उर्दू शब्दचर्चा

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V S Rawat

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Aug 6, 2010, 1:50:59 AM8/6/10
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मैंने पाया है कि कई लोग उर्दू को इस्लाम से जोड़ कर इसको देशनिकाला दे देते हैं और इससे
घृणा करते हैं।

बहुत अजीब बात है, क्योंकि उर्दू भारतवर्ष में निर्मित भाषा है, जिसको एक भारतीय (हाँ
जी, मुस्लिम था वो) ने बनाया (अमीर खुसरो)। ग़ालिब मीर के वक़्त तक इसको रेख्ता कहते थे।

बहुत अजीब बात है कि हम भारतीय भाषाओं और अरबी फ़ारसी भाषाओं में समन्वय लाने के
प्रयोजन के लिए एक भारतीय द्वारा बनाई गई एक प्रचुर भाषा से ऐसा अलगाव महसूस करते हैं।

चलिए, उर्दू में कुछ मज़ाक करते हैं। प्रयोजन है कि इस तरह के मज़ाक़ों से लोगों के दिल में
उर्दू के प्रति अलगाव थोड़ा कम हो सकता है।

निम्नलिखित को पढ़ें और इसका अर्थ समझें -

इधर भी खुदा है, उधर भी खुदा है
आगे भी खुदा है, पीछे भी खुदा है
दाएँ भी खुदा है, बाएँ भी खुदा है
जिधर जाइएगा, उधर ही खुदा है
हर तरफ बस खुदा खुदा खुदा है
.
.
जहाँ ना खुदा है…
.
.
.
.
.
.
.
.
.
उधर कल खुदेगा
ये मुंसीपैल्टी वाले भी अजीब हैं,
खोद के डाल देते हैं,
गड्ढों को भरते नहीं हैं।

--
(आपके जूतों से बचने के लिए अपने नाम को नहीं बता रहा हूँ। :-) )

संजय | sanjay

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Aug 6, 2010, 2:29:15 AM8/6/10
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भाषा से कैसा वैर? कतई वैर नहीं है. बस खिज होती है जब "इंटेलिजेंट" दिखने के लिए अंग्रेजी घुसेड़ी जाती है और "सेक्युलर" दिखने के लिए अरबी-फारसी. फिर कुछ शब्द ऐसे है जिन्हे समझना उनके लिए आसान नहीं होता जो बिहार, उप्र से सम्बन्ध नहीं रखते. भाई हम हिन्दी जानते समझते है उर्दू नहीं. यहाँ जो लिखा है उनमें अरबी वगेरे के शब्द होंगे ही, मगर प्रचलित है तो समझ आते हैं.

2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com>



--
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संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
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Pritish Barahath

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Aug 6, 2010, 4:05:12 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
Aapaki bat sahi hai. Urdu bahut pyari bhasha hai.
par apko kaisa lagata jab urdu ki khubiyon ko Islam ko shreshth sabit karane ke liye ginaya jata hai ?

2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com>
मैंने पाया है कि कई लोग उर्दू को इस्लाम से जोड़ कर इसको देशनिकाला दे देते हैं और इससे घृणा करते हैं।



--
Pritish Barahath
Jaipur

Dr.Rupesh Shrivastava

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Aug 6, 2010, 4:09:09 AM8/6/10
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प्रिय रावत जी
प्रणाम
आपने उर्दू के विषय में लिखा ये देख कर अच्छा लगा कि आप मानते हैं कि उर्दू को इस्लाम से जोड़ा जाना अनुचित है। आप सत्य कह रहे हैं कि उर्दू पूर्णतया भारतीय भाषा है जिस तरह हिंदी पूरी तरह भारतीय भाषा है। उर्दू भले ही अरबी-फ़ारसी धरातल पर जन्मी हो लेकिन उसमें भारतीयता की सुगंध से कोई इन्कार नहीं कर सकता। मैं एक हिंदी भाषी हूं साथ ही जन्मा हिंदू परिवार में हूं पर उर्दू के प्रति प्रेम ने हमें एक प्रयास करने के लिये प्रेरित करा जो है लंतरानी(जिसे मुनव्वर सुल्ताना आपा चलाती हैं)
यदि आप चाहें तो उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं। लिपि भेद के कारण भाषा पराई सी लगती है वैसे तो अनेक भारतीय मूल की भाषाएं लिपियों में सर्वथा भिन्न हैं।
हृदय से प्रेम सहित
डा.रूपेश श्रीवास्तव


2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com>
मैंने पाया है कि कई लोग उर्दू को इस्लाम से जोड़ कर इसको देशनिकाला दे देते हैं और इससे घृणा करते हैं।

Dr.Rupesh Shrivastava

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Aug 6, 2010, 4:20:30 AM8/6/10
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प्रिय भाई
बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते हैं। उर्दू तो वो प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है जबकि वो हम सबका है। आप चाहें तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो किसी भी भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
सादर

डा.रूपेश श्रीवास्तव

2010/8/6 Pritish Barahath <priti...@gmail.com>

Kapil Swami

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Aug 6, 2010, 7:57:17 AM8/6/10
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आदरणीय रावतजी,

आपने अच्‍छे विषय पर चर्चा शुरू की है। हिन्‍दी-उर्दू के ताने-बाने से मिलकर ही हमारी भाषा बनी है।

क्‍या कोई बता सकता है कि अन्‍य भारतीय भाषाओं (जैसे कि मराठी, गुजराती आदि) में उर्दू शब्‍दों का कितना प्रयोग होता है?

अली सरदार जाफरी ने उर्दू के बारे में एक नज्‍़म लिखी थी....

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू
हमारे नग़्मों की जान उर्दू
हसीन दिलकश जवान उर्दू
चले हैं गंगो-जमन की वादी से हम हवाए-बहार बनकर
हिमालया से उतर रहे हैं तरान-ए-आबशार[1]
 बनकर
रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग-रग में ख़ून की सुर्ख़ धार बनकर
हमारी प्यारी ज़बान उर्दू
हमारे नग़्मों की जान उर्दू
हसीन दिलकश जवान उर्दू

  1. झरना


सादर,
कपिल



2010/8/6 Dr.Rupesh Shrivastava <rudrakshanat...@gmail.com>

V S Rawat

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Aug 6, 2010, 8:24:34 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/6/2010 1:50 PM India Time, _Dr.Rupesh Shrivastava_ wrote:

> प्रिय भाई
> बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते हैं। उर्दू तो वो
> प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है जबकि वो हम सबका है।

एकदम सही उत्तर है।

और अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए भी
आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था।

यह हिन्दुओं का सबसे बड़ा ग़लत कदम था कि उन्होंने इतनी अच्छी भारतीय भाषा को
हिन्दुत्व से अलग कर दिया।

भाषा उसकी जो उसका प्रयोग करें।

यदि 80 करोड़ हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख भी उर्दू का प्रयोग करते रहते तो विश्व उर्दू को
हमारी भाषा मानता न कि मात्र 14 करोड़ मुस्लिमों की। अभी भी हम इस दिशा में
प्रयास कर सकते हैं।

रावत

> आप चाहें
> तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो किसी भी
> भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
> सादर
> डा.रूपेश श्रीवास्तव
>
> 2010/8/6 Pritish Barahath <priti...@gmail.com

> <mailto:priti...@gmail.com>>


>
> Aapaki bat sahi hai. Urdu bahut pyari bhasha hai.
> par apko kaisa lagata jab urdu ki khubiyon ko Islam ko shreshth
> sabit karane ke liye ginaya jata hai ?
>

> 2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>

अजित वडनेरकर

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Aug 6, 2010, 8:32:00 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
उर्दू को लिपि से अलग कर देखें।
फिर इस्तेमाल करें।
यह हिन्दुस्तानी है।
अरबी-फारसी के शब्दों से हिन्दी प्रदूषित नहीं होती।
भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में ऐसे शब्दों का खूब इस्तेमाल हुआ है।

मुस्लिम समाज में भी उर्दू बोलने और लिखनेवालो की तादाद कम होती जा रही है। वजह लिपि की बाध्यता है।
उर्दू को देवनागरी में लिखा-पढ़ा जाए तो न सिर्फ उर्दू का बल्कि हिन्दी का भी भला होगा।
--
शुभकामनाओं सहित
अजित
http://shabdavali.blogspot.com/

संजय | sanjay

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Aug 6, 2010, 8:32:26 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
पता नहीं यह हिन्दू ही कमबख्त हमेंशा गलत कदम क्यों उठाते है. मुस्लिम सम्बन्धि हर गलत काम के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार होता है. अभी कहा उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं अब हिन्दूओं पर उनकी भाषा को नकारने की तोहमत. दोहरी बात!!!

हिन्दी में उर्दू के शब्द भरे पड़े है. उर्दू समाचार सुन लें उसमें कोई शब्द न हो तो ब्रितालिया शब्द इस्तेमाल में लेते है, हिन्दी तो पराई है. क्या मैं गलत कह रहा हूँ?

दिनेशराय द्विवेदी

unread,
Aug 6, 2010, 8:35:12 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
हिन्दी उर्दू दो अलग-अलग भाषाएँ नहीं।
देखिए -----

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

और

अफरोज 'ताज' की बगिया के आम


2010/8/6 Kapil Swami <kapi...@gmail.com>



--
दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan,
क्लिक करें, पढ़ें ...
अनवरत
तीसरा खंबा


संजय | sanjay

unread,
Aug 6, 2010, 8:39:50 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
दिनेशजी आप नहीं समझते. अल्पसंख्यकवाद को जिन्दा रखने और खूद को उनका रहनुमा घोषित करने के लिए उर्दू को अलग भाषा सॉरी जबान मानना जरूरी है. वरना बच्चे बच्चे का भेद ही नहीं रहेगा, फिर कौन किसका बच्चा पालेगा? हाल ही में पूर्वोत्तर की हमारी 22 भाषाएं मर गई. बाकि बची को भी कुएं में डाल 80 करोड़ लोगों को उर्दू अपनानी चाहिए.

६ अगस्त २०१० ६:०५ अपराह्न को, दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com> ने लिखा:

दिनेशराय द्विवेदी

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Aug 6, 2010, 8:43:05 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
संजय जी, आप का तंज बहुत भारी है। दोनों को एक मानने वालों को भी चोटिल कर सकता है।

2010/8/6 संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com>

V S Rawat

unread,
Aug 6, 2010, 8:49:12 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/6/2010 6:02 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> पता नहीं यह हिन्दू ही कमबख्त हमेंशा गलत कदम क्यों उठाते है. मुस्लिम सम्बन्धि हर गलत
> काम के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार होता है. अभी कहा उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं अब
> हिन्दूओं पर उनकी भाषा को नकारने की तोहमत. दोहरी बात!!!

उर्दू को इजाद ही अरबी और भारतीय भाषाओं को जोड़ने के लिए हुआ था। जब अरब से
मुसलमान भारत क्षेत्र में आए तो उन्होंने पाया कि भारतीय भाषाओं के ह-अंत ध्वनि वाले
अक्षरों (हर वर्ग में दूसरा और चौथा - ख घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) के लिए अरबी
में कोई सीधे-सीधे अक्षर था ही नहीं, कुछ के लिए उनके निकटतम अक्षर थे भी तो नुक़्ते वाले
थे (ख़,फ़)।

इसलिए अरबी भाषियों के लिए भारतीय भाषाओं के शब्दों का उच्चारण करना उनको समझना
संभव ही नहीं था। इसलिए अमीर खुसरों ने हर ऐसे अक्षर के पिछले अक्षर के अरबी चिह्न में
अरबी के दुचश्मी हे अक्षर को जोड़ कर इन अक्षरों को अरबी वर्णामाला में जोड़ा और
नतीज़तन बनी वर्णमाला को रेख्ता का नाम दिया जो पाँच सौ वर्षों के मुग़ल शासन में
विकसित और प्रचलित होते होते उर्दू हो गई।

इस प्रकार से जिस भाषा के अस्तित्व में आने का कारण और आवश्यकता और विकास और प्रचलन
ही भारतीय वर्णों के कारण से था, उसको पराया करार देना हमारी ग़लती ही है।

>
> हिन्दी में उर्दू के शब्द भरे पड़े है. उर्दू समाचार सुन लें उसमें कोई शब्द न हो तो ब्रितालिया
> शब्द इस्तेमाल में लेते है, हिन्दी तो पराई है. क्या मैं गलत कह रहा हूँ?

जैसे हिन्दी के कट्टर भक्त हैं जो लौहपथगामिनी या घूम्रदंडिका का प्रयोग करते हैं, वैसे
उर्दू के कट्टर भक्त बर्तानिया बोलने पर अड़े डटे हुए हैं। ये न हिन्दू धर्म की कमी है, न
इस्लाम की। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है। कोयला तवे को काला बोले, या तवा कोयले को
काला बोले?

रावत

>
> 2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>
>

V S Rawat

unread,
Aug 6, 2010, 8:55:09 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/6/2010 6:09 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> दिनेशजी आप नहीं समझते. अल्पसंख्यकवाद को जिन्दा रखने और खूद को उनका रहनुमा घोषित
> करने के लिए उर्दू को अलग भाषा सॉरी जबान मानना जरूरी है. वरना बच्चे बच्चे का भेद ही
> नहीं रहेगा, फिर कौन किसका बच्चा पालेगा? हाल ही में पूर्वोत्तर की हमारी 22 भाषाएं
> मर गई. बाकि बची को भी कुएं में डाल 80 करोड़ लोगों को उर्दू अपनानी चाहिए.

