महाकवि कालीदास का जन्म स्थान कविल्ठा(कालीमठ)

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sanskrit samiti

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Dec 10, 2009, 1:55:02 AM12/10/09
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महाकवि कालीदास का जन्म देश के किस भाग में हुआ इसका भले ही कोई प्रमाणिक अभिलेख उपलब्ध न हो परन्तु महाकवि द्वारा रचित साहित्य को साक्ष्य के रुप में माना जाय तो नि:सन्देह रुप से कहा जा सकता है कि कवि इस हिमालयी भू–भाग में भली–भांति रचे–बसे थे। संस्कृत विद्वानों ने अब स्वीकार भी कर दिया है कि महाकवि कालीदास का जन्म महासिद्धपीठ कालीमठ के निकट कविल्ठा ग्राम में हुआ था। ‘महाकवि कालीदास की जन्मभूमि हिमालय गढ़वाल’ के लेखक स्व. आचार्य धर्मानन्द जमलोकी ने कवि की प्रमुख तीन रचनाओं कुमार सम्भवम्‚ मेघदूत तथा रघुवंश महाकाव्य का विस्तृत उल्लेख करते हुए सिद्ध किया है कि महाकवि की जन्मभूमि यहीं है। कुमार सम्भवम् का प्रथम श्लोक–

अस्त्युत्तरस्या दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधीबगाहय स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:।।

में हिमालय के इस क्षेत्र का वर्णन करते हुए यहां के वन‚ पर्वत‚ नदी‚ प्रपातों यहां की जड़ी–बूटियों‚ वृक्षों‚ यज्ञ‚ किन्नरों का जिस सूक्ष्मता से वर्णन किया वह महज कल्पना पर आधारित नहीं हो सकता। इसी रचना में वैवाहिक रीति–रिवाजों जैसे लड़के वाले की लड़की ढूंढ में लड़की के घर जाकर प्रस्ताव रखना‚ तथा विवाह पूर्व मंगलस्नान‚ वस्त्राभूषण आदि अनुष्ठानों का जैसा वर्णन किया गया वह सब यहां की रीति–रिवाज में आज भी विद्यमान हैं। महाकवि की कालजयी गीतिकाव्य मेघदूत में जिस भांति प्रवास पीड़ा झेल रहे यज्ञ ने सावन के उमड़ते मेघ को अपना दूत बना उसे मार्ग बताते हुए अपनी नवविवाहिता को प्रणय संदेश दिया। इससे माना जा सकता है कि जीविकोपार्जन हेतु महाकवि ने अपनी जन्मभूमि से पलायन किया होगा। पलायन की यह परम्परा आज भी यथावत है। इस रचना में हरिद्वार कनखन से लेकर हिमालय की ऊंची गिरिकन्दराओं‚ यहां की नारी सौन्दर्य का जो रमणीय चित्रण किया उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि का अपनी जन्मभूमि से आत्मीय लगाव था। महाकवि की रचना रघुवंश महाकाव्य में पार्वती–परमेश्वर की वन्दना से प्रारम्भ होकर प्राय: हिमालय की गिरिकन्दराओं के इर्द–गिर्द का वर्णन देखने में आता है। ऋषि कण्व आश्रम में पालित शकुन्तला का जीवन प्राय: पहाड़ के जंगल–प्रान्तों के परिवृत्त रहा। मेनका पुत्री शकुन्तला का जन्म महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में हुआ था।
महाकवि कालीदास का जन्म कालीमठ के निकट ‘कविल्ठा’ माने जाने के पीछे यह भी एक तथ्य है कि कवि काली उपासक थे। बचपन में उनका अनपढ़‚ मूर्ख होना तथा पण्डितों द्वारा छलपूर्वक महाविदुषी विद्योत्तमा से स्वयंवर रचना‚ पति की मूर्खता पता चलने पर विद्यात्तमा का कालीदास का तिरस्कार करना‚ ग्लानि से भर कालीदास का मां काली की शरण में जाना तथा मां के आशीर्वाद से मूर्ख कालीदास से महापण्डित कालीदास के रुप में पत्नि के पास आना यह सब कविल्ठा‚ कालीमठ के भूदृष्य को देख समझा जा सकता है। संस्कृत विद्वान आचार्य अचुत्यानन्द घिल्डियाल ने तो यहां तक सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राजा शरदानन्द की राजधानी गुप्तकाशी में थी। उन्हीं की पुत्री महाविदुषी विद्योत्तमा थी। कालीदास के साथ शास्त्रार्थ गुप्तकाशी में ही हुआ था। संस्कृत विद्वानों ने अब तो अपने शोधपत्रों में‚ कालीदास की जन्मभूमि गढ़वाल के केदारघाटी में कविल्ठा में हुआ‚ यह सिद्ध करने का प्रयास किया है। कविल्ठा में वर्ष १९८६–८७ से प्रतिवर्ष आषाढ़ प्रथम दिवस से त्रिदिवसीय महाकवि जन्म महोत्सव का आयोजन किया जाता है। जिसमें देश भर से संस्कृत विद्वान यहां एकत्र हो अपने शोध आलेखों का वाचन करते हैं।
कविल्ठा कालीमठ जाने के लिये मार्ग ऋषिकेश से पहले रुद्रप्रयाग और फिर रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जाने वाले मार्ग के लिये बस पकड़नी होती है। केदारनाथ के रास्ते में ही यह स्थान पड़ता है।

