Re: कालिदास संज्ञा का व्युत्पत्ति -

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hn bhat

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Dec 8, 2009, 1:32:44 AM12/8/09
to sanskri...@googlegroups.com
प्रणामाः,

कालिदासः कालीदासः - इत्युभयोरपि साधुत्वमुचितमेव, संज्ञात्वात्, "ङ्यापोः संज्ञा-च्छन्दसोर्बहुलम्" इति कालिदासः इति संज्ञायाम्, संज्ञाभावे कालीदासः - काल्याः दासः इति च साध्वेव। सज्ञायाम्, यथाप्रयोगदर्शनं साधुत्वं संपादनीयम्। यदि प्रामाणिकः प्रयोगः, काली-दासः इत्यपि साधुरेव।



Both forms can be justified if authentic usage is found also depending on the context. 

2009/12/8 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>

प्रणमामः

कालिदास या कालीदास व्युत्पत्तिपरक अर्थ प्रस्तुत कर उचित समाधान क्या होगा?

2009/12/7 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>

Dear Sir please load these fonts in font column after opening font folder through control panel then copy . inform me. thanks


On 07/12/2009, I V Nacharya I <ivi...@yahoo.co.in> wrote:
Dear Sir,
praNamyA.Your introductory note of the great poet is interesting.How to open the pdf file
to be readable may kindly be enlightened.I could download it.But the readable script did'nt
appear.I have the components of the pdf system file on my Desk top Menu.But I do not know how to make use of it to open the file sent by you as I am not well conversed with the
required techniques.Hope you will kindly enlighten me step by step..
If there are any journals in Sanskrit, either dailies or monthlies Please send me their addresses if you know as I want to subscribe.Are there any Research journals on Nyaya
either of prachina or naveena to subscribe? If any exist kindly let me know their addresses
too.
With Regards,
I.V.Nacharya.ivi...@yahoo.co.in

--- On Mon, 7/12/09, pandey ramanath <rnpm...@gmail.com> wrote:
 

From: pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>
Subject: Re: कुछ बाते कालिदास के बारे में
To: sanskri...@googlegroups.com
Date: Monday, 7 December, 2009, 4:54 PM


कालिदास से सम्बन्धित लेख देखेने के लिये फाइल खोले!


 
2009/12/7 sanskrit samiti <sanskri...@gmail.com>


मैंने महाकवि कालिदास का खण्डकाव्य ’मेघदूतम’ पढ़ा, और बहुत सारी ऐसी जानकारियाँ मिली जो हमारी संस्कृति से जुड़ी हुई हैं, जो कि मुझे लगा कि वह पढ़ने को सबके लिये उपलब्ध
 
होना चाहिये।
कालिदस
 
एक जनश्रुति के अनुसार कालिदास पहले महामूर्ख थे। राजा शारदानन्द की विद्योत्तमा नाम की एक विदुषी एवं सुन्दर कन्या थी। उसे अपनी विद्या पर बड़ा अभिमान था। इस कारण उसने शर्त रखी कि जो किई उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा उसी से ही वह विवाह करेगी। बहुत से विद्वान वहाँ आये, परंतु कोई भी उसे परास्त न कर सका; इस ईर्ष्या के कारण उन्होंने उसका विवाह किसी महामूर्ख से कराने की सोची। उसी महामूर्ख को खोजते हुए उन्होंने जिस डाल पर बैठा था, उसी को काटते कालिदास को देखा। उसे विवाह कराने को तैयार करके मौन रहने को कहा और विद्योत्तमा द्वारा पूछे गये प्रश़्नों का सन्तोषजनक उत्तर देकर विद्योत्तमा के साथ विवाह करा दिया। उसी रात ऊँट को देखकर पत़्नी द्वारा ’किमदिम ?’ पूछने पर उसने अशुद्ध उच्चारण ’उट्र’ ऐसा किया।
 
विद्योत्तमा पण्डितों के षड़़यन्त्र को जानकर रोने लगी और पति को बाहर निकाल दिया। वह आत्महत्या के उद्देश्य से काली मन्दिर गया, किन्तु काली ने प्रसन्न होकर उसे वर दिया और उसी से शास्त्रनिष्णात होकर वापिस पत़्नी के पास आकर बन्द दरवाजा देखकर ’अनावृत्तकपाटं द्वारं देहि’ ऐसा कहा। विद्योत्तमा को आश़्चर्य हुआ और उसने पूछा – ’अस्ति कशचिद वाग्विशेष:’। पत़्नी के इन तीन पदों से उसने ’अस्ति’ पद से ’अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ यह ’कुमारसम्भव’ महाकाव्य, ’कश़्चिद’ पद से ’कश़्चित्कान्ताविरहगरुणा’ यह ’मेघदूत’ खण्डकाव्य, ’वाग’ इस पद से ’वागर्थाविव संपृक़्तौ’ यह ’रघुवंश’ महाकाव्य रच डाला।

