मैंने महाकवि कालिदास का खण्डकाव्य ’मेघदूतम’ पढ़ा,
और बहुत सारी ऐसी जानकारियाँ मिली जो हमारी संस्कृति से जुड़ी हुई हैं, जो
कि मुझे लगा कि वह पढ़ने को सबके लिये उपलब्ध
होना चाहिये।
एक जनश्रुति के अनुसार कालिदास पहले महामूर्ख
थे। राजा शारदानन्द की विद्योत्तमा नाम की एक विदुषी एवं सुन्दर कन्या थी।
उसे अपनी विद्या पर बड़ा अभिमान था। इस कारण उसने शर्त रखी कि जो किई उसे
शास्त्रार्थ में पराजित करेगा उसी से ही वह विवाह करेगी। बहुत से विद्वान
वहाँ आये, परंतु कोई भी उसे परास्त न कर सका; इस ईर्ष्या के कारण उन्होंने
उसका विवाह किसी महामूर्ख से कराने की सोची। उसी महामूर्ख को खोजते हुए
उन्होंने जिस डाल पर बैठा था, उसी को काटते कालिदास को देखा। उसे विवाह
कराने को तैयार करके मौन रहने को कहा और विद्योत्तमा द्वारा पूछे गये
प्रश़्नों का सन्तोषजनक उत्तर देकर विद्योत्तमा के साथ विवाह करा दिया।
उसी रात ऊँट को देखकर पत़्नी द्वारा ’किमदिम ?’ पूछने पर उसने अशुद्ध उच्चारण ’उट्र’ ऐसा किया।
विद्योत्तमा पण्डितों के षड़़यन्त्र को जानकर
रोने लगी और पति को बाहर निकाल दिया। वह आत्महत्या के उद्देश्य से काली
मन्दिर गया, किन्तु काली ने प्रसन्न होकर उसे वर दिया और उसी से
शास्त्रनिष्णात होकर वापिस पत़्नी के पास आकर बन्द दरवाजा देखकर ’
अनावृत्तकपाटं द्वारं देहि’ ऐसा कहा। विद्योत्तमा को आश़्चर्य हुआ और उसने पूछा – ’
अस्ति कशचिद वाग्विशेष:’। पत़्नी के इन तीन पदों से उसने
’अस्ति’ पद से ’
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ यह ’कुमारसम्भव’ महाकाव्य, ’
कश़्चिद’ पद से ’
कश़्चित्कान्ताविरहगरुणा’ यह ’मेघदूत’ खण्डकाव्य, ’
वाग’ इस पद से ’
वागर्थाविव संपृक़्तौ’ यह ’रघुवंश’ महाकाव्य रच डाला।
महाकवि कालिदास के बारे में और भी किवदंतियां प्रचलित हैं-
एक किंवदन्ती के अनुसार इनकी मृत्यु वेश्या के हाथों हुई। कहते हैं कि जिस
विद्योत्तमा के तिरस्कार के कारण ये महामूर्ख से इतने बड़े विद्वान बने,
उसकी ये माता और गुरु के समान पूजा करने लगे। ये देखकर उसे बहुत दु:ख हुआ
और उसने शाप
दे दिया कि तुम्हारी मृत्यु किसी स्त्री के हाथ से ही होगी।
एक बार ये अपने मित्र लंका के राजा कुमारदास से मिलने गये। उन्होंने वहाँ
वेश्या के घर, दीवार पर लिखा हुआ, ’कमले कमलोत्पत्ति: श्रुयते न तु
दृश्यते’ देखा। कालिदास ने दूसरी पंक्ति ’बाले तव मुखाम्भोजे
कथमिन्दीवरद्वयम्’ लिखकर श्लोक पूर्ण कर दिया। राजा ने श्लोक पूर्ति के
लिये स्वर्णमुद्राओं की घोषणा की हुई थी। इसी मोह के कारण वेश्या ने
कालिदास की हत्या कर दी। राजा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने भी आवेश में आकर
कालिदास की चिता में अपने प्राण त्याग दिये।
परन्तु कालिदास की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह किंवदन्ती नि:सार
प्रतीत होती है; क्योंकि इस प्रकार के सरस्वती के वरदपुत्र पर इस प्रकार
दुश्चरित्रता का आरोप स्वयं ही खण्डित हो जाता है।
एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नवरत़्नों में
से एक थे । इस किंवदन्ती का आधार ज्योतिर्विदाभरण का यह श्लोक है -
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशकुर्वे
तालभट्टं घटखर्परकालिदासा:।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
वैसे तो कालिदास के काल के बारे में विद्वानों में अलग अलग राय हैं परंतु
कालिदास के काल के बारे में एक तथ्य प्रकाश में आया है, जिसका श्रेय डॉ.
एकान्त बिहारी को है। १८ अक्टूबर १९६४ के “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” के अंक
में इससे सम्बन्धित कुछ सामग्री प्रकाशित हुई। उज्जयिनी से कुछ दूरी पर
भैरवगढ़ नामक स्थान से मिली हुई क्षिप्रा नदी के पास दो शिलाखण्ड मिले, इन
पर कालिदास से सम्बन्धित कुछ लेख अंकित हैं। इनके अध्ययन करने से ज्ञात
होता है कि “कालिदास अवन्ति देश में उत्पन्न हुए थे और उनका समय शुड़्ग़
राजा अग्निमित्र से लेकर विक्रमादित्य तक रहा होगा।” इस शिलालेख से केवल
इतना ही आभास होता है कि यह शिलालेख महाराज विक्रम की आज्ञा से हरिस्वामी
नामक किसी अधिकारी के आदेश से खुदवाया गया था।
शिलालेखों पर लिखे हुए श्लोकों का भाव यह है कि महाकवि कालिदास
अवन्ती में उत्पन्न हुए तथा वहाँ विदिशा नाम की नगरी में शुड़्ग़ पुत्र
अग्निमित्र द्वारा इनका सम्मान किया गया था। इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत,
मालविकाग्निमित्र, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम़्, विक्रमोर्वशीय तथा
कुमारसम्भव – इन सात ग्रंथों की रचना की थी। महाकवि ने अपने जीवन का
अन्तिम समय महाराज विक्रमार्क (विक्रमादित्य) के आश्रय में व्यतीत किया
था। कृत संवत के अन्त में तथा विक्रम संवत के प्रारम्भ में कार्तिक शुक्ला
एकादशी, रविवार के दिन ९५ वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई। कालिदास का
समय ईसा पूर्व ५६ वर्ष मानना अधिक उचित होगा।
साभार
कल्पतरु--
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संस्कृत-समितिः
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