स्वामी विवेकानंद : जन्म
‘‘जितने ऊँचे चढ़ोगे उतने ही नीचे गिरने का भय बराबर
बना रहता है।’’
-स्वामी विवेकानंद
प्रकाश हमारे लिए आवश्यक ही नहीं प्रत्यत अनिवार्य भी है। दिवस के अवसान
अर्थात् अतिशय विशाल सूर्य के अस्त होने के पश्चात् अतिशय लघुकाय दीपक से
ही प्रकाश की अपेक्षा तो हमें होती ही है। दीपक से हमारा काम भले ही चल
जाए, पूर्ण प्रकाशमय परिवेश हमें प्राप्त नहीं हो पाता। वह तो किसी दिव्य
प्रकाश-पुंज से ही संभव होती है; परंतु हाँ, यह एक अकाट्य तथ्य है कि ये
दिव्य प्रकाश-पुंज कहीं भी, कभी भी हमें नहीं मिल जाते। ये तो एक दीर्घ
कालखंड में एक व्यापक भूखंड पर सौभाग्यवश कभी-कभी मिल जाते हैं।
ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे स्वामी विवेकानंद, जिनका जीवन हमारे वर्तमान और
भविष्य के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा।
कलकत्ता महानगर के उत्तरी भाग में एक पुराना मोहल्ला
है—सिमुलिया।
यहाँ की एक प्रमुख सड़क का नाम है—गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट। इसी
सड़क के एक ओर दत्त परिवार का एक पुराना विशाल मकान आज भी अपने गौरवमय
अतीत की गाथा गाता हुआ प्रतीत होता है। कलकत्ता के कुलीन वर्ग में दत्त
परिवार को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त था—इस स्तर तक कि
‘बारह
महीने में तेरह उत्सव’ की उक्ति उस परिवार पर लागू होती थी।
इन्हीं
कारणों से उस परिवार का वैभव और ऐश्वर्य कई परिवारों के लिए ईर्ष्या का
कारण था। उस परिवार के मुखिया थे कलकत्ता सुप्रीमो कोर्ट के लब्ध
प्रतिष्ठित अधिवक्ता एवं नगर के प्रभावशाली व्यक्तित्व श्री राममोहन दत्त।
ऐश्वर्य-लिप्सा एवं धनोपार्जन-प्रवृत्ति उनमें सदैव हिलोरें लेती रहती थी।
वे जितना अधिक अर्जित करते थे उतना ही विलासी जीवन व्यतीत करते थे।
राममोहन दत्त के सुपुत्र दुर्गाचरण दत्त ने तत्कालीन प्रथा के अनुसार
संस्कृत एवं फारसी भाषा में शिक्षा प्राप्त की। उन्हें हिंदी का भी यथेष्ट
ज्ञान था एवं कामचलाऊ अंग्रेजी भी आती थी, क्योंकि तब देश पर अंग्रेजों का
शासन होने के कारण राजभाषा अंग्रेजी ही थी। कहना न होगा कि उनकी बुद्धि
प्रखर थी। लिहाजा उनके पिता ने उन्हें अपने ही नक्शे कदम पर चलाकर वकालत
शुरू कराई। इस प्रकार युवावस्था में ही उन्होंने भी यथेष्ट द्रव्योपार्जन
करने के मार्ग पर चलना शुरू तो कर दिया, किंतु तत्कालीन कुलीन समाज के
सदस्यों की भाँति उनमें भोग-विलास की प्रवृत्ति नहीं थी। वे धर्मानुरागी
थे और यथावसर शास्त्रों-पुराणों पर वार्तालाप व सत्संग कर लिया करते थे।
अन्य प्रांतों से बंगाल पधारने वाले हिंदीभाषी वेदांती साधुओं का भी
सान्निध्य प्राप्त करने लगे।
उनके पिता राममोहन दत्त को यह सब बहुत सुखद नहीं लगता था। उन्होंने अपने
सुपुत्र दुर्गाचरण को इस संबंध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समझाया;
मगर दुर्गाचरण तो दूसरी ही मिट्टी के बने थे। उन्हें न तो पिता की बातों
ने प्रभावित किया, न संसार और समाज की चमक-दमक ने। मात्र पच्चीस वर्ष की
आयु में उन्हें संन्यास ग्रहण कर ग्रह-त्याग कर दिया। भगवान बुद्ध की तरह
वे अपने घर में छोड़ गए अपनी धर्मपत्नी तथा अपने पुत्र विश्वनाथ को।
कहा जाता है कि कुछ वर्षों के बाद काशी में विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर
संन्यासी दुर्गाचरण की पत्नी को उनका दर्शन अकस्मात हो गया था। उसके बाद
दोनों ने एक-दूसरे को कभी नहीं देखा। दुर्गाचरण के संन्यास-ग्रहण करने के
ग्यारह वर्ष पश्चात् उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। उसके एक वर्ष
पश्चात्, अर्थात् संन्यास ग्रहण करने के बारह वर्ष पश्चात्, संन्यासियों
के नियमानुसार दुर्गाचरण अपने जन्म-स्थान का दर्शन करने आए और उसी समय
अपने पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद दिया। तदुपरांत उन्हें किसी भी परिजन,
इष्टमित्र, संबंधी आदि ने नहीं देखा।
युगद्रष्टा विवेकानन्द
राजीव रंजन
सत्साहित्य प्रकाशन