पं. श्रध्दाराम शर्मा
चित्र-ट्रिब्यून, चंडीगढ़ से साभार
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ओम जय जगदीश की आरती जैसे भावपूर्ण गीत के रचयिता थे पं. श्रध्दाराम
शर्मा। प. श्रध्दाराम शर्मा का जन्म 1837 में पंजाब के लुधियाना के पास
फुल्लौर में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे।
उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक
अद्भुत बालक होगा। बालक श्रध्दाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार तो
विरासत में ही मिले थे। उन्होंने बचपन में सात साल की उम्र तक गुरुमुखी
में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, पर्शियन, ज्योतिष, और
संस्कृत की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात
हो गए।
पं. श्रध्दाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में 'सिखों दे राज दी विथिया' और
'पंजाबी बातचीत' जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही
किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप
में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों
के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय
है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि
के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली
आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस
पुस्तक को शामिल किया था।
ओम जय जगदीश की आरती
1870 में उन्होंने ओम जय जगदीश की आरती की रचना की। प. श्रध्दाराम की
विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो
गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित
किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों
के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती
सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर
ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम
है।
उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उध्दरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत
के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद
उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का
संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। 1865 में
ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों
तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों
में पढ़ाई जाती रही।
पं. श्रध्दाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर
तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ,
बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने
को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें
भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं. श्रध्दाराम के
क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार
को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं.
श्रध्दाराम ने पादरी के कहने पर बाईबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में
अनुवाद किया था। पं. श्रध्दाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज
सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी
ज़बर्दस्त काम किया।
आज जिस पंजाब में सबसे ज्यादा कन्याओं की भ्रूण हत्याएं होती है इसका
एहसास उन्होंने बहुत पहले कर लिया था। 1877 में भाग्यवती नामक एक उपन्यास
प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की
पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में
प्रकाशित हुई थी। इसे पंजाब सहित देश के कई राज्यो के स्कूलों में कई
सालों तक पढाया जाता रहा। इस उपन्यास में उन्होंने काशी के एक पंडित
उमादत्त की बेटी भगवती के किरदार के माध्यम से बाल विवाह पर ज़बर्दस्त चोट
की। इसी इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय स्त्री की दशा और उसके अधिकारों
को लेकर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
पं. श्रध्दाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ. हरमिंदर
सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रध्दाराम ग्रंथावली का
प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं. श्रध्दाराम का यह उपन्यास
हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। लेकिन यह मात्र हिन्दी का ही पहला
उपन्यास नहीं था बल्कि कई मायनों में यह पहला था। उनके उपन्यास की नायिका
भाग्यवती पहली बेटी पैदा होने पर समाज के लोगों द्वार मजाक उडा़ए जाने पर
अपने पति को कहती है कि किसी लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं है।
उन्होने इस उपन्यास के जरिए बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर ज़बर्दस्त चोट की।
उन्होंने तब लड़कियों को पढाने की वकालात की जब लड़कियों को घर से बाहर तक
नहीं निकलने दिया जाता था, परंपराओं, कुप्रथाओं और रुढियों पर चोट करते
रहने के बावजूद वे लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे। जबकि वह ऐक ऐसा दौर था
जब कोई व्यक्ति अंधविश्वासों और धार्मिक रुढियों के खिलाफ कुछ बोलता था तो
पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता था। निश्चय ही उनके अंदर अपनी बात को कहने
का साहस और उसे लोगों तक पहुँचाने की जबर्दस्त क्षमता थी।
हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं. श्रध्दाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रध्दाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है। पं. श्रध्दाराम का निधन 24 जून 1881 को लाहौर में हुआ।