गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएँ कण्णगी (कन्नगि, कन्नकि)

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sanskrit samiti

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Dec 30, 2009, 2:15:04 AM12/30/09
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कण्णगी (कन्नगि, कन्नकि)

संगम साहित्य का प्रमुख महाकाव्य ‘‘शिल्पादिकारम्’’ है। तमिल साहित्य में सर्वोच्च स्थान रखने वाले महाकाव्य ‘‘शिल्पादिकारम्’’ का शाब्दिक अर्थ ‘नुपुर’ है। इस महाकाव्य का लेखक इलानगो आडियल (राजकुमार संन्यासी) बताया जाता है जो चेर सम्राट सेन गुट्टवन का भाई था। इसमें दक्षिण भारत में मातृसत्तात्मक समाज व दक्षिण भारत और श्री लंका में कन्नगि की पूजा से संबन्धित विवरण है। इसमें प्रस्तुत कथा में कोवलम् और उसकी पत्नी कण्णगि के लोकप्रिय आख्यान को प्रस्तुत किया गया है। कोवलम् राजकुमार व्यापारी है, जो अपनी पत्नी कण्णनी की उपेक्षा करता है और अपनी उपपत्नी माधवी (मादवी) के प्रेम के चक्कर में पड़कर अपनी सम्पत्ति से हाथ धो बैठता है, प्रेमियों के बीच झगड़े के फलस्वरूप कोवलम् पुनः अपनी कण्णगी के पास लौट आता है और दोनों पुहार से मदुरा चले आते हैं। वे वहाँ कण्णगी के एक मात्र बचे आभूषण नूपुर (शिलाम्बुर या पायल) की बिक्री से प्राप्त धन से एक नई जिंदगी शुरू करना चाहते हैं। राजवंश के राज स्वर्णकार (सुनार) के षड्यंत्र के फलस्वरूप कोवलम् पर संदेह किया जाता है कि उसने महल से रानी की पायल चुरा ली है। जबकि सुनार ने ही रानी का वैसा ही नुपुर चुरा लिया था। कोवलम् संदेह के आधार पर पकड़ा जाता है और राजा भी किसी जाँच के उसे फाँसी की सजा सुना देता है। उसे राजा के अधिकारी मदुरा की सड़कों पर तलवार से काट डालते हैं। जब कण्णगी यह खबर सुनती है, तो वह तुरंत अपनी दूसरी पायल के साथ महल में उपस्थित होती है और कोवलम् की निर्दोषता का सबूत पेश करती है। राजा अपने द्वारा किए गए अन्याय को महसूस करता है और पाण्डया नरेश शोकग्रस्त होकर मृत्यु का शिकार होता है। कण्णगी के शाप के कारण मदुरा नगर पर विपत्ति आती है, सारा नगर जलकर भष्म हो जाता है, कण्णगी चेर देश चली जाती है और वहीं उनकी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद वह स्वर्ग में अपने पति से मिलती है। शनैगुटर बन उसे पवित्रता की देवी के रूप में उसे मान्यता देता है।

दक्षिण के प्रथम चेर शासक उदियन जोल (लगभग 130 ई.) के लड़के नेदुजोल आदन के दूसरे पुत्र शेनगुट्टुवन (लगभग 180 ई.) द्वारा पत्तिनी (पत्नी) पूजा अर्थात् एक आदर्श तथा पवित्र पत्तिनी को देवी रूप में मूर्ति बनाकर पूजा जाने का विशेष महत्त्व वर्णित है। ‘पत्तिनी पूजा’ के लिए पत्थर किसी आर्य शासक से युद्ध के बाद प्राप्त किया गया और उसे गंगा में स्नान कराकर चेर देश में लाया गया। शेनगुट्टुवन ने पत्तिनी के संगठन का नेतृत्व अपने हाथ में लिया तथा इस प्रयास में पाण्ड्य एवं चोल देशों का तथा श्री लंका के समसामयिक शासकों का समर्थन उसे मिला।
गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएँ
शान्ति कुमार स्याल
राजपाल एंड सन्स
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संस्कृत-समितिः
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