यही तो मैं स्पष्ट कर रहा था कि आप जैसा कोई व्यक्ति अर्थ का ऐसा अनर्थ निकालेगा कि
उर्दू का प्रयोग करने का अर्थ है हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बंद कर
देना, उनको नष्ट हो जाने देना।

इस तरह के तर्क उत्तर के योग्य नहीं हैं। अन्य सदस्य ऊपर "संजय उवाच" में निकाले गए
निष्कर्षों और दिए गए सुझावों पर अपना स्वतंत्र मत बना सकते हैं।

जब उर्दू को पराया क़रार देने के बाद भी 22 भारतीय भाषाएँ मर गईं तो कम से कम उन
भाषाओं के क़त्ल का एफ़ आई आर उर्दू पर दायर नहीं किया जा सकता है।

रावत

>
> ६ अगस्त २०१० ६:०५ अपराह्न को, दिनेशराय द्विवेदी <drdwi...@gmail.com

> <mailto:drdwi...@gmail.com>> ने लिखा:


>
> हिन्दी उर्दू दो अलग-अलग भाषाएँ नहीं।
> देखिए -----
>
>
> हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

> <http://anvarat.blogspot.com/2008/07/blog-post_03.html>


>
> और
>
>
> अफरोज 'ताज' की बगिया के आम

> <http://anvarat.blogspot.com/2008/07/blog-post_05.html>
>
>
> 2010/8/6 Kapil Swami <kapi...@gmail.com <mailto:kapi...@gmail.com>>


>
> आदरणीय रावतजी,
>
> आपने अच्‍छे विषय पर चर्चा शुरू की है। हिन्‍दी-उर्दू के ताने-बाने से मिलकर ही
> हमारी भाषा बनी है।
>
> क्‍या कोई बता सकता है कि अन्‍य भारतीय भाषाओं (जैसे कि मराठी, गुजराती
> आदि) में उर्दू शब्‍दों का कितना प्रयोग होता है?
>
> अली सरदार जाफरी ने उर्दू के बारे में एक नज्‍़म लिखी थी....
>
> हमारी प्यारी ज़बान उर्दू
> हमारे नग़्मों की जान उर्दू
> हसीन दिलकश जवान उर्दू
> चले हैं गंगो-जमन की वादी से हम हवाए-बहार बनकर

> हिमालया से उतर रहे हैं तरान-ए-आबशार^[1]


> बनकर
> रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग-रग में ख़ून की सुर्ख़ धार बनकर
> हमारी प्यारी ज़बान उर्दू
> हमारे नग़्मों की जान उर्दू
> हसीन दिलकश जवान उर्दू
>

> 1. झरना


>
>
>
> सादर,
> कपिल
>
>
>
> 2010/8/6 Dr.Rupesh Shrivastava
> <rudrakshanat...@gmail.com

> <mailto:rudrakshanat...@gmail.com>>


>
> प्रिय भाई
> बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते
> हैं। उर्दू तो वो प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है
> जबकि वो हम सबका है। आप चाहें तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी
> भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो किसी भी भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
> सादर
>
> डा.रूपेश श्रीवास्तव
>
> 2010/8/6 Pritish Barahath <priti...@gmail.com

> <mailto:priti...@gmail.com>>


>
> Aapaki bat sahi hai. Urdu bahut pyari bhasha hai.
> par apko kaisa lagata jab urdu ki khubiyon ko Islam ko
> shreshth sabit karane ke liye ginaya jata hai ?
>
> 2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com

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> अनवरत <http://anvarat.blogspot.com/>
> तीसरा खंबा <http://teesarakhamba.blogspot.com/>


>
>
>
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> --
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> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
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संजय | sanjay

unread,
Aug 6, 2010, 8:55:26 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
इस मंच को अखाड़ा नहीं बनाना.

मेरा मानना है कि उपयोगिता ही किसी भाषा के अस्तित्त्व को तय करती है अतः उर्दू की स्थिति के लिए हिन्दूओं पर दोषारोपण गलत है. इसकी दूर्गति का एक कारण अवैज्ञानिक लिपि है और उसके लिए हिन्दू कतई जिम्मेदार नहीं है.

संजय | sanjay

unread,
Aug 6, 2010, 9:08:50 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
"मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था. "

फिर अंग्रेजी नामक नितांत पराये बच्चे को क्यों अपने बच्चे से ज्यादा "तवज्जो" दी और अपने बच्चे को लात मार इसे पाला पोसा?

सीधी बात है उपयोगिता.

अतः दोषारोपण गलत है.

Rajendra Swarnkar

unread,
Aug 6, 2010, 9:11:41 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com

अच्छी चर्चा चल रही है …

कुछ जोड़ रहा हूं

…और उर्दू को एक ख़ास मज़हब वालों की ज़ुबान मानने के  कारण अदब में बेअदबियां करने वाले ,
ख़ासकर ग़ज़ल लिखने वाले ग़ैर उर्दू भाषा के हर रचनाकार को अनधिकृत चेष्टाएं करने वाले  का ठप्पा लगाने से नहीं चूकते नहीं ।
मैं देवनागरी में लिखने वाला रचनाकार उनको यूं भी जवाब देता रहता हूं …
मुलाहिज़ा फ़रमाएं…

मियां तू ख़ुदपरस्ती में है ख़ुदमुख़्तार नुक़्ताचीं
ज़ुबां उर्दू का बनता ख़ुश्क़  ठेकेदार नुक़्ताचीं

बना फिरता अदब का तू अलमबरदार नुक़्ताचीं
हुनर फ़न इल्म का कबसे है पहरेदार नुक़्ताचीं

ग़ज़ल गर थी तेरी जोरू तो बुर्क़े में छुपा रखता
न मिलते हर गली ख़ाविंद फिर दो चार नुक़्ताचीं

ग़ज़ल को भी जो फ़िर्क़ाबंदियों में बांटते, उनको
लगाता हूं सरे - बाज़ार मैं फ़टकार नुक़्ताचीं

राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं





~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

2010/8/6 संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com>
"मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था. "

Rajendra Swarnkar

unread,
Aug 6, 2010, 9:13:48 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
बहुत राजेन्द्र ने समझा दिया फ़िर भी नहीं समझा 
दिमागो - दिल से लगता है ज़रा बीमार नुक़्ताचीं



~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

2010/8/6 Rajendra Swarnkar <swarnkar...@gmail.com>

V S Rawat

unread,
Aug 6, 2010, 10:08:02 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/6/2010 6:38 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> "मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने
> उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था. "
>
> फिर अंग्रेजी नामक नितांत पराये बच्चे को क्यों अपने बच्चे से ज्यादा "तवज्जो" दी और अपने
> बच्चे को लात मार इसे पाला पोसा?
>
> सीधी बात है उपयोगिता.
>
> अतः दोषारोपण गलत है.

उपयोगिता के साथ एक अन्य गहरा मुद्दा भी है।

अंग्रेज़ भारत पर शासन करने और हमें लूटने आए थे। जबकि मुसलमान हमारा धर्म परिवर्तित
करके हमको मुसलमान बनाने आए थे जो कि उन पर उनके धार्मिक ग्रंथ के आदेशानुसार फ़र्ज़ है।

अंग्रेज़ों ने हमारे धर्मों को चोट नहीं पहुँचाई, हमारे मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों को नहीं
तोड़ा न हीं उनकी जगह पर गिरजे बनाए, धर्म के आधार पर हममें भेद भाव करके अपमानित
नहीं किया। जबकि मुसलमानों ने हमारे धार्मिक स्थलों को नष्ट और अपवित्र करा, सटीक
उन्हीं स्थानों पर अपने धार्मिक स्थल बनाए, मुग़लों ने सिखों पर जुल्म करें, सिख गुरुओं को
जेल में रखा, सिख गुरुओं और उनकी संतानों के क़त्ल किए। मुसलमानों ने हम पर ज़ुल्म करके
हमारे धर्म को समाप्त करने के असफल प्रयास किए।

इसलिए उस समय के लोगों के हृदयों में मुसलमानों, उनके धर्म, संस्कृति, आदि से जुड़ी सभी
वस्तुओं के लिए एक घृणा भर गई और हमने उनका विरोध करना प्रारंभ कर दिया।

उपयोगिता तो उर्दू की भी थी। आज भी पंजाबी भाषा को गुरुमुखी के अलावा उर्दू में भी
प्रचलित रूप से लिखा जाता है। आज भी कानूनी कार्यवाहियों में हिन्दी का बहुत कम
प्रयोग है जबकि उर्दू का बहुतायत से प्रयोग होता है। यद्यपि अधिकांश कानून अग्रेजों ने
बनाए फिर भी उन्होंने उर्दू की प्रचलितता को देखकर अंग्रेज़ी और हिन्दी के स्थान पर
अंग्रेज़ी और उर्दू में कानून बनाए।

इसलिए उपयोगिता पर ये धार्मिक कट्टरपन भारी पड़ा। क्योंकि अंग्रेज़ी के साथ कोई घृणा
नहीं थी, इसलिए जब अंग्रेज़ी की आवश्यकता पड़ी तो हमने उसको आराम से अपना लिया,
जबकि उर्दू की आवश्यकता पड़ने पर, उसके उपयोगी होने पर भी हमारी घृणा ने हमको उर्दू
को अपनाने नहीं दिया।

क्या कहते हैं?

रावत

Baljit Basi

unread,
Aug 6, 2010, 10:59:00 AM8/6/10
to शब्द चर्चा
यह बहस तो बहुत लंबी हो सकती है. हाल की घड़ी सिर्फ एक नुक्ता ही. भाषा
और लिपि का संबंध नाख़ून-मॉस का नहीं होता. कोई भी भाषा किसी भी लिपि में
लिखी जा सकती है. कोई लिपि परिपूर्ण नहीं है. अंगरेजी ही देख लो, इसके
शब्द-जोड़ प्रबंध में कोई कम ही तर्क नजर आता है फिर भी सदियों से काम चल
रहा है.भारत में अगर उर्दू लिखने वाले देवनागरी में लिखें तो यह थोडा
हिन्दुत्व दबाव ही समझा जायेगा.पाकिस्तान में आप यह बात कहकर देखें.
पंजाब के हिन्दू यह कहते रहे हैं कि हम पंजाबी अपनी मात-भाषा स्वीकार कर
लेंगे अगर इसको देवनागरी में लिखा जाये. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि
पुराना पंजाबी साहित्य गुरमुखी या शाहमुखी(अरबी) लिपि में ही लिखा गया
है.पाकिस्तान के पंजाबी लेखक सिर्फ शाहमुखी(अरबी) लिपि में ही लिखते हैं
गुरमुखी के नाम पर चिढ़ जाते हैं. लिपि का मसला भारत में धर्म के साथ
जुड़ गया है. आम तौर पर जिस लिपि में कोई साहित्य अधिक लिखा गया हो, उसी
में लिखा जाने की तरजीह होनी चाहिए लेकिन यहाँ देश, भाषा और धर्म के तीन
बराबर के दबाव हैं. एक बात कह दूं, अगर एक भाषा को किसी गैर-रवाइती लिपि
में लिखा जाये तो उस भाषा-भाषी लोगों को डर रहता है कि उनकी भाषा आहिसता
आहिसता दूसरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा में विलीन हो जायेगी.

बलजीत बासी

On 6 अग, 08:32, अजित वडनेरकर <wadnerkar.a...@gmail.com> wrote:
> उर्दू को लिपि से अलग कर देखें।
> फिर इस्तेमाल करें।
> यह हिन्दुस्तानी है।
> अरबी-फारसी के शब्दों से हिन्दी प्रदूषित नहीं होती।
> भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में ऐसे शब्दों का खूब इस्तेमाल हुआ है।
>
> मुस्लिम समाज में भी उर्दू बोलने और लिखनेवालो की तादाद कम होती जा रही है। वजह
> लिपि की बाध्यता है।
> उर्दू को देवनागरी में लिखा-पढ़ा जाए तो न सिर्फ उर्दू का बल्कि हिन्दी का भी
> भला होगा।
>

> 2010/8/6 V S Rawat <vsra...@gmail.com>


>
>
>
>
>
> > On 8/6/2010 1:50 PM India Time, _Dr.Rupesh Shrivastava_ wrote:
>
> >  प्रिय भाई
> >> बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते
> >> हैं। उर्दू तो वो
> >> प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है जबकि वो हम सबका है।
>
> > एकदम सही उत्तर है।
>
> > और अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए
> > भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था।
>
> > यह हिन्दुओं का सबसे बड़ा ग़लत कदम था कि उन्होंने इतनी अच्छी भारतीय भाषा को
> > हिन्दुत्व से अलग कर दिया।
>
> > भाषा उसकी जो उसका प्रयोग करें।
>
> > यदि 80 करोड़ हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख भी उर्दू का प्रयोग करते रहते तो विश्व
> > उर्दू को हमारी भाषा मानता न कि मात्र 14 करोड़ मुस्लिमों की। अभी भी हम इस दिशा
> > में प्रयास कर सकते हैं।
>
> > रावत
>
> >  आप चाहें
> >> तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो
> >> किसी भी
> >> भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
> >> सादर
> >> डा.रूपेश श्रीवास्तव
>

> >> 2010/8/6 Pritish Barahath <pritish1...@gmail.com
> >> <mailto:pritish1...@gmail.com>>


>
> >>    Aapaki bat sahi hai. Urdu bahut pyari bhasha hai.
> >>    par apko kaisa lagata jab urdu ki khubiyon ko Islam ko shreshth
> >>    sabit karane ke liye ginaya jata hai ?
>

> >>    2010/8/6 V S Rawat <vsra...@gmail.com <mailto:vsra...@gmail.com>>

> अजितhttp://shabdavali.blogspot.com/- उद्धृत पाठ छिपाएँ -
>
> उद्धृत पाठ दिखाए

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 6, 2010, 11:05:56 AM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
लेकिन यहाँ देश, भाषा और धर्म के तीन
बराबर के दबाव हैं. एक बात कह दूं, अगर एक भाषा को किसी गैर-रवाइती लिपि
में लिखा जाये तो उस भाषा-भाषी लोगों को डर  रहता है कि उनकी भाषा आहिसता
आहिसता दूसरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा में विलीन हो जायेगी.


सार तो यही है जो बलजीत भाई ने कहा। इसीलिए हम तो कोशिश करते हैं कि हिन्दुस्तानी ही लिखें, बोलें और बतियाएं।

2010/8/6 Baljit Basi <balji...@yahoo.com>

Ashutosh Kumar

unread,
Aug 6, 2010, 2:31:55 PM8/6/10
to शब्द चर्चा
सच्चाईयां बहुत कडवी होतीं हैं और पूर्वग्रह बेहद प्यारे होतें है.
देवनागरी वैज्ञानिक है और फारसी लिपि अवैज्ञानिक ?मुसलमान हमारा धर्म
बदलने आये थे , और अँगरेज़ हमें इंसान बनाने?भारत में जो मुसलमान आये ,
उनकी मादरी जुबान अरबी थी?संतों , दुनिया की कोई लिपि वैज्ञानिक नहीं
है . प्रत्येक लिपि की अपनी खूबियाँ खामियां हैं. क्या आप हिंदी को
ग्लोबल बनाने के लिए उसे रोमन में लिखना स्वीकार करेंगे ?हिन्दुस्तान में
जो तुर्क अफगान उजबेक आये थे , वे अरबी क्या फारसी के मामले में भी लिख
लोढ़ा पढ़ पत्थर थे.हिन्दुस्तान में फारसी राजभाषा बनी तो इसलिए ,
क्योंकि वह उस जमाने में ज्ञान और संस्कृति की विश्वभाषा थी , आज की
अंग्रेज़ी की तरह! धार्मिक कारण होते , तो अरबी राज भाषा बनती न कि
फारसी. अंगरेजी राज के शुरुआती दिनों में मिशनरियों ने सक्रिय राजकीय
सहयोग से धर्मपरिवर्तन का जैसा अभियान चलाया था वैसा हिन्दुस्तान में
किसी मुसलमान शासक ने नहीं चलाया.उलटे मुगलों ने धार्मिक समरसता की जिस
नीति पर अपना निजाम कायम किया था , उस की मिसाल दुनिया के तारीख में
कहीं और नहीं मिलती.
हमारे एक दोस्त ने कभी एक शेर कहा था . वो जैसा अब मुझे याद है , कुछ इस
तरह है -
ज़ुल्म उर्दू पे भी होतें हैं , इसी फितरत से
लोग उर्दू को मुसलमान समझ लेतें हैं!

ई-स्वामी

unread,
Aug 6, 2010, 3:56:21 PM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
लेखन में व्यव्हारिक समस्याएं हैं जिनके बारे में कभी कोई बात ही नही करता!