          महाकवि कालिदास के बारे में और भी किवदंतियां प्रचलित हैं-
          एक किंवदन्ती के अनुसार इनकी मृत्यु वेश्या के हाथों हुई। कहते हैं कि जिस विद्योत्तमा के तिरस्कार के कारण ये महामूर्ख से इतने बड़े विद्वान बने, उसकी ये माता और गुरु के समान पूजा करने लगे। ये देखकर उसे बहुत दु:ख हुआ और उसने शाप
दे दिया कि तुम्हारी मृत्यु किसी स्त्री के हाथ से ही होगी।
      एक बार ये अपने मित्र लंका के राजा कुमारदास से मिलने गये। उन्होंने वहाँ वेश्या के घर, दीवार पर लिखा हुआ, ’कमले कमलोत्पत्ति: श्रुयते न तु दृश्यते’ देखा। कालिदास ने दूसरी पंक्ति ’बाले तव मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरद्वयम्’ लिखकर श्लोक पूर्ण कर दिया। राजा ने श्लोक पूर्ति के लिये स्वर्णमुद्राओं की घोषणा की हुई थी। इसी मोह के कारण वेश्या ने कालिदास की हत्या कर दी। राजा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने भी आवेश में आकर कालिदास की चिता में अपने प्राण त्याग दिये।
    परन्तु कालिदास की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह किंवदन्ती नि:सार प्रतीत होती है; क्योंकि इस प्रकार के सरस्वती के वरदपुत्र पर इस प्रकार दुश्चरित्रता का आरोप स्वयं ही खण्डित हो जाता है।
    एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नवरत़्नों में से एक थे । इस किंवदन्ती का आधार ज्योतिर्विदाभरण का यह श्लोक है -
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशकुर्वे
तालभट्टं घटखर्परकालिदासा:।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
     वैसे तो कालिदास के काल के बारे में विद्वानों में अलग अलग राय हैं परंतु कालिदास के काल के बारे में एक तथ्य प्रकाश में आया है, जिसका श्रेय डॉ. एकान्त बिहारी को है। १८ अक्टूबर १९६४ के “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” के अंक में इससे सम्बन्धित कुछ सामग्री प्रकाशित हुई। उज्जयिनी से कुछ दूरी पर भैरवगढ़ नामक स्थान से मिली हुई क्षिप्रा नदी के पास दो शिलाखण्ड मिले, इन पर कालिदास से सम्बन्धित कुछ लेख अंकित हैं। इनके अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि “कालिदास अवन्ति देश में उत्पन्न हुए थे और उनका समय शुड़्ग़ राजा अग्निमित्र से लेकर विक्रमादित्य तक रहा होगा।”  इस शिलालेख से केवल इतना ही आभास होता है कि यह शिलालेख महाराज विक्रम की आज्ञा से हरिस्वामी नामक किसी अधिकारी के आदेश से खुदवाया गया था।
      शिलालेखों पर लिखे हुए श्लोकों का भाव यह है कि महाकवि कालिदास अवन्ती में उत्पन्न हुए तथा वहाँ विदिशा नाम की नगरी में शुड़्ग़ पुत्र अग्निमित्र द्वारा इनका सम्मान किया गया था। इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम़्, विक्रमोर्वशीय तथा कुमारसम्भव – इन सात ग्रंथों की रचना की थी। महाकवि ने अपने जीवन का अन्तिम समय महाराज विक्रमार्क (विक्रमादित्य) के आश्रय में व्यतीत किया था। कृत संवत के अन्त में तथा विक्रम संवत के प्रारम्भ में कार्तिक शुक्ला एकादशी, रविवार के दिन ९५ वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई। कालिदास का समय ईसा पूर्व ५६ वर्ष मानना अधिक उचित होगा।

साभार
कल्पतरु
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संस्कृत-समितिः
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rnp

 


The INTERNET now has a personality. YOURS! See your Yahoo! Homepage.



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Dr. Hari Narayana Bhat B.R.
EFEO,
PONDICHERRY

pandey ramanath

unread,
Dec 8, 2009, 1:56:05 AM12/8/09
to sanskri...@googlegroups.com

 कालिदास के समय मे

कालि या काली श्ब्द से किस अर्थ की ओर सन्केत हॆ? देवी काली के अर्थ मे प्रयोग तो उनके साहित्य मे कही भी नही हुआ हॆ!

2009/12/8 hn bhat <hnbh...@gmail.com>



--
rnp

hn bhat

unread,
Dec 8, 2009, 5:13:42 AM12/8/09
to sanskri...@googlegroups.com
आप का यह कहना तो ऐसा लगता है --- क्षीरस्वामी के घर मं या उन के गांव में एक हि गाय नहीं, तो फिर वह कैसे क्षीरस्वामी कहा जा सकता है!!!

तथापि यदीदं प्रमाणं न स्यात --- कुमारसंभवे चतुर्थसर्गे

तासां च पश्चात् कनकप्रभाणां काली कपालाभरणा चकाशे।
बलाकिनी नीलपयोदराजिर्दूरं पुरःक्षिप्तशतह्रदेव॥ ३९।


तासाम = मातॄणाम, सुवर्णवर्णानाम, पश्चात, काली-संज्ञा माता, सितकपालालंकृता चकाशे।
................ ... .... काल्याः कालत्वात् कालीति नाम।
प्राचीनतमा व्याख्या श्री-वल्लभदेवस्यास्य प्रयोगस्य  प्रमाणं न स्यात। 

महाभारते ऽपि कालीशब्दस्य देवीभेदार्थत्वे प्रयोगं दर्शयति -  Monier Williams.:

(H1B) काली 1[L=49056]  a form of दुर्गा MBh. iv , 195


Markandeya Purana देवीमाहात्म्ये:

