मारवाड़ी समाज
unread,Feb 3, 2008, 3:13:12 AM2/3/08Sign in to reply to author
Sign in to forward
You do not have permission to delete messages in this group
Either email addresses are anonymous for this group or you need the view member email addresses permission to view the original message
to मारवाड़ी समाज/ marwari samaj
उधार की जिन्दगी
आज एक महत्वपूर्ण प्रश्न मारवाड़ी समाज के साथ जुड़ सा गया है। - क्या वह
उधार की जिन्दगी जी रहा है, या किसी के एहशान के टूकड़ों पर पल रहा है?
या फिर किसी हमदर्दी और दया का पात्र तो नहीं? मारवाड़ी समाज का प्रवासीय
इतिहास के तीन सौ वर्षों के पन्ने अभी तक बिखरे पड़े हैं। न तो समाज के
अतीत को इसकी चिंता थी, नही वर्तमान को इसकी फिक्र। घड़ी की टिक-टीक ने
इस सन्नाटे में अचानक हलचल पैदा कर दी है। - विभिन्न प्रन्तों में हो रहे
जातिवाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता की आड़ में मारवाड़ी समाज के घ्रों को
जलाना एवं लूट लेना । साथ ही, राजनैतिक दलों का मौन रहना, मुगलों के
इतिहास को नए सिरे से दोहराते हुए स्थानीय आततायियों के रूप में
मौकापरस्त लोग एसी हरकतों से कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं।
'जात- जडूला' या 'गठजोड़
यह प्रश्न आज के परिप्रेक्ष्य में हमारे मानस-पटल पर उभर कर सामने आता है
कि अपने मूल स्थान से हमने जन्म-जन्मान्तर का नाता तोड़-सा लिये। पहले तो
समाज के लोग साल में एक दफा ही सही 'देस' जाया करते थे। अब तो बच्चों को
पता ही नहीं कि उनके पूर्वज किस स्थान के थे। एक समय था जब 'जडूला' या
'गठजोड़ की जात' देस जाकर ही दिया जाता था, समाज में कई ऎसे उदाहरण हैं,
जिसमें बाप-बेटा और पोता, तीनों का 'जडूला' और 'गठजोड़ की जात' एक साथ
ही 'देस' जाकर दी । यहाँ यह कहना जरूरी नहीं कि हमारा अपने मूल स्थाना
से कितना गहरा संबंध रहा और कितना फासला है। इन दिनों 'जडूला' तो
स्थानीय प्रचलन एवं मान्यताओं से जूड़ती जा रही है। जो जिस प्रदेश में या
देश में है, वे उस प्रदेश या देश के अनुकुल अपनी-अपनी अलग प्रथा बनाते जा
रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का अपने मूल प्रदेश से कितना मानसिक लगाव रह
जायेगा, इस पर संदेह है। वैसे भी एक स्थति और भी है, वर्तमान को ही देखें
- 'मारवाड़ी कहने को तो अपने आपको रास्थानी मानते हैं,परन्तु राजस्थान के
लोग इसे मान्यता नहीं देते। यदि कोई प्रवासी राजस्थानी वहाँ जाकर पढ़ना
चाहे तो उसे राजस्थानी नहीं माना जाता। क्योंकि उसका मूल प्रान्त
राजस्थान नहीं है। यह कैसी व्यवस्था ? असम , बंगा़ल, उडिसा जैसे अहिन्दी
भाषी प्रान्त इनको प्रवासी मानते हैं, और राजस्थान इनको अपने प्रदेश का
नहीं मानता। असम में असमिया मूल के छात्र को और राजस्थान में राजस्थान
मूल के छात्रों को ही दाखिला मिलेगा तो यह कौम कहाँ जाय?