"सादर वंदे, यदि अनुमति हो तो एक निवेदन करूं" एक और दूसरा "सादर वंदे, अगर इजाज़त दें तो कुछ अर्ज करूं" में पहला ज्यादा शुद्धतावादी और दूसरा वाक्य बहुत खिचडीनुमा लगता है, ये भी लगता है कि लिखने वाला का संस्कृतनिष्ठ हिन्दी और उर्दू दोनो मे से किसी पर भी अधिकार नही है... आप आम तौर पर क्या कहियेगा? सिंपली - "बुरा  ना मानो तो एक बात कहूं?"  या "एक बात बोलूं बॉस, प्लीज़ अदरवाईज़ मत लेना.." एक हिन्दू दूसरे को "सलाम वालेकुम" कह कर तो शुरु नही करेगा ना! ना ही कोई मुस्लिम "सलाम वालेकुम, यदि अनुमति हो तो एक निवेदन करूं" जैसा कुछ बोलेगा. 

जरूरत है हिन्दी को एक "सुपर सेट" बनाने की - जिसमें उर्दू/संस्कृत/पश्चिमी/अन्य भारतीय भाषाओं के बडे-छोटे शब्द आपसी समानार्थीयों समेत बिना झिझके खुल कर एक के पास एक खडे मिलें और सुनने वाले के कानों को अटपटा न लगे... क्या वो संभव है? व्यव्हारिक सीमित प्रयोग के चलते ना चाहते हुए भी किसी किसी भाषा के साथ परायेपन का सा व्यव्हार हो जाता है ऐसा नही है कि किसी भाषा विशेष के विरोध में कोई आन्दोलन चलाया जा रहा है [किसी खास ज़बान के खिलाफ़ कोई मुहीम छेडी जा रही है].. ये अन्याय संस्कृतनिष्ठ हिन्दी और उर्दू दोनो के ही साथ हुआ है!

मुझे उर्दू भाषा से प्यार है. जैसे हिन्दी बस आम अनौपचारिक बोलचाल की भाषा हो कर रह गई, उर्दू बस शायरी की जुबान बन कर रह गई. मूलभूत सोच और शोध ही जब उधार के हों तो अंग्रेजी की तानाशाही की शिकार होंगी ही दोनो. मेरे लिये संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का सौंदर्य भी उतना ही लुभावना है जितनी उर्दू शायराना है.

मौसम है आशकाना
ऐ दिल कहीं से उन को
ऐसे में ढूंढ लाना

प्रणयमय कालोचित
हे हृद्य उन्हें कुत्रचित
अनुनय करो उपस्थित

दोनो मे से आप क्या सुनना पसंद करेंगे? :)



2010/8/6 Ashutosh Kumar <ashuv...@gmail.com>



--
http://hindini.com
http://hindini.com/eswami

V S Rawat

unread,
Aug 6, 2010, 4:54:45 PM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
ये अच्छा पक्ष बताया आपने। मैंने जितना कहा उसमें मैं देवनागरी लिपि में लिखी गई उर्दू को
ही सोच के बोल रहा था।

और उर्दू लिपि का प्रचलन कम होने का कारण है कि यह बहुत ही गैर-वैज्ञानिक है। एक ही
तरह के चिह्नों को नुक्तों की, डंडियों की संख्याओं को गिन कर समझना पड़ता है। एक जैसे
ध्वनियों को पूरी तरह अलग अलग चिह्नों से लिखा जाता है जैसे क़ाफ़ और काफ़, और सारे ज।
अलग अलग ध्वनियों को लगभग एक ही प्रकार के चिह्नों से लिखा जाता है जैसे फ़े और क़ाफ़।
एक ही चिह्न को प्रयोगानुसार अलग अलग पढ़ा जाता है जैसे व और औ। मात्रा लगाने पर
अक्षर ऐसा बदल जाता है कि बिना मात्रा के अक्षर जैसा नहीं दिखता है।

कह लीजिए कि किसी लिपि में जितनी कमियाँ हो सकती हैं, वो सब उर्दू अरबी में हैं। इस
वजह से इसके कंप्यूटरीकरण में समस्या है और इसके प्रक्रियाकरण के लिए जो सॉफ़्टवेयर बननी
चाहिएँ वो नहीं बन पाएँगी, जिससे इसका प्रयोग सीमित रहेगा और घटता रहेगा।

इसलिए यह अच्छा है कि उर्दू की लिपि को छोड़ कर उर्दू को देवनागरी में ही लिखा जाए।

या फिर उर्दू के ज्ञानियों को लिपि में बहुत सुधार करके इन कमियों को दूर करना चाहिए।

रावत

On 8/6/2010 6:02 PM India Time, _अजित वडनेरकर_ wrote:

> उर्दू को लिपि से अलग कर देखें।
> फिर इस्तेमाल करें।
> यह हिन्दुस्तानी है।
> अरबी-फारसी के शब्दों से हिन्दी प्रदूषित नहीं होती।
> भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में ऐसे शब्दों का खूब इस्तेमाल हुआ है।
>
> मुस्लिम समाज में भी उर्दू बोलने और लिखनेवालो की तादाद कम होती जा रही है। वजह लिपि
> की बाध्यता है।
> उर्दू को देवनागरी में लिखा-पढ़ा जाए तो न सिर्फ उर्दू का बल्कि हिन्दी का भी भला होगा।
>
>

> 2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>


>
> On 8/6/2010 1:50 PM India Time, _Dr.Rupesh Shrivastava_ wrote:
>
> प्रिय भाई
> बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते हैं।
> उर्दू तो वो
> प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है जबकि वो हम सबका है।
>
>
> एकदम सही उत्तर है।
>
> और अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए
> भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था।
>
> यह हिन्दुओं का सबसे बड़ा ग़लत कदम था कि उन्होंने इतनी अच्छी भारतीय भाषा को
> हिन्दुत्व से अलग कर दिया।
>
> भाषा उसकी जो उसका प्रयोग करें।
>
> यदि 80 करोड़ हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख भी उर्दू का प्रयोग करते रहते तो विश्व उर्दू
> को हमारी भाषा मानता न कि मात्र 14 करोड़ मुस्लिमों की। अभी भी हम इस दिशा में
> प्रयास कर सकते हैं।
>
> रावत
>
> आप चाहें
> तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो किसी भी
> भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
> सादर
> डा.रूपेश श्रीवास्तव
>
> 2010/8/6 Pritish Barahath <priti...@gmail.com
> <mailto:priti...@gmail.com>

> <mailto:priti...@gmail.com <mailto:priti...@gmail.com>>>


>
>
> Aapaki bat sahi hai. Urdu bahut pyari bhasha hai.
> par apko kaisa lagata jab urdu ki khubiyon ko Islam ko shreshth
> sabit karane ke liye ginaya jata hai ?
>
> 2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com

> <mailto:vsr...@gmail.com> <mailto:vsr...@gmail.com

V S Rawat

unread,
Aug 6, 2010, 5:06:42 PM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
ये तो दिमाग़ की याददाश्त की बात हो गई कि जो सुना हुआ है वो याद है, और वो ही
अच्छा लगेगा।

वैसे देखें तो इसमें मौसम, आशिक़ाना और दिल तीन ही शब्द उर्दू के हैं, बाकी सब पहले से ही
हिन्दी है, तो आप उस सही हिन्दी को और कठिन, और क्लिष्ठ, और क़िताबी, और
अप्रचलित बना कर हिन्दी संस्करण की कमी क्यों दिखा रहे हैं?

> मौसम है आशकाना
> ऐ दिल कहीं से उन को
> ऐसे में ढूंढ लाना

इसमें बस यही परिवर्तन चाहिएँ -

> ऋतु है प्रेम पनपाती
> ऐ मन कहीं से उन को


> ऐसे में ढूंढ लाना

बस। फ़िल्हाल रदीफ़, क़ाफ़िए, रहायमिंग, स्केल की चिंता न करें, मूल भाव इसमें पूरी तरह
संप्रेषित हो गया है, उतना ही चाहिए अनुवाद के लिए।

अब यह उतना खराब और कठिन और अनजाना भी नहीं लग रहा है जितना आप ने बना दिया।

रावत

ई-स्वामी

unread,
Aug 6, 2010, 6:13:00 PM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com
> ऋतु है प्रेम पनपाती
> ऐ मन कहीं से उन को
> ऐसे में ढूंढ लाना

मैने तो जानबूझ कर संस्कृतनिष्ठ किया कि तमाम शाब्दिक कलाकारी तो बिना उर्दू के शब्द डाले भी संभव है, लेकिन कितना भी क्लिष्ट या आसान कर लो आप, हिन्दी में वो किक नही बैठ रही है ना? और हां बात आदत की ही है, जो सुना हुआ है अच्छा लगेगा! बस यही कहना चाह रहा हूं..कि आज के प्रायोगिक पक्ष को ध्यान में रख कर हमने हिन्दी और उर्दू को दो अलग अलग टूल्स में बांट लिया है - एक हथौडी है दूसरी पेंचकस है - उसी फ़िल्म में डायलाग हिंदी/मुम्बईया/हिंग्लिश  होंगे लेकिन गीत/संगीत उर्दू/पंजाबी में होगा.. बिकॉज़ इट वर्क्स!!. वैसे ही अंग्रेजी का प्रयोग गुस्सा आने पर या बुद्धिजीविता बघारने के लिये. तो ये ना कहा जाए कि भाषा विशेष के साथ भेद-भाव हुआ है.. उसके शक्तिशाली पक्ष का जहां किया जा सका प्रयोग किया गया है, जो कि उचित भी है!



2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com>
ये तो दिमाग़ की याददाश्त की बात हो गई कि जो सुना हुआ है वो याद है, और वो ही अच्छा लगेगा।

ashutosh kumar

unread,
Aug 6, 2010, 11:40:29 PM8/6/10
to shabdc...@googlegroups.com


प्रणयमय कालोचित
हे हृद्य उन्हें कुत्रचित
अनुनय करो उपस्थित 



सुन ली उन्होंने यदि यह वाणी सुरचित
उम्र भर पास न फट्केंगी कदाचित 
333.gif

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 1:43:41 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
@ Ashutosh ji

kadachit ki jagah 'nishchit' kar den :-)
333.gif

ravikant

unread,
Aug 7, 2010, 2:29:12 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
बहुत ख़ूब राजेन्द्र जी, ग़ज़ल के लिए दाद लीजिए।

'नुक़्ताचीं है ग़मे-दिल'! इसलिए थोड़ी-सी नुक़्ताचीनी मेरी तरफ़ से:

'दिमाग़' होगा, और 'फिर' होगा।

रविकान्त

Rajendra Swarnkar wrote:
> *बहुत राजेन्द्र ने समझा दिया फ़िर भी नहीं समझा

> दिमागो - दिल से लगता है ज़रा बीमार नुक़्ताचीं

> *


>
>
> ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
>
> 2010/8/6 Rajendra Swarnkar <swarnkar...@gmail.com

> <mailto:swarnkar...@gmail.com>>


>
>
> अच्छी चर्चा चल रही है …
>
> कुछ जोड़ रहा हूं
>
> …और उर्दू को एक ख़ास मज़हब वालों की ज़ुबान मानने के कारण अदब में बेअदबियां करने
> वाले ,

> ख़ासकर *ग़ज़ल लिखने वाले ग़ैर उर्दू भाषा के हर रचनाकार* को *अनधिकृत चेष्टाएं करने
> वाले * का ठप्पा लगाने से नहीं चूकते नहीं ।


> मैं देवनागरी में लिखने वाला रचनाकार उनको यूं भी जवाब देता रहता हूं …
> मुलाहिज़ा फ़रमाएं…
>

> *मियां तू ख़ुदपरस्ती में है ख़ुदमुख़्तार नुक़्ताचीं


> ज़ुबां उर्दू का बनता ख़ुश्क़ ठेकेदार नुक़्ताचीं
>
> बना फिरता अदब का तू अलमबरदार नुक़्ताचीं
> हुनर फ़न इल्म का कबसे है पहरेदार नुक़्ताचीं
>
> ग़ज़ल गर थी तेरी जोरू तो बुर्क़े में छुपा रखता
> न मिलते हर गली ख़ाविंद फिर दो चार नुक़्ताचीं
>
> ग़ज़ल को भी जो फ़िर्क़ाबंदियों में बांटते, उनको
> लगाता हूं सरे - बाज़ार मैं फ़टकार नुक़्ताचीं
>

> *राजेन्द्र स्वर्णकार *
> शस्वरं <http://shabdswarrang.blogspot.com/>
> *
>
>
>
>

ravikant

unread,
Aug 7, 2010, 2:55:23 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
बड़ी नेक बातें कर रहे हैं संतजन। सिर्फ़ रावत साहब की एक चीज़ से इत्तेफ़ाक़ नहीं है, इसलिए
अर्ज़ करना चाहता हूँ कि लिपि पूरी तरह वैज्ञानिक कोई नहीं है, अगर आप उत्तर भारत की
ठेठ ज़बानें देवनागरी में लिखने लगें, तो परेशानी महसूस होने लगेगी। मुझे मैथिली, भोजपुरी या
मगही पढ़ने में तो होती है। लेकिन ज़्यादा गहरी बात ये है कि कंप्यूटर वाले अक्सर लिपि की
वैज्ञानिकता की जो अवैज्ञानिक दुहाई देते हैं, उनको थोड़ा सोच-समझकर बोलना चाहिए। पहले
तो भाषा ही आई, टाइपराइटर या कंप्यूटर बाद में आया। इन यंत्रों को भाषानुकूलित करने की
ज़रूरत है। समस्या भाषा की नहीं हो सकती, समस्या सॉफ़्टवेयर बनाने वालों की है, अपनी
अक्षमता उन्हें भाषाओं के मत्थे मढ़कर कटने का कोई अधिकार नहीं है।

और साहब, किसने कहा कि अरबी-फ़ारसी में कंप्यूटर नहीं चल रहे? नागरी हिन्दी से बहुत पहले
से चल रहे हैं, और उर्दू में भी बहुत बड़े पैमाने पर काम हो रहा है, हिन्दुस्तान में कम,
पाकिस्तान में ज़्यादा। मिसाल के तौर पर ये देखें:

www.*crulp*.org

/लिपियों के आर-पार जाना अब इतना सहल होने वाला है कि कोई ख़ास मसला रह नहीं जाएगा।

रविकान्त
/

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 3:01:14 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
मैने लिपि की अवैज्ञानिकता की बात कंप्यूटर पर काम करने की क्षमता के आधार पर नहीं की है. क्योंकि इस क्षेत्र में "दखल" रखता हूँ. अरबी लिपि अवैज्ञानिक है. बहुत बार जैसा लिखा गया है वैसा ही पढ़ा जाएगा इसकी "गारंटी" नहीं होती.

2010/8/7 ravikant <ravi...@sarai.net>

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 3:17:09 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com


संजय जी , देवनागरी में भी जैसा लिखा वैसा पढ़े जाने की गारंटी नहीं है. किसी लिपि में नहीं है. देवनागरी में लिखित / उच्चरित का भेद नीचे देखें . ये चंद नमूने हैं. पूर्वग्रह मुक्त हो कर ढूढेंगे तो हज़ारों मिलेंगे. 

