An easy to write, teach and learn ligature free Hindi.
एक समय था जब महात्मा गांधी और विनोबा भावे जैसे स्वतंत्रता सेनानी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी और राष्ट्रीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे। यहाँ तक कि शहीदे आज़म भगत सिंह ने भी अपनी मातृभाषा पंजाबी के लिए गुरुमुखी के बजाए वैज्ञानिकता के चलते देवनागरी को अपनाने की बात कही थी। उनका प्रयास था कि देश के जिन हिस्सों में देनवागरी प्रचलित नहीं हैं वहाँ भी जन-जन तक देवनागरी लिपि पहुंचाई जाए। इसलिए महात्मा गांधी व विनोबा भावे द्वारा हिंदी के साथ-साथ देवनागरी लिपि के लिए अनेक संस्थाएँ खड़ी की थी।
लेकिन जिस प्रकार की नीतियाँ अपनाई गई उसके चलते परिणाम उद्देश्य के विपरीत आते रहे। आगे बढ़ने के बजाए हम पीछे की ओर बढ़ते गए। इसके कारणों की मिमांसा अलग से की जा सकती है।अब स्थित यह है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी देवनागरी की जगह रोमन लिपि लेती जा रही है । पहले जिन क्षेत्रों में देवनागरी लिपि प्रचलित नहीं थी, वहाँ देवनागरी लिपि को बढ़ाने की बात थी। अब देवनागरी लिपि को बचाने की स्थिति आ गई है। सिनेमा मेरा मतलब है कि हिंदी की खानेवाला और हिंदी की बजानेवाला हिंदी सिनेमा, जहाँ एक अर्से से कलाकार हिंदी बोलने में शर्म अनुभव करते थे, अब वे देवनागरी लिपि को अलविदा कह चुके हैं। हिंदी के पटकथा लेखक भले ही देवनागरी लिपि को पसंद करते हों, हिंदी सिनेमा के कलाकारों की अंग्रेजियत के चलते पटकथा , संवाद आदि रोमन लिपि में लिखते हैं। अगर हिंदी में बात करें और देवनागरी में पढ़ें तो अंग्रेजियत का मुलम्मा न उतर जाएगा।
इस समय देवनागरी लिपि के सामने गंभीर चुनौतियां है। अगर यूँ कहा जाए कि देवनागरी लिपि के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो रहा है तो अनुचित न होगा। किसी भी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं की अपनी भाषा को बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है। अभिव्यक्ति के लिए नए शब्द, शैली, प्रयोग आदि के माध्यम से भाषा आगे बढ़ती है।लेकिन हिंदी में तो ऐसा लगता है कि पराजित भाव से हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक दिए हैं और उनके सिपाही बन कर चुन-चुन कर अपनी भाषा के जीते-जागते , चलते फिरते सशक्त शब्दों की पीठ में छुरा घोंप कर उसकी जगह अंग्रेजी शब्दों को स्थापित कर रहे हैं। यहाँ तक कि ये हिंदी के ये समाचार पत्र अब विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि और अपनी भाषा की लिपि अर्थात देवनागरी लिपि के अपदस्थ करते हुए उसके स्थान पर रोमन लिपि को स्थापित करने में जुटे हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि अपनी पत्रकारिता की अपनी भाषा के ही सिपाही निर्ममता से अपनी लिपि को भी कुचलते जा रहे हैं। हो सकता है कि उनकी पीठ पर बैठे प्रबंधन के अंग्रेजीदां सिपहसालार उन्हें ऐसा करने को विवश कर रहे हैं।