तत: काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिता:॥००.९२२॥ 

कालीदास के समय ही विवाद ग्रस्त है, तो उन के समय पर ये उल्लेखों का उक्तार्थ में न मानने की औचित्य न समझा। चाहे तो काली कि बारे में प्रचलित दन्तकथा समझे, वास्तव में कालीदास तो बडे विद्वान थे यह तो कहा जा सकता है।

सादरं प्रणामाः।

ऐसे ही सन्दर्भ मे महाभाष्यकार मे ऐसा कहा था ---

महान खलु शब्दस्य विषयः ... सप्तद्वीपा वसुमती एकविंशतिधा बाह्वृचम, एकशतमध्वर्युवेदः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः .....
.....एतावन्तं शब्दराशिमननुनिशम्य साहसमेतत अस्त्यप्रयुक्तः शब्दः इति।


2009/12/8 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>

I V Nacharya I

unread,
Dec 8, 2009, 7:03:32 PM12/8/09
to sanskri...@googlegroups.com
Dear Friend,
praNamya.Thank you for your article in Hindi on"kaLidaasa" & their derivatives. But the "Files" of Sanskrit sent are zpped files.I tried your suggestions.But some of them seemed corrupt.Why not you kindly convert and send as it,I find difficult to understand its HTML form.Hope you will do the needful if you do'nt mind.
With Regards,
I.V.Nacharya.ivi...@yahoo.co.in

pandey ramanath

unread,
Dec 10, 2009, 6:08:19 AM12/10/09
to sanskri...@googlegroups.com
प्रिय महोदयः
प्रणमामः
भारतीय परम्परा के अनुसार जिस व्यक्ति का जो आराध्य देव होता हॆ, वह अपने
किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ, उसी देव की स्तुति से करता हॆ न कि अन्य
देव की स्तुति से ! कालिदास के आराध्य शिव हॆं या पार्वती को भी उनका
आराध्य माना जा सकता हॆ, " वन्दे पार्वतीपरमेश्वरॊ" कहकर शिव के
अर्धनारीश्वर रूप की स्तुति का भी संकेत हॆI यद्यपि पार्वती के
पर्यायवाची शब्दो‘मे‘ काली का भी समावेश हॆ - (अमरकोश १-१-३६,३७)! तथापि
कालिदास की रचनाओं में काली शब्द का प्रयोग पार्वती के स्वरूप की
अभिव्यक्ति के लिये कहीं भी नहीं प्राप्त होता हॆ! इस प्रकार कालिदास को
पार्वती के काली के स्वरूप का उपासक स्वीकार कर कालिदास शब्द की सार्थकता
सिद्ध नहीं की जा सकती हॆ! इससे यह प्रमाणित होता हॆ कि कालिदास देवी
काली के भक्त नहीं थे! मेरे कथन का अभिप्राय यह हॆ कि कालिदास के काल तक
काली का वह स्वरूप विकसित नहीं दिखायी देता जो कि पश्चात्काल साहित्य में
दिखायी देता हॆ! कुमारसंभवे सप्तमसर्गे -

तासां च पश्चात् कनकप्रभाणां काली कपालाभरणा चकाशे।
बलाकिनी नीलपयोदराजिर्दूरं पुरःक्षिप्तशतह्रदेव॥ ३९।
अत्र तु कृष्णवर्णत्वसूचनाय कालीसंज्ञयाभिधानम्! अथवा काल्याः कालत्वात्
कालीति नाम सार्थकम् प्रतीयते॒! इस प्रकार  काली शब्द का प्रयोग या तो
कृष्ण वर्ण  को सूचित करता हॆ अथवा कालादि अन्य अर्थ को न कि महाभारत,
पुराण आदि में वर्णित देवी काली या महाकाली के लिये! तथापि मात्र इस एक
उद्धरण को आधार मानकर कोई  निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता हॆ!
कुमारसंभव (१.२६, तथा ५.२८) में ही पार्वती, ऊमा तथा अपर्णा शब्दों का
ऊल्लेख कर इन शब्दों की संरचना किस प्रकार हुयी हॆ इसका अत्यन्त सुन्दर
उदाहरण प्राप्त होता हॆ! पी० वी काणे के धर्मशास्त्र के अनुसार इन
उद्धरणों का समय महाभारत में निश्चितिता से परे हॆ क्योंकि इसके आधार पर
कोई भी कालक्रम निर्धारित नहीं किया जा सकता हॆ! इन सबके अतिरिक्त
पार्वती को गॊरी(रघुवंश-२.२६ तथा कुमारसम्भव-७.९५), भवानी(कुमा०८४),
चण्डी(मेघदूत१.३३) आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया हॆ! मातॄ या सप्तमातॄ
(कुमारसम्भव-७.३०,३८) तथा काली की भी चर्चा हॆ किन्तु inakA  सम्बन्ध
पार्वती से नहीं हॆ!
 यहां यह भी विचारणीय हॆ कि यद्यपि पाणिनि के व्याकरण के आधार पर -

