mukesh kumar
unread,Dec 14, 2012, 12:13:17 AM12/14/12Sign in to reply to author
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to jeevan-vidya, anisha madan, Amit Dhingiya, Balmukund Meena, Umesh Kumar Mahilani, pawan del jv, Priyank Gupta, Anurag Sahay, Fakhra Siddiqui, Ramakant Sidar, pbadh...@gmail.com
(1) भ्रमित-अवस्था में कल्पनाशीलता आशा, विचार, और इच्छा की "अस्पष्ट गति" है। हर
मनुष्य में प्रकृति-प्रदत्त विधि से कल्पनाशीलता है। अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग
करने का हर व्यक्ति के पास अधिकार है। इस कल्पनाशीलता का प्रयोजन है -
तदाकार-तद्रूप विधि से अनुभव-प्रतिष्ठा को पाना। कल्पनाशीलता संज्ञानीयता में
गुणात्मक-परिवर्तन होने के लिए बीज-रूप है। कल्पनाशीलता ही गुणात्मक-परिवर्तन
पूर्वक अनुभव-प्रमाण संपन्न होती है। "हर मनुष्य के पास कल्पनाशीलता है।" - यदि यह
निर्णय नहीं निकलता है तो मनुष्य को अध्ययन कराने का कोई रास्ता ही नहीं
है।
प्रश्न: "तदाकार-तद्रूप" से क्या आशय
है?
उत्तर: "तद" शब्द सच्चाई को इंगित करता है। सच्चाई के स्वरूप
में कल्पनाशीलता हो जाना ही 'तदाकार-तद्रूप' है। अनुभव-प्रमाण जीवन स्वरूप में
समाहित हो जाना तदाकार-तद्रूप है। यह अध्ययन विधि से होता है।
(2) अध्ययन
विधि से क्रमशः जागृति के लिए "सच्चाइयों का साक्षात्कार" होता है। साक्षात्कार
आशा-विचार-इच्छा की "स्पष्ट गति" है। साक्षात्कार-क्रम में जीव-चेतना से छूटने की
स्वीकृति और मानव-चेतना को पाने की स्वीकृति दोनों रहता है। अध्ययन-विधि में क्रम
से वास्तविकताएं साक्षात्कार हो कर बोध होती हैं। पहले सह-अस्तित्व साक्षात्कार
होना, फ़िर सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति साक्षात्कार
होकर बोध होना। बोध पूर्ण होने के फलस्वरूप आत्मा में अनुभव होता
है।
रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म का साक्षात्कार होता है। इसमें
से स्वभाव और धर्म का बोध होता है। बोध पूर्ण होने पर धर्म का अनुभव होता है। इस
तरह "संक्षिप्त" हो कर अनुभव होता है।
प्रश्न: मुझे किसी वास्तविकता
का साक्षात्कार हुआ है या नहीं - इसका मुझे कब पता चलेगा?
उत्तर:
अनुभव के बाद ही पता चलेगा। उससे पहले पता नहीं चलता। अनुभव के बाद स्वयं को
प्रमाणित कर पाते हैं - तो मतलब साक्षात्कार हुआ है, नहीं तो नहीं
हुआ।
प्रश्न: "मूल्यों का साक्षात्कार" से क्या आशय
है?
