एक कहावत है, दूर के ढोल सुहाने। मैने किसी जगह पढ़ा था कि यहाँ असली शब्द टोल है जिसको बाद में ढोल बना दिया गया है। मुख्य दलील यह दी गई थी कि सुहाना शब्द देखने वाली चीज़ यानी दृश्य के लिए इस्तेमाल होता है ना कि ढोल जैसी सुनने वाली चीज़ के लिये मुझे यह तर्क खास पुख्ता नहीं लगा . लेकिन कुच्छ दिन पहले मेरा ध्यान गुरु ग्रंथ साहिब में पांचवें गुरु के एक पद की ओर गया जिस में एक तुक है, "हभे टोल सुहावणे सहु बैठा अंङणु मलि." भाव अगर पति परमेशर आंगण में बैठा हो तो सभी "टोल" सुहाने लगते हैं। ध्यान दें, यहाँ टोल और इसके साथ सुहावने (सुहाने ) विशेषण इस्तेमाल किया गया है। मैं जानता हूँ कि टोल का अर्थ पत्थर होता है , शायद पहाड़ भी . इस लिये कहावत का शाब्दिक अर्थ हुआ दूर के पहाड़ अच्छे लगते हैं। गुरु ग्रंथ के टीकाकारों ने टोल का अर्थ अलंकार , पदार्थ आदि किया है।अर्थात सभी अलंकार/गहने/पदार्थ अच्छे लगते हैं अगर पति घर में हो विद्वान दोस्त रोशनी डाल सकेंगे?बलजीत बासी
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हिन्दी में दूर के ढोल इतना प्रचलित है कि कभी इसका अपवाद भी नहीं सुना था।
ग्रन्थ साहब में अगर पांचवें गुरु का पद है तो इस उदहारण की ऐतिहासिकता भी संदेह से परे है। बलजीत जी का तर्क भी पुष्ट प्रतीत हो रहा है।
हालाँकि मैं इतना ज़रूर जोड़ना चाहूँगा कि सुहावना दृश्य के इतर भोजपुरी या अवधी में सुहाना शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ हुआ, "भला या अच्छा लगना।" जैसे, कड़वे बोल किसी को नहीं सुहाते।
आह कहते तो वो अभयभाई के कलेजे चीर देती। मने त्यौहार का मौका पे मूड खराब। अब प्रचार मंच ही समझ आया तो क्या करे? वाह में ही आह समझें!