जो भी हो अंग्रेजी माध्यम की सुनामी में एक के बाद एक भाषा के शब्द, मुहावरे , लोकोक्ति, प्रयुक्ति और उसकी लिपि बहती जा रही है। हालात तो ऐसे बनते जा रहे हैं कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी भाषियों के बच्चे देवनागरी लिपि को पढ़ने में कठिनाई महसूस करने लगे हैं। उनके लिए देवनागरी में लिखना तो और भी मुश्किल होता जा रहा है। और हाँ, इन हालात के लिए हम सब जो भले ही स्वयं को हिंदी सेवी कहते हों, हम कम जिम्मेवार नहीं, जो पत्रकार, साहित्यकार, लेखक, शिक्षक, प्रकाशक, राजभाषाकर्मी, अकादमियों के कर्णधार, कलाकार, विज्ञापन जगत के दृष्टा आदि बन कर किसी न किसी रुप में हिंदी को दुह रहे हैं। भारत को छोड़ कर ऐसा दुनिया में कहाँ होता है मुझे तो नहीं पता। तर्क भले ही जो भी दें, सच तो यह है कि जिस थाली में खा रहे हैं हम उसी में छेद बना रहे हैं।
इन खतरों और चुनौतियों से निपटने के लिए जिस प्रकार की सक्रियता और तैयारी की आवश्यकता है वह अभी दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रही। अगर सीमा पर दुश्मन आगे बढ़ रहा हो और हमारे सैनिक दुश्मन का मुकाबला करने के बजाए वहाँ देश-प्रेम के गीतों पर झूमने लगें, गीत. संगीत , कविता , कहानी सुरू कर दें तो क्या होगा ? भाषा के क्षेत्र में भाषा के हमारे सिपाही क्या कर रहे हैं ? यही तो कर रहे हैं। छोटे -छोटे गाँवों तक अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों का हमला हो चुका है । हर क्षेत्र में अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है और हम कहानी, कविता, कवि सम्मेलनों की चुटकले बाजी, हिंदी पखवाड़ों और हिंदी के नाम पर चलने वाले नाटक – नौटंकी में लगे हैं। इससे तो कुछ बचने वाला नहीं। जब हिंदी और देवनागरी लिपि न बचेंगी तो हिंदी का साहित्य, गीत-संगीत, संगीत-नाटक, आदि कैसे बचेगा ? जो हम रच रहे हैं उसे कौन पढ़ेगा?
आवश्यक है कि नागरी लिपि को आगे बढ़ाने के लिए बनी संस्थाओं सहित सभी भाषायी संस्थाएँ इसके लिए सुनियोजित ढंग से ऐसी योजनाएँ बनाए जिससे कि इन चुनौतियों का सामना किया जा सके। यह भी कि इस कार्य के लिए सक्रिय अन्य संस्थाओं का भी परस्पर सहयोग लेकर आगे ब़ढ़ा जाए। हम केवल याचक की मुद्रा में ही क्यों खड़े रहें। हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं और चैनलों को भी झिंझोड़ा जाए। संविधान के अनुच्छेद 343 के संदर्भ में सरकार को भी ऐसे दिशा निर्देश जारी करने के लिए कहा जाए कि हिंदी के समाचार पत्र-पत्रिकाएं हिंदी के लिए देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें, रोमन लिपि का नहीं। संविधान के अनुच्छेद 351 में संघ को इस संबंध में निदेश दिए गए हैं। मैंने 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में यह सुझाव भी दिया था कि प्रेस-परिषद जैसी संस्थाओं के अंतर्गत मीडिया की भाषा को नियंत्रित करने के लिए एक नियामक संस्था गठित की जाए या ऐसी ही कोई अन्य विधिक व्यवस्था की जाए ताकि अपनी भाषाओं को अंग्रेजी व रोमन लिपि की सुनामी से बचाया जा सके।
सबसे बड़ा और जरूरी काम तो शिक्षा के क्षेत्र में किया जाना है जिसे हमने निजी क्षेत्र के हाथ में है, जहाँ भारतीयों को काला अंग्रेज बनाने और भारतीयता से दूर ले जाने के लिए कड़ी मेहनत की जाती है । अंग्रेजी के इन ठिकानों से मातृभाषा, राष्ट्रभाषा , देवनागरी लिपि वगैरह के फूल तो नहीं खिलने वाले । जो बो रहे हैं वही काट रहे हैं। भाषा और लिपि का चोली-दोमन का साथ है । शिक्षा जगत में इनके बीजारोपण से ही बात बनेगी और कोई उपाय नहीं। इस कार्य के लिए उत्सवधर्मिता के बजाए गांधी और विनोबा जैसी प्रतिबद्धता चाहिए।
