आदर्श मानव राम

78 views
Skip to first unread message

sanskrit samiti

unread,
Jan 5, 2010, 3:13:31 AM1/5/10
to sanskri...@googlegroups.com

आदर्श मानव राम

आदर्श मानव कौन है, इसका समाधान उतना ही कठिन है जितना इस प्रश्न का कि आदर्श कर्म क्या है। अथवा आदर्श आचरण किसे कहते हैं। एक परिस्थिति में जो आचरण अधर्म माना जाता है, दूसरी परिस्थिति में वहीं धर्म का रूप ले लेता है। एक काल में जो कर्म गर्हित समझा जाता है, दूसरे काल में वही कर्म पवित्र बन जाता है। एवं एक समाज में जो क्रिया अच्छी समझी जाती है, दूसरे समाज में वही निन्दनीय बन जाती है। इसलिए, महाभारत ने बार-बार दुहराया है, ‘सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य’ अर्थात् धर्म या व्यावहारिक नीति-धर्म की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है; एवं गीता का कथन कि ‘‘किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः’’ कर्म और अकर्म क्या है, इसके निश्चयन में द्रष्टाओं को भी मोह होता है।

यदि रामकथा के इतिहास को देखें तो पता चलेगा कि इस महान चरित्र-विषयक अनुभूति भी बराबर बदलती रही है। भवभूमि के राम ठीक वे नहीं हैं जो वाल्मीकि के राम हैं और तुलसी के राम वाल्मीकि तथा भवभूति, दोनों के रामों से भिन्न हैं। इसी प्रकार, ‘साकेत’ के राम पहले के सभी रामों से भिन्न हो गये हैं। वाल्मीकि के राम जब शूद्र-तपस्वी शम्बूक का वध करते हैं तब उनके हृदय में करुणा नहीं उपजती, न इस कृत्य से किसी और को ही क्लेश होता है। उलटे, देवता राम पर पुष्पों की वृष्टि करते हैं और सारा वातावरण इस भाव से भर जाता है कि शम्बूक का वध करके राम ने एक अनिवार्य धर्म का पालन किया है। किन्तु वाल्मीकि से भवभूति की दूरी बहुत अधिक है। इस लम्बी अवधि के बीच, जैन और बौद्ध प्रचारकों ने जनता के मन में यह भाव जगा दिया था कि, हो-न-हो, सभी मनुष्य  जन्मना समान हैं और तपस्या यदि सुकर्म है तो वह शूद्रों के लिए वर्जित नहीं समझी जानी चाहिए। परिणाम इसका यह हुआ कि भवभूति जब उत्तर रामचरित में शम्बूक-वध का दृश्य दिखलाने लगे तक उनका हृदय कराह उठा। किन्तु इस करुणा को उन्होंने स्वयं न कहकर राम के ही मुख में डाल दिया। भवभूति के राम जब शम्बूक का वध करना चाहते हैं तब शम्बूक पर उनका हाथ नहीं उठता और वे स्वयं अपनी भुजा को ललकारकर कह उठते हैं

हे हस्त दक्षिण ! मृतस्य शिशोर्द्विजस्य
जीवातवे विसृज शूद्रमुनौ कृपाणम्,
रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्न-
सीताविवासनपटोः करुणा कुतस्ते ?

(हे मेरे दाहिने हाथ ! तू शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चला, जिससे ब्राह्मण का मृत पुत्र जी उठे। तू तो उस राम का गात्र है जिसने भ़ारी गर्भभार से श्रमित सीता को निर्वासित कर दिया है। मुझमें करुणा कहाँ से आ गई (कि शूद्र मुनि पर तलवार चलाने में हिचकिचा रहा है) ?)
तुलसीदासजी के समय तक आते-आते वृद्ध द्वारा प्रवर्तित बृहत् मानवता का आन्दोलन और भी पुष्ट हो गया एवं नारी और शूद्र के प्रति जनता की भावना कुछ और उदार हो गई। परिणामतः गोस्वामीजी ने ‘रामचरितमानस’ में शम्बूक-वध एवं सीता-परित्याग की कथाएँ नहीं लिखीं। यदि उन्होंने ये कथाएँ लिखी होतीं तो उनके राम हमारे लिए कहाँ तक ग्राह्य होते, यह संदिग्ध विषय है।
इसी प्रकार, ‘साकेत’ के  राम, अनायास ही, उस युग से प्रभावित हो गए हैं जिसके संस्कारों की रचना स्वामी दयानन्द तथा स्वामी विवेकानन्द ने की थी। वेदों का प्रचार और आर्यधर्म का विज्ञापन, यह स्वामी दयानन्द का सबसे प्यारा ध्येय था एवं स्वामी विवेकानन्द का उपदेश था कि परलोक की आराधना में लोक की उपेक्षा मत करो। ‘साकेत’ के राम इन दोनों महात्माओं के उद्देश्यों को आगे बढ़ाते हैं:

बहु जन वन में हैं बने ऋक्ष-वानर-से
मैं दूँगा अब आर्यत्व उन्हें निज कर से
उच्चारित होती चले वेद की वाणी,
गूँजे गिरि-कानन, सिन्धु पार कल्याणी।

