मारवाड़ी समाज
unread,Mar 1, 2008, 8:52:09 AM3/1/08Sign in to reply to author
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to Marwari Samaj
"मैं भी मारवाड़ी हूँ"
कई बार सोचता हूँ कि मारवाड़ी समाज में जन्म लेकर किसी ने कोई अपराध तो
नहीं किया, तो कई बार गर्व भी होता है कि "मैं भी मारवाड़ी हूँ"
स्व.भंवरमल जी सिंघी की पुस्तक "मारवाड़ी समाज: चुनौती और चिन्तन" के
अन्तरावलोकन-1 को जब पढ़ता हूँ तो कुछ इस तरह कि बल्कि इससे भी बुरी
स्थिति में समाज को आज भी मैं पाता हूँ। देखें स्व. सिंघीजी ने क्या कहा
था। आपको यह बता देना चाहता हूँ कि मारवाड़ी समाज में सुधार की प्रक्रिया
लागू कराने में स्व.सिंघी जी का नाम राजा राममोहन राय के समतुल्य तो नहीं
लिखा जा सकता है। हाँ समझाने के लिये या इनके कार्य क्षेत्र को समझने के
लिये राममोहन राय का उदाहरण दिया जा सकता है, जिससे पाठकों को इनके कद का
अहसास हो सके। - "तीस वर्ष पूर्व जब मैं बी.ए. में पढ़ने के लिये जयपुर
से बनारस आ कर हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ, उस समय तक
मारवाड़ी कहलाने वाले राजस्थानियों के सम्बन्ध में मेरी बहुत कम जानकारी
थी। पर जानकारी बहुत थोड़ी होने पर भी उनके बारे में मेरे मन में बड़ी
उपेक्षा और घृणा का संस्कार था। बनारस में पहले-पहल कतिपय सहपाठी छात्र
मिले जो विश्वविद्यालय में राजस्थानी छात्र संघ के सदस्य तो थे पर जिनका
निवास बंगाल, बिहार, मद्यप्रदेश आदि प्रान्तों में था। इनके साथ के
संपर्क ने थोड़ी सान्त्वना तो दी कि मारवाड़ियों में भी शिक्षा का
संस्कार है, परन्तु छुट्टियों में घर जाते-आते रेल की मुसाफिरी में
बंगाल, असम और बिहार आदि से आते- जाते हुए जो मारवाड़ी परिवार देखे, उनके
रहन-सहन के तौर- तरिकों से वह घृणा का संस्कार कायम ही रहा और मैं जितने
अभिमान के साथ अपने को राजस्थानी कहता था, अतनी ही घृणा के साथ के साथ
मारवाड़ी की निन्दा भी करता था।" [ "मारवाड़ी समाज: चुनौती और चिन्तन"
के अन्तरावलोकन-1 पृष्ठ-5 ]
राजस्थान का यह प्रवासी समाज जिसे देश के सभी भागों
में हम मारवाड़ी कौम के रूप में जानते हैं, इसमें व्यापारी वर्ग की
बाहुलता हमें देखने को मिलती है, ऎसा नहीं है कि इस समाज में सभी वर्ग के
लोग व्यापारी ही हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि आमतौर पर हमारे मानस में
मारवाड़ी शब्द आते ही एक व्यापारी सेठ की छवी सामने उभर कर आ जाती है।
मानो एक प्रकार से व्यापारी सेठ, मारवाड़ी शब्द का प्रायःवाची बन गया हो।
कई बार टी.वी. सिरीयलों में इस तरह का चित्रण भी हमें देखने व कहानी-
किस्सों में पढ़ने को मिल जातें हैं। इसके कारणों को काफी खोजने का
प्रयास किया कि, वास्तव में जबकि इस समाज में ऎसी बात नहीं है तो यह छाप
क्यों और कैसे लग गई? इसके लिये मुझे ज्याद दूर नहीं जाना पड़ा। पिछले एक
दो-तीन दशक पुराने वातवरण से ही इस बात का हल खोजने का प्रयास करता हूँ।
मुझे याद आता है जब इस समाज का कोई बच्चा पढ़-लिख लेता था तो वो अपने
आपको या तो मारवाड़ी कौम से अलग मानता था, या फिर अपनी नाम के साथ लगी
टाइटील जैसे- बजाज, चौधरी, अग्रवाल, जालान आदि लिखना बन्द कर देता था।
बात विमल जालान की ही लें कहने को हम यह कहते हैं कि ये मारवाड़ी है,
परन्तु आप उनके विचार जानेगें तो हम सब दंग रह जायेगें जबकि इनके साथ के
ही श्री मनमोहन सिंह भी हैं वे अपने आपको पंजाबी कहने में गर्व महसूस
करते हैं वहीं श्री विमल जी को यह बात मानने में बड़ा संकोच होता है।
भले ही वे आज राज्यसभा के सांसद हैं भारत के वित्त सचिव, रिजर्वबैंक के
गवर्नर भी रह चुकें हों, कुछ दिनों IMF में भी कार्य कर चुके थे। कोई
इनको पुछे कि इनको यह ओहदा दिलाने में किनकी देन थी? निश्चय ही इनके दादा
स्व. इस्वरदास जालान की । जिन्हें बंगाल में मारवाड़ी समाज के निर्धारित
विधानसभा सीट का उत्तराधिकारी बनाया गया था। और इस बात को भी स्वीकार कर
लेना चाहिये कि वे भारत सरकार के सरकारी दफ़तर में अपनी पढ़ाइ के साथ-साथ
किसी न किसी रूप से अपने दादा की पैरवी का माध्यम निश्चित तौर पे लिया
होगा। और यदि नहीं भी लिया हो तो क्या, इनके दादा की जीवनी का एक हिस्सा
मैंने इससे पहले ही जारी किया था, उसमें वे लिखते हैं कि "हमलोगों की
कपड़े की दुकान थी" अर्थात इनका परिवार एक व्यापारी तो था ही, मारवाड़ी
कौम का भी था।
भले ही ये बात सहई है कि इनको जाति सूचक शब्दों से नफरत है, यह अच्छी बात
है, परन्तु जिस कौम में इनकी पैदाइस हुई हो, उस कौम के कार्यक्रमों में
जाने में इनको हिचक होती हो तो, यह इनका दोष नहीं है, यह बात केवल इतनी
सी ही है कि मारवाड़ी शब्द के पीछे लगा वह बदनुमा दाग कहीं न कहीं इनको
भीतर ही भीतर कचोटता जरूर होगा। अगले लेख में इस बात की ओर गहराई तक जाने
का प्रयास करूँगा।
नोटः इस लेख में किसी व्यक्ति विशेष को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है,
यह एक मानसिकता का प्रस्तुतिकरण सिर्फ है। समाज में श्री विमल जालान जी
जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं उन नामों में यह नाम चुनकर प्रस्तुत करने का
उद्धेश्य मात्र पाठकों को आसानी से बात समझाई जा सके।
आपके विचार आने से मुझे लिखने की प्रेरणा मिलती है, अतः आपसभी से मेरा
निवेदन है कि आप अपने विचारों से मुझे अवगत कराते रहें। - क्रमश: लेख
जारी रहेगा । शम्भु चौधरी आज दिनांक: 1.03.2008, कोलकाता।