"कालिदासः कालीदासः - इत्युभयोरपि साधुत्वमुचितमेव, संज्ञात्वात्,
"ङ्यापोः संज्ञा-च्छन्दसोर्बहुलम्" इति कालिदासः इति संज्ञायाम्,
संज्ञाभावे कालीदासः - काल्याः दासः इति च साध्वेव। सज्ञायाम्,
यथाप्रयोगदर्शनं साधुत्वं संपादनीयम्। यदि प्रामाणिकः प्रयोगः, काली-दासः
इत्यपि साधुरेव।"- कालिदास व कालीदास दोनों ही प्रयोग उचित हॆं, तथापि
कालिदास की रचनiओं के मूल पाण्डुलिपियों के किसी भी प्रतियों में
सम्भवतः"कालीदास" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता हॆ! ऒर न ही पाणिनि के
व्याकरण में कहिं "कालि" शब्द का प्रयोग हुआ हॆ! जनपदकुण्ड० (पाणि०
४.१.४२) "काली, वर्णः! कालान्या!" !इस प्रकार  काली शब्द का प्रयोग वर्ण
को सूचित करता हॆ! सधन्यवादः

2009/12/8 hn bhat <hnbh...@gmail.com>



--
rnp

hn bhat

unread,
Dec 10, 2009, 8:50:28 AM12/10/09
to sanskri...@googlegroups.com
मान्य महोदय,

मान लिया तो पहले ही कि कालिदास या कालीदास को काली से कोई संबन्ध होना ही जरूर नही है। केवल व्युत्पत्ति से साधुत्व केलिये काली-शब्द के साथ दास शब्द का षष्ठी समास हो, इस का संज्ञारूप होने के कारण ही कालीदास रूप का अभाव, और कालिदास रूप का ही साधुत्व बता जा सकता है। कालीशब्द का अर्थ ही ढूंढना पढेगा। उतना ही अन्तर हैं यदि काली-शब्द देवी का अर्थ में प्रयुक्त हो या नही हो। यह् तो काली-शब्द से कालि-शब्दरूप समास में कालिदास की संज्ञारूप से प्रयोग मान लेने पर ही इस व्युत्पत्ति ठीक लगेगा। 

फिर और एक बात है "जानपद...." सूत्र से निष्पन्न काली-शब्द  वर्ण को सूचित नही, बल्कि इन का सूचना तो इस शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त काला रंग होना है। पदमंजरी और न्यास में भी ऐसा ही सूत्र में "वर्ण" शब्द का अर्थ मान लिया। ऐसा ही समझना चाहिये क्यों कि अन्यथा - गुणाः शुक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति।" इति शुक्लादिशब्दों का नियत लिंग होने के वजह पुंलिंग मे अनुशासन व्यर्थ हो जायेगा। इसलिए "वर्णश्चेत्" का अर्थ "वर्णविशिष्टश्चेत्" समझना चाहिए। फिर वही बात पर निर्भर पडे --- यह काली शब्द कालीवर्णवाली की ओर सूझता है, और यह शब्द कालीवर्णवाली देवता या मानुषी की संज्ञा यह बात तो व्याकरण की सीमा पर निर्भर नहीं है। महाभारत में ही कई बार काली-शब्द पाण्डव और कौरवों की नानी सत्यवती के नाम भी प्रयोग दिखा गया है। 

कालस्य रुद्रस्य स्त्री - काली भी हो सकती है। इन से मैं भी कालिदास को काली का दास बनाना नहीं चाहता। काली का भक्त भी होना नही चाहिए।

और - कलस्यापत्यम् कालिः, तस्य दासः, यह भी हो सकता है कालिदास शब्द के व्युत्पत्ति। संभाव्यता तो कम ही है। 

केवल व्युत्पत्ति खोजने में इतना कहा गया। 

और एक बात। मेरी हिन्दी भाषा तो कुछ ऐसी गंवारी लगेगी, व्याकरण शून्य तो माफ करना। 

और अब आप की बार व्युत्पत्ति बताने की प्रयास कीजिये। मैं तो आप का लेख पढ नहीं सका, Fonts install करने के बाद भी। इसलिए यह प्रार्थना।

धन्यवादाः।

2009/12/10 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>

satyendra pandey

unread,
Jan 31, 2010, 11:58:19 PM1/31/10
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2009/12/10 hn bhat <hnbh...@gmail.com>

आप लोगों की परिचर्चा पढकर बहुत आनन्द आया, ऐसे ही अगर हम शास्त्रीय चर्चा करेते रहें तो बहुत सारी बातें गूढ बातें सामान्य पाठक को भी समझ में आ जायेगा।
मैं आपलोगों की चर्चा को जरा और आगे बढाना चाह रहा हूँ। मेरी साहित्य से सन्दर्भित जिज्ञासा है। मैं जानना चाहता हूँ कि ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन के द्वारा जब विस्तृत रूप से ध्वनि की चर्चा कर ही दी गई थी, और उसके अन्तर्गत साहित्य से सन्दर्भित सारे तत्त्वों का समावेश हो ही जाता है। फिर वक्रोक्तिकार कुन्तक के सिद्धान्त की नवीनता क्या है, क्या सिर्फ नई शब्दावली में कोई बात कहने से एक नया सिद्धान्त स्वीकार करना चाहिए। कुन्तक ने अपनी षड्विध वक्रता के अन्तर्गत जितनी चर्चायें की हैं। वे सब ध्वनि के अन्तर्गत समाहित है। मैं जानना चाहता हूँ कि कुन्तक की नयी उद्भावनायें क्या है।