हम से ज्यादा बड़े हिंदी-सेवी तो वे हैं जो प्रौद्योगिकी की रोटी खा कर हिंदी व भारतीय भाषा के लिए प्रौद्योगिकी विकास करते हुए इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में हिंदी की लिपि यानी नागरी लिपि को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के शिक्षअ के लिए पर्ौद्योगिकी विकसित कर रहे हैं । मशीनी अनुवाद पर कार्य कर रहे हैं। देश का काम हिंदी सहित देश की भाषाओं में हो सके इसके लिए विभिन्न कार्यों के लिए बनाई गई प्रणालियों में आवश्यक व्यवस्थाएँ कर रहे हैं। ऐसे प्रौद्योगिकीविदों को नमन।
यदि लिपि रूपी नींव खिसकी तो जर्जर होती जा रही भाषा की इमारत ढहते भी देर न लगेगी। देवनागरी लिपि के सामने उत्पन्न चुनोतियाँ गंभीर भी हैं और जटिल भी । समय रहते अब भी अगर हम न जागे तो बचाने को कुछ न होगा। आने वाला इतिहास हमसे सवाल तो पूछेगा कि विश्व की श्रेष्ठतम भाषा और लिपि को बचाने के बजाए आक्रमक विदेशी भाषा की दासता को स्वीकारने वाले वे कौन से भाषाई सिपाही थे, स्वार्थ सिद्धि या कायरता के चलते जिन्होंने अपनी भाषा -लिपि की दीवार को गिरने दिया। जिससे कारण इस देश की समृद्ध संस्कृति, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान सब नष्ट हो गया।
डॉ मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
वैश्विक हिंदी सम्मेलन।
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एक समय था जब महात्मा गाॅधी और वीनोबा भावे जैसे स्वतन्त्रता सेनानी राष्ट्रीय एकता की दृष्टी से राष्ट्रभाषा के रुप मॅ हीन्दी और राष्ट्रीय लीपी के रुप मॅ देवनागरी लीपी को स्थापीत करने के लीए प्रयासरत थे.यहॉ तक की शहीदे आजम भगत सीन्ह ने भी अपनी मातृभाषा पन्जाबी के लीए गुरुमुखी के बजाए वैज्ञानीकता के चलते देवनागरी को अपनाने की बात कही थी.उनका प्रयास था की देश के जीन हीस्सॉ मॅ देनवागरी प्रचलीत नही है वहॉ भी जन-जन तक देवनागरी लीपी पहुन्चाई जाए.इसलीए महात्मा गाॅधी व वीनोबा भावे द्वारा हीन्दी के साथ-साथ देवनागरी लीपी के लीए अनेक सन्स्थाऍ खडी की थी.
लेकीन जीस प्रकार की नीतीयॉ अपनाई गई उसके चलते परीणाम उद्देश्य के वीपरीत आते रहे.आगे बढने के बजाए हम पीछे की ओर बढते गए.इसके कारणॉ की मीमाॅसा अलग से की जा सकती है.अब स्थीत यह है की हीन्दी भाषी क्षेत्रॉ मॅ भी देवनागरी की जगह रोमन लीपी लेती जा रही है .पहले जीन क्षेत्रॉ मॅ देवनागरी लीपी प्रचलीत नही थी, वहॉ देवनागरी लीपी को बढाने की बात थी.अब देवनागरी लीपी को बचाने की स्थीती आ गई है. सीनेमा मेरा मतलब है की हीन्दी की खानेवाला और हीन्दी की बजानेवाला हीन्दी सीनेमा, जहॉ एक अर्से से कलाकार हीन्दी बोलने मॅ शर्म अनुभव करते थे, अब वे देवनागरी लीपी को अलवीदा कह चुके है.हीन्दी के पटकथा लेखक भले ही देवनागरी लीपी को पसन्द करते हॉ, हीन्दी सीनेमा के कलाकारॉ की अन्ग्रेजीयत के चलते पटकथा , सन्वाद आदी रोमन लीपी मॅ लीखते है.अगर हीन्दी मॅ बात करॅ और देवनागरी मॅ पढॅ तो अन्ग्रेजीयत का मुलम्मा न उतर जाएगा.
