सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्

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sanskrit samiti

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Dec 5, 2009, 1:19:27 AM12/5/09
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राजर्षि जनक के राज्य में दुर्भिक्ष का तांडव जारी था। अनावृष्टि से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। सभी प्राणी क्षुधा-पिपासा से व्यग्र हो रहे थे। कितने काल-कवलित हो चुके थे।

राजा जनक ने अपने गुरु से परामर्श किया तो उन्होंने इंगित किया कि यदि राजा स्वयं सोने के हल से धरती को जोतें तो वृष्टि होगी। राजर्षि जनक ने यही किया। हल चलाते समय उसकी नोक किसी वस्तु से फंस गई। वहां जमीन खोदकर देखा गया तो एक स्वर्ण-कलश प्राप्त हुआ। कलश का ढक्कन हटाने पर उसमें एक अति सुंदरी नवजात बालिका मिली। यही बालिका सीता के नाम से प्रसिद्ध हुई।

आज भी हल जोतने से जो रेखा बनती है उसे सीता ही कहते हैं। राजा जनक ने उसका अपनी पुत्री की तरह लालन-पालन किया इसलिए उनका नाम जानकी पडा। जानकी का विवाह स्वयंवर के माध्यम से पुरुषोत्तम राम से सम्पन्न हुआ। राम जहां विष्णु के साक्षात् अवतार माने जाते हैं, वहीं जानकी भी पराशक्ति के अवतार के रूप में पूजित हैं।

रामायणों एवं पुराणों ने देवी जानकी के प्रति अमित श्रद्धा व्यक्त की है। नारियों की सर्वश्रेष्ठ विशेषता उनका पातिव्रत्य धर्म ही है। राम के साथ वन जाने के लिए सीता अड गई। यह उनके एकनिष्ठ पातिव्रत्य का ही प्रमाण है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने उनके पातिव्रत्य को रेखांकित करते हुए सीता द्वारा राम को इन शब्दों में संबोधित कराया है- आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा।

स्वानिपुण्यानि भुंजाना: स्वं स्वं भाग्यमुपासते॥ भर्तुर्भाग्यं तु नार्येका प्राप्नोति पुरुषर्षभ। अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि॥ हे आर्यपुत्र! पिता, माता, भ्राता, पुत्र तथा पुत्रवधू ये सभी अपने-अपने कर्मो के अनुसार सुख-दुख प्राप्त करते हैं पर हे पुरुषश्रेष्ठ! एक मात्र पत्नी ही पति के कर्म-फलों की संगिनी होती है अत: आपके लिए जो वनवास की आज्ञा हुई है वह मेरे लिए भी है। अत: मैं भी आपके साथ वन में वास करूंगी।

गोस्वामी तुलसीदास ने सीता को राम से कभी पृथक नहीं माना अत: उन्होंने रामचरित मानस के आरंभ में यह स्पष्ट किया कि जिस तरह वाणी और उसके अर्थ तथा जल और उसकी लहर मात्र कहने को अलग-अलग हैं पर वस्तुत: एक ही हैं, उसी तरह सीता और राम कहने को पृथक-पृथक हैं पर वस्तुत एक ही हैं।

उनके चरणों की मैं वंदना करता हूं क्योंकि दोनों को दीन-दु:खी परम प्रिय हैं- गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउंसीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥

गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कृति के आरंभ में जो सीता-संबंधी संस्कृत-वंदना का श्लोक दिया है, उससे स्पष्ट होता है कि माता जानकी ही जगत की उत्पत्ति, उसके पालन और संहार करने वाली हैं।

यह सभी क्लेशों को हरती हैं एवं सभी प्रकार के कल्याणों की कतर्ृ हैं- उद्भवस्थितिसंहारकारिणींक्लेशहारिणीम्।

सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥ पद्मपुराणमें भगवती जानकी को साक्षात् लक्ष्मी कहा गया है- सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवा वै वानरास्तथा।

गृहं पुत्र गमिष्यामि स्थिरकीर्तिमवाप्नुहि॥ सीता (साक्षात्) लक्ष्मी हैं, आप (साक्षात्) विष्णु हैं और ये वानर देवस्वरूप हैं ....

आप दोनों अमर यश प्राप्त करें ...।

माता जानकी का ध्यान सब कष्टों से निवृत्ति देने वाला एवं सारी मनोवांक्षाओं को पूर्ण कर सुख-शांति प्रदान करने वाला है। वे धन्य हैं जो जनकसुता का नित्य स्थिर मन से ध्यान करते हैं। जानकी की शरण में जाने के पश्चात् और किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि जानकी को प्रसन्न करने का अर्थ साक्षात् विष्णु-अवतार राम को प्रसन्न करना है।

देवी जानकी का ध्यान नारदपुराण में इस रूप में आता है- ततोध्यायेन्महादेवीं सीतां त्रैलोक्यपूजिताम्।

तप्तहाटकवर्णाभां पद्मयुग्मं करद्वये॥

सद्रत्नभूषणस्फूर्जद्दिव्यदेहां शुभात्मिकाम्॥ नानावस्त्रां शशिमुखीं पद्माक्षीं मुदितान्तराम्।

पश्यन्तींराघवं पुण्यं शय्यायां षड्गुणेश्वरीम्॥ मात्र संस्कृत अथवा हिन्दी भाषा में ही नहीं अवधी एवं अन्य लोक भाषाओं में भी सीताजी की महिमा का गुणगान किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी विनय-पत्रिका में जानकी अम्बा से स्पष्ट किया है कि बिना आपकी कृपा के भगवान् राम को प्राप्त करना संभव नहीं है कभी समय मिले तो कृपालु राम के समक्ष मेरी करुण-कथा भी हे जगजननि! सुनाइए जिससे यह तुलसीदास उनका गुण गाते हुए भवसागर से तर जाए।

[डा. भगवतीशरण मिश्र]

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संस्कृत-समितिः
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