--
सत्येन्द्र पाण्डेयः
शोधच्छात्रः[साहित्यसंस्कॄतिसंकायः]
श्रीलालबहादुरशास्त्रिराष्ट्रियसंस्कॄतविद्यापीठम्,
चलवाणी-09958256212
नवदेहली,

pandey ramanath

unread,
Feb 6, 2010, 4:42:09 PM2/6/10
to sanskri...@googlegroups.com
प्रिय सत्येन्द्र पाण्डेय जी
समयाभाव के कारण उत्तर देने में बिलम्ब हो गया। अपने नगर से मॆं बाहर था।
अस्तु अब आपके प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझाने का
प्रयत्न कर रहा हूं।

कुन्तक द्वारा प्रतिपादित वक्रता के छह भेद तो मात्र ऒपचारिक हॆं तथा
ये मुख्य भेद हॆं इनका वर्गीकरण मात्र विषय को समझाने के लिये किया गया
हॆ किन्तु इनकी संख्या अनन्त हॆ इसे विभाजित नहीं किया जा सकता।
वाक्यगतवक्रता के प्रतिपादन में यह स्पष्ट किया गया हॆ।
इसे स्पष्ट करने के लिये यहं विचार प्रस्तुत कर रहा हूं।
काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में यह विचारणीय हॆ कि प्रायः सभी
कव्यशास्त्रियों ने काव्य को ’शरीर’ मानकर इसकी विवेचना प्रस्तुत की हॆ।
यहां तक की कुछ प्राचीन आचार्यों ने तो काव्य को पुरुष मानकर गुण,
अलंकार, रीति, वृत्ति, व प्रवृत्ति आदि काव्य-तत्त्वों को उसके
अंग-प्रत्यंग के रूप में वर्णित करने का प्रयास किया हॆ। भरत ने भी
नाट्य के उत्पत्ति व उसके अंग-प्रत्यंग के होने की बात कही हॆ। तथा
उन्होंने भावों व रसों को देवों के अशांश से निःसृत स्वीकार करते हुये
उनके वर्णादि के होने की बात कही हॆ तथा रस को नाट्य-प्रयोग का प्राण कहा
हॆ। भामह ने काव्यमय-वपु एवं काव्य-शरीर की चर्चा की हॆ, दण्डी ने काव्य
के शरीर की चर्चा करते हुये पदावलि को शरीर स्वीकार किया हॆ। वस्तुतः
दण्डी ने ही सर्वप्रथम काव्य में प्राण-तत्त्व के आधान की बात कही हॆ,
काव्य के उत्तम प्रकार वॆदर्भ-मार्ग के प्राण दश प्रकार के गुण हॆं(१/४१
काव्यादर्श)। वामन प्रथम आचार्य हॆं जिन्होंने काव्य की आत्मा (रीति)होने
का विधान प्रस्तुत किया हॆ परन्तु यहां आत्मा शब्द का अर्थ स्वरूप नहीं
हॆ। आनन्दवर्धन ने यद्यपि शरीर आदि की चर्चा नहीं की हॆ तथापि ध्वनि को
काव्य की आत्मा कहा हॆ काव्यस्यात्माध्वनिरिति बुधॆः यः
समाम्नातपूर्वः(ध्व०१/१)। राजशेखर ने काव्यपुरुष की चर्चा करते हुये शब्द
व अर्थ को शरीर मानकर तथा भाषादि विभिन्न अंगो व उपांगो की चर्चा करते
हुये रस का आत्मा के रूप में मानकर विवेचन प्रस्तुत किया हॆ। राजशेखर ही
प्रथम आचार्य हॆं जिन्होंने सबसे पहले रस के काव्य की आत्मा होने की बात
का प्रतिपादन किया हॆ। तथापि काव्य-शरीर के प्राणाधायक तत्व क्या हॆ इस
विषय में आचार्यों में मतवॆभिन्न्य दिखलायी देता हॆ।
भामह के अनुसार काव्यात्मक रचना में चारुता अलंकारों के यथोचित प्रयोग
से आती हॆ तथा अलंकारिता कवि की वक्र उक्ति में अन्तर्निहित होती हॆ-
वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलंकृतिः (काव्यालंकार-१/३६)। कुन्तक के
अनुसार, काव्य को सम्यक् प्रकार से समझने के लिये ही अलंकार तथा
अलंकार्य को भिन्न-भिन्न मानकर विवेचन प्रस्तुत किया गया हॆ परन्तु
तत्त्वतः अर्थात् वास्तव में, काव्यता तो सालंकार में ही रहती हॆ -
---तत्त्वं सालंकारस्य काव्यता।१/६। वस्तुतः कुन्तक व्यापारवादी आचार्य
हॆं-(वक्रकविव्यापारशालिनि,१/७)। इनके अनुसार क्योंकि अलंकार मात्र
शब्दार्थगत होते हॆं अतः इन्हें काव्यात्मा नहीं माना जा सकता हॆ।
वक्रोक्ति को ही उन्होंने काव्य का सर्वोत्कृष्ट तत्त्व स्वीकार करते
हुये इसे ही प्राणाधायक तत्त्व के रूप में विवेचित किया हॆ, जबकि
आनन्दवर्धन आदि प्रतिपाद्यवादी आचार्यों ने इसे अस्वीकर कर दिया था।
आनन्दवर्धन आदि का इस सम्बन्ध में विचार था कि जिस प्रकार वचन, आदान,
विहरण तथा उत्सर्ग आदि व्यक्ति में होने वाले व्यापार को आत्मा नहीं कहा
जा सकता उसी प्रकार वक्रोक्ति या रीति को सर्वोत्कृष्ट पद नहीं प्रदान
किया जा सकता हॆ। ध्वनिविरोधियों में से कुन्तक ने स्वभावोक्ति से
वक्रोक्ति का भेद कर रस को वॆदग्ध्यभङ्गीभणिति अर्थात विदग्धता पूर्वक
कथन शॆली रूप वक्रोक्ति, मात्र से आस्वाद्य कहा हॆ। कुन्तक को कुछ लोगों
ने (’Vakrokti and Dhvani' Bimal Krishna Matilal) इसीलिये शाकल्यवादी(
holist) अर्थात् जो सभी के समष्टिगत रूप को मानता हो, तथा
तत्त्ववादी(essentialist) कहा हॆ। कुन्तक के इस कथन का यही अभिप्राय हॆ
कि वक्रोक्ति ही काव्य में प्राणों का संचार करती हॆ व काव्य को काव्य पद
पर यही प्रतिष्ठित करती हॆ। इसके अभाव में काव्य की सत्ता ही सम्भव नहीं
हॆ। ऒर वक्रोक्ति कवि की अनिवार्य कल्पनाशक्ति के विना बन ही नहीं सकती।
इसीलिये काव्य में कवि-व्यापार की प्रधानता रहती हॆ। वस्तुतः भट्टनायक,