आशाप्रसाद सेमवाल–

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संस्कृत-समितिः
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pandey ramanath

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Dec 10, 2009, 6:06:07 AM12/10/09
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प्रिय महोदयः
प्रणमामः
भारतीय परम्परा के अनुसार जिस व्यक्ति का जो आराध्य देव होता हॆ, वह अपने
किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ, उसी देव की स्तुति से करता हॆ न कि अन्य
देव की स्तुति से ! कालिदास के आराध्य शिव हॆं या पार्वती को भी उनका
आराध्य माना जा सकता हॆ, " वन्दे पार्वतीपरमेश्वरॊ" कहकर शिव के
अर्धनारीश्वर रूप की स्तुति का भी संकेत हॆI यद्यपि पार्वती के
पर्यायवाची शब्दो‘मे‘ काली का भी समावेश हॆ - (अमरकोश १-१-३६,३७)! तथापि
कालिदास की रचनाओं में काली शब्द का प्रयोग पार्वती के स्वरूप की
अभिव्यक्ति के लिये कहीं भी नहीं प्राप्त होता हॆ! इस प्रकार कालिदास को
पार्वती के काली के स्वरूप का उपासक स्वीकार कर कालिदास शब्द की सार्थकता
सिद्ध नहीं की जा सकती हॆ! इससे यह प्रमाणित होता हॆ कि कालिदास देवी
काली के भक्त नहीं थे! मेरे कथन का अभिप्राय यह हॆ कि कालिदास के काल तक
काली का वह स्वरूप विकसित नहीं दिखायी देता जो कि पश्चात्काल साहित्य में
दिखायी देता हॆ! कुमारसंभवे सप्तमसर्गे -
तासां च पश्चात् कनकप्रभाणां काली कपालाभरणा चकाशे।
बलाकिनी नीलपयोदराजिर्दूरं पुरःक्षिप्तशतह्रदेव॥ ३९।
अत्र तु कृष्णवर्णत्वसूचनाय कालीसंज्ञयाभिधानम्! अथवा काल्याः कालत्वात्
कालीति नाम सार्थकम् प्रतीयते॒! इस प्रकार काली शब्द का प्रयोग या तो
कृष्ण वर्ण को सूचित करता हॆ अथवा कालादि अन्य अर्थ को न कि महाभारत,
पुराण आदि में वर्णित देवी काली या महाकाली के लिये! तथापि मात्र इस एक
उद्धरण को आधार मानकर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता हॆ!
कुमारसंभव (१.२६, तथा ५.२८) में ही पार्वती, ऊमा तथा अपर्णा शब्दों का
ऊल्लेख कर इन शब्दों की संरचना किस प्रकार हुयी हॆ इसका अत्यन्त सुन्दर
उदाहरण प्राप्त होता हॆ! पी० वी काणे के धर्मशास्त्र के अनुसार इन
उद्धरणों का समय महाभारत में निश्चितिता से परे हॆ क्योंकि इसके आधार पर
कोई भी कालक्रम निर्धारित नहीं किया जा सकता हॆ! इन सबके अतिरिक्त
पार्वती को गॊरी(रघुवंश-२.२६ तथा कुमारसम्भव-७.९५), भवानी(कुमा०८४),
चण्डी(मेघदूत१.३३) आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया हॆ! मातॄ या सप्तमातॄ
(कुमारसम्भव-७.३०,३८) तथा काली की भी चर्चा हॆ किन्तु inakA सम्बन्ध
पार्वती से नहीं हॆ!
यहां यह भी विचारणीय हॆ कि यद्यपि पाणिनि के व्याकरण के आधार पर -
"कालिदासः कालीदासः - इत्युभयोरपि साधुत्वमुचितमेव, संज्ञात्वात्,
"ङ्यापोः संज्ञा-च्छन्दसोर्बहुलम्" इति कालिदासः इति संज्ञायाम्,
संज्ञाभावे कालीदासः - काल्याः दासः इति च साध्वेव। सज्ञायाम्,
यथाप्रयोगदर्शनं साधुत्वं संपादनीयम्। यदि प्रामाणिकः प्रयोगः, काली-दासः
इत्यपि साधुरेव।"- कालिदास व कालीदास दोनों ही प्रयोग उचित हॆं, तथापि
कालिदास की रचनiओं के मूल पाण्डुलिपियों के किसी भी प्रतियों में
सम्भवतः"कालीदास" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता हॆ! ऒर न ही पाणिनि के
व्याकरण में कहिं "कालि" शब्द का प्रयोग हुआ हॆ! जनपदकुण्ड० (पाणि०
४.१.४२) "काली, वर्णः! कालान्या!" !इस प्रकार काली शब्द का प्रयोग वर्ण
को सूचित करता हॆ! सधन्यवादः