प्रान्तीय भाषा
मुड़िया में मात्रा की कमी के चलते हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य प्रन्तीय
भाषाओं ने इस प्रवासी समाज के अन्दर अपना प्रमुख स्थान ग्रहन कर लिया ।
कई प्रवासी मारवाड़ी परिवार ऎसे हैं जिनको सिर्फ बंगला, असमिया, तमील, या
उड़िया भाषा ही लिखाना, बोलना और पढ़ना आता है, कई परिवार में तो
राजस्थानी की बात तो बहुत दूर उनको हिन्दी भी ठीक से बोलना-पढ़ना नहीं
आता, लिखने की कल्पना ही व्यर्थ है।
पर्व-त्यौहार
बिहार में 'छठ पूजा' की बहुअत बड़ी मान्यता है,ठीक वैसे ही बंगाल मैं
'दुर्गा पूजा', 'काली पूजा', असम में 'बिहू उत्सव', महाराष्ट्र में 'गणेश-
महोत्सव, उड़ीसा में 'जगन्नाथ जी की रथयात्रा', दक्षिण भारत में 'ओणम-
पोंगल', राजस्थान में होली-दिवाली, गुजरात में डांडीया-गरबा, पंजाब में
'वैशाखी उत्सव' आदि पर्व व त्योहरों की विषेश मान्यता है, असके साथ ही
हिन्दू धर्म के अनुसार कई त्योहार मनाये जाते हैं जिसमें राजस्थान में
विषेशकर के राखी, गणगोर की विषेश मान्यता है, गणगोर तो राजस्थान व
हरियाणावासियो का अनुठा त्योहार माना जाता है। जैसे-जैसे मारवड़ी समाज के
लोग इन प्रान्तों में बसते गये, ये लोग अपने पर्व के साथ-साथ स्थानीय
मान्यताओं के पर्व व त्योहारों को अपनाते चले गये। बिहार के मारवाड़ी तो
छठ पूजा ठीक उसी तरह मानाने लगे, जैसे बिहार के स्थानीय समाज मानाते हैं
यहाँ यह बताना जरूरी है कि जो मारवाड़ी परिवार कालान्तर बिहार से उठकर
किसी अन्य प्रदेश में बस गये, वे आज भी छठ पूजा के समय ठीक वैसे ही बिहार
जाते हैं जैसे बिहार के मूलवासी इस पर्व को मनाने जाते हैं। अब विवशता यह
है कि राजस्थान के बिहार के मारवाड़ी को बिहारी, असम के मारवाड़ियों को
असमिया, बंगाल व उड़ीसा के मारावाड़ियों को बिहारी, बंगाली, असमिया, या
उड़िया समझते हैं, एवं स्थानीय भाषायी लोग मारवाड़ियों को राजस्थानी
मानते हैं। विडम्बना यह है,कि मारवाड़ी कहने को तो रजस्थानी है, परन्तु
राजस्थान के लोग इसे राजस्थानी नहीं मानते।
लोगों का भ्रम:
आम तौर पर लोगों को यह भ्रम है कि मारवाड़ी समाज एक धनी-सम्पन्न समाज है,
परन्तु सच्चाई इस भ्रम से कोसों दूर है। यह कहना तो संभव नहीं कि
मारवाड़ी समाज में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हाँ ! धनी
वर्ग का प्रतिशत इतर समाज के अनुपात में नहीं के बराबर माना जा सकता है।
उद्योग-व्यवसाय तो सभी समाज में कम-अधिक है। प्रवासी राजस्थानी, जिसे
हम देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर सम्बोधित करते हैं या जानते
हैं, अधिकतर छोटे-छोटे दुकानदार या फिर दलाली के व्यापार से जुड़े हुए
हैं, समाज के सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार तो नौकरी-पेशा से जुड़े हुए
हैं, शेष बचे बीस प्रतिशत का आधा भा़ग ही संपन्न माना जा सकता है, बचे दस
प्रतिशत भी मध्यम श्रेणी के ही माने जायेगें। कितने परिवार को तो दो जून
का खाना भी ठीक से नसीब नहीं होता, बच्चे किसी तरह से संस्थाओं के सहयोग
से पढ़-लिख पाते हैं। कोलकाता के बड़ाबाजार का आंकलन करने से पता चलता है
कि किस तरह एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार अपना गुजर-बसर कर रहा है।