धनिक, महिमभट्ट तथा भोज, राजशेखर सभी अभिनवगुप्त के समान रस को ही काव्य
की आत्मा स्वीकार करते हॆं। तथापि इन सबका काव्यात्मा का सिद्धान्त
परस्पर विलक्षण हॆ। कुन्तक ने भी रस को ही सर्वस्व स्वीकार कर
वक्रोक्ति का प्रतिपादन किया हॆ। आनन्दवर्धन ने रस को व्यङ्य स्वीकार
किया हॆ तथा इसे आत्मा नहीं माना।
अभिनवगुप्त ने ध्वनिसिद्धान्त के प्राणभूत-तत्त्व व्यंजना का आश्रय लेकर
रस को ही काव्य की आत्मा माना हॆ न कि ध्वनि को। इस सम्बन्ध में उनका
विचार हॆ कि काव्यत्व का आधायक तत्त्व व्यंजनीयता स्वीकार करने में किसी
प्रकार का सन्देह नहीं हॆ किन्तु काव्य की आत्मा तो उसी तत्व को माना जा
सकता हॆ जो मात्र व्यंजनीय ही हो। वस्तु एवं अलंकार ध्वनियां इस प्रकार
की नहीं हॆं क्योंकि वे कहीं व्यंग्य तो कहीं वाच्य भी होती हॆ। मात्र रस
ही एक ऎसा तत्त्व हॆ जो सर्वथा व्यंग्य ही होता हॆ वाच्य या लक्ष्य कदापि
नहीं। अतः काव्य की आत्मा का स्थान रस ही प्राप्त कर सकता हॆ।
कुन्तक ने सजीव व अन्य वस्तुऒं के काव्य में प्रयोग के नियम के विषय में
स्पष्ट किया हॆ व यह भी समझाने का प्रयत्न किया हॆ कि रस, भाव, आदि के
परिपोष से काव्य को कॆसे रमणीय बनाया जाना सम्भव हॆ। इसी सन्दर्भ में
रसवत, प्रेयः, ऊर्ज्स्वि, समाहित, उदात आदि अलंकारों के विषय में इनका
विचार हॆ कि वस्तुतः ये अलंकार नहीं अपितु अलंकार्य हॆं। वक्रोक्तिजीवित
में ध्वनि अथवा व्यंग्य को काव्य की आत्मा के रूप में स्वतन्त्र सत्ता के
रूप में प्रत्याख्यान कर वक्रोक्ति के व्यापक स्वरूप के अन्तर्गत ही इहे
अन्तर्भूत करने का प्रयत्न किया गया हॆ। वस्तुतः साधारणता से पृथक अथवा
उससे भी उच्चतर चमत्कारिक वस्तु ही काव्य की प्राण बन सकती हॆ। तथापि
सर्वाधिक महत्त्व कवि-व्यापार अर्थात कवि की कल्पनाशक्ति का हॆ तत्पश्चात
सॊन्दर्यानन्द का। सहृदय इसी आनन्द का आस्वाद्य ग्रहण करता हॆ जिसे रस
कहा गया हॆ। कुन्तक ने जो विचार प्रस्तुत किया हॆ वह सर्वथा मॊलिक हॆ तथा
आनन्दवर्धन के विचार से बिल्कुल विपरीत विचार हॆ। कुन्तक की सबसे बडी
विशेषता जॆसा कि पी०वी०काणे का कथन हॆ कि इन्होंने अपने से पूर्व के किसी
भी आचार्य का अन्धानुकरण नही किया हॆ, अपितु उन सबकी आलोचना ही की हॆ। ये
आनन्दवर्धन, भामह, व दण्डी की प्रशंसा भी करते हॆं तथापि वक्रोक्ति के
अभाव में काव्यता सम्भव नहीं । वस्तुतः वक्रोक्ति से अभिप्राय ऎसी उक्ति
से हॆ जो असाधारण हो, विचित्र हो, अतिशय वाणी वाली हो, विदग्धता से
परिपूर्ण हो तथा जो प्रतिभावान् कवि की अर्थात् वक्र कवि की प्रवृत्ति का
परिणाम हो ऎसी उक्ति ही वक्रोक्ति हॆ जिसे सामान्य शब्दो में कहें तो
विचक्षण कवि की विलक्षण रचना ही वक्रोक्ति हॆ। जिस प्रकार चित्रकार
सामान्यतः विविध सामग्री को लेकर चित्र का निर्माण करता हॆ तथा उसमें
विविध रंगों का अपनी प्रतिभा से आधान कर उसे सॊन्दर्य प्रदान करता हॆ तभी
उसमें निखार उत्पन्न होता हॆ अन्यथा नहीं। चमत्कार तो चित्रकार की
प्रतिभा में हॆ न कि सामान्य वस्तुओं में जिनसे चित्र बनाता हॆ। उसी
प्रकार कवि भी शब्दार्थ की अलंकार, गुण, रीति आदि विशिष्टताओं के माध्यम
से काव्य का निर्माण करता हॆ किन्तु वास्तविक सॊन्दर्य इनमें से किसी एक
में नहीं अपितु सभी एक साथ मिलकर सॊन्दर्य उत्पन्न करते हॆं तथा यह
सॊन्दर्य भी वास्तव में कवि की अपनी विलक्षण प्रतिभा या कल्पनाशक्ति पर
ही निर्भर करता हॆ। मेरा मानना हॆ कि यह विचार वस्तुतः वॆयाकरणॊं से तथा
बॊद्ध आचार्य दिङ्नाग से अत्यधिक समानता रखता हॆ। भर्तृहरि के अनुसार
भाषा की प्राथमिक इकाई वाक्य हॆ न कि शब्द, शब्द के अनेक अर्थ होने के
कारण विना प्रकरण के हम अर्थ ग्रहण नहीं कर सकते हॆं। वर्ण,शब्द,आदि
विविध अवयवों के वाक्य में यथोचित प्रयुक्त होने पर सन्दर्भानुसार अर्थ
की प्रतीति होती हॆ। इस प्रकार वर्ण, शब्द, अर्थ, आदि सभी मिलकर ही भावों
की सम्यक् अभिव्यक्ति कराते हॆ पृथक्-पृथक् नहीं। कुन्तक ने वक्यवक्रता
के प्रतिपादन में इसी भाव को विस्तार से स्पष्ट किया हॆ। काव्य-रचना के
सन्दर्भ में कवि की कल्पनाशक्ति से वक्रोक्तित्व रूप निःसृत वाणी को
काव्य के रूप में जो प्रतिपादन किया हॆ वह उसे अन्य प्राचीन आलंकारिकों
से भिन्न खडा करता हॆ। आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिपादित काव्य की व्यंजना
शक्ति के सिद्धान्त से वे पूर्णतया परिचित थे। यहां यह ध्यातव्य हॆ कि
उन्होंने कहीं भी स्पष्ट्तया यह प्रतिपादन नहीं किया हॆ कि काव्य की
आत्मा वक्रोक्ति हॆ वे उसे काव्य का जीवित अर्थात् प्राण कहते हॆं आत्मा
नहीं जॆसे कि क्षेमेन्द्रादि कुछ् अचार्यों ने किया हॆ।

