वृंद

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Shreenivas Naik

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Dec 13, 2016, 10:42:37 AM12/13/16
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वृन्द (१६४३-१७२३) हिन्दी के कवि थे। रीतिकालीन परम्परा के अन्तर्गत वृन्द का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके नीति के दोहे बहुत प्रसिद्ध हैं।

जीवन परिचय :-

अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृन्द का जीवन परिचय भी प्रमाणिक नहीं है। पं॰ रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् 1643 में मथुरा (उ.प्र.) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं, जबकि डॉ॰ नगेन्द्र ने मेड़ता गाँव को इनका जन्म स्थान माना है। इनका पूरा नाम 'वृन्दावनदास' था। वृन्द जाति के सेवक अथवा भोजक थे। वृन्द के पूर्वज बीकानेर के रहने वाले थे परन्तु इनके पिता रूप जी जोधपुर के राज्यान्तर्गत मेड़ते में जा बसे थे। वहीं सन् १६४३ में वृन्द का जन्म हुआ था। वृन्द की माता का नाम कौशल्या आर पत्नी का नाम नवरंगदे था। दस वर्ष की अवस्था में ये काशी आये और तारा जी नामक एक पंडित के पास रहकर वृन्द ने साहित्य, दर्शन आदि विविध विधयों का ज्ञान प्राप्त किया। काशी में इन्होंने व्याकरण, साहित्य, वेदान्त, गणित आदि का ज्ञान प्राप्त किया और काव्य रचना सीखी।

मुगल सम्राट औरंगजेब के यहाँ ये दरबारी कवि रहे। मेड़ते वापस आने पर जसवन्त सिंह के प्रयास से औरंगजेब के कृपापात्र नवाब मोहम्मद खाँ के माध्यम से वृन्द का प्रवेश शाही दरवार में हो गया़। दरबार में "पयोनिधि पर्यौ चाहे मिसिरी की पुतरी" नामक समस्या की पूर्ति करके इन्होंने औरंगजेब को प्रसन्न कर दिया। उसने वृन्द को अपने पौत्र अजी मुशशान का अध्यापक नियुक्त कर दिया। जब अजी मुशशान बंगाल का शाशक हुआ तो वृन्द उसके साथ चले गए। सन् १७०७ में किशनगढ़ के राजा राजसिंह ने अजी मुशशान से वृन्द को माँग लिया। सन् १७२३ में किशनगढ़ में ही वृन्द का देहावसान हो गया।

कृतियाँ :-

वृन्द की ग्यारह रचनाएँ प्राप्त हैं- समेत शिखर छंद, भाव पंचाशिका, शृंगार शिक्षा, पवन पचीसी, हितोपदेश सन्धि, वृन्द सतसई, वचनिका, सत्य स्वरूप, यमक सतसई, हितोपदेशाष्टक, भारत कथा, वृन्द ग्रन्थावली नाम से वृन्द की समस्त रचनाओं का एक संग्रह डॉ॰ जनार्दन राव चेले द्वारा संपादित होकर १९७१ ई० में प्रकाश में आया है।

इनके लिखे दोहे “वृन्द विनोद सतसई” में संकलित हैं। वृन्द के “बारहमासा” में बारहों महीनों का सुन्दर वर्णन है। “भाव पंचासिका” में शृंगार के विभिन्न भावों के अनुसार सरस छंद लिखे हैं। “शृंगार शिक्षा” में नायिका भेद के आधार पर आभूषण और शृंगार के साथ नायिकाओं का चित्रण है। नयन पचीसी में नेत्रों के महत्व का चित्रण है। इस रचना में दोहा, सवैया और घनाक्षरी छन्दों का प्रयोग हुआ है। पवन पचीसी में ऋतु वर्णन है।

हिन्दी में वृन्द के समान सुन्दर दोहे बहुत कम कवियों ने लिखे हैं। उनके दोहों का प्रचार शहरों से लेकर गाँवों तक में है। पवन पचीसी में "षड्ऋतु वर्णन" के अन्तर्गत वृन्द ने पवन के वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं के स्वरूप और प्रभाव का वर्णन किया है। वृन्द की रचनाएँ रीति परम्परा की हैं। उनकी “नयन पचीसी” युगीन परम्परा से जुड़ी कृति हैं। इसमे दोहा, सवैया और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग हुआ है। इन छंदो का प्रभाव पाठकों पर पड़ता है। “यमक सतसई” मे विविध प्रं कार से यमक अलंकार का स्वरूप स्पष्ट किया गया हैं। इसके अन्तर्गत 715 छंद है।

