[Sai Dham Family] 8/24/2012 07:03:00 PM

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Sunil

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Aug 24, 2012, 9:33:02 AM8/24/12
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चना लीला
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शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मसजिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा 
ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है । ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले । जब हेमाडपंत ने अपनी बाईं कुहनी सीधी की तो चने के कुछ दाने लुढ़क कर नीचे भी गिर पड़े, जो उपस्थित लोगों ने बीनकर उठाये । भक्तों को तो हास्य का विषय मिल गया और सभी आश्चर्यचकित होकर भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे, परन्तु कोई भी यह न जान सका कि ये चने के दाने वहाँ आये कहाँ से और इतने समय तक उसमें कैसे रहे । इसका संतोषप्रद उत्तर किसी के पास न था, परन्तु इस रहस्य का भेद जानने को प्रत्येक उत्सुक था । तब बाबा कहने लगे कि इन महाशय-अण्णासाहेब को एकांत में खाने की बुरी आदत है । आज बाजार का दिन है और ये चने चबाते हुए ही यहाँ आये है । मैं तो इनकी आदतों से भली भाँति परिचित हूँ और ये चने मेरे कथन की सत्यता के प्रमाणँ है । इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है । हेमाडपंत बोले कि बाबा, मुझे कभी भी एकांत में खाने की आदत नहीं है, फिर इस प्रकार मुझ पर दोशारोपण क्यों करते है । अभी तक मैंने शिरडी के बाजार के दर्शन भी नहीं किये तथा आज के दिन तो मैं भूल कर भी बाजार नहीं गया । फिर आप ही बताइये कि मैं ये चने भला कैसे खरीदता और जब मैंने खरीदे ही नही, तब उनके खाने की बात तो दूर की ही है । भोजन के समय भी जो मेरे निकट होते है, उन्हें उनका उचित भाग दिये बिना मैं कभी ग्रहण नहीं करता । बाबा-तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है । अच्छा, बताओ, क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है । क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ । फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।


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Posted By Sunil to Sai Dham Family at 8/24/2012 07:03:00 PM

Sunil

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Aug 24, 2012, 9:33:24 AM8/24/12
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बाबा की भक्त-परायणता
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि माँ । कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी । वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो 
उन्हें रोके । उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगोंका समुदाय हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सद्भभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे । भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Sunil

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Aug 24, 2012, 9:33:55 AM8/24/12
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ॐ सांई राम
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि मैं
फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्वार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फिर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना
 ही क्या हैं । परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे । इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिनके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल साई साई का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ ।
 
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