Markandeya Purana
तासां च पश्चात् कनकप्रभाणां काली कपालाभरणा चकाशे।
बलाकिनी नीलपयोदराजिर्दूरं पुरःक्षिप्तशतह्रदेव॥ ३९।

तथापि यदीदं प्रमाणं न स्यात --- कुमारसंभवे चतुर्थसर्गे


तासाम = मातॄणाम, सुवर्णवर्णानाम, पश्चात, काली-संज्ञा माता,
सितकपालालंकृता चकाशे।
................ ... .... काल्याः कालत्वात् कालीति नाम।
प्राचीनतमा व्याख्या श्री-वल्लभदेवस्यास्य प्रयोगस्य प्रमाणं न स्यात।
महाभारते ऽपि कालीशब्दस्य देवीभेदार्थत्वे प्रयोगं दर्शयति - Monier Williams.:
(H1B) काली 1[L=49056] a form of दुर्गा MBh. iv , 195
Markandeya Purana देवीमाहात्म्ये:
तत: काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।कराभ्यां तन्निनादेन
प्राक्स्वनास्ते तिरोहिता:॥००.९२२॥
कालीदास के समय ही विवाद ग्रस्त है, तो उन के समय पर ये उल्लेखों का
उक्तार्थ में न मानने की औचित्य न समझा। चाहे तो काली कि बारे में
प्रचलित दन्तकथा समझे, वास्तव में कालीदास तो बडे विद्वान थे यह तो कहा
जा सकता है।
सादरं प्रणामाः।


ऐसे ही सन्दर्भ मे महाभाष्यकार मे ऐसा कहा था ---
महान खलु शब्दस्य विषयः ... सप्तद्वीपा वसुमती एकविंशतिधा बाह्वृचम,
एकशतमध्वर्युवेदः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः .....
.....एतावन्तं शब्दराशिमननुनिशम्य साहसमेतत अस्त्यप्रयुक्तः शब्दः

2009/12/10 sanskrit samiti <sanskri...@gmail.com>:

--
rnp

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