वृन्द के नीति के दोहे जन साधारण में बहुत प्रसिद्ध हैं। इन दोहों में लोक-व्यवहार के अनेक अनुकरणीय सिद्धांत हैं। वृन्द कवि की रचनाएँ रीतिबद्ध परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन्होंने सरल, सरस और विदग्ध सभी प्रकार की काव्य रचनाएँ की हैं।

हितहू की कहिये न तिहि, जो नर होय अबोध।ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाये क्रोध।।कारज धीरै होतु है, क। है होत अधीर।समय पाय तरूवर फलै, केतक सींचो नीर।।ओछे नर के पेट में, रहै न मोटी बात।आध सेर के पात्र में, कैसे सेर समात।।कहा कहौं विधि को अविधि, भूले परे प्रबीन।मूरख को सम्पति दई, पंडित सम्पतिहीन।।सरस्वति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात।।छमा खड्ग लीने रहै, खल को कहा बसाय।अगिन परी तृनरहित थल, आपहिं ते बुझि जाय।।

Shreenivas Naik

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Dec 13, 2016, 10:49:51 AM12/13/16
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(१) करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। 
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।। 
भावार्थ :- कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बाँधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार -बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार बार -बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख कर उनका जानकार हो जाता है।

(२) मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत है कोप। 
साँपहि दूध पिवाइये, वाके मुख विष ओप।। 
भावार्थ :- साँप को दूध पिलाने पर भी उसके मुख से विष ही निकलता है। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को उसके हित के वचन अर्थात उसकी भलाई की बात कही जाये, तो भी उसे क्रोध ही आता है। 

(३) उत्तम विद्या लीजिये, यदपि नीच पै होय। 
परो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।। 
भावार्थ :- अपवित्र या गन्दे स्थान पर पड़े होने पर भी सोने को कोई नहीं छोड़ता है। उसी प्रकार विद्या या ज्ञान चाहे नीच व्यक्ति के पास हो, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। 

(४) अपनी पँहुच विचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर।। 
भावार्थ :- व्यक्ति के पास ओढने के लिए जितनी लम्बी कम्बल हो, उतने ही लम्बे पैर पसारने चाहिए। इसी प्रकार उसे अपने उपलब्ध साधनों के अनुरूप ही अपना कारोबार फैलाना चाहिए। 

(५) उद्यम कबहुँ न छोड़िये, पर आसा के मोद। 
गागरि कैसे फोरिये, उनियो देखि पयोद। 
भावार्थ :- कवि वृन्द कहते हैं कि बादलों को उमड़ा हुआ देख कर हमें अपने घड़े ( मिट्टी का बर्तन जिसे पानी भरने के लिए काम में लिया जाता है ) को नहीं फोड़ना चाहिये। इसी प्रकार दूसरे लोगों से कुछ प्राप्त हो जायेगा इस आशा में हमें अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ना चाहिये। 

(६) भले- बुरे सब एक से, जौ लौं बोलत नाहिं। 
जान परंतु है काक-पिक, रितु बसंत का माहिं।।
भावार्थ :-  जब तक कोई व्यक्ति बोलता नहीं है, तब तक उसके भले या बुरे होने का पता नहीं चलता है। जब वह बोलता है तब ज्ञात होता कि वह भला है या बुरा है। जैसे वसंत ऋतु आने पर जब कौवा और कोयल बोलते हैं, तब उनकी कडुवी और मीठी वाणी से ज्ञात हो जाता कि कौन बुरा है और कौन भला है।

(७) जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत। 
कोकिल अबरि लेत है, काग निबौरी लेत।।  
भावार्थ - जो व्यक्ति जिसके गुणों को जानता है, वह उसी के गुणों का आदर - सम्मान करता है। जैसे कोयल आम का रसास्वादन करती है और जबकि कौआ नीम की निम्बौरी से ही सन्तुष्ट हो जाता है।

(८) उत्तम विद्या लीजिये,जदपि नीच पाई होय। 
परयो  अपावन ठौर में, कंचन तजय न कोय।। 
भावार्थ - जिस प्रकार स्वर्ण अपवित्र स्थान पर पड़ा हो, तो भी उसे कोई त्यागना नहीं चाहता है। ठीक उसी प्रकार उत्तम विद्या (अच्छा ज्ञान ) कहीं या किसी से भी मिले उसको ग्रहण कर लेना चाहिए, चाहे वह (उत्तम विद्या) अधम व्यक्ति के पास ही क्यों नहीं हो।