भाषा               भाशा 
ऋषि               रिशी
ज्ञान               ग्यान
अदालत          अदा लत्

ravikant

unread,
Aug 7, 2010, 3:28:42 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
संजय जी,

मुझे पता है आप अच्छी-ख़ासी दख़ल रखते हैं। मैं भी कोई अनाड़ी नहीं हूँ। मैंने जिन तीन ज़बानों
का उदाहरण दिया था, वह यही सिद्ध करने के लिए कि कोई भी लिपि पूरी तरह वैज्ञानिक
नहीं होती। आपकी बात सही है कि उर्दू लिपि में जैसा लिखा जाता है, हमेशा वैसा पढ़ा नहीं
जा सकता। और तो और, उर्दू में जब तक जुमला पूरा नहीं हो जाता आप कई बार शब्द सही
नहीं पढ़ पाते। 'इस' भी वैसे ही लिखा जाता है, जैसे 'उस'। किसी ने अंग्रेज़ी का नाम भी
लिया। टेढ़े अंग्रेज़ी शब्दों को हिन्दी में सही-सही लिखने की कोशिश करें आपके पसीने छूट
जाएगे। Congress लिख के दिखाइए मुझे, जैसे कभी लिखा जाता था इसको नागरी में। अब
सवाल सिर्फ़ इतना है कि हम वैज्ञानिकता के नए 'सापेक्ष मानदंड'(!?!) रचें या उसकी
परिभाषा बदलें।

तो, मेरा इशारा इस ओर भी है कि भाषा और लिपि व्यवहार की चीज़ें है, और सामाजिक
व्यवहार की चीज़े वैज्ञानिक नहीं हो सकतीं। वैसे ही जैसे ख़ुद मुआ विज्ञान सदा-सर्वदा-संपूर्ण
वैज्ञानिक नहीं है!

रविकान्त


संजय | sanjay wrote:
> मैने लिपि की अवैज्ञानिकता की बात कंप्यूटर पर काम करने की क्षमता के आधार पर नहीं
> की है. क्योंकि इस क्षेत्र में "दखल" रखता हूँ. अरबी लिपि अवैज्ञानिक है. बहुत बार जैसा
> लिखा गया है वैसा ही पढ़ा जाएगा इसकी "गारंटी" नहीं होती.
>

> 2010/8/7 ravikant <ravi...@sarai.net <mailto:ravi...@sarai.net>>

> <mailto:vsr...@gmail.com> <mailto:vsr...@gmail.com


> <mailto:vsr...@gmail.com>>>
>
>
>
>
>
>
> --
> ---------------------------------------------------------------
> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
> छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 3:39:49 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
आशुतोष जी, आपका उल्टी ही दिशा में चले गए हैं और वो भी गलत तर्क के साथ।
अब अगर ष का उच्च्चारण लोग नहीं कर पा रहे हैं तो यह कुछ वैसा ही हुआ कि
भोजपूरी वाले श का उच्चारण नहीं कर पाते। उच्चारण दोष तो बोलने वाले के
ऊपर निर्भर करता है न कि स्वयं भाषा में।

संजय बेंगाणी ने जो कहा है वह भी गलत है लेकिन उस वजह से नहीं जो आप बता
रहे हैं। जहां तक मेरा अनुमान है संजय जी अरबी में अदृश्य रहने वाली
मात्राओं की बात कर रहे हैं। जैसे कि रम,रम,रम दिखने वाला शब्द
रमा,राम,रमी पढ़ा जा सकता है। पता नहीं संजय जी अरबी जानते हैं की नहीं।
मैं तो नहीं जानता। जामिया मिल्लिया में अरबी वालों की सोहबत और कुछ अपनी
बहन के अरबी सीखने के दौरान मैंने जाना था कि अरबी की मात्राएं स्पष्ट
नहीं लगाई जातीं।

संजय जी, आप जिस बात को कमी बता रहे हैं वह हिन्दीदां के लिए समस्या हो
सकती है लेकिन अरबी वाले के लिए नहीं। अरबी सीखने के आरम्भिक दिनों में
इस उर्दू/फारसी के इतर भाषाओं के लोग इससे खीझते हैं लेकिन जिनका अरबी पर
अधिकार हो जाता है वह इसके नियम को समझने के बाद अरबी को उतनी सही
सटीक,शुद्ध और फर्राटेदार तरीके से पढ़ते हैं जितना की आप हिन्दी या दूसरी
किसी भाषा को पढ़ते होंगे।

अतः,संक्षेप में फिर से दुहाराना चाहुंगा कि अरबी में मात्रा अलग तरीके
से थोड़ा जटिल (जैसा कि सभी क्लासकीय भाषाओं में होता है) लगती है लेकिन
इस आधार पर उसे गलत तरीका नहीं कहा जा सकता है।

मैं भाषा के मामले में विशेष अधिकार नहीं रखता यह भी अभी से स्पष्ट कर
दूं। संत जन जो राय-बात करें मुझे स्वीकार्य है।

On 8/7/10, ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com> wrote:

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 3:49:03 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा जाएगा. जिन्हे ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष नहीं. 

हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो रम पढ़ो राम ?!!!

केवल लिपि सीखने भर से पढ़ना न आये और सही पढ़ने के लिए अभ्यास करना पढ़े उस लिपि को अवैज्ञानिक लिपि ही कहा जाएगा.  

2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com>

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 3:51:26 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
किसी ध्वनी को खास लिपि में न लिख पाना लिपि में अक्षर/प्रतिक की कमी है न कि अवैज्ञानिकता. अवैज्ञानिकता तो र को रा री कुछ भी पढ़ा जाना है.

७ अगस्त २०१० १:१९ अपराह्न को, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com> ने लिखा:

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 4:04:45 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
दुल्हन वही जो चोपड़ाजी दिलवाएं. वैज्ञानिकता  वही जो संजयजी बताएं.देवनागरी में विस्तृत मात्राएँ हैं , यह उस की वैज्ञानिकता है! लेकिन कोई मात्रा आगे लगती है , कोई पीछे , कोई ऊपर लगती है , कोई नीचे . इस के पीछे कौन सा वैज्ञानिक तर्क है?  

ङ,ञ, ऋ, ष  का वेदोक्त उच्चारण अपन भी नहीं कर सकते . यह अपन की गधामी होगी, लेकिन यह गधामी क्या बला है , इस पर एक सूत चलायें !      
 

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 4:06:50 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
भाषा-विज्ञान में अपनी अज्ञानता को मैं फिर से याद दिलाते हुए जानना
चाहुंगा कि क्या व्याकरण से स्वतंत्र किसी क्लासिक भाषा की लिपी अपनी
वैज्ञानिकता बचा पाएगी !!
क्या संस्कृत में सिर्फ लिपी जानकर अर्थापन किया जा सकता है। रामः,रामौ
और रामाः के अर्थ का अंतर सिर्फ लिपी ज्ञान से जाना जा सकता है ?

अरबी में अर्थापन वाक्य-प्रयोग के आधार पर होता है तो मेरी समझ में कोई
दोष नहीं है।
वैज्ञानकिता के संदर्भ में रविकांत जी की बात पर ध्यान क्यों न दिया जाए ??

वैज्ञानिकता कम्प्यूटर पर प्रयोग से प्रमाणित होगी क्या ?

अगर ऐसा होगा तो भी अरबी कम्प्यूटर पर हिन्दी से ज्यादा प्रयुक्त भाषा
है। यकीन न हो तो इसकी पड़ताल कर लें।

संजय जी,जिन कमियों की तरफ इशारा कर रहे हैं अगर उनको ध्यान में रखा जाए
तो अंग्रेजी दुनिया की बहुत सी भाषाओं से कमतर पड़ेगी लेकिन सभी जानते हैं
कि तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में इस भाषा की क्या भूमिका है।

On 8/7/10, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com> wrote:
> किसी ध्वनी को खास लिपि में न लिख पाना लिपि में अक्षर/प्रतिक की कमी है न कि
> अवैज्ञानिकता. अवैज्ञानिकता तो र को रा री कुछ भी पढ़ा जाना है.
>
> ७ अगस्त २०१० १:१९ अपराह्न को, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com> ने
> लिखा:
>
>> आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा जाएगा.
>> जिन्हे ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष नहीं.
>>

>> हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो *रम* पढ़ो *राम* ?!!!

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 4:08:15 AM8/7/10
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well said , sir! 

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 4:09:26 AM8/7/10
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'लिपि' पढ़ें।*

और आशुतोष जी वाली 'गधामी' में तो मुझे भी शामिल समझें। :-) :-)

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 4:19:27 AM8/7/10
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यह भी कि, मुझे यकीन नहीं है लेकिन आदरणीय शंकराचार्य जी कह गए है कि -
रम,रमा और राम - में एक ही परमतत्व व्याप्त हैं। उनमें भेद देखने वाला
सांसरिक माया के वशीभूत होकर ऐसी मिथ्या का शिकार हो जाता है. :-) :-)

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 4:23:07 AM8/7/10
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हा हा, ये तो "उन" पर निर्भर करेगा न। हो सकता है उनको ये शैली अधिक पसंद आए और
वो हर समय पास रहने का निर्णय कर लें।

वैसे हिन्दी में शुद्ध और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के गाने आ चुके हैं। भरत व्यास जी ने कई दिए हैं।

एक उदाहरण है:
--
आज मधुवातास डोले मधुरिमा से प्राण भर लो
चाँद को चुपचाप निरखो चाँदनी में स्नान कर लो ।

ये चमेली सी सुगन्धित रात मधु मुस्का रही
झींगुरों की बीन के झंकार पर कुछ गा रही
चहचहाते विहग भोले किस दिशा में खो गए
मौन है प्राकृति जगत के सकल प्राणी सो गए
मैं कहूँ कुछ कान में तुम जान कर अनजान कर लो

आज तुम क्यों मौन हो कुछ आज मुख से बोल दो
आज अपनी चिर लजीली लाज के पट खोल दो
मूक कलियों से सुनो कुछ प्रणय की पागल कहानी
मद भरी गीली हवा से बात कर लो कुछ सुहानी
बन्द कर पलकें किसी का आज मन मन ध्यान कर लो ।
आज कितने ही युगों के बाद ऐसी चाँदनी
आज कितने ही दुखॊं के बाद ऐसी चाँदनी
आज दोनों अवनि अम्बर पर मधुरिमा छा रही
चाँद अम्बर में अवनि में तुम प्रिये मुस्का रही
आज सपनों में डुबो कर सुनहरे अरमान कर लो ।
--

यह किसी पुरस्कृत पुस्तक की कविता नहीं अपितु एक फ़िल्म का गाना है।

और इसी कड़ी में नवीनतम तो फ़िल्म गुलाल में पियूश मिश्रा का गाना है। वैसे तो इसमें उर्दू
शब्द भी हैं परंतु हिन्दी का सौंदर्य निखर के आ रहा है
--
आरंभ है प्रचंड, बोलें मस्तकों के झुंड, आज युद्ध की घड़ी की तुम गुहार दो
आन-बान-शान या कि जान का हो दान, आज एक धनुष के बाण पे उतार दो

मन करे सो प्राण दे जो, मन करे सो प्राण ले जो, एक वही तो सर्वशक्तिमान है
विश्व की पुकार है ये भागवत का सार है, कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो, या पांडवों का नीड़ हो, जो लड़ सका है वो ही तो महान है
जीत की हवस नहीं, किसी पे कोई वश नहीं, क्या जिन्दगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं तो मौत से भी क्यों डरें, ये जाके आसमान में दहाड़ दो

हो दया का भाव या कि शौर्य का चुनाव, या कि हार का वो घाव, तुम ये सोच लो
या कि पूरे भाल पर जला रहे विजय का लाल-लाल ये गुलाल तुम ये सोच लो
रंग केसरी हो या मृदंग केसरी हो या कि केसरी हो ताल तुम ये सोच लो
जिस कवि की कल्पना में जिन्दगी हो प्रेम गीत, उस कवि को आज तुम नकार दो
भीगती नसों में आज, फूलती रगों में आज, आग की लपट का तुम बघार दो
--

रावत

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 4:23:22 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
किसने कहा विज्ञान की भाषा अंग्रेजी अवैज्ञानिक नहीं है?

बात लिपि की हो रही है. लिपि भाषा को लिखने के और उसे फिर से पढ़ने के काम आती है. वही लिपि अच्छी है जिसमें लिखा गया वैसे ही पढ़ा जा सके. इसमें कंप्यूटर कहाँ बीच में आ गया?

और एक बात मैने किसी व्यक्ति विशेष के लिए गधामी नहीं कहा है. कृपया राजनेताओं जैसे बतगंड़ न बनाएं.  

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 4:25:16 AM8/7/10
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On 8/7/2010 1:19 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा जाएगा. जिन्हे
> ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष नहीं.

बताइए कि इनमें अंतर आखिर है क्या?

रावत

>
> हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो *रम* पढ़ो *राम* ?!!!


>
> केवल लिपि सीखने भर से पढ़ना न आये और सही पढ़ने के लिए अभ्यास करना पढ़े उस लिपि को
> अवैज्ञानिक लिपि ही कहा जाएगा.
>
> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>>


>
> आशुतोष जी, आपका उल्टी ही दिशा में चले गए हैं और वो भी गलत तर्क के साथ।
> अब अगर ष का उच्च्चारण लोग नहीं कर पा रहे हैं तो यह कुछ वैसा ही हुआ कि
> भोजपूरी वाले श का उच्चारण नहीं कर पाते। उच्चारण दोष तो बोलने वाले के
> ऊपर निर्भर करता है न कि स्वयं भाषा में।
>
> संजय बेंगाणी ने जो कहा है वह भी गलत है लेकिन उस वजह से नहीं जो आप बता
> रहे हैं। जहां तक मेरा अनुमान है संजय जी अरबी में अदृश्य रहने वाली
> मात्राओं की बात कर रहे हैं। जैसे कि रम,रम,रम दिखने वाला शब्द
> रमा,राम,रमी पढ़ा जा सकता है। पता नहीं संजय जी अरबी जानते हैं की नहीं।
> मैं तो नहीं जानता। जामिया मिल्लिया में अरबी वालों की सोहबत और कुछ अपनी
> बहन के अरबी सीखने के दौरान मैंने जाना था कि अरबी की मात्राएं स्पष्ट
> नहीं लगाई जातीं।
>
> संजय जी, आप जिस बात को कमी बता रहे हैं वह हिन्दीदां के लिए समस्या हो
> सकती है लेकिन अरबी वाले के लिए नहीं। अरबी सीखने के आरम्भिक दिनों में
> इस उर्दू/फारसी के इतर भाषाओं के लोग इससे खीझते हैं लेकिन जिनका अरबी पर
> अधिकार हो जाता है वह इसके नियम को समझने के बाद अरबी को उतनी सही
> सटीक,शुद्ध और फर्राटेदार तरीके से पढ़ते हैं जितना की आप हिन्दी या दूसरी
> किसी भाषा को पढ़ते होंगे।
>
> अतः,संक्षेप में फिर से दुहाराना चाहुंगा कि अरबी में मात्रा अलग तरीके
> से थोड़ा जटिल (जैसा कि सभी क्लासकीय भाषाओं में होता है) लगती है लेकिन
> इस आधार पर उसे गलत तरीका नहीं कहा जा सकता है।
>
> मैं भाषा के मामले में विशेष अधिकार नहीं रखता यह भी अभी से स्पष्ट कर
> दूं। संत जन जो राय-बात करें मुझे स्वीकार्य है।
>
>
>
> On 8/7/10, ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 4:30:02 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
संजय जी, लगता है कि आपने स्माइली पर ध्यान नहीं दिया। अब मुस्करा दीजिए :-)

हाँ, फिनामइलाजिकल तौर पर लिपि की वैज्ञानिकता कैसी परिभाषित होगी इस पर
बात करने के लिए फिलवक्त मैं सर्वथा अयोग्य हूँ.....