तथा

सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को स्वर्ग बनाने आया।

इस दृष्टि से देखने पर यह कहना कठिन हो जाता है कि भगवान रामचन्द्र का कौन रूप आदर्श है और कौन नहीं। उनका चरित्र हजारों वर्ष से हमारे राष्ट्रीय जीवन के साथ रहा है और भारतीय आदर्श में समय-समय पर जो परिवर्तन हुए हैं उनकी अनुभूतियाँ रामचरित-विषयक नए काव्यों में समाविष्ट होती आई हैं। यही कारण है कि रामकथा के मूलकाव्य वाल्मीकि-रामायण में राम का जो रूप चित्रित हुआ, ‘साकेत’ तक आते–आते वह बहुत कुछ परिवर्तित हो गया है। विशेषतः, वाल्मीकि और तुलसी के हाथों जिन दो रामों की सृष्टि हुई, वे परस्पर भिन्न-से लगते हैं। वाल्मीकि के राम मनुष्य हैं एवं मानवोचित दुर्बलताओं की झाँकी उनके चरित्र में स्पष्ट दिखाई देती है। किन्तु तुलसीदासजी ने राम की मानवीय दुर्बलताओं को बिल्कुल नहीं तो, बहुत दूर तक आँखों से ओझल कर दिया है। जैसा गोस्वामीजी का विश्वास था, उनके राम साक्षात् परब्रह्म के अवतार हैं एवं लौकिक आचरण वे केवल लीला के लिए करते हैं। सीता के विरह में ईषत् रुदन, लक्ष्मण की मूर्च्छा के समय क्रन्दन  और विलाप तथा जटायु के सामने रावण को लक्ष्य करके कुछ दर्प-प्रदर्शन, ये ही कुछ थोड़ी मानवीय झाँकियाँ हैं जो हें तुलसी के राम में मिलती हैं। बाकी तो वे सदैव मन की उच्च स्थिति में ही विद्यमान मिलते हैं।
यहाँ यह प्रश्न फिर उठता है कि आदर्श मनुष्य कौन है। वह जो रागों से सर्वथा मुक्त होकर देवत्व के सिंहासन पर विराजमान है अथवा वह जो मानवीय दुर्बलताओं का सामना करके बराबर उनसे ऊपर रहने के प्रयास में है ? यदि आदर्श मनुष्य देवता का पर्याय है तो, निश्चय ही इस आदर्श की पूरी झाँकी तुलसी के राम में है। किन्तु मनुष्य का जो संघर्ष वाला स्वरूप है, उसका आदर्श तुलसी में नहीं, वाल्मीकि के राम में मिलेगा।
मनुष्य का सामान्य लक्षण एक प्रकार का मानसिक संघर्ष है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर उच्च और निम्नगामी भावनाओं के बीच द्वन्द्व चला करता है। विकारों का उद्वेग सभी मनुष्यों में उठता है और यह उद्वेग मनुष्यों को नीचे ले जाना चाहता है। ऊँचा अथवा आदर्श मनुष्य वह है जो इन विकारों की अधीनता स्वीकार नहीं करता, प्रत्युत् उन्हें दबाकर अथवा उनका परिष्कार करके अपने आन्तरिक व्यक्तित्व को बराबर उच्च स्थिति में बनाए रखता है। वाल्मिकि ने जिस राम का चरित लिखा है, वे ऐसे ही मनुष्य है।
माता और पिता जब राम को वन जाने की आज्ञा देते हैं तब वाल्मीकि और तुलसी, दोनों के अनुसार राम इस आज्ञा को बड़े ही हर्ष से शिरोधार्य कर लेते हैं। यह महापुरुषों का शील है। यह परिवार और समाज की मर्यादा के पालन का दृष्टान्त है। और, सचमुच ही, वाल्मीकि और तुलसी में से दोनों ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया है। किन्तु, प्रश्न रह जाता है कि क्या कैकेयी और दशरथ की इस कठोर आज्ञा के विरुद्ध राम के हृदय में कोई प्रतिक्रिया जगी ही नहीं ? तुलसी का साक्ष्य है कि राम के भीतर कोई आक्रोश नहीं जगा। किन्तु वाल्मीकि कहते हैं कि वनगमन की आज्ञा सुनकर राम को दुख अवश्य हुआ, किन्तु इस दुख को उन्होंने भीतर-ही-भीतर सँभाल लिया। हाँ, वन में जब वे लक्ष्मण के साथ एकान्त में वार्तालाप करते हैं तब उनके मन की शंकाएँ एक-एक करके बाहर निकलने लगती हैं।

क्षुद्रकर्माहि कैकेयी द्वेषादन्याय्यचरेत्।
परिदद्याद्वि धर्मज्ञ ! गरं ते मम मातरम्।

(हे धर्मज्ञ लक्ष्मण ! कैकेयी क्षूद्रकर्मा है। मुझे भय होता है कि कहीं वह तुम्हारी और मेरी माता को जहर न दे दे।)

अर्थधर्मान् परित्यज्य यः काममनुवर्तते।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा।

(जो लोग अर्थ और धर्म को छोड़कर केवल नाम का सेवन करते हैं, उनकी वहीं दशा होती है जो राजा दशरथ की हुई)
मनुष्य जब तक मनुष्य है तब तक उसके भीतर इस प्रकार की भावनाएँ अवश्य जागेंगी। भेद यह होगा कि सामान्य मनुष्य इन भावनाओं की आधीनता को स्वीकार कर लेगा, किन्तु उच्च मनुष्य उन्हें अपने नियन्त्रण में रखेगा।
अयोध्या के राज्य को राम ने तृण से अधिक महत्त्व नहीं दिया, यह बात भी वाल्मीकि और तुलसी, दोनों रामायणों में मिलती है। किन्तु वाल्मीकि यह सन्देश भी दे जाते हैं कि राम के मन में इस त्याग से एक कलक उठी थी। हाँ, उनका चरित्र इतना सुदृढ़ था कि उन्होंने इस कलह को भी दबा दिया।

अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानध !
तेन लक्ष्मण ! नाद्याहमात्मानमभिषेचये।

चिंतन के आयाम
रामधारी सिंह दिनकर
लोकभारती प्रकाशन




--
<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>
संस्कृत-समितिः
<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>~<>
Reply all
Reply to author
Forward
0 new messages