(९)  मन भावन के मिलन के, सुख को नहिन छोर। 
बोलि उठै, नचि- नचि उठै, मोर सुनत घनघोर।। 
भावार्थ -   कवि वृन्द कहते हैं कि जैसे मोर बादलों की गर्जना सुन कर मधुर आवाज में बोलने और नाचने लगता है उसी प्रकार हमारे  मन को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के मिलने पर हमें असीमित आनन्द की प्राप्ति होती है और हमारी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती है।

(१०) निरस बात, सोई सरस, जहाँ होय हिय हेत। 
गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधन देत।।   
भावार्थ - कवि वृन्द कहते हैं, जिस व्यक्ति के प्रति हमारे ह्रदय में लगाव और स्नेह का भाव होता है, उस व्यक्ति की नीरस बात भी सरस लगने लगती हैं। जैसे समधिन के द्वारा दी जाने वाली गालियाँ भी अच्छी लगती हैं क्योंकि उन गालियों में स्नेह का भाव होता है।

(११) ऊँचे बैठे ना लहै, गुन बिन बड़पन कोइ। 
बैठो देवल सिखर पर, बायस गरुड़ न होइ। 
भावार्थ - जिस प्रकार मंदिर के उच्च शिखर पर बैठा हुआ कौआ गरुड़ की साम्यता प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार गुण रहित व्यक्ति उच्च आसन पर बैठने मात्र से ही उच्चता को प्राप्त नहीं कर सकता।

(१२) फेर न ह्वै हैं कपट सों, जो कीजे ब्यौपार। 
जैसे हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार। 
भावार्थ -  जिस प्रकार लकड़ी से बनी हुई हाँडी (बर्तन) को दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता है , ठीक उसी प्रकार जो मनुष्य कपट पूर्वक व्यापार करता है , उसका व्यापार लम्बे समय तक नहीं चलता है। यही बात व्यक्ति के  वव्यहार और आचरण पर भी लागू  होती है।

(१३) नैना देत बताय सब, हिये को हेत अहेत। 
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कही देत।। 
भावार्थ - जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण किसी व्यक्ति की वास्तविक छवि को बता देता है। उसी प्रकार किसी व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति स्नेह का भाव है या द्वेष का भाव है , यह बात उसके नेत्रों को देख कर ही ज्ञात की जा सकती है।

(१४) सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय। 
पवन जगावत आग कौ, दीपहिं देत बुझाय।। 
भावार्थ - तीव्र हवा प्रज्वलित अग्नि को तो और अधिक प्रचंड बना देती है , लेकिन वही हवा दीपक को बुझा देती है।  इस संसार का यही नियम है , बलवान व्यक्ति की सहायता करने के लिए तो कई लोग सामने आ जाते हैं , जबकि निर्बल का कोई सहायक नहीं होता है।

(१५) अति हठ मत कर, हठ बढ़ै, बात न करिहै कोय। 
ज्यौं- ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं - त्यौं भारी होय। 
भावार्थ - जिस प्रकार कम्बल के भीगते रहने से वह भारी होता जाता है -, उसी प्रकार किसी व्यक्ति के हठ या जिद करने से, उसका जिद्दीपन बढ़ता जाता है। तथा एक समय ऐसा आता कि लोग उसके हठी स्वभाव के कारण उससे बात करना भी पसंद नहीं करते हैं।

maling Reshmi

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Dec 14, 2016, 10:54:52 PM12/14/16
to hind...@googlegroups.com

Very nice sir


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Maha Deva

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Dec 14, 2016, 11:06:20 PM12/14/16
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Danyavad sreenivasji

On Dec 15, 2016 9:24 AM, "maling Reshmi" <maling...@gmail.com> wrote:

Very nice sir

vijayalaxmi Sutar

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Dec 14, 2016, 11:45:57 PM12/14/16
to hind...@googlegroups.com

Dhanyavad sir

On Dec 15, 2016 09:24, "maling Reshmi" <maling...@gmail.com> wrote:

Very nice sir

Shankar Lamani ಶಿಕ್ಷಕರು ಸರಕಾರಿ ಪೌಢಶಾಲೆ.ಸುನ್ನಾಳ

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Dec 15, 2016, 8:54:23 AM12/15/16
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೨೦೧೬-೧೭ ನೇ ಸಾಲಿನ ನೀಲ ನಕ್ಷೆ ಕಳಸಿ

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