>>>>>>> I.V.Nacha...@yahoo.co.in


>>>>>>>
>>>>>>> --- On *Mon, 7/12/09, pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>* wrote:
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>>>>>>>
>>>>>>>
>>>>>>> From: pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>
>>>>>>> Subject: Re: कुछ बाते कालिदास के बारे में
>>>>>>> To: sanskri...@googlegroups.com
>>>>>>> Date: Monday, 7 December, 2009, 4:54 PM
>>>>>>>
>>>>>>>
>>>>>>> कालिदास से सम्बन्धित लेख देखेने के लिये फाइल खोले!
>>>>>>>
>>>>>>>
>>>>>>>
>>>>>>> 2009/12/7 sanskrit samiti

>>>>>>> <sanskri...@gmail.com<http://in.mc953.mail.yahoo.com/mc/compose?to=sanskri...@gmail.com>


>>>>>>> >
>>>>>>>
>>>>>>>>
>>>>>>>>
>>>>>>>> मैंने महाकवि कालिदास का खण्डकाव्य ’मेघदूतम’ पढ़ा, और बहुत सारी ऐसी
>>>>>>>> जानकारियाँ मिली जो हमारी संस्कृति से जुड़ी हुई हैं, जो कि मुझे लगा
>>>>>>>> कि वह
>>>>>>>> पढ़ने को सबके लिये उपलब्ध
>>>>>>>>
>>>>>>>> होना चाहिये।
>>>>>>>> [image:

>>>>>>>> कालिदस]<http://lh6.ggpht.com/_B36TFiVvqD4/Spie9pCbG_I/AAAAAAAAE2A/3lu6F8PPxVA/s1600-h/Image.jpg>


