बेहिसाब ज़ख़्म (गीत)

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Jan 31, 2014, 2:34:44 AM1/31/14
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बेहिसाब ज़ख़्म (गीत)

दिए थे कभी, जो बेहिसाब  मैंने, तुने ।
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।

अन्तरा-१.

इश्क  है   बेमानी,  लहु  हो  गया  पानी ?
देख, कितना  बहाया  आब  मैंने, तुने..!
रखा  न  ज़ख़्मों का  हिसाब  मैंने, तुने ।

अन्तरा-२.

तयशुदा सफ़र, तय हमसफ़र,या ख़ुदा..!
रब का भी  किया न लिहाज़ मैंने, तुने ?
रखा  न  ज़ख़्मों का  हिसाब  मैंने, तुने ।

अन्तरा-३.

तशनगी  है  सुबह, आग उगलती शाम..!
कहा अभी,दिल है बहुत उदास,मैंने, तुने ।
रखा  न  ज़ख़्मों का  हिसाब  मैंने, तुने ।

तशनगी=प्यास.

अन्तरा-४.

जरा-जरा, हरा-भरा, इक सा  मिलाजुला..!
हाँ, पहना तो है, वही  लिबास  मैंने, तुने ।
रखा  न  ज़ख़्मों का  हिसाब  मैंने, तुने ।

मार्कण्ड दवे । दिनांकः ३०-०१-२०१४.


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