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18.9.19/ राष्ट्रीय सहारा
जोर का प्रहार, हो धीरे से द मनीषा
ऐसा शायद पहली बार हुआ हो, जब महापुरु षों के साथ महामहिलाओं को भी सम्मानित नजरिये से देखने पर विचार किया किया जा रहा हो। अव्वल तो यह किसी बेहद संवेदनशील सोच का नतीजा है। वरना अपने यहां इस तरह का विचार करने की जरूरत ही नहीं देखी जाती। पूरे के पूरे दल पुरु षों के वर्चस्व से भरे नजर आते हैं।
लैंगिक विभेद के मामले में हम अभी भी बहुत पिछड़े हुए हैं। हमारी सोच के
दायरे बेहद संकीर्ण हैं। ये अपनी सहूलियत से तर्क गढते हैं। गुजरात से आ
रही खबरों के अनुसार, वहां स्कूलों को लिंगभेदमुक्त माहौल संबधी परिपत्र
जारी किया गया है। इसमें कक्षा व परिसर में महापुरु षों और महान महिलाओं की
तस्वीरें लगाने में समान अनुपात सुनिश्चित करने की ताकीद की गयी है। समग्र
शिक्षा अभियान की तरफ से जारी 28 बिन्दुओं में यह बात भी शामिल है। ऐसा
शायद पहली बार हुआ हो, जब महापुरु षों के साथ महामहिलाओं को भी सम्मानित
नजरिये से देखने पर विचार किया किया जा रहा हो। अव्वल तो यह किसी बेहद
संवेदनशील सोच का नतीजा है। वरना अपने यहां इस तरह का विचार करने की जरूरत
ही नहीं देखी जाती। पूरे के पूरे दल पुरु षों के वर्चस्व से भरे नजर आते
हैं। लड़कियों के लिए स्कर्ट और लड़कों को निकर यूनीफार्म तय करने वाले
स्कूली सिस्टम को बदलना बहुत टेढी खीर है। शिक्षकों के ब्रेनवॉश के बिना यह
लगभग असंभव ही है। इस परिपत्र में सलाह दी है कि मासिक चक्र की समझ
छात्रों की माजूदगी में छात्राओं को दी जाए। यह मुश्किल ही नहीं,
असुविधाजनक भी हो सकता है। इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। आजकल सेनेटरी
नैपकिन का विज्ञापन आना शुरू हुआ है, जिसमें पिता अपनी बेटी को माहवारी में
इसके इस्तेमाल की सलाह देता नजर आ रहा है। हम खुद को कितना भी आधुनिक कह
लें, मगर हकीकत में अभी तो माताएं, बड़ी बहनें या भाभियां ही बेहद संकोच के
साथ मासिकचक्र की अधकचरी जानकारी देती है। साथ ही यह हिदायत भी दी जाती है
कि परिवार में किसी को इसकी भनक तक ना लगने पाये। शिक्षक कक्षा में उदाहरण
देते वक्त लैंगिक भेदभाव ना करें। सवाल पूछने का छात्र-छात्राओं को बराबर
अवसर दें। सवाल पूछने की शैली में भी भेदभाव ना झलके। यह भी कि प्रार्थना
सभा में लैंगिक पूर्वाग्रह मुक्त बैठक सामिल हो, उपकरण, वाद्य बजाने, गायन
आदि में समान अवसर दिये जाएं। यह सब जान कर सहज ही विास करना मुश्किल होता
है। अभी तो महानगरों में इस तरह की व्यवस्था नहीं है। शिक्षामंत्रालय की
कान में कभी इस संबंध में जूं तक नहीं रेंगी। सरकारों ने लैंगिक विभेद
मिटाने संबंधी कानून बनाने में कभी रुचि ही नहीं ली। कुछ चीजें विचारणीय
होने के बावजूद उपेक्षित ही रह जाती हैं। उनमें लैंगिक विभेद सर्वोच्च हैं।
मासिक चक्र जैसी बातें करने में अभी तो शिक्षिकाएं ही हिचकती हैं। हमने
गोपन के नाम पर ढेरों प्राकृतिक चीजों को वीभत्स होने तक बिगड़ने दिया है।
उनके सुधार या पूर्वाग्रहों को लेकर अब तक चेतना नहीं जागी है। लड़कियों को
होम साइंस और लड़कों को गणित पढाने की जिद अभी अटकी ही हुई है। महानगरीय
स्कूलों में क्रि केट केवल लड़कों के लिए सुरक्षित है। यहां तक की बैडमिंटन
लड़कियां खेलेंगी। फुटबाल लड़के, बॉलीबाल लड़कियां। इस तरह खेलों का