उत्तर: सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम और जागृति के अध्ययन में
"मूल्य" (जैसे - विश्वास, सम्मान, कृतज्ञता, आदि) शामिल हैं। अध्ययन करने वाले को
मूल्यों की सूचना स्वीकार हो जाता है। स्वीकार नही होता है तो अध्ययन का क्या मतलब
हुआ? अध्ययन पूर्वक वह अनुभव में बीज रूप में अवस्थित हो जाता है। अनुभव को जीने
में अभिव्यक्त/प्रकाशित करने जब जाते हैं, तो मूल्य गिनने में आ जाते
हैं।
(३) अनुभव की रोशनी में अध्ययन होता है। अध्ययन विधि में - "अनुभव की
रोशनी" अध्ययन कराने वाले के पास रहता है। गुरु की प्रेरणा ही अनुभव की रोशनी है।
"गुरु" का मतलब ही है - अध्ययन कराने वाला। "जिज्ञासा" अध्ययन करने वाले (शिष्य) के
पास रहता है। शिष्य "अनुभव की रोशनी" पर विश्वास करता है। इसका मतलब - शिष्य गुरु
के अनुभव-संपन्न होने पर विश्वास करता है। अध्ययन करने वाला अनुभव की रोशनी में
कल्पनाशीलता के प्रयोग से वास्तविकताओं को पहचानता है। अध्ययन करने वाला प्रभावित
होता है। अध्ययन कराने वाला प्रभावित करता है। अध्ययन कराने वाला (अनुभव मूलक विधि
से) चिंतन पूर्वक अध्ययन कराता है। अध्ययन करने वाला (अनुभवगामी विधि से)
साक्षात्कार करता है। अध्ययन पूर्ण होने के बाद अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने
वाले में समानता हो जाती है।
अध्ययन व्यक्ति में, से, के लिए
होते हुए भी व्यक्तिवादिता नहीं है। मौन होना अध्ययन नहीं है। अध्ययन जागृत व्यक्ति
के साथ "सार्थक संवाद" पूर्वक होता है।
(४) "संक्षिप्त" हो कर अनुभव होता
है। जो "विस्तृत" हो कर फैलता है। अनुभव पूर्वक कल्पनाशीलता अनुभव-मूलक हो ही जाती
है। इसके आधार पर अनुभव का विस्तार हो जाता है। अनुभव में बीज रूप बनने के बाद वह
सर्व-देश और सर्व-काल में जीवन के प्रमाणित होने का स्त्रोत बन जाता है। इस तरह
"अनुभव की रोशनी" में हर बात को स्पष्ट करने का अधिकार बन जाता है।
(५)
सह-अस्तित्व में व्यापक स्वरूप में सत्ता और चार अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकृति
समाहित है। चारों अवस्थाओं के साथ मानव सह-अस्तित्व को कैसे प्रमाणित करे, इसके लिए
मानव को "अनुभव" की ज़रूरत आयी। नहीं तो अनुभव की ज़रूरत ही नहीं थी। सह-अस्तित्व
में प्रमाणित होने के लिए ही हमको अनुभव की आवश्यकता है। अनुभव स्थिति में "सूत्र"
है, जीने में "व्याख्या" है।
प्रश्न: आप कहते हैं - "समझ के करो!"
हम जब इस प्रस्ताव को "समझने" के क्रम में हैं, उस दौरान अपने "करने" का क्या किया
जाए?
उत्तर: अनुभव के लिए समझना है। अनुभव के बाद "समझ के करना" ही
होता है। "समझने" की अन्तिम-बात अनुभव में है। अनुभव से कम दाम में किसी भी मुद्दे
में संतुष्टि नहीं होता - न किसी सम्बन्ध में, न मूल्यों में, न लेन-देन में। तब तक
"करने" के लिए बताया है - अनुकरण। अपने जीने के डिजाईन में अनुकरण विधि से आप
परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ। आप उसको अनुकरण कर
सकते हैं। यदि ऐसा कर पाते हैं, तो अपने लिए काफी सहूलियत हो गयी। हर दिन अपने
वातावरण में कमियों के प्रति शर्मिंदा होने के स्थान पर आगे अनुभव के लिए हम
प्रयत्न कर सकते हैं। ऐसा अनुकरण अध्ययन के लिए सहायक है।
- बाबा श्री
नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
ऊपर लिखे लेख में, इस अंतिम पैरा, में 'करने की बात' में अनुकरण पर बाबाजी ध्यान दिलाया है
ये अभी की स्थिति में परिभाषित किया है ऐसा समझ में आता है
मैंने इसे अपनी journey में जब विद्या से परिचित हुए , 'काम' का प्रश्न काफी प्रभावित करता था -
पर जैसा बाबाजी ने इसे अध्ययन से जोड़ा और इसकी वर्तमान में समीक्षा की वो अभी काफी संतोष जनक लगता है
सर्व शुभ कामना
मुकेश
दिल्ली