हिंदी में संस्कृत के भी शब्द प्रयोग में आते है ...मुझे कहीं वास्तविक अर्थ में honest शब्द का अर्थ नहीं मिला इसीलिए मेरा ये प्रश्न था ....हिंदी -उर्दू लेकर झगडा करना मेरा उद्देश्य नहीं है
On Thursday, 2 August 2012 20:03:28 UTC+5:30, anamika ghatak wrote:honest शब्द का हिंदी अर्थ क्या है ???इमानदार तो उर्दू शब्द है
शब्द यदि संस्कृत मूलका होता है, तो हिन्दी को( राष्ट्र भाषा के रूपमें) अहिन्दी प्रदेशों में भी स्वीकृत कराने में कम कठिनाई होगी। दक्षिण के मुसलमान भी स्थानिक भाषाएं ही बोलते हैं। नुक्ता इत्यादि भी गुजराती मराठी शब्द कोषों में नहीं है। तमिल में तो सारे वर्ण भी नहीं है। क ख ग घ सारे क जैसे ही सुनायी पडते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस शब्दों के तद्भवीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण है. संस्कृत में लिखी गई वाल्मीकि रामायण को तुलसीदास ने पुरोहितों और पंडितों की क़ैद में से निकाल कर जनसाधारण की सम्पदा बना दिया. यही नहीं कि साहित्यिक दृष्टि से रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण से किसी भी तरह कम नहीं, बल्कि उसे तुलसीदास की आश्चर्यजनक प्रतिभा और परिश्रम ने संसार-साहित्य का विशिष्ट ग्रन्थ बनने का सम्मान दिलवाया है. शेक्सपियर के बारे में कहा गया है कि संसार में कोई ऐसी कहने लायक बात नहीं है, जो उसने अपने नाटकों में न कह दी हो. वही कथन तुलसीदास पर भी पूरा उतरता है. मानव-जीवन के गहन से गहन अनुभव, सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव और प्रकृति के अतीव मनोरम चित्र तुलसीदास के काव्य पाए जाते हैं. लेकिन किसी स्थान पर भी उन्होंने अपनी शैली को संस्कृत के तत्सम शब्दों से बोझिल नहीं किया. उन्होंने सुरुचिपूर्ण ढंग से संस्कृत के शब्दों के केवल तद्भव और अपभ्रंश रूपों का प्रयोग किया है. साहित्य सौंदर्य का इससे बढ़िया उदाहरण ढूंढें नहीं मिल सकता.
हमारे पंजाब के भक्ति-साहित्य की परंपरा भी यही है. बल्कि गुरुनानक, भाई गुरुदास और बुल्लेशाह ने महान कवियों ने इस परंपरा को इतना परिपक्व बना दिया है कि वर्तमान पंजाबी साहित्य में संस्कृत और फ़ारसी के तत्सम शब्द कोशिश करने पर भी सुन्दर नहीं लगते और पढ़ते समय बुरी तरह खटकते हैं.
यही प्रवृत्ति मैंने गुजराती, मराठी, बंगाली आदि में भी देखी है. पहली नज़र में ये भाषाएँ संस्कृत से लदी हुई प्रतीत होती हैं, लेकिन असलियत यह नहीं है. 'विस्माद' जैसा संस्कृत शब्द बंगाली में 'विशाद' बोला जाता है, चाहे लिखने में वह तत्सम ही प्रतीत हो. 'सभा-मौकूफी' शब्द मैंने आज के गुजरात समाचार-पत्र से लिया है. कितनी आज़ादी के साथ संस्कृत के एक शब्द को फ़ारसी के साथ जोड़ दिया गया है. 'शिक्षा' शब्द का अर्थ मराठी में 'सज़ा' और 'साक्षर' शब्द का अर्थ गुजराती में 'साहित्यिक व्यक्ति' हो जाता है. हरकत, गनीमत, तहाकुब जकात, आमदार, खासदार, आदि शब्द मराठी में आम प्रयोग के शब्द हैं. ये फ़ारसी से आये हैं, या और कहीं से, इस बात की किसी भी मराठी भाषी को परवाह नहीं है. शब्द चाहे संस्कृत का हो, या फ़ारसी का, मराठी व्याकरण के अनुसार ही उसका प्रयोग किया जाता है. यह बात मराठी भाषियों की की खुलदिली और आत्मविश्वास का सबूत देती है.