लैंगिक बंटवारा किया गया है। महिला कोच मिलते नहीं। स्कूलों में
स्पोर्टस/एनसीसी के टीचर अभी भी पुरु ष ही बनाये जा रहे हैं। गाना लड़की ही
गायेगी, डांस लड़कियों के हिस्से आता है। प्रयोगशाला में बराबर बंटवारा,
मध्यान भोजन, प्रसाधन, खेलकूद, समान अवसर देने की बात यहां की गयी है। जो
देश भर कभी लागू ही नहीं रहा। यह तो है स्कूलों की बात, हैरत होती है यह
जानकर कि 50 फीसदी महिला पुलिसकर्मी मानती हैं कि उनके साथ बराबरी का सलूक
नहीं होता। देश की 20 फीसदी महिला पुलिसवालियों पर किये सव्रे से यह निकल
कर आया कि चार में से एक पुलिसवाले को लगता है कि महिला पुलिसकर्मी मेहनती
नहीं होती। इतना ही नहीं, वे अकुशल होती हैं, उन्हें घरेलू काम ही करने
चाहिए, ऐसा पुरु ष पुलिसवालों का मानना है। उन्हें इनहाउस काम, जैसे
रजिस्टर, फाइलें संभालने और डेटा खोजने जैसे कामों में लगाया जाता है।
जाहिर है, यह सोच लगभग हर प्रोफेसन में नासूर की तरह हावी है। पुरु ष
सहयोगी मानते हैं कि स्त्रियां ढंग से काम नहीं करतीं। उनमें प्रतिभा की
कमी होती है। वे मेहनत करने में पिछड़ जाती है। ऊंचे ओहदों पर आने वाली नयी
लड़कियों को लगभग हर क्षेत्र में यह भेदभाव किरकिरी की तरह चुभता है। चार
में से एक महिला पुलिसवाली ने माना कि उनके थाने में यौन प्रताड़ना के
मामलों की जांच करने वाली समिति नहीं है। पांच में एक ने माना कि उनके लिए
अलग से ट्वायलेट नहीं है। यह रोना तो लगभग हर क्षेत्र में व्याप्त है।
बैंकों की छोटी शाखाओं में बैंककर्मी स्त्री के लिए अलग से कोई व्यस्था
नहीं है। खासकर ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में सुविधाएं पुरु षों को देने के
साथ स्वीकर लिया जाता है कि जिम्मेदारी संपूर्ण हो गई। महिला पुलिसकर्मी
देश में महज 7.28 हैं। जबकि सरकार द्वारा तय किया गया है कि हर राज्य में
इनकी संख्या 33 फीसदी होनी चाहिए। सबसे अधिक महिला पुलिसकर्मी तमिलनाडु में
(12.9 फीसद) हैं। पुलिसकर्मियों की संख्या में इजाफा करने के साथ ही यह तय
करना चाहिए कि वे अपने काम के प्रति जुनून रखने वाली साबित हों। यह कहना
अनुचित नहीं है कि अभी ढेरों औरतें अपने पद से न्याय करने में अक्षम रहती
हैं। उन्हें ओहदे के अनुरुप बर्ताव करना सीखना होगा, ताकि उन पर किसी तरह
की कोई आंच ना आने पाये। लड़कियों को पालने में परिवार विभेद को इस कदर
ठूंस-ठूंस कर भरने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। वे अपने घरों के लड़कों के
आगे बार-बार लैंगिक विभेद के उदाहरण पेश करते हैं। उनकी बातचीत, अंदाज और
सोच में स्त्री को कमजोर, असहाय और मजलूम जताया जाता है। यह सोच स्त्री के
मन में गहरे पैठ जाती है। अनजाने ही वह खुद को लाचार व आश्रित महसूसने लगती
है। अमुक काम वह नहीं कर सकती, इस विचार के साथ वह बचाव में नजर आती है।
शोध बताते हैं कि स्त्री का विलपावर व सहने की शक्ति पुरु षों के मुकाले
में बेहतर होती है। लेकिन उसे भोथरा करने में परिवार, समाज व इर्दगिर्द
वाले घिनौनी भूमिका निभाते रहते हैं। हालांकि इनमें से अमूमन लोगों को इस
बात का जरा अहसास नहीं होता। किसी धीमें जहर की तरह दस्तूरन इसे फैलाया
जाता रहता है। औरतों को कमजोर कड़ी मानने वाले ढीठ और जड़ ही नहीं हैं, ये
सब के सब मानसिक रूप से जकड़ चुके हैं। इनकी सोच को बदलना नामुमकिन है। इन
पर जोर का प्रहार धीरे से करना होगा। इन्हें आईना दिखाये बिना बात कतई नहीं
बननी।