इस समय देवनागरी लीपी के सामने गन्भीर चुनौतीयाॅ है.अगर युन् कहा जाए की देवनागरी लीपी के अस्तीत्व को खतरा उत्पन्न हो रहा है तो अनुचीत न होगा.कीसी भी भाषा की पत्र-पत्रीकाऑ की अपनी भाषा को बढाने की जीम्मेदारी होती है.अभीव्यक्ती के लीए नए शब्द, शैली, प्रयोग आदी के माध्यम से भाषा आगे बढती है.लेकीन हीन्दी मॅ तो ऐसा लगता है की पराजीत भाव से हीन्दी पत्रकारीता ने अन्ग्रेजी के साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक दीए है और उनके सीपाही बन कर चुन-चुन कर अपनी भाषा के जीते-जागते , चलते फीरते सशक्त शब्दॉ की पीठ मॅ छुरा घॉप कर उसकी जगह अन्ग्रेजी शब्दॉ को स्थापीत कर रहे है.यहॉ तक की ये हीन्दी के ये समाचार पत्र अब वीश्व की सर्वाधीक वैज्ञानीक लीपी और अपनी भाषा की लीपी अर्थात देवनागरी लीपी के अपदस्थ करते हुए उसके स्थान पर रोमन लीपी को स्थापीत करने मॅ जुटे है.ऐसा भी कह सकते है की अपनी पत्रकारीता की अपनी भाषा के ही सीपाही नीर्ममता से अपनी लीपी को भी कुचलते जा रहे है.हो सकता है की उनकी पीठ पर बैठे प्रबन्धन के अन्ग्रेजीदाॅ सीपहसालार उन्हॅ ऐसा करने को वीवश कर रहे है.
जो भी हो अन्ग्रेजी माध्यम की सुनामी मॅ एक के बाद एक भाषा के शब्द, मुहावरे , लोकोक्ती, प्रयुक्ती और उसकी लीपी बहती जा रही है.हालात तो ऐसे बनते जा रहे है की हीन्दी भाषी क्षेत्रॉ मॅ भी हीन्दी भाषीयॉ के बच्चे देवनागरी लीपी को पढने मॅ कठीनाई महसुस करने लगे है.उनके लीए देवनागरी मॅ लीखना तो और भी मुश्कील होता जा रहा है.और हॉ, इन हालात के लीए हम सब जो भले ही स्वयन् को हीन्दी सेवी कहते हॉ, हम कम जीम्मेवार नही, जो पत्रकार, साहीत्यकार, लेखक, शीक्षक, प्रकाशक, राजभाषाकर्मी, अकादमीयॉ के कर्णधार, कलाकार, वीज्ञापन जगत के दृष्टा आदी बन कर कीसी न कीसी रुप मॅ हीन्दी को दुह रहे है.भारत को छोड कर ऐसा दुनीया मॅ कहॉ होता है मुझे तो नही पता. तर्क भले ही जो भी दॅ, सच तो यह है की जीस थाली मॅ खा रहे है हम उसी मॅ छेद बना रहे है.
इन खतरॉ और चुनौतीयॉ से नीपटने के लीए जीस प्रकार की सक्रीयता और तैयारी की आवश्यकता है वह अभी दुर-दुर तक कही दीखाई नही दे रही.अगर सीमा पर दुश्मन आगे बढ रहा हो और हमारे सैनीक दुश्मन का मुकाबला करने के बजाए वहॉ देश-प्रेम के गीतॉ पर झुमने लगॅ, गीत. सन्गीत , कवीता , कहानी सुरु कर दॅ तो क्या होगा ? भाषा के क्षेत्र मॅ भाषा के हमारे सीपाही क्या कर रहे है ? यही तो कर रहे है.छोटे -छोटे गॉवॉ तक अन्ग्रेजी माध्यम के वीद्यालयॉ का हमला हो चुका है .हर क्षेत्र मॅ अन्ग्रेजी का साम्राज्य स्थापीत होता जा रहा है और हम कहानी, कवीता, कवी सम्मेलनॉ की चुटकले बाजी, हीन्दी पखवाडॉ और हीन्दी के नाम पर चलने वाले नाटक – नौटन्की मॅ लगे है.इससे तो कुछ बचने वाला नही. जब हीन्दी और देवनागरी लीपी न बचॅगी तो हीन्दी का साहीत्य, गीत-सन्गीत, सन्गीत-नाटक, आदी कैसे बचेगा ? जो हम रच रहे है उसे कौन पढेगा?