(मुझे 2-4-10 साल का वक्त दिया जाए) :-) :-)

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 4:36:11 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/7/2010 1:53 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> किसने कहा विज्ञान की भाषा अंग्रेजी अवैज्ञानिक नहीं है?
>
> बात लिपि की हो रही है. लिपि भाषा को लिखने के और उसे फिर से पढ़ने के काम आती है.
> वही लिपि अच्छी है जिसमें लिखा गया वैसे ही पढ़ा जा सके. इसमें कंप्यूटर कहाँ बीच में आ गया?

कंप्यूटर कहने का अर्थ है तार्किकता।

दिमाग जिस प्रक्रिया से लिपि और भाषा को समझता है वही तार्किकता या प्रोग्रामिंग
हैं। यह हमारी मुंडी में अंदर अंदर चलती रहती है और हमको पता नहीं चलता कि आँखों ने जो
देखा उससे दिमाग़ ने कुछ कैसे समझा। हम प्रसन्न रहते हैं कि समझ गए यही काफ़ी है।

उसी प्रक्रिया को मशीन द्वारा किया जाए तो उसको कंप्यूटरीकरण कहते हैं। यदि भाषा
लिपि सरल है तो उसके तर्क सरलता से मिल जाएँगे और कम्प्यूटर में कोडबद्ध कर दिए जाएँगे।
जैसे हिन्दी पाठ का कम्प्यूटर द्वारा उच्चारण करना बहुत ही सरल है क्योंकि हर अक्षर
मात्रा को एक ही प्रकार उच्चारित किया जाता है, जबकि अंग्रेजी का बहुत कठिन है
क्योंकि एक ही अक्षर को अलग अलग प्रकार से उच्चारित किया जाता है।

इसलिए उर्दू लिपि का कंप्यूटरीकरण करना बहुत कठिन क्योंकि लिपि अवैज्ञानिक है, जिसका
अर्थ केवल इतना है कि लिपि के नियमों का पता लगाना कठिन है।

लोग कह रहे हैं अरबी फ़ारसी उर्दू में बहुत समय से बहुत काम हो रहे हैं। कृपया बताएँ क्या
बहुत काम हुए हैं? सिर्फ़ टाइप राइटर की तरह कोई की दबाने से अक्षर पटल पर दिख
जाना कोई "बहुत" काम नहीं है। क्या उर्दू अरबी फ़ारसी में ओ सी आर, वाचक, अनुवादक,
लिप्यांतरक विकसित किए जा चुके हैं?

>
> और एक बात मैने किसी व्यक्ति विशेष के लिए गधामी नहीं कहा है. कृपया राजनेताओं जैसे बतगंड़
> न बनाएं.

गधामी जैसे शब्दों का किसी चर्चा में प्रयोग करना कोई बहुत बड़ा संस्कार नहीं दिखाता
है। यह लड़ाई करने की उग्रता दिखाता है। बाकी सब शांति से अपना मत रख रहे हैं, मत
भेद भी शांति से कर रहे हैं, आप खामखा उग्रवादी हो रहे हैं।

रावत

>
> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>>


>
> 'लिपि' पढ़ें।*
>
> और आशुतोष जी वाली 'गधामी' में तो मुझे भी शामिल समझें। :-) :-)
>
> On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>> wrote:
> > भाषा-विज्ञान में अपनी अज्ञानता को मैं फिर से याद दिलाते हुए जानना
> > चाहुंगा कि क्या व्याकरण से स्वतंत्र किसी क्लासिक भाषा की लिपी अपनी
> > वैज्ञानिकता बचा पाएगी !!
> > क्या संस्कृत में सिर्फ लिपी जानकर अर्थापन किया जा सकता है। रामः,रामौ
> > और रामाः के अर्थ का अंतर सिर्फ लिपी ज्ञान से जाना जा सकता है ?
> >
> > अरबी में अर्थापन वाक्य-प्रयोग के आधार पर होता है तो मेरी समझ में कोई
> > दोष नहीं है।
> > वैज्ञानकिता के संदर्भ में रविकांत जी की बात पर ध्यान क्यों न दिया जाए ??
> >
> > वैज्ञानिकता कम्प्यूटर पर प्रयोग से प्रमाणित होगी क्या ?
> >
> > अगर ऐसा होगा तो भी अरबी कम्प्यूटर पर हिन्दी से ज्यादा प्रयुक्त भाषा
> > है। यकीन न हो तो इसकी पड़ताल कर लें।
> >
> > संजय जी,जिन कमियों की तरफ इशारा कर रहे हैं अगर उनको ध्यान में रखा जाए
> > तो अंग्रेजी दुनिया की बहुत सी भाषाओं से कमतर पड़ेगी लेकिन सभी जानते हैं
> > कि तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में इस भाषा की क्या भूमिका है।
> >
> > On 8/7/10, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com

> <mailto:sanjay...@gmail.com>> wrote:
> >> किसी ध्वनी को खास लिपि में न लिख पाना लिपि में अक्षर/प्रतिक की कमी है न कि
> >> अवैज्ञानिकता. अवैज्ञानिकता तो र को रा री कुछ भी पढ़ा जाना है.
> >>
> >> ७ अगस्त २०१० १:१९ अपराह्न को, संजय | sanjay

> <sanjay...@gmail.com <mailto:sanjay...@gmail.com>> ने


> >> लिखा:
> >>
> >>> आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा जाएगा.
> >>> जिन्हे ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष नहीं.
> >>>
> >>> हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो *रम* पढ़ो *राम* ?!!!
> >>>
> >>> केवल लिपि सीखने भर से पढ़ना न आये और सही पढ़ने के लिए अभ्यास करना पढ़े उस
> >>> लिपि
> >>> को अवैज्ञानिक लिपि ही कहा जाएगा.
> >>>
> >>> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>>


> >>>
> >>> आशुतोष जी, आपका उल्टी ही दिशा में चले गए हैं और वो भी गलत तर्क के साथ।
> >>>> अब अगर ष का उच्च्चारण लोग नहीं कर पा रहे हैं तो यह कुछ वैसा ही हुआ कि
> >>>> भोजपूरी वाले श का उच्चारण नहीं कर पाते। उच्चारण दोष तो बोलने वाले के
> >>>> ऊपर निर्भर करता है न कि स्वयं भाषा में।
> >>>>
> >>>> संजय बेंगाणी ने जो कहा है वह भी गलत है लेकिन उस वजह से नहीं जो आप बता
> >>>> रहे हैं। जहां तक मेरा अनुमान है संजय जी अरबी में अदृश्य रहने वाली
> >>>> मात्राओं की बात कर रहे हैं। जैसे कि रम,रम,रम दिखने वाला शब्द
> >>>> रमा,राम,रमी पढ़ा जा सकता है। पता नहीं संजय जी अरबी जानते हैं की नहीं।
> >>>> मैं तो नहीं जानता। जामिया मिल्लिया में अरबी वालों की सोहबत और कुछ अपनी
> >>>> बहन के अरबी सीखने के दौरान मैंने जाना था कि अरबी की मात्राएं स्पष्ट
> >>>> नहीं लगाई जातीं।
> >>>>
> >>>> संजय जी, आप जिस बात को कमी बता रहे हैं वह हिन्दीदां के लिए समस्या हो
> >>>> सकती है लेकिन अरबी वाले के लिए नहीं। अरबी सीखने के आरम्भिक दिनों में
> >>>> इस उर्दू/फारसी के इतर भाषाओं के लोग इससे खीझते हैं लेकिन जिनका अरबी पर
> >>>> अधिकार हो जाता है वह इसके नियम को समझने के बाद अरबी को उतनी सही
> >>>> सटीक,शुद्ध और फर्राटेदार तरीके से पढ़ते हैं जितना की आप हिन्दी या दूसरी
> >>>> किसी भाषा को पढ़ते होंगे।
> >>>>
> >>>> अतः,संक्षेप में फिर से दुहाराना चाहुंगा कि अरबी में मात्रा अलग तरीके
> >>>> से थोड़ा जटिल (जैसा कि सभी क्लासकीय भाषाओं में होता है) लगती है लेकिन
> >>>> इस आधार पर उसे गलत तरीका नहीं कहा जा सकता है।
> >>>>
> >>>> मैं भाषा के मामले में विशेष अधिकार नहीं रखता यह भी अभी से स्पष्ट कर
> >>>> दूं। संत जन जो राय-बात करें मुझे स्वीकार्य है।
> >>>>
> >>>>
> >>>>
> >>>> On 8/7/10, ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com

> <mailto:ashuv...@gmail.com>> wrote:
> >>>> > संजय जी , देवनागरी में भी जैसा लिखा वैसा पढ़े जाने की गारंटी नहीं है.
> >>>> किसी
> >>>> > लिपि में नहीं है. देवनागरी में लिखित / उच्चरित का भेद नीचे देखें . ये
> >>>> चंद
> >>>> > नमूने हैं. पूर्वग्रह मुक्त हो कर ढूढेंगे तो हज़ारों मिलेंगे.
> >>>> >
> >>>> > भाषा भाशा
> >>>> > ऋषि रिशी
> >>>> > ज्ञान ग्यान
> >>>> > अदालत अदा लत्
> >>>> >
> >>>>
> >>>
> >>>
> >>>
> >>> --
> >>> ---------------------------------------------------------------
> >>> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
> >>> छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन

> >> --
> >> ---------------------------------------------------------------
> >> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
> >> छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन

> --
> ---------------------------------------------------------------
> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
> छवि मीडिया एण्ड कॉम्यूनिकेशन

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 4:45:54 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
यह वाक्य देखिये:

ऋ को री समझना मूर्खता है. दोनो अलग हैं.

ऋ को री समझना गधामी है. दोनो अलग है.

गधामी आम बोलचाल की भाषा का शब्द है जो मूर्खता का प्रयाय है. मैने किसी खास व्यक्ति को गधा नहीं कहा है. अतः दुबारा पढ़ कर देख लें.

शेष जो मैं कहना चाहता था, आपने उर्दू लिपि के लिए कह दिया है.  इसलिए उर्दू लिपि का कंप्यूटरीकरण करना बहुत कठिन क्योंकि लिपि अवैज्ञानिक है.

मैं भी यही कह रहा हूँ कि यह लिपि अवैज्ञानिक है. फर्क इतना है कि मैं कहता हूँ तो गलत है और आप कहते हो तो सही है. 

2010/8/7 V S Rawat <vsr...@gmail.com>

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 4:50:16 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com



हा हा हा हा (अट्टहास) . अत्यधिक मनोरंजक विमर्श!
हे भाई , ये शंकराचार्य जी भी रम से परिचित थे ?@ रंगनाथजी .   
1E3.gif

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 4:50:51 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/7/2010 12:01 AM India Time, _Ashutosh Kumar_ wrote:

> सच्चाईयां बहुत कडवी होतीं हैं और पूर्वग्रह बेहद प्यारे होतें है.
> देवनागरी वैज्ञानिक है और फारसी लिपि अवैज्ञानिक ?

मैंने तो केवल इतना कहा कि अरबी फ़ारसी उर्दू की लिपि अवैज्ञानिक है। इससे आपने यह
निष्कर्ष कैसे निकाला कि मैंने देवनागरी को वैज्ञानिक कहा?

> मुसलमान हमारा धर्म बदलने आये थे, और अँगरेज़ हमें इंसान बनाने?

मुसलमान तो धर्म बदलने ही आए थे, ऐसा कहने में अंग्रेज का हमें इंसान बनाने के लिए आया
हुआ कहने का आपने निष्कर्ष कैसे निकाला?

> भारत में जो मुसलमान आये , उनकी मादरी जुबान अरबी थी?

सही है

> संतों , दुनिया की कोई लिपि वैज्ञानिक नहीं है . प्रत्येक लिपि की अपनी खूबियाँ खामियां हैं.

सही है

> क्या आप हिंदी को ग्लोबल बनाने के लिए उसे रोमन में लिखना स्वीकार करेंगे ?

रोमन में लिखने से हिंदी ग्लोबल कैसे बन जाएगी, बताएँ।

> हिन्दुस्तान में जो तुर्क अफगान उजबेक आये थे , वे अरबी क्या फारसी के मामले में भी लिख
> लोढ़ा पढ़ पत्थर थे.हिन्दुस्तान में फारसी राजभाषा बनी तो इसलिए ,
> क्योंकि वह उस जमाने में ज्ञान और संस्कृति की विश्वभाषा थी , आज की
> अंग्रेज़ी की तरह! धार्मिक कारण होते , तो अरबी राज भाषा बनती न कि
> फारसी. अंगरेजी राज के शुरुआती दिनों में मिशनरियों ने सक्रिय राजकीय
> सहयोग से धर्मपरिवर्तन का जैसा अभियान चलाया था वैसा हिन्दुस्तान में
> किसी मुसलमान शासक ने नहीं चलाया.उलटे मुगलों ने धार्मिक समरसता की जिस
> नीति पर अपना निजाम कायम किया था, उस की मिसाल दुनिया के तारीख में
> कहीं और नहीं मिलती.

आप तो हर बात को काटते और अपनी सोच को बिना किसी प्रमाण संदर्भ को दिए आगे
बढ़ाते रहते हैं। मिशनरियों ने भारत में धार्मिक अत्याचार नहीं किए। उन्होंने लोगों की
ज़रुरतों को पूरा करके, इस तरह से उनका स्वयं पर विश्वास ला कर उनका धर्म परिवर्तन
कराया। यदि इस कथन के विरुद्ध कोई प्रमाण हैं तो बताएँ।

यदि आप औरंगजेब को धार्मिक समरसता का मसीहा मानते हैं तो आप किसी काल्पनिक दुनिया
में है। उसने तो धार्मिक मुनाफ़िक़ी के नाम पर अपने भाई दारा शिकोह को मरवा दिया था।

> हमारे एक दोस्त ने कभी एक शेर कहा था . वो जैसा अब मुझे याद है , कुछ इस
> तरह है -
> ज़ुल्म उर्दू पे भी होतें हैं , इसी फितरत से
> लोग उर्दू को मुसलमान समझ लेतें हैं!

रावत


V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 4:52:13 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/7/2010 2:15 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

> यह वाक्य देखिये:
>
> ऋ को री समझना मूर्खता है. दोनो अलग हैं.
>
> ऋ को री समझना गधामी है. दोनो अलग है.