जो बात पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजराती आदि के लिए उपयुक्त और सही है, मैं समझता हूँ कि वह उर्दू-हिंदी के लिए भी उतनी ही सही होनी चाहिए. शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी को हज़म करना खड़ी बोली के लिए भी उतना ही मुश्किल है. खड़ी-बोली वालों को भी संस्कृत-फ़ारसी और उसके व्याकरण की दासता से छुटकारा पाना चाहिए. इन भाषाओँ में से लिए गए शब्दों का अपनी भाषा के स्वभाव के अनुसार अपभ्रन्शीकरण या तद्भवीकरण बहुत ज़रूरी है. ऐसा न करना भाषा को निर्जीव और दुर्बल बनाना है. इस बारे में जब तक आप अपना दृष्टिकोण नहीं बदलेंगे, तब तक आप तटवर्ती इलाकों की भाषाओँ के साथ आँख नहीं मिला सकेंगे, अंग्रेजी को गर्दन से पकड़ना तो अलग रहा.
कहने का मतलब यह, मेरे प्यारे दोस्तो, कि आपकी वर्तमान हिंदी शैली, जिसमें संस्कृत का अंधाधुंध प्रवेश और फ़ारसी शब्दों का अंधाधुंध बहिष्कार हो रहा है, उसकी उन्नति और विकास का सूचक नहीं है. इस रुझान की बदौलत यह शैली आपके अपने प्रांत में भी, और बाकी भारत की जनता के प्रिय होने की बजाय अप्रिय बनती जा रही है. इस असलियत को आप जितनी जल्दी समझ सकें, उतना ही आपके लिए अच्छा होगा.
--बलराज साहनी के आलेख 'आज के साहित्यकारों से अपील' से उद्धृत जो दिल्ली के एक प्रेस से 1972 में पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित हुआ था. इंस्टिटयूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी द्वारा 2011 में पुनर्प्रकाशित.
2012/8/2 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>:
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राहुल कुमार सिंह
छत्तीसगढ
+919425227484
http://akaltara.blogspot.com
ईमानदार हिंदी का ही शब्द है. हिंदी को इतना सीमित मत कीजिए कि ऐसे शब्द निकालने पड़ें.
'निष्ठावान', 'नीतिवान', 'नैतिक' जैसे शब्द प्रचलित है।
हिन्दी के पास ऑनेस्ट के लिए भिन्न भिन्न पर्यायों के भिन्न भिन्न शब्द बहु-प्रचलित है।
जहाँ तक 'ईमानदार' शब्द की बात है, वह तो आम प्रचलन में रहेगा ही,
किन्तु किसी शब्द के बोलचाल में रूढ़ और आम हो जाने मात्र से दूसरी पर्यायों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
ईमानदार का शब्दार्थ-भावार्थ देखें तो अर्थ होता है 'आस्थावान' जबकि 'निष्ठ' लगाकर ईमानदारी विशेष को उजागर किया जा सकता है जैसे सत्य के प्रति ईमानदार को सत्यनिष्ठ, कर्तव्य के प्रति ईमानदार को कर्तव्यनिष्ठ, श्रद्धा के प्रति ईमानदार को श्रद्धानिष्ठ…… समग्रता अथवा विशेषता का आग्रह न हो तो 'निष्ठावान' सही शब्द है।
सुज्ञ जी ने सही बात कही है: ''किसी शब्द के बोलचाल में रूढ़ और आम हो जाने मात्र से दूसरी भाषा के पर्यायों को विस्मृत नहीं किया जा सकता।'' हम यहाँ 'ईमानदार' के लिए हिन्दी शब्द जानने की जिज्ञासा वाले व्यक्ति को मंच छोड़कर अन्यत्र जाने की बात कह रहे हैं. यह शायद उचित नहीं है. निष्ठावान, नैतिक, प्रमाणिक, नीतिवान जैसे अनेक शब्द हिन्दी में हैं जो ईमानदार के समानार्थक हैं. दूसरे के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकारने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने अस्तित्व की कुटिया ही जला डालें. यह तो कुछ ऐसा ही हुआ जैसे कोई कहे कि हम हिन्दू अथवा मुसलमान रहते हुए सर्व धर्म समभाव को आचरण में नहीं ला सकते. किसी एक जाति का होने के बाद भी हम जाति-पांति से ऊपर उठकर व्यवहार कर सकते हैं.