इस समाज की एक खासियत यह है कि यह कर्मजीव समाज है, मांग के खाने की जगह
कमा कर खाना ज्याद पसंद करता है, समाज के बीच साफ-सुथरा रहना अपना
कर्तव्य समझता है, और कमाई का एक हिस्सा दान-पूण्य में खर्च करना अपना
धर्म। शायद इसलिए भी हो सकता है इस समाज को धनी समाज माना जाता हो, या
फिर विड़ला-बांगड़ की छाप इस समाज पर लग चुकी हो। ऎसा सोचना कि यह समाज
धनी समाज है, किसी भी रूप में उचित नहीं है। आम समाज की तरह ही यह समाज
भी है, जिसमें सभी तबके के लोग हैं , पान की दुकान, चाय की दुकान, नाई ,
जमादार, गुरूजी(शिक्षक), पण्डित जी (ब्राह्मण), मिसरानी ( ब्राह्मण की
पत्नी), दरवान, ड्राईवर, महाराज ( खाना बनाने वाले), मुनीम (खाता-बही
लिखने वाला) ये सभी मारवाड़ी समाज में होते हैं इनकी आय भारतीय मुद्रा के
अनुसार आज भी दो - तीन हजार रूपये प्रतिमाह (कुछ कम-वेसी) के आस-पास ही
आंकी जा सकती है। यह बात सही है कि समाज में सम्पन्न लोग के आडम्बर से
गरीब वर्ग हमेशा से शिकार होता आया है, यह बात इस समाज पर भी लागू होती
है।
आडम्बर:
मारवाड़ी समाज के एक वर्ग को संपन्न समाज माना जाता है, इनके कल-कारखाने,
करोबार, उद्योग, या व्यवसाय में आय की कोई सीमा नहीं होती, ये लो़ग जहाँ
एक तरफ समाज के सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते पाये जाते
हैं वहीं दूसरी तरफ अपने बच्चों की शादी-विवाह, जन्मदिन का जश्न मनाने
में, या सालगिरह के नाम पर आडम्बर को भी मात देने में लग जाते हैं, उस
समय पता नही इतना धन कहाँ से एकाएक इनके पास आ जाता है, जिसे पानी की तरह
बहाने में इनको आनन्द आता है, अब कोलकाता में तो बहार से आकर शादी करना
एक फैशन सा बनते जा रहा है, बड़े-बड़े पण्डाल, लाखों के फूल-पत्ती, लाखों
की सजावट, मंहगे-मंहगे निमंत्रण कार्ड, देखकर कोई भी आदमी दंग रह जायेगा।
सबसे बड़ा हास्यास्पद तब लगता है, जब कोई समाज की सभाओं में इन आडम्बरों
के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें तो करता है, जब खुद का समय आता है तो यही
व्यक्ति सबसे ज्यादा अडम्बर करते पाया जाता है। एक-दो अपवादों को छोड़
दिया जाय तो अधिकांशतः लोग समाज के भीतर गन्दगी फैलाने में लगे हैं। इनका
इतना पतन हो चुका है कि इनको किसी का भय भी नहीं लगता। समाज के कुछ दलाल
किस्म के हिन्दी के पत्रकार भी इनका साथ देते नजर आते हैं। चुंकि उनका
अखबार उनके पैसे से चलता है इसलिये भी ये लाचार रहतें हैं, दबी जुबान
थोड़ा बोल देते हैं परन्तु खुलकर लिखने का साहस नहीं करते। इन पत्रकारों
की मानसिकता इतनी गिर चुकी है कि, कोई भी इनको पैसे से खरिद सकता है,
भाई ! पेट ही तो है, जो मानता नहीं। अखबार इनलोगों से चलता है, इनका घर
इनकी दया पर चलता है, तो कलम का क्या दोष वह तो इनके दिमाग से नहीं इनके
हाथ से चलती है।
इन पत्रकारों के पास न तो कलम होती है, न ही हाथ य लुल्ले पत्रकार होते
हें , इनके पास सिर्फ कगज छापने की एक लोहे की मशीन भर होती है, बस ,
भगवान ही इनका मालिक होता है, दिमाग भी इतना ही दिया कि ये बस मजे से खा
सकते हैं। इनका समाज में किसी भी प्रकार का सामाजिक दायित्व नहीं के
बराबर है। क्रमशः आगे लेख जारी है। - शम्भु चौधरी दिनांक: 03.02.2008