ऋ का सही उच्चारण क्या है?

और वो रि री के उच्चारण से किस प्रकार से अलग है?

आप फालतू के तमग़े बहुत देते हैं। कंट्रोल कीजिए जी कंट्रोल कीजिए।

रावत

>
> गधामी आम बोलचाल की भाषा का शब्द है जो मूर्खता का प्रयाय है. मैने किसी खास व्यक्ति
> को गधा नहीं कहा है. अतः दुबारा पढ़ कर देख लें.
>

> शेष जो मैं कहना चाहता था, आपने उर्दू लिपि के लिए कह दिया है. *इसलिए उर्दू लिपि का


> कंप्यूटरीकरण करना बहुत कठिन क्योंकि लिपि अवैज्ञानिक है.
>

> *मैं भी यही कह रहा हूँ कि यह लिपि अवैज्ञानिक है. फर्क इतना है कि मैं कहता हूँ तो गलत


> है और आप कहते हो तो सही है.
>

> 2010/8/7 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>

> <mailto:rangna...@gmail.com <mailto:rangna...@gmail.com>>>


>
>
> 'लिपि' पढ़ें।*
>
> और आशुतोष जी वाली 'गधामी' में तो मुझे भी शामिल समझें। :-) :-)
>
> On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>

> <mailto:rangna...@gmail.com


> <mailto:rangna...@gmail.com>>> wrote:
> > भाषा-विज्ञान में अपनी अज्ञानता को मैं फिर से याद दिलाते हुए जानना
> > चाहुंगा कि क्या व्याकरण से स्वतंत्र किसी क्लासिक भाषा की लिपी अपनी
> > वैज्ञानिकता बचा पाएगी !!
> > क्या संस्कृत में सिर्फ लिपी जानकर अर्थापन किया जा सकता है। रामः,रामौ
> > और रामाः के अर्थ का अंतर सिर्फ लिपी ज्ञान से जाना जा सकता है ?
> >
> > अरबी में अर्थापन वाक्य-प्रयोग के आधार पर होता है तो मेरी समझ में कोई
> > दोष नहीं है।
> > वैज्ञानकिता के संदर्भ में रविकांत जी की बात पर ध्यान क्यों न दिया जाए ??
> >
> > वैज्ञानिकता कम्प्यूटर पर प्रयोग से प्रमाणित होगी क्या ?
> >
> > अगर ऐसा होगा तो भी अरबी कम्प्यूटर पर हिन्दी से ज्यादा प्रयुक्त भाषा
> > है। यकीन न हो तो इसकी पड़ताल कर लें।
> >
> > संजय जी,जिन कमियों की तरफ इशारा कर रहे हैं अगर उनको ध्यान में रखा जाए
> > तो अंग्रेजी दुनिया की बहुत सी भाषाओं से कमतर पड़ेगी लेकिन सभी जानते हैं
> > कि तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में इस भाषा की क्या भूमिका है।
> >
> > On 8/7/10, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com
> <mailto:sanjay...@gmail.com>

> <mailto:sanjay...@gmail.com


> <mailto:sanjay...@gmail.com>>> wrote:
> >> किसी ध्वनी को खास लिपि में न लिख पाना लिपि में अक्षर/प्रतिक की कमी
> है न कि
> >> अवैज्ञानिकता. अवैज्ञानिकता तो र को रा री कुछ भी पढ़ा जाना है.
> >>
> >> ७ अगस्त २०१० १:१९ अपराह्न को, संजय | sanjay
> <sanjay...@gmail.com <mailto:sanjay...@gmail.com>

> <mailto:sanjay...@gmail.com <mailto:sanjay...@gmail.com>>> ने


>
> >> लिखा:
> >>
> >>> आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा
> जाएगा.
> >>> जिन्हे ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष नहीं.
> >>>
> >>> हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो *रम* पढ़ो *राम* ?!!!
> >>>
> >>> केवल लिपि सीखने भर से पढ़ना न आये और सही पढ़ने के लिए अभ्यास करना पढ़े उस
> >>> लिपि
> >>> को अवैज्ञानिक लिपि ही कहा जाएगा.
> >>>
> >>> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>

> <mailto:rangna...@gmail.com <mailto:rangna...@gmail.com>>>


>
> >>>
> >>> आशुतोष जी, आपका उल्टी ही दिशा में चले गए हैं और वो भी गलत तर्क के साथ।
> >>>> अब अगर ष का उच्च्चारण लोग नहीं कर पा रहे हैं तो यह कुछ वैसा ही हुआ कि
> >>>> भोजपूरी वाले श का उच्चारण नहीं कर पाते। उच्चारण दोष तो बोलने वाले के
> >>>> ऊपर निर्भर करता है न कि स्वयं भाषा में।
> >>>>
> >>>> संजय बेंगाणी ने जो कहा है वह भी गलत है लेकिन उस वजह से नहीं जो आप बता
> >>>> रहे हैं। जहां तक मेरा अनुमान है संजय जी अरबी में अदृश्य रहने वाली
> >>>> मात्राओं की बात कर रहे हैं। जैसे कि रम,रम,रम दिखने वाला शब्द
> >>>> रमा,राम,रमी पढ़ा जा सकता है। पता नहीं संजय जी अरबी जानते हैं की नहीं।
> >>>> मैं तो नहीं जानता। जामिया मिल्लिया में अरबी वालों की सोहबत और कुछ अपनी
> >>>> बहन के अरबी सीखने के दौरान मैंने जाना था कि अरबी की मात्राएं स्पष्ट
> >>>> नहीं लगाई जातीं।
> >>>>
> >>>> संजय जी, आप जिस बात को कमी बता रहे हैं वह हिन्दीदां के लिए समस्या हो
> >>>> सकती है लेकिन अरबी वाले के लिए नहीं। अरबी सीखने के आरम्भिक दिनों में
> >>>> इस उर्दू/फारसी के इतर भाषाओं के लोग इससे खीझते हैं लेकिन जिनका अरबी पर
> >>>> अधिकार हो जाता है वह इसके नियम को समझने के बाद अरबी को उतनी सही
> >>>> सटीक,शुद्ध और फर्राटेदार तरीके से पढ़ते हैं जितना की आप हिन्दी या दूसरी
> >>>> किसी भाषा को पढ़ते होंगे।
> >>>>
> >>>> अतः,संक्षेप में फिर से दुहाराना चाहुंगा कि अरबी में मात्रा अलग तरीके
> >>>> से थोड़ा जटिल (जैसा कि सभी क्लासकीय भाषाओं में होता है) लगती है लेकिन
> >>>> इस आधार पर उसे गलत तरीका नहीं कहा जा सकता है।
> >>>>
> >>>> मैं भाषा के मामले में विशेष अधिकार नहीं रखता यह भी अभी से स्पष्ट कर
> >>>> दूं। संत जन जो राय-बात करें मुझे स्वीकार्य है।
> >>>>
> >>>>
> >>>>
> >>>> On 8/7/10, ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com
> <mailto:ashuv...@gmail.com>

> <mailto:ashuv...@gmail.com <mailto:ashuv...@gmail.com>>>


> wrote:
> >>>> > संजय जी , देवनागरी में भी जैसा लिखा वैसा पढ़े जाने की गारंटी नहीं है.
> >>>> किसी
> >>>> > लिपि में नहीं है. देवनागरी में लिखित / उच्चरित का भेद नीचे देखें . ये
> >>>> चंद
> >>>> > नमूने हैं. पूर्वग्रह मुक्त हो कर ढूढेंगे तो हज़ारों मिलेंगे.
> >>>> >
> >>>> > भाषा भाशा
> >>>> > ऋषि रिशी
> >>>> > ज्ञान ग्यान
> >>>> > अदालत अदा लत्
> >>>> >
> >>>>
> >>>
> >>>
> >>>
> >>> --
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> >>> संजय बेंगाणी | sanjay bengani | 09601430808
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ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 5:16:08 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com


परम प्रिय रावत जी 
आप ने तो अट्टहास पर ब्रेक मार दिया, भले आदमी नैक ठैर  जाते, अजी मैं ने कोई निष्कर्ष सिर्फ आप की टिप्पणियों  से नहीं निकाला, मैंने समूह को संबोधित किया था , सिर्फ आप को नहीं . व्यक्तिविशेष को संबोधित करने के लिए तो @ चेंपतें हैं न !
रोमन  में लिखने हिंदी ग्लोबल बन जायेगी , यह मैं नहीं असगर वजाहत और उन के मुरीद कहतें है, जिनसे मेरी घोर असहमति है. मिशनरियों ने क्या जुल्म किये , यह जानने के लिए डालरिम्पल की ' आखिरी मुग़ल ' पढ़िए , हालांकि यह किताब मुझे सख्त नापसंद है . औरंगजेब ने दारा को गद्दी के लिए मरवाया  , फिर   जन आक्रोश से बचने के लिए उसे काफिर और खुद को धर्मरक्षक बना डाला. जनआक्रोश फिर भी रुका नहीं .देखिएगा अब्राहम एराली की ' emperrors of the peacock throne', बदकिस्मती से यह किताब भी मेरी पसंदीदा किताबों में नहीं है.   
धर्म के लिए गद्दी  के इस्तेमाल और गद्दी के लिए धर्म के इस्तेमाल में क्या फर्क है !    

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 5:28:46 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
रावत जी,

सच तो यह है कि मैं आपकी बात समझ नहीं पाया हैं !! कुल जमा यही समझ पाया
कि जिस दिन अरबी में कम्प्यूटर के लिए जरूरी चीजें विकसित हो जाएंगी, उस
दिन वो वैज्ञानिक हो जाएगी। :-)

आपने पूछा है कि बताएं कि अरबी में क्या काम हुआ है ?? मुझे क्या पता था
कि अरबी वाले बस की बोर्ड से अक्षर टाइप करके लगा देते हैं !! अन्य
मामलों में बहुत पिछड़े हैं !!

आप अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करें और अरब की कम्प्यूटर क्षेत्र में स्थिति
के बारे में थोड़ा और प्रकाश डालें तो बेहतर होगा। एक बार सुना था कि अरबी
में डोमेन नेम आ गए हैं। इसके क्या माने होतें हैं।


On 8/7/10, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com> wrote:
> यह वाक्य देखिये:
>
> ऋ को री समझना मूर्खता है. दोनो अलग हैं.
>
> ऋ को री समझना गधामी है. दोनो अलग है.
>
> गधामी आम बोलचाल की भाषा का शब्द है जो मूर्खता का प्रयाय है. मैने किसी खास
> व्यक्ति को गधा नहीं कहा है. अतः दुबारा पढ़ कर देख लें.
>

> शेष जो मैं कहना चाहता था, आपने उर्दू लिपि के लिए कह दिया है. *इसलिए उर्दू


> लिपि का कंप्यूटरीकरण करना बहुत कठिन क्योंकि लिपि अवैज्ञानिक है.
>

> *मैं भी यही कह रहा हूँ कि यह लिपि अवैज्ञानिक है. फर्क इतना है कि मैं कहता

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 5:38:33 AM8/7/10
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आशुतोष जी, शकराचार्य जी तो 'रमा' से भी नहीं परिचित थे, कम से कम सुना
तो यही जाता है :-)

रमा,रम और राम का उदाहरण सर्वथा मेरा है इसमें शंकराचार्य जी का कोई
भूमिका नहीं। :-)

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 5:43:21 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com


रमा से परिचय के लिए तो , कहतें है 'परकाया प्रवेश ' किया था उन्हों ने. किन्ही संत को यह टेक्नीक आती हो , कृपया शेयर करें . संसार का बड़ा उपकार होगा. 

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 5:47:41 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
शब्दचर्चा आक्षेपबाजी पर उतर आई है, जो कि गलत है. मैं इस सूत्र को यहीं बन्द करने के पक्ष में हूँ.  

2010/8/7 ashutosh kumar <ashuv...@gmail.com>



रमा से परिचय के लिए तो , कहतें है 'परकाया प्रवेश ' किया था उन्हों ने. किन्ही संत को यह टेक्नीक आती हो , कृपया शेयर करें . संसार का बड़ा उपकार होगा. 

ashutosh kumar

unread,
Aug 7, 2010, 5:53:22 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com


मैं भी .लेकिन चलते चलते यह कि 'आक्षेपबाजी' हिंदी उर्दू के समन्वय का क्या ही सुन्दर उदाहरण है. 

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 5:55:09 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
धर्म-अधर्म मेरा अध्ययन क्षेत्र है। सो मुझे भी बोलने दिया जाए :-) :-)

इसाईयों के धर्मपरिवर्तन के किस्से पर मैं आना नहीं चाहता था। लेकिन अब
लगता है कि आए बिना बनेगा भी नहीं।

तथाकथित 'महान संत' जेवियर जी,जिनके नाम पर देश में दर्जनों
स्कूल/संस्थाएं है उनका ही उदाहरण काफी होगा। उन्होंने गोवा में धर्म
पर्विर्तन के लिए जो किया वह आप सभी वीकीपीडिया के माध्यम से जान सकते
हैं।

http://en.wikipedia.org/wiki/Goa_Inquisition

प्रोटेस्टेंट मिशनरियों के लिखे को कोट किया जाए तो आपको समझ में आएगा कि
भारतियों को लेकर उनका क्या इतिहास रहा है। लेकिन इस मंच पर यह सब करना
असंगत होगा।

Rangnath Singh

unread,
Aug 7, 2010, 6:01:02 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
बंदी की घोषणा, अब देखी। हम भी अपना शटर गिराते हैं। :-)

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 6:52:12 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/7/2010 2:58 PM India Time, _Rangnath Singh_ wrote:

> रावत जी,
>
> सच तो यह है कि मैं आपकी बात समझ नहीं पाया हैं !! कुल जमा यही समझ पाया
> कि जिस दिन अरबी में कम्प्यूटर के लिए जरूरी चीजें विकसित हो जाएंगी, उस
> दिन वो वैज्ञानिक हो जाएगी। :-)

हा हा। क्योंकि अरबी, फ़ारसी, उर्दू अवैज्ञानिक भाषाएँ हैं इसलिए उनमें कम्प्यूटर में बहुत
अधिक किया जाना निकट भविष्य में वर्तमान तकनीकी के साथ अभी संभव नहीं लगता है।

एक उदाहरण लीजिए कि हिन्दी में हर अक्षर का एक उच्चारण है, इसलिए हिन्दीं में कोई
वाचक (पाठ को बोलना) बनाने में कोई कठिनाई नहीं आने वाली। जबकि अंग्रेजी को देखें में
उसमें एक ही अक्षर अलग अलग प्रकार से उच्चारित किया जाता है। अब अंग्रेजी का वाचक
बनाने के लिए आप किसी प्रोग्रामिंग का प्रयोग नहीं कर सकते, या करते भी हैं तो भी
बहुत लंबी सूचि बनेगी कि अगर ये अक्षर इस अक्षर के आगे आया तो इसका उच्चारण यह
होगा, यदि यह किसी और अक्षर के पहले आया तो उसका उच्चारण ये होगा। यदि इनके साथ
कोई और अक्षर आया तो इनका उच्चारण ये होगा। इतनी बड़ी सूचि को प्रोग्राम में डालना
प्रोग्राम को बहुत बड़ा और धीमे चलने वाला बना देगा, जिससे उसकी प्रभावशीलता कम
होगी। इसलिए यह किया जा सकता है कि हर उच्चारण की एक डेटाबेस बना दी जाए, और
जब वो शब्द पाठ में आए तो उस डेटाबेस से उसका उच्चारण पढ़ के बोल दिया जाए।