एक सीमारेखा तो स्वतःस्पष्ट दिखाई देती है। यह नव आंग्लप्रेम जो आंग्लभक्तों में फूटा पड़ा रहा है। हिंदी के हर वाक्य में दो या तीन अंग्रेजी के शब्द ठूंसने की जो प्रवृत्ति चली है या फिर उदारता के नाम पर सत्ताशीर्ष से भी जो यह कहा जा रहा है कि अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से हिंदी सरल और सर्वग्राह्य हो जाती है- इन प्रवृत्तियों का विरोध-प्रतिकार करने पर संभवतः कुछ अपवाद छोड़कर, सभी सहमत हो सकते हैं। यह चर्चा ईमानदार शब्द को लेकर प्रारंभ हुई थी जिसमें किसी सज्जन की अरबी/फारसी आदि विदेशज शब्दों के अस्वीकार के संबंध में टिप्पणी से प्रेरित होकर ही मैंने यह लिखा था। सदियों के चलन के बाद हिंदी में आत्मसात हो चुके शब्दों को चुनकर अब बाहर निकालना न तो संगत होगा और न ही संभव। हाँ, अब घुसपैठ करने का प्रयास कर रहे शब्दों को नकार कर हम प्रहरी की भूमिका निभा सकते हैं।
2012/8/3 हंसराज सुज्ञ <hansra...@msn.com>
भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा।
भाषा के सहज प्रवाह की बात करते है तो हमें नहीं पता कौन सा शब्द कब और कैसे सामान्य बोलचाल में प्रचलित हो जाएगा।
अतः ऐसा कोई नियम ध्यान में नहीं रखा जा सकता कि कोई खास शब्द ही सरल और सहज है। यदि भाषा सहज प्रवाहमान है
तो उसमें वे सभी धाराएं मिलनी चाहिए जो नव्य निर्विकल्प हो या पुरातन परित्यक्त हो। आस पास का नया वर्षा-जल भी मिल सकता है
और मूल स्रोत की कोई भूली बिसरी धारा भी।
सरिता बन प्रवाहमान होने का कार्य सरिता पर ही छोड देना चाहिए। किन्तु अर्पण व आहूति जारी रहनी चाहिए। पता नहीं कब कोई
विस्मृत शब्द पुनः सार्थक बनकर सहज प्रचलित हो जाए।
किसी बोलचाल के प्रचलित शब्द के आग्रह पर शब्दों के विभिन्न पर्यायों की समृद्धि से क्यों वंचित होना चाहिए। वस्तुत: भाषा उसके अतुल पर्याय शब्द भंडार से ही समृद्ध होती है।
इस चर्चा से प्राप्त स्वर्णीम सूत्र………
"एक चल रही भाषा में छेनी-हथौड़ी चलाने वाले लोग असल में एक ऐसी मूर्ति बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी सब लोग पूजा करने लगें।"
"उसके बहुत पहले प्राकृत थी जिससे संस्कृत का संस्कार होता है! जो संस्कार किया गया था, जनता ने बाद में उसे फिर कोने घिसकर अपने लायक़ बना लिया.."
