किसी विज्ञापन की या किसी गाने में इस्तेमाल यह बात फिलवक्त़ भाजपा को मिले चुनावी झटके की बखूबी व्याख्या करती दिख रही है।
कभी चार सौ पार पाने के किए गए वादे और अब अपने बलबूते बहुमत तक हासिल करने में आयी मुश्किलें इस बात की ताईद करती है। यूँ तो तीसरी दफा ताज़पोशी हो गयी है, लेकिन इसके लिए बाकी दलों का सहारा लेना पड़ा है।
यूँ तो इस उलटफेर से भक्तों की टोली गोया बौखला गयी है और अपनी चिरपरिचित हरकत पर उतर आयी है।
सोशल मीडिया पर ऐसे पोस्टस की इन दिनों भरमार है जो अपनी भड़ास हिन्दुओं पर ही निकालते दिख रहे हैं। हिन्दु एकता की बात करने वाले तथा भारत को हिन्दु राष्ट्र घोषित करने के लिए बेचैन रहे रथियों-महारथियांे के उद्धरण भी जगह जगह चस्पां करके इसी बात को रेखांकित किया जा रहा है कि ‘अन्य’ आसानी से एकता बना लेते हैं, मगर हिन्दु कभी एक नहीं हो पाते और इसी वजह से वह सदियों से ‘गुलाम बने हुए हैं’।'
अयोध्या के आम लोग निशाने पर
गौरतलब है कि अयोध्या के आम नागरिक - वही नगर जिसे वह हिन्दु राष्ट्र की अघोषित राजधानी बनाना चाहते थे - खासकर वहां के हिन्दु इस हमले का आसान शिकार हुए हैं, उन्हें ‘गददार’ कहा जा रहा है, और तरह तरह के अन्य लांछन उन पर लगाए जा रहे हैं। वजह साफ है कि उन्होंने इन चुनावों में भाजपा के प्रत्याशी को - जो पिछले दो बार से वहां सांसद चुने गए थे - पचास हजार वोटों से हराया है। गौरतलब है कि इस सामान्य सीट से उन्होंने समाजवादी पार्टी से जुडे़, इंडिया गठबंधन के दलित तबके के प्रत्याशी को जीत दिलाई है।
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ट्रोल आर्मी और हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों से सम्ब़द्ध आई टी सेल के लोगों को यह जिम्मा सौंपा गया है। ‘राष्टद्रोही’, ‘अर्बन नक्सल’ या ‘घुसपैठियों’ के खिलाफ नफरत भरे बयानों की फैक्टरी चलाने में संलग्न यह लोग इन दिनों हिन्दुओं के उस हिस्से के खिलाफ अनापशनाप बक रहे है , जिन्होंने भावनात्मक मुददों से सम्मोहित होने के बजाय अपने जीवनयापन से जुड़े सवालों को चुनाव में अहम माना तथा उसी हिसाब से निर्णय लियां, शायद उन्हें यह बात भी अब समझ आ रही है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकते भले ही हिन्दु धर्म की दुहाई देते रहें, हिन्दुओं का एक करने की बात करते रहें, लेकिन उनका असली मकसद राजनीतिक सत्ता हासिल करने के अलावा कुछ भी नहीं है।
नफरती संदेशों को साझा करने वाले इन कारिन्दों और उनके आंकाओं के लिए आज भी यह समझना मुश्किल है कि अयोध्यावासियों ने अपनी कर्ताशक्ति/एजेंसी का प्रयोग किया और इस तरह हक़ीकत और दावों के बीच के व्यापक अंतराल को उजागर कर दिया।
हार के संकेत
यह सही है कि चार सौ पार जीतने की ऐसी हवा गोदी मीडिया के सहारे बना दी गयी थी कि खुद भाजपावाले भी उसके शिकार हुए, उन्हें यही लगने लगा था कि ‘मोदी की गारंटी’ उनकी जीत की गारंटी होगी, लेकिन हुआ बिल्कुल उलटा।
जाहिर है कि हार के चार दिन बीत जाने के बाद भी उन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि क्या किया जाए और किस तरह गलती उन्हीं की थी। सोशल मीडिया पर यह बात भी चल पड़ी है कि इस 'हार के पीछे विदेशी ताकतों की साज़िश है , जो भारत के बढ़ते गौरव से परेशान हैं '
‘‘.. दरअसल बाहरी लोगों को कभी नहीं लगा कि भाजपा यहां हार जाएगी, लेकिन स्थानीय लोग जानते थे कि इस बार भाजपा नहीं जितेगी !दरअसल अयोध्या ही नहीं पूर्वांचल में भाजपा के खिलाफ जनता के बीच गुस्से को महसूस किया जा सकता था।...भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या थी देशी विदेशी पर्यटकांे को आकर्षित करने लिए अयोध्या फैजाबाद के ‘‘सौदर्यीकरण’’ की बनी योजना। अयोध्या के तमाम लोगांे की जमीनें, मकान और दुकानंे या उनका एक हिस्सा सबकुछ सरकारी फरमान के तहत ध्वस्त किया गया और और ध्वस्तीकरण के बाद उन्हंे ठीक से मुआवज़ा भी नहीं मिला, जिसने मतदाताओं मे जबरदस्त गुस्सा पनपा। / वही/
उनके मुताबिक