परंतु यह तरीका कोडिंग नहीं है, यह जबरू तरीका है, हथौड़ामार तरीका है, यह भाषा में
वैज्ञानिकता नहीं लाता है, बल्कि भाषा की अवैज्ञानिकता की पतली गली से गुज़र कर काम
चला रहा है।

फिर भी, क्योंकि अंग्रेजी वाचक की माँग है, इसलिए इस पार काम हो रहा है, और कई
वाचक उपलब्ध हैं, भले ही वो सब के सब हथौड़ा मार हैं न कि वैज्ञानिक।

ऐसी कोई समस्या हिन्दी के वाचक में नहीं आने वाली।

उर्दू समूह की भाषाओं में भी यही समस्या आती है क्योंकि उसमें भी अक्षरों के अलग अलग
उच्चारण हैं। इसलिए यदि उर्दू को उर्दू लिपि में लिख कर वाचक बना रहे हैं तो ऊपर जैसी
बहुत कठिनाई आएगी, जबकि उर्दू को हिन्दीम में लिख कर वाचक बना रहे हैं तो बहुत सरल
होगा।

इससे हिन्दी पूरी तरह से वैज्ञानिक नहीं हो जाती है, हिन्दी की कठिनाई आती है उसकी
मात्राओं से उसके संयुक्ताक्षरों से। एक ही अक्षर के ऊपर दूसरा तीसरा चौथा अक्षर लिखा
(जैसे राष्ट्रीयता) जाता है, दूसरी तीसरी चौथी मात्राएँ लगाएँ (माँ, शादियों) जाती
हैं, और फ़िर हलन्त नुक़्ता भी आता है, वगैरह कि किसी ओसीआर को बनाते समय कम्प्यूटर के
लिेए एक अक्षर के लिए आवंटित स्थान में बिट-बिट करके पढ़ कर पता लगाना बहुत कठिन
होगा कि अमुक बिट का काला होना या ना होना किस अक्षर, मात्रा या अर्धाक्षर या
हलन्त या नुक़्ते के लिए है। यही समस्या उर्दू समूह की भाषाओं में भी है। इसलिए हिन्दू और
उर्दू समूह की भाषाओं में ओ सी आर बनाना बहुत कठिन है।

ऊपर बताई आवश्यकता को देखें तो पाएँगे कि क्योंकि तमिल में मात्राएँ अक्षरों से स्पष्ट अलग
रहती हैं और तमिल और अंग्रेज़ी दोनों में संयुक्ताक्षर नहीं होते हैं, हर अक्षर अलग अलग
लिखा जाता है, इसलिए उनको पहचानना कम्प्यूटर के लिए सरल है, और तमिल और अंग्रेज़ी में
ओ सी आर बनाना सरल है।

> आपने पूछा है कि बताएं कि अरबी में क्या काम हुआ है ?? मुझे क्या पता था
> कि अरबी वाले बस की बोर्ड से अक्षर टाइप करके लगा देते हैं !! अन्य
> मामलों में बहुत पिछड़े हैं !!

जी हाँ। टाइपिंग तो लगभग सभी भाषाओं में बन गई है। अरबी में भी। जब कम्प्यूटर नहीं
था, तब भी टाइपराइटर से उर्दू अरबी फ़ारसी सभी टाइपिंग होती थी।

परंतु जैसा ऊपर वर्णन किया, उर्दू समूह की भाषाओं में वाचक कठिन है, ओ सी आर कठिन है,
लिप्यांतर कठिन है, लगभग सब कुछ कठिन है।

>
> आप अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करें और अरब की कम्प्यूटर क्षेत्र में स्थिति
> के बारे में थोड़ा और प्रकाश डालें तो बेहतर होगा। एक बार सुना था कि अरबी
> में डोमेन नेम आ गए हैं। इसके क्या माने होतें हैं।

जैसे इस समूह का डोमेन नाम googlegroups.com है जो आपको ऊपर टू: में दिख रहा
होगा, वो अंग्रेज़ी डोमेन नाम है। उसको गूगलग्रुप्स.कॉम या गूगलसमूह.कॉम लिख दिया जाए
तो वो हिन्दी में हो गया। इसी तरह से इसको उर्दू अरबी फ़ारसी किसी भाषा में लिख
दिया जाए तो वो उस भाषा में डोमेन नाम हो गया। जैसे جوجلالمجموعات.كوم

कुछ लोग www.googlegroups.com को यू आर एल, और इसके केवल .com या .co.in जैसे
सफ़िक्स को डोमेन नाम कहते हैं। परंतु यह फ़ीचर पूरी यू आर एल के लिए ही होगा तभी मज़ा
आएगा।

पहले केवल अंग्रेज़ी में डोमेन नाम लिखे जा सकते थे। अब उनको अन्य भाषाओं में लिखे जाने की
भी अनुमति दी जा रही है।

ये भी सिर्फ़ कीबोर्ड से टाइपिंग करने जैसा ही है। इससे आपको ब्राउज़र में पृष्ठ की
विषयवस्तु के साथ ब्राउज़र में उस साइट का नाम भी अपनी भाषा में दिखने लगेगा, जो
हमको यकीकन अच्छा लगेगा। बाकी तो इससे भाषा के प्रक्रियाकरण या उसके लिए नए
सॉफ़्टवेयर बनने में कोई क्रान्ति नहीं आने वाली।

रावत

Kapil Swami

unread,
Aug 7, 2010, 7:04:55 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
मैं भी .लेकिन चलते चलते यह कि 'आक्षेपबाजी' हिंदी उर्दू के समन्वय का क्या ही सुन्दर उदाहरण है.

सही पकड़ा आशुतोष जी। मेरे ख्‍याल से यह चर्चा अच्‍छी रही। कई बातों का पता चला। इस चर्चा का एक नायाब नमूना, या हिन्‍दी उर्दू समन्‍वय का अच्‍छा उदाहरण है शब्‍द 'आक्षेपबाजी'।

इस अच्‍छे शब्‍द से परिचित कराने के लिए संजयजी को धन्‍यवाद।

कपिल

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 7, 2010, 7:06:12 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
एक बात समझ में नहीं आती।
मुस्लिम शासकों की धार्मिक समरसता की मिसाल ढ़ूंढे नहीं मिलती....जैसा आशुतोष भाई ने कहा। कुल आबादी के बीस फीसदी को छूती मुस्लिम आबादी क्या बाहर से आई थी?

यकीनन यह धर्मपरिवर्तन था। सवाल है धर्मपरिवर्तन हिन्दुत्व की कठोर सच्चाइयों से निजात का रास्ता था तो इस्लाम से भी दो हजार साल पहले बौद्ध धर्म में ने यही अवसर दिया था अछूतों को। तब भी बौद्ध नगण्य ही थे।

यह न भूला जाए कि सूफ़ी संतों ने धर्मपरिवर्तन की अलग कूटनीतिक मुहिम चलाई थी। इसे शासन का सहयोग था। देश के पूर्वी से पश्चिमी छोर तक सूफियों ने गांव के गांव इस्लाम धर्म में दीक्षित हुए। लंगर का मुफ्त खाना, गैरबराबरी, पीर के हाथों परसाद चखने के लिए डेरों पर मेले लगते थे। प्रकारांतर से ये सरकारी आयोजन जैसा ही कुछ था। सूफियों के कटुबोल भी शासन चुपचाप सुनता था क्योंकि धर्मान्तरण से उसका काम आसान जो हो रहा होता था।

इस विषय में ज्यादा शोध नहीं हुआ है, मगर सूफियों का धर्मान्तरण वैसा निर्मल नहीं था, जैसा उनकी बानियों में झलकता है। बानियों पर भरोसा करें तो लोगों को धर्मान्तरण की ज़रूरत ही नहीं थी। मगर धर्मान्तरण तो हुआ था, यह सच है।

2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com>



--
शुभकामनाओं सहित
अजित
http://shabdavali.blogspot.com/

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 7:13:57 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
धर्मांतरण की वे बाते बुद्धिजीवि मान रहे है, जिन्हे हम जैसे घोषित कट्टरपंथी ही कहते रहते है. जानकर अच्छा लगा. मगर मानना होगा, ईसाई इस मामले में सबसे चतूर... चतूर क्या धूर्त है. मदर (?) टेरेसा पर उँगली उठा कर देखो? चर्च को मन्दीर का स्वरूप, प्रचारक भगवा पहने....प्रसंशा को शब्द नहीं  :)  

७ अगस्त २०१० ४:३६ अपराह्न को, अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com> ने लिखा:

V S Rawat

unread,
Aug 7, 2010, 7:59:25 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
On 8/7/2010 4:36 PM India Time, _अजित वडनेरकर_ wrote:

> एक बात समझ में नहीं आती।
> मुस्लिम शासकों की धार्मिक समरसता की मिसाल ढ़ूंढे नहीं मिलती....जैसा आशुतोष भाई ने
> कहा। कुल आबादी के बीस फीसदी को छूती मुस्लिम आबादी क्या बाहर से आई थी?
>
> यकीनन यह धर्मपरिवर्तन था। सवाल है धर्मपरिवर्तन हिन्दुत्व की कठोर सच्चाइयों से निजात
> का रास्ता था तो इस्लाम से भी दो हजार साल पहले बौद्ध धर्म में ने यही अवसर दिया था
> अछूतों को। तब भी बौद्ध नगण्य ही थे।

दो हज़ार साल तो नहीं -

विकी के अनुसार
The time of his birth and death are uncertain: most early 20th-century
historians dated his lifetime as c. 563 BCE to 483 BCE[2], but more
recent opinion may be dating his death to between 411 and 400 BCE[3]

जबकि मोहम्मद का जन्म 570 में हुआ था, 40 साल की उम्र में मतलब 610 में उन्होंने ख़ुद को
रसूल बताना शुरु किया परंतु इस्लाम का प्रसार हिजरी के बाद 623 के बाद से हुआ।

इस प्रकार से 623 से करीब 500 ईसापूर्व का अंतर दो हज़ार साल नहीं बल्कि 1000 या
1100 साल आएगा।

रही बात धर्मों के फैलने की, तो लोगों ने अपनी सुविधाएँ देखीं।

- जैन धर्म में शारीरिक स्वच्छता और कठोर दिनचर्या पर बहुत ज़ोर दिया गया था जिनको
यात्रा आदि और भारत के बदलते मौसम में पालन करना कठिन था। इससे जैन धर्म का विकास
बाधित हुआ। बुद्ध धर्म में यह बंधन कम थे इसलिए बुद्ध धर्म चीन जापान तक फैल गया।

- जैन और बुध धर्म में थ्योरी बहुत है, आत्मचिंतन बहुत है, वो भारत की अनपढ़ और ग़रीब
आबादी के कठिन था। जिन लोगों ने अपरिग्रह शब्द को सुना नहीं, इसका अर्थ जानते नहीं,
वो इसका पालन कैसे करते। इससे इन धर्मों का विकास बाधित हुआ। लोगों ने अपनाया भी
तो बिना इनके सिद्धांतों को जाने समझे अपनाया जिससे उसके मुख्य आकर्षण अन्य लोगों को
नहीं मालूम पड़ पाए, इस धर्म के लोगों के आचरण में न दिख पाए, तो बाकी लोगों को इन
धर्मों में कोई ख़ास बात नहीं लगी इसलिए उन्होंने इनको नहीं अपनाया।

- इस्लाम तो ज़ुल्म से ही फैला। लोग ज़ुल्मों से बचने के लिए, या फिर रोजी छिनने से बचने
के लिए इस्लाम में आ गए।

- सिख धर्म क्योंकि पंजाबी केंद्रित था, इसलिए यह पंजाब के क्षेत्र में ही फैल पाया। वैसे
भी सिखधर्म बहुत बाद में आया, आज से करीब चार सौ साल पहले। पहले के ज़माने में लोग
धर्म को ले कर इतने कट्टर नहीं थे, इसलिए वो सरलता से, किसी अच्छे, सम्माननीय व्यक्ति
के कहने भर से धर्म परिवर्तन कर लेते थे, परंतु अब लोगों में जागरूकता आने लगी, लोग अपने
धर्म को अपनी पहचान मानने लगे, लोग स्वार्थी होने लगे और धर्म परिवर्तन के फ़ायदे ढूँढने
माँगने लगे, इसलिए सिख धर्म के आते आते धर्म का फैलना उतना सरल नहीं रह गया था।

- इसाईयों ने दूरस्थ क्षेत्रों के गरीबों और अनपढ़ों पर ध्यान केंद्रित किया, उन लोगों को
कुछ मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराए, और फिर उनको इसाई धर्म में आने को कहा तो लोग आ
गए। इसाईयत में घर्मपरिवर्तन करने वाले अधिकांश लोग हिन्दू नहीं थे, अपितु कबीलाई थे
जो अपने सीमित क्षेत्र में उनके ओझा या पुजारी चलाए जा रहे धर्म के किसी रूप को मानते थे।

जो लोग इसाईयत की कट्टरता की बातें करते हैं उनको सन 1600 से पहले की इसाईयत का
इतिहास पढ़ना चाहिए, जब इसाई वाक़ई में ज़ुल्म किया करते थे, ज़रा सी बात पर लोगों
को, औरतों को, बच्चों को ज़िंदा जला दिया जाता था। उसकी तुलना में इसाईयों ने जिस
अच्छे तरीके से अपना धर्म भारत में फैलाया उसको कट्टरता नहीं कहा जा सकता है।

>
> यह न भूला जाए कि सूफ़ी संतों ने धर्मपरिवर्तन की अलग कूटनीतिक मुहिम चलाई थी। इसे
> शासन का सहयोग था। देश के पूर्वी से पश्चिमी छोर तक सूफियों ने गांव के गांव इस्लाम धर्म
> में दीक्षित हुए। लंगर का मुफ्त खाना, गैरबराबरी, पीर के हाथों परसाद चखने के लिए डेरों
> पर मेले लगते थे। प्रकारांतर से ये सरकारी आयोजन जैसा ही कुछ था। सूफियों के कटुबोल भी
> शासन चुपचाप सुनता था क्योंकि धर्मान्तरण से उसका काम आसान जो हो रहा होता था।
>
> इस विषय में ज्यादा शोध नहीं हुआ है, मगर सूफियों का धर्मान्तरण वैसा निर्मल नहीं था,
> जैसा उनकी बानियों में झलकता है। बानियों पर भरोसा करें तो लोगों को धर्मान्तरण की
> ज़रूरत ही नहीं थी। मगर धर्मान्तरण तो हुआ था, यह सच है।