आवश्यक है की नागरी लीपी को आगे बढाने के लीए बनी सन्स्थाऑ सहीत सभी भाषायी सन्स्थाऍ इसके लीए सुनीयोजीत ढन्ग से ऐसी योजनाऍ बनाए जीससे की इन चुनौतीयॉ का सामना कीया जा सके.यह भी की इस कार्य के लीए सक्रीय अन्य सन्स्थाऑ का भी परस्पर सहयोग लेकर आगे बढा जाए.हम केवल याचक की मुद्रा मॅ ही क्यॉ खडे रहॅ. हीन्दी के पत्र-पत्रीकाऑ और चैनलॉ को भी झीन्झोडा जाए.सन्वीधान के अनुच्छेद 343 के सन्दर्भ मॅ सरकार को भी ऐसे दीशा नीर्देश जारी करने के लीए कहा जाए की हीन्दी के समाचार पत्र-पत्रीकाऍ हीन्दी के लीए देवनागरी लीपी का ही प्रयोग करॅ, रोमन लीपी का नही.सन्वीधान के अनुच्छेद 351 मॅ सन्घ को इस सन्बन्ध मॅ नीदेश दीए गए है.मैने 11वॅ वीश्व हीन्दी सम्मेलन मॅ यह सुझाव भी दीया था की प्रेस-परीषद जैसी सन्स्थाऑ के अन्तर्गत मीडीया की भाषा को नीयन्त्रीत करने के लीए एक नीयामक सन्स्था गठीत की जाए या ऐसी ही कोई अन्य वीधीक व्यवस्था की जाए ताकी अपनी भाषाऑ को अन्ग्रेजी व रोमन लीपी की सुनामी से बचाया जा सके.
सबसे बडा और जरुरी काम तो शीक्षा के क्षेत्र मॅ कीया जाना है जीसे हमने नीजी क्षेत्र के हाथ मॅ है, जहॉ भारतीयॉ को काला अन्ग्रेज बनाने और भारतीयता से दुर ले जाने के लीए कडी मेहनत की जाती है .अन्ग्रेजी के इन ठीकानॉ से मातृभाषा, राष्ट्रभाषा , देवनागरी लीपी वगैरह के फुल तो नही खीलने वाले .जो बो रहे है वही काट रहे है.भाषा और लीपी का चोली-दोमन का साथ है .शीक्षा जगत मॅ इनके बीजारोपण से ही बात बनेगी और कोई उपाय नही.इस कार्य के लीए उत्सवधर्मीता के बजाए गाॅधी और वीनोबा जैसी प्रतीबद्धता चाहीए.
हम से ज्यादा बडे हीन्दी-सेवी तो वे है जो प्रौद्योगीकी की रोटी खा कर हीन्दी व भारतीय भाषा के लीए प्रौद्योगीकी वीकास करते हुए इन्टरनेट और सोशल मीडीया के युग मॅ हीन्दी की लीपी यानी नागरी लीपी को बचाने मॅ महत्वपुर्ण भुमीका नीभा रहे है.हीन्दी व अन्य भारतीय भाषाऑ के शीक्षअ के लीए प्रौद्योगीकी वीकसीत कर रहे है .मशीनी अनुवाद पर कार्य कर रहे है.देश का काम हीन्दी सहीत देश की भाषाऑ मॅ हो सके इसके लीए वीभीन्न कार्यॉ के लीए बनाई गई प्रणालीयॉ मॅ आवश्यक व्यवस्थाऍ कर रहे है.ऐसे प्रौद्योगीकीवीदॉ को नमन.
यदी लीपी रुपी नीव खीसकी तो जर्जर होती जा रही भाषा की इमारत ढहते भी देर न लगेगी. देवनागरी लीपी के सामने उत्पन्न चुनोतीयॉ गन्भीर भी है और जटील भी .समय रहते अब भी अगर हम न जागे तो बचाने को कुछ न होगा.आने वाला इतीहास हमसे सवाल तो पुछेगा की वीश्व की श्रेष्ठतम भाषा और लीपी को बचाने के बजाए आक्रमक वीदेशी भाषा की दासता को स्वीकारने वाले वे कौन से भाषाई सीपाही थे, स्वार्थ सीद्धी या कायरता के चलते जीन्हॉने अपनी भाषा -लीपी की दीवार को गीरने दीया.जीससे कारण इस देश की समृद्ध सन्स्कृती, साहीत्य, ज्ञान-वीज्ञान सब नष्ट हो गया.
डॉ मोतीलाल गुप्ता ‘आदीत्य’