‘‘इसके बारे में लोग इसलिए मौन रहे क्योंकि डर काम कर रहा था, उन्हें लगता था कि अगर वह शिकायत करेंगे तो बुलडोजर उन्हीं के घर पर आ जाएगा।’’/वही/
वैसे मकानों, दुकानों के इस ध्वस्तीकरण पर काफी कुछ लिखा गया है कि किस तरह आम निवासियों को विश्वास में लिए बिना इस काम को अंजाम दिया गया। स्थानीय निवासियों ने पत्रकारों को यह भी बताया कि ध्वस्तीकरण के पहले कुछ दुकानदारों से वायदा किया गया था कि शाॅपिंग कम्लेक्स में उन्हंे दुकान दी जाएगी, लेकिन जब सब ध्वस्त कर दिया गया और इन दुकानदारों ने दुकानों की मांग की तो उनसे काफी पैसे मांगे गए।
अंततः उन्होंने बोलना तय किया और नतीजा सभी के सामने हैै।
ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों केेे आंकाओं के हिसाब से यह सबसे अच्छी बात होती कि अयोध्या के तमाम पीड़ित जन - जो अपने मकानांें, दुकानों, अपने अपने इलाके के प्रार्थनास्थलों से वंचित कर दिए गए थे और जिन्हे आए दिन किसी न किसी वीआईपी के आगमन के नाम पर तमाम बंदिशों का सामना करना पड़ता था, उन्होंने उनकी इस स्थिति को अपनी नियति मान कर खामोशी बरती होती, भूमाफियाओं, एक असंवेदनशील और निर्मम प्रशासन/सरकार और उनके करीबी दरबारी पूंजीपतियों - अडानी आदि - की इस तिकड़ी की मनमानी को बरदाश्त किया होता, मगर संविधान ने जो उन्हें बोलने का हक़ दिया है, उसका प्रयोग उन्होंने किया तो उन्हीं पर कहर बरपा हो गया।
खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे ?
अयोध्या के आम नागरिकों पर ही नहीं बल्कि समूचे हिन्दु समाज पर किया जा रहा यह दोषारोपण एक तरह से खिसियानी बिल्ली के खंभे नोचने जैसी कवायद है।
वैसे यूपी में भाजपा की सीटें आधी से भी कम होना उनके लिए चिन्ता /बेइज्जती की बात है ही जबकि वहां डबल इंजन की सरकार चल रही है और योगी आदित्यनाथ तो शेष भारत के अन्य प्रांतों में भी प्रचार के लिए बुलाए जाते हैं।
वाराणसी जहां से मोदी तीसरी बार चुनाव लड़ रहे थे, वहां उनके वोटों में तीन लाख से अधिक की गिरावट इसी बात का संकेत देती है। कहां तो दावे किए गए थे कि दस लाख से अधिक मार्जिन से वह जीत जाएंगे और आलम यह था कि वोटों की गिनती के कई दौर में वह कांग्रेस के अजय राय से पिछड़ रहे थे।
वैसे क्या यह छोटी बात है कि इन चुनावों में मोदी मंत्रिमंडल के एक चौथाई सदस्य हार गए हैं।
जनाब मोदी या उनकी भक्त मंडली इस बात को कबूल करे या नहीं, लेकिन 2024 के चुनावों ने हिन्दुत्व एजेंडा को पंक्चर कर दिया है।
बेहद वस्तुनिष्ठ तरीके से देखने की वह कोशिश करें तो उसे पता चलेगा कि किस तरह इस चुनाव में हिन्दु मुसलमान का मसला नहीं बन सका बल्कि इसके विपरीत आम लोगों के जिन्दगी और जीवनयापन से जुड़े सवाल, महंगाई, बेरोजगारी, आवारा पशु, सामाजिक न्याय आदि ही हावी रहे। दस साल की अपनी हुकूमत की उपलब्धियों का गुणगान करने के बजाय, उन्हें जनताा के सामने प्रस्तुत करने के बजाय कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी पार्टियों के प्रति नकारात्मक बातें परोसना, जनता को नागवार गुजरा और उन्होंने इसे नकारा।
संविधान बदलने का छिपा एजेंडा ?
इन चुनावों का एक अहम मसला बना संविधान की रक्षा का, जब भाजपा के नेताओं ने अपने ही मुंह से बोलना शुरू किया कि 400 सीटें आएंगी तो वह सबसे पहले संविधान बदलेगे।
दरअसल आम लोग संघ-भाजपा के संविधान के प्रति रूख को लेकर पहले से ही आशंकित रहते आए हैं क्योंकि इतिहास बताता है कि संघ ने कभी भी तहेदिल से संविधान बनाने का समर्थन नहीं किया और यही चाहा कि मनुस्मृति को ही भारत के संविधान का दर्जा दिया जाए।
इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त नरेन्द्र मोदी, भारत के वजीरे आज़म का पद तीसरी बार संभाल चुके हैं, लेकिन इस बार हालात बदले बदले हैं, उन्हें सहयोगी दलों का साथ लेना पड़ा है।
वैसे जनाब मोदी की नैतिक हार को रेखांकित करने वाला यह चुनाव और बाद की यह स्थिति उनके लिए तथा व्यापक संघ-भाजपा परिवार के लिए कई सबक पेश करती है, अब उन्हें यह तय करना है कि वह आत्ममंथन करेंगे या किसी अन्य के माथे दोषारोपण करके इतिश्री कर लेंगे !