देखिए तो ये हिन्दू धर्म में आज भी हो रहा है। आप ब्रह्मकुमारियों के स्थल पर जाइए वो
आपको प्रसाद देंगे और बाबा का इतिहास सुनाएँगे जो हिन्दुत्व के व्यक्त इतिहास और
मान्यताओं से काफ़ी अलग है। फिर आपकी जीवन चर्या बदलेगी, मान्यताएँ बदलेंगी, पूजा में
लगाई गई भगवानों की फ़ोटुएँ बदलेंगी, आरतियाँ बदलेंगी, और कुछ ही दिनों में आप मुख्य
हिन्दू धर्म छोड़कर, हिन्दू रहते हुए भी ब्रह्मकुमारियों के सेक्ट में परिवर्तित हो जाएँगे।

जो भी है, जिस तरह से इस्लाम ने ज़ुल्म करके धर्मपरिवर्तन कराए, उसकी तुलना में इसाइयों
या ब्रह्मकुमारियों या सूफ़ियों आदि के कराए गए परिवर्तन बहुत अच्छे तरीके से हुए।

रावत

>
> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>>
>

> बंदी की घोषणा, अब देखी। हम भी अपना शटर गिराते हैं। :-)
>
> On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>> wrote:
> > धर्म-अधर्म मेरा अध्ययन क्षेत्र है। सो मुझे भी बोलने दिया जाए :-) :-)
> >
> > इसाईयों के धर्मपरिवर्तन के किस्से पर मैं आना नहीं चाहता था। लेकिन अब
> > लगता है कि आए बिना बनेगा भी नहीं।
> >
> > तथाकथित 'महान संत' जेवियर जी,जिनके नाम पर देश में दर्जनों
> > स्कूल/संस्थाएं है उनका ही उदाहरण काफी होगा। उन्होंने गोवा में धर्म
> > पर्विर्तन के लिए जो किया वह आप सभी वीकीपीडिया के माध्यम से जान सकते
> > हैं।
> >
> > http://en.wikipedia.org/wiki/Goa_Inquisition
> >
> > प्रोटेस्टेंट मिशनरियों के लिखे को कोट किया जाए तो आपको समझ में आएगा कि
> > भारतियों को लेकर उनका क्या इतिहास रहा है। लेकिन इस मंच पर यह सब करना
> > असंगत होगा।
> >
> >
> > On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>> wrote:
> >> आशुतोष जी, शकराचार्य जी तो 'रमा' से भी नहीं परिचित थे, कम से कम सुना
> >> तो यही जाता है :-)
> >>
> >> रमा,रम और राम का उदाहरण सर्वथा मेरा है इसमें शंकराचार्य जी का कोई
> >> भूमिका नहीं। :-)
> >>
> >>
> >> On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com

> <mailto:rangna...@gmail.com>> wrote:
> >>> रावत जी,
> >>>
> >>> सच तो यह है कि मैं आपकी बात समझ नहीं पाया हैं !! कुल जमा यही समझ पाया
> >>> कि जिस दिन अरबी में कम्प्यूटर के लिए जरूरी चीजें विकसित हो जाएंगी, उस
> >>> दिन वो वैज्ञानिक हो जाएगी। :-)
> >>>
> >>> आपने पूछा है कि बताएं कि अरबी में क्या काम हुआ है ?? मुझे क्या पता था
> >>> कि अरबी वाले बस की बोर्ड से अक्षर टाइप करके लगा देते हैं !! अन्य
> >>> मामलों में बहुत पिछड़े हैं !!
> >>>
> >>> आप अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करें और अरब की कम्प्यूटर क्षेत्र में स्थिति
> >>> के बारे में थोड़ा और प्रकाश डालें तो बेहतर होगा। एक बार सुना था कि अरबी
> >>> में डोमेन नेम आ गए हैं। इसके क्या माने होतें हैं।
> >>>
> >>>
> >>> On 8/7/10, संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com

> <mailto:sanjay...@gmail.com>> wrote:
> >>>> यह वाक्य देखिये:
> >>>>
> >>>> ऋ को री समझना मूर्खता है. दोनो अलग हैं.
> >>>>
> >>>> ऋ को री समझना गधामी है. दोनो अलग है.
> >>>>
> >>>> गधामी आम बोलचाल की भाषा का शब्द है जो मूर्खता का प्रयाय है. मैने किसी
> >>>> खास
> >>>> व्यक्ति को गधा नहीं कहा है. अतः दुबारा पढ़ कर देख लें.
> >>>>
> >>>> शेष जो मैं कहना चाहता था, आपने उर्दू लिपि के लिए कह दिया है. *इसलिए
> >>>> उर्दू
> >>>> लिपि का कंप्यूटरीकरण करना बहुत कठिन क्योंकि लिपि अवैज्ञानिक है.
> >>>>
> >>>> *मैं भी यही कह रहा हूँ कि यह लिपि अवैज्ञानिक है. फर्क इतना है कि मैं
> >>>> कहता
> >>>> हूँ तो गलत है और आप कहते हो तो सही है.
> >>>>

> >>>> 2010/8/7 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>

> >>>>>> <mailto:rangna...@gmail.com


> <mailto:rangna...@gmail.com>>>
> >>>>>>
> >>>>>>
> >>>>>> 'लिपि' पढ़ें।*
> >>>>>>
> >>>>>> और आशुतोष जी वाली 'गधामी' में तो मुझे भी शामिल समझें। :-) :-)
> >>>>>>
> >>>>>> On 8/7/10, Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>

> >>>>>> <mailto:rangna...@gmail.com

> >>>>>> <mailto:sanjay...@gmail.com


> <mailto:sanjay...@gmail.com>>> wrote:
> >>>>>> >> किसी ध्वनी को खास लिपि में न लिख पाना लिपि में अक्षर/प्रतिक की
> >>>>>> कमी
> >>>>>> है न कि
> >>>>>> >> अवैज्ञानिकता. अवैज्ञानिकता तो र को रा री कुछ भी पढ़ा जाना है.
> >>>>>> >>
> >>>>>> >> ७ अगस्त २०१० १:१९ अपराह्न को, संजय | sanjay
> >>>>>> <sanjay...@gmail.com <mailto:sanjay...@gmail.com>

> <mailto:sanjay...@gmail.com <mailto:sanjay...@gmail.com>>> ने


> >>>>>>
> >>>>>> >> लिखा:
> >>>>>> >>
> >>>>>> >>> आपका श और ष का उदाहरण तो क्या कहने!! क्या श को ष और ष को श पढ़ा
> >>>>>> जाएगा.
> >>>>>> >>> जिन्हे ऋ और री का भेद न पता हो यह उसकी गधामी है. लिपि का दोष
> >>>>>> नहीं.
> >>>>>> >>>
> >>>>>> >>> हाँ यह वैज्ञानिकता है कि लिखो *रम* पढ़ो *राम* ?!!!
> >>>>>> >>>
> >>>>>> >>> केवल लिपि सीखने भर से पढ़ना न आये और सही पढ़ने के लिए अभ्यास
> >>>>>> करना
> >>>>>> पढ़े उस
> >>>>>> >>> लिपि
> >>>>>> >>> को अवैज्ञानिक लिपि ही कहा जाएगा.
> >>>>>> >>>
> >>>>>> >>> 2010/8/7 Rangnath Singh <rangna...@gmail.com
> <mailto:rangna...@gmail.com>

> >>>>>> <mailto:rangna...@gmail.com

> >>>>>> <mailto:ashuv...@gmail.com

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 7, 2010, 8:15:16 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com
शुक्रिया रावत जी,
दो हजार साल जल्दबाजी में लिख गया। आपने बेहतर ढंग से कहा है। मुस्लिम शासन की सहिष्णुता या गंगा-जमनी संस्कृति जैसी बातों का महत्व है। मुस्लिम शासक भारत में बसने आए थे न कि व्यापार करने। अंग्रेज व्यापार करने और अस्थायी तौर पर आया था। बहुत सी बातें इन्हीं दो तथ्यों के मद्देनजर समझ में आती हैं।

संजय | sanjay

unread,
Aug 7, 2010, 8:55:17 AM8/7/10
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मुस्लिम शासन की सहिष्णुता या गंगा-जमनी संस्कृति जैसी बातों का महत्व है।  पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए? :)

गंगा हिन्दुओं की, यमुना मुसलमानों की...बाकियों का क्या?
ये सब बकवास बातें हैं. जो है सब का है. न आरक्षण हो. न तुष्टिकरण हो.   

७ अगस्त २०१० ५:४५ अपराह्न को, अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com> ने लिखा:



--

अजित वडनेरकर

unread,
Aug 7, 2010, 9:09:26 AM8/7/10
to shabdc...@googlegroups.com


आप गलत समझे संजय जी।

यह बातें करना एक वर्ग के लिए फैशन की बात है। मैं कहना चाहता था कि मुस्लिम शासन की सहिष्णुता या गंगा-जमनी संस्कृति जैसी बातों महत्व सिर्फ इन्हीं लोगों के लिए है।

एक मुहावरा रचने से सदियों की सच्चाई छुप नहीं जाएगी। इसी गंगो-जमन यानी दोआब  में वहीं के बाशिंदों का खून भी बहा। हिन्दू महिला से शादी करना राजनीति और सत्ता का दिखावा हो सकता है। राजनयिक रिश्तों के लिए किसी मुस्लिम शासक ने अपनी बेटी की शादी किसी प्रसिद्ध हिन्दू शासक घराने में की, ऐसी मिसाल देखने - पढ़ने को नहीं मिली।

2010/8/7 संजय | sanjay <sanjay...@gmail.com>

संजय | sanjay

unread,
Aug 9, 2010, 1:06:54 AM8/9/10
to shabdc...@googlegroups.com
अजितजी आपका जवाब पा कर अच्छा लगा. :)

७ अगस्त २०१० ६:३९ अपराह्न को, अजित वडनेरकर <wadnerk...@gmail.com> ने लिखा:

ePandit | ई-पण्डित

unread,
Aug 9, 2010, 6:43:05 AM8/9/10
to shabdc...@googlegroups.com
जैसे हिन्दी के कट्टर भक्त हैं जो लौहपथगामिनी या घूम्रदंडिका का प्रयोग करते हैं

कोई भी हिन्दी भाषी इन शब्दों का प्रयोग नहीं करता, मैंने अपनी जिन्दगी में किसी को इन्हें बोलते नहीं सुना। इन शब्दों का आविष्कार और प्रयोग ही हिन्दी का मजाक उड़ाने के लिये किया गया था।

केवल हिन्दी की कलिष्ट भाषा बताना महामूर्खता है, अंग्रेजी और उर्दू भी  क्लिष्ट हैं। हर भाषा में जब तत्सम स्टाइल के शब्द लिये जायें तो वो क्लिष्ट ही होते हैं। भारत में कितने लोगों को अंग्रेजी नॉवल और फिल्में समझ आती हैं? कितने लोगों को गालिब की फारसी शब्दों युक्त शायरी समझ आती है?

इसलिये सरल और मुश्किल शब्द हर भाषा में हैं, केवल हिन्दी को ही क्लिष्ट बताना एक प्रकार का पूर्वाग्रह है।
 

2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com>
On 8/6/2010 6:02 PM India Time, _संजय | sanjay_ wrote:

पता नहीं यह हिन्दू ही कमबख्त हमेंशा गलत कदम क्यों उठाते है. मुस्लिम सम्बन्धि हर गलत
काम के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार होता है. अभी कहा उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं अब
हिन्दूओं पर उनकी भाषा को नकारने की तोहमत. दोहरी बात!!!

उर्दू को इजाद ही अरबी और भारतीय भाषाओं को जोड़ने के लिए हुआ था। जब अरब से मुसलमान भारत क्षेत्र में आए तो उन्होंने पाया कि भारतीय भाषाओं के ह-अंत ध्वनि वाले अक्षरों (हर वर्ग में दूसरा और चौथा - ख घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) के लिए अरबी में कोई सीधे-सीधे अक्षर था ही नहीं, कुछ के लिए उनके निकटतम अक्षर थे भी तो नुक़्ते वाले थे (ख़,फ़)।

इसलिए अरबी भाषियों के लिए भारतीय भाषाओं के शब्दों का उच्चारण करना उनको समझना संभव ही नहीं था। इसलिए अमीर खुसरों ने हर ऐसे अक्षर के पिछले अक्षर के अरबी चिह्न में अरबी के दुचश्मी हे अक्षर को जोड़ कर इन अक्षरों को अरबी वर्णामाला में जोड़ा और नतीज़तन बनी वर्णमाला को रेख्ता का नाम दिया जो पाँच सौ वर्षों के मुग़ल शासन में विकसित और प्रचलित होते होते उर्दू हो गई।

इस प्रकार से जिस भाषा के अस्तित्व में आने का कारण और आवश्यकता और विकास और प्रचलन ही भारतीय वर्णों के कारण से था, उसको पराया करार देना हमारी ग़लती ही है।



हिन्दी में उर्दू के शब्द भरे पड़े है. उर्दू समाचार सुन लें उसमें कोई शब्द न हो तो ब्रितालिया
शब्द इस्तेमाल में लेते है, हिन्दी तो पराई है. क्या मैं गलत कह रहा हूँ?

जैसे हिन्दी के कट्टर भक्त हैं जो लौहपथगामिनी या घूम्रदंडिका का प्रयोग करते हैं, वैसे उर्दू के कट्टर भक्त बर्तानिया बोलने पर अड़े डटे हुए हैं। ये न हिन्दू धर्म की कमी है, न इस्लाम की। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है। कोयला तवे को काला बोले, या तवा कोयले को काला बोले?

रावत


2010/8/6 V S Rawat <vsr...@gmail.com <mailto:vsr...@gmail.com>>

   On 8/6/2010 1:50 PM India Time, _Dr.Rupesh Shrivastava_ wrote:

       प्रिय भाई
       बिलकुल सीधी बात कहूं तो वो लोग महागधे हैं जो उर्दू और इस्लाम को जोड़्ते हैं।
       उर्दू तो वो
       प्यारा सुंदर सा बच्चा है जिसे मुसलमानों ने पाल लिया है जबकि वो हम सबका है।


   एकदम सही उत्तर है।

   और अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमानों पर उस बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इसलिए
   भी आन पड़ी क्योंकि हम लोगों ने उस बच्चे को पराया समझ कर घरनिकाला कर दिया था।

   यह हिन्दुओं का सबसे बड़ा ग़लत कदम था कि उन्होंने इतनी अच्छी भारतीय भाषा को
   हिन्दुत्व से अलग कर दिया।

   भाषा उसकी जो उसका प्रयोग करें।

   यदि 80 करोड़ हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख भी उर्दू का प्रयोग करते रहते तो विश्व उर्दू
   को हमारी भाषा मानता न कि मात्र 14 करोड़ मुस्लिमों की। अभी भी हम इस दिशा में
   प्रयास कर सकते हैं।

   रावत

       आप चाहें
       तो किसी भी धर्म का प्रचार किसी भी भाषा में कर सकते हैं। जो धूर्त हैं वो किसी भी
       भाषा और लिपि में दुष्टता करते हैं।
       सादर
       डा.रूपेश श्रीवास्तव




--
Shrish Benjwal Sharma (श्रीश बेंजवाल शर्मा)
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If u can't beat them, join them.

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