"अन्य भाषाओँ के शब्द स्वीकारते हुए किसी लक्ष्मण रेखा की बात भी स्वीकारनी होगी. उसका निर्धारण भी करना होगा."
"सहज रूप से हिंदी में समाविष्ट होने वाले विदेशज शब्दों के विरोध का कोई औचित्य नहीं है।"
निष्कर्ष है, भाषा के 'पोषण' और 'प्रदूषण' में अन्तर तो करना होगा, इतनी संस्कारित भी न हो जाए कि शुद्धता की छननी से सार ही लुप्त हो जाय। न अतिश्योक्तिपूर्वक अतिक्रमण न कर्तव्यभाव से पूरी तरह पलायन, जरूरी है बस सहज अनुशासन!!
सविनय,
हंसराज "सुज्ञ"
भाषा, सम्मुख पाठक या श्रोता को ध्यान में रखकर ही चुनी जानी चाहिए। कोई सर्वमान्य, सर्वप्रचलित भाषा नहीं होती, न हो सकती है।एक ही व्यक्ति अलग-अलग श्रोता या पाठक वर्ग के लिए अलग-अलग स्तर की भाषावली इस्तेमाल में ला सकता है, उसे लाना चाहिए।जहां तक राजभाषा हिन्दी की बात है, मैं पिछले एक दशक से अधिक समय तक अपने कामकाज में इसका इस्तेमाल करता रहा हूं, किंतु वह भाषा जिनके लिए संबोधित होती है, उनको समझ में आती है। वह आम जनमानस के लिए नहीं होती।यदि आप चाहेंगे कि संविधान या कानून की भाषा वह हो जो कि रामचरितमानस की है, तो यह न तो संभव है और न ही उचित।
2012/8/3 Madhusudan H Jhaveri <mjha...@umassd.edu>
भाषा में परिवर्तन
जानता हूँ, कि भाषा में परिवर्तन होता रहता है। पर परिवर्तन परिमार्जन की दिशामें भी हो सकता है, और विकृतिकरण की दिशा में भी। विकृतिकरण से बचना है,परिमार्जित भाषा-विकास अवश्य स्वीकार्य है। भाषा के विकास में एकसूत्रता होनी चाहिए, जिसके आधारपर भाषा का विकास किया जा सकता है। भाषा को वर्तमान में रहते हुए, भूतकाल और भविष्यकाल दोनों से भी जोडना है। हम हमारे पुरखें जो कह गए, उसे भी पढना चाहते हैं; और हम जो कहेंगे वह हमारी बादकी पीढीयां भी पढ सके, यह चाहते हैं।
Anurodh;
WWW.pravakta.com par
kuchh Vistar se "Hindi ka Bhasha Vaibhav" --namak aalekha men aur Any lekhon men bhi is vishay ko nyay karane kaa prayas kiya hai. Abhi tak prayah 10 se 15 aalekh Hindi-Sankrit par hi Daale hain.
Dekhe aur HINDI HITARTH VIRODHI TIPPANI PAHALE KAREN, JISASE HAR PRAKARASE SOCH SAKEN-Main bhi yahi chahataa hun, ki virodhi Tippaniya ho.
Madhusudan (ON TRAVEL)
(१३) पारिभाषिक शब्दावलि सभी की समान
पर, पारिभाषिक शब्दावलि बिना अपवाद सभी की समान और संस्कृत जन्य ही होगी। यह शतियों से चली आती परम्परा है। जो मानक भाषा में, शासन में, विज्ञान में, शास्त्र इत्यादि में प्रायोजित होगी। आगे का विकास भी इसी प्रकार ही हो पाएगा। पारिभाषिक शब्दावलि के लिए, समस्त भारतीय भाषाओं को कोई दूसरा पर्याय नहीं है।यह हमारी एकता का दृढ स्तम्भ भी बन पाएगा।