-अलग श्रोता या पाठक वर्ग के लिए अलग-अलग स्तर की भाषावली इस्तेमाल में ला सकता है, उसे लाना चाहिए।
 
जहां तक राजभाषा हिन्दी की बात है, मैं पिछले एक दशक से अधिक समय तक अपने कामकाज में इसका इस्तेमाल करता रहा हूं, किंतु वह भाषा जिनके लिए संबोधित होती है, उनको समझ में आती है। वह आम जनमानस के लिए नहीं होती।
 
यदि आप चाहेंगे कि संविधान या कानून की भाषा वह हो जो कि रामचरितमानस की है, तो यह न तो संभव है और न ही उचित।
2012/8/3 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>



  भाषा में परिवर्तन
जानता हूँ, कि भाषा में परिवर्तन होता रहता है। पर परिवर्तन परिमार्जन की दिशामें भी हो सकता है, और विकृतिकरण की दिशा में भी। विकृतिकरण से बचना है,परिमार्जित भाषा-विकास अवश्य स्वीकार्य है। भाषा के विकास में एकसूत्रता होनी चाहिए, जिसके आधारपर भाषा का विकास किया जा सकता है। भाषा को वर्तमान में रहते हुए, भूतकाल और भविष्यकाल दोनों से भी जोडना है। हम हमारे पुरखें जो कह गए, उसे भी पढना चाहते हैं; और हम जो कहेंगे वह हमारी बादकी पीढीयां भी पढ सके, यह चाहते हैं। 

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 6, 2012, 4:58:05 PM8/6/12
to shabdc...@googlegroups.com

Anurodh;

WWW.pravakta.com par
kuchh Vistar se "Hindi ka Bhasha Vaibhav" --namak aalekha men aur Any lekhon men bhi is vishay ko nyay karane kaa prayas kiya hai. Abhi tak prayah 10 se 15 aalekh Hindi-Sankrit par hi Daale hain.

Dekhe aur HINDI HITARTH VIRODHI TIPPANI PAHALE KAREN, JISASE HAR PRAKARASE SOCH SAKEN-Main bhi yahi chahataa hun, ki virodhi Tippaniya ho.
Madhusudan (ON TRAVEL)



(१३) पारिभाषिक शब्दावलि सभी की समान

पर, पारिभाषिक शब्दावलि बिना अपवाद सभी की समान और संस्कृत जन्य ही होगी। यह शतियों से चली आती परम्परा है। जो मानक भाषा में, शासन में, विज्ञान में, शास्त्र इत्यादि में प्रायोजित होगी। आगे का विकास भी इसी प्रकार ही हो पाएगा। पारिभाषिक शब्दावलि के लिए, समस्त भारतीय भाषाओं को कोई दूसरा पर्याय नहीं है।यह हमारी एकता का दृढ स्तम्भ भी बन पाएगा।

Abhay Tiwari

unread,
Aug 6, 2012, 9:15:17 PM8/6/12
to shabdc...@googlegroups.com
शुरू से ही इस समय पर समूह की यह नीति रही है कि शब्दों पर चर्चा के अलावा किसी भी तरह के वाद, विवाद, प्रचार और प्रमोशन को यहाँ जगह नहीं दी जाएगी.. इस मंच पर बहुत से मित्र ब्लॉगर हैं, और नियमित ब्लॉग लिखते रहे हैं, कुछ राजनीतिकर्मी हैं, कवि हैं.. हर एक के पास कोई न कोई ेएजेण्डा है, अगर वे सब इस मंच पर अपने-अपने एजेण्डे को लेकर जुट जायें तो इस मंच का चरित्र जाता रहेगा।    

इसलिए एक बार फिर मित्रों से अनुरोध करता हूँ कि शब्द विवेचना से सम्बन्धित विषय को छोड़कर इस मंच पर चर्चा करने के लिए अन्य सभी विषयों की उपेक्षा करें। साहित्य, व्याकरण, भाषा, सब पर बात हो सकती है पर उसका सन्दर्भ होना चाहिये.. अपने लेख पर चाहे वो जिस भी विषय पर क्यों न हो, टिप्पणियां पाने के लिए यहाँ सन्देश ना चस्पां करें, यह विनती सभी सदस्यों से है! (शब्द विवेचना पर किसी लेख विशेष पर आप सदस्यों का ध्यानाकर्षण करना चाहते हों, तो बात अलग है) और ना ही होली, दीवाली के लिए शुभकामनाएं भेजें, ना किसी धरना-प्रदर्शन में चलने का आह्वान करें- शब्द चर्चा कोई व्यक्ति नहीं है! व्यक्तियों को उनके निजी मेल पर जो भेजना हों, भेजें! 



2012/8/7 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>

Vinod Sharma

unread,
Aug 6, 2012, 9:25:17 PM8/6/12
to shabdc...@googlegroups.com
अभय भाई, सुप्रभात!
सत्य वचन।

2012/8/7 Abhay Tiwari <abha...@gmail.com>

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 7, 2012, 1:46:23 AM8/7/12
to shabdc...@googlegroups.com
सब पाखंड है । हम सब अस्सी से नब्बे फ़ीसद पाश्चात्य संस्कारों को अपनाए हुए हैं । रहन-सहन, खान-पान, ज्ञान-विज्ञान, वेश-भूषा, विचार-दर्शन
इन तमाम चीज़ों में हम पश्चिमी असर कायम रखते हुए बस ले-देकर हाय हिन्दी , हाय हिन्दी की रट लगाए रहते हैं :)

भाषाएँ अपनी राह खुद बनाती है । हिन्दी तो अपनी राह चल रही है । कुछ भाषाएँ किताबों में रहती हैं, कुछ ज़बानों पर । कुछ मृत्युशय्या पर भी...
भाषाएँ प्रयोगशालाओं में नहीं बना करती और न ही टकसाल में सिक्कों की तरह ढलती हैं । वे सिर्फ़ नदी की तरह बहती हैं । उनका गुण तरल और सरल होना है ।

नदियों के प्रदूषण का रूपक भाषा की तरलता पर लागू नहीं होता । एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों का घुलना-मिलना प्रदूषण नहीं उसका विकसित, समृद्ध और प्रवाही होना है ठीक वैसे ही जैसे मुख्य धार को अन्य धाराएँ विशाल और प्रवाही बनाती हैं । नदियों का प्रदूषण औद्योगिक कारणों से है ।


2012/8/7 Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com>

Madhusudan H Jhaveri

unread,
Aug 7, 2012, 1:07:47 PM8/7/12
to shabdc...@googlegroups.com
prashna:
 
(1)
Kya paribhashik Shabdavali par  kuchh kaha jaa sakata hai? Us maryaadaa men hi rahunga.
(2)
angreji ki swikruti hi karane ke lie, koi Shabd charchaa ki koi avashyakata hi nahin.
(3)
ek structural Engineer ka kya agenda ho sakata hai?
Madhusudan

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 7, 2012, 1:20:55 PM8/7/12
to shabdc...@googlegroups.com
झवेरीजी अभय  भाई ने किसी को इंगित करते हुए बात नहीं कही है । एजेंडा के चलताऊ अर्थ पर न जाएँ  ।
Reply all
Reply to author
Forward
0 new messages