>>>>>>>>
>>>>>>>> एक जनश्रुति के अनुसार कालिदास पहले महामूर्ख थे। राजा शारदानन्द की
>>>>>>>> विद्योत्तमा नाम की एक विदुषी एवं सुन्दर कन्या थी। उसे अपनी विद्या पर
>>>>>>>> बड़ा
>>>>>>>> अभिमान था। इस कारण उसने शर्त रखी कि जो किई उसे शास्त्रार्थ में
>>>>>>>> पराजित करेगा
>>>>>>>> उसी से ही वह विवाह करेगी। बहुत से विद्वान वहाँ आये, परंतु कोई भी उसे
>>>>>>>> परास्त
>>>>>>>> न कर सका; इस ईर्ष्या के कारण उन्होंने उसका विवाह किसी महामूर्ख से
>>>>>>>> कराने की
>>>>>>>> सोची। उसी महामूर्ख को खोजते हुए उन्होंने जिस डाल पर बैठा था, उसी को
>>>>>>>> काटते
>>>>>>>> कालिदास को देखा। उसे विवाह कराने को तैयार करके मौन रहने को कहा और
>>>>>>>> विद्योत्तमा द्वारा पूछे गये प्रश़्नों का सन्तोषजनक उत्तर देकर
>>>>>>>> विद्योत्तमा के

>>>>>>>> साथ विवाह करा दिया। उसी रात ऊँट को देखकर पत़्नी द्वारा ’*किमदिम ?*’
>>>>>>>> पूछने पर उसने अशुद्ध उच्चारण ’*उट्र*’ ऐसा किया।


>>>>>>>>
>>>>>>>> विद्योत्तमा पण्डितों के षड़़यन्त्र को जानकर रोने लगी और पति को बाहर
>>>>>>>> निकाल दिया। वह आत्महत्या के उद्देश्य से काली मन्दिर गया, किन्तु काली
>>>>>>>> ने
>>>>>>>> प्रसन्न होकर उसे वर दिया और उसी से शास्त्रनिष्णात होकर वापिस पत़्नी
>>>>>>>> के पास

>>>>>>>> आकर बन्द दरवाजा देखकर ’*अनावृत्तकपाटं द्वारं देहि*’ ऐसा कहा।
>>>>>>>> विद्योत्तमा को आश़्चर्य हुआ और उसने पूछा – ’*अस्ति कशचिद
>>>>>>>> वाग्विशेष:*’।
>>>>>>>> पत़्नी के इन तीन पदों से उसने *’अस्ति’ *पद से ’*अस्त्युत्तरस्यां
>>>>>>>> दिशि देवतात्मा’ *यह ’कुमारसम्भव’ महाकाव्य, ’*कश़्चिद’ *पद से ’*
>>>>>>>> कश़्चित्कान्ताविरहगरुणा*’ यह ’मेघदूत’ खण्डकाव्य, ’*वाग’* इस पद से
>>>>>>>> ’*वागर्थाविव
>>>>>>>> संपृक़्तौ*’ यह ’रघुवंश’ महाकाव्य रच डाला।

>>>>>>>> *कल्पतरु*


>>>>>>>> --
>>>>>>>> <>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>
>>>>>>>> संस्कृत-समितिः
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>>>>>>> rnp
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>>>>>>> The INTERNET now has a personality. YOURS! See your Yahoo!

>>>>>>> Homepage<http://in.rd.yahoo.com/tagline_yyi_1/*http://in.yahoo.com/>


--
rnp

pandey ramanath

unread,
Feb 10, 2010, 5:51:41 AM2/10/10
to sanskri...@googlegroups.com
2010/2/9 satyendra pandey <pandeysa...@gmail.com>:
>
>
> 2010/2/8 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>
>>
>> 2010/2/7 pandey ramanath <rnpm...@gmail.com>:
>> --
>> rnp
>
> महोदय,
> मैं कृतज्ञ हूँ, इतना गूढ विवेचन कर समझाने हेतु, आपकी बातें मेरी जिज्ञासा और
> बढाती जा रही हैं। मैं एक निवेदन करना चाहूँगा कि आप जो लिखते हैं उसका सन्दर्भ
> भी दे दें तो हम और अधिक लाभान्वित होंगे। यद्यपि आपने अधिकतर  का सन्दर्भ दे
> रखा है।
> मुझे दो बातें और स्पष्ट करनी है-
> १- शरीरात्म के रूप में काव्यतत्त्वों के प्रतिपादन के पीछे क्या रहस्य हो सकता
> है?
> २- काव्यशास्त्रियों में किसी ने काव्य के प्रमुखतत्त्व के रूप में आत्म शब्द
> का व्यवहार किया है, तो किसी ने प्राण या जीवित शब्द का। कोशग्रन्थ दोनों का
> पृथक अर्थ बतलाते हैं। और सामान्यता प्रतीत भी होता है कि प्राण या जीवित शब्द
> प्राणवायु के अर्थ में आता है जिसका सम्बन्ध इस जीवन से ही है। जब कि हम आत्मा
> की बात करते हैं तो यह जीवन के विना भी सत्तावान् होता है। इस दृष्टि से दोनों
> शब्दों में आत्म शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण दिखता है। लेकिन आजकल हिन्दी के
> व्याख्याता (टीकाकार) दोनों का एक ही अर्थ में व्यवहार कर षट् सम्प्रदाय की
> चर्चा करते हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि जब कुन्तक या क्षेमेन्द्र जीवित की बात
> करते हैं तो आत्मपद को प्राप्त तत्त्व से अपने विवेच्य तत्त्व की कूछ न्यूनता
> दिखाते हैं। क्षेमेन्द्र कहते हैं -
> “औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।”
>
> अभी मैं आपके विचार को और अच्छे से समझने का प्रयास कर रहा हूँ।
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