विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास से २०वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति आई, और अब २१वीं शताब्दी में सूचना क्रांति। २००० वर्ष पहले भारत ज्ञान में विश्व गुरु रहा, समृद्ध था, सोने की चिडया कहलाया। समय का फेर आया, दूर की मार वाली बन्दूकों वाले साहसी चतुर अंग्रेजों ने भारत और अन्य कई देशों को उपनिवेश बना लिया। मनोबल का ह्रास हुआ, भाषा और विज्ञान का तिरोभाव। शक्ति से उत्साहित हो पश्चिमी विज्ञान का प्रयोगात्मक विकास तेजी से हुआ, विज्ञान साहित्य का प्रणयन भी प्रौद्योगिकी के आधार पर उद्योग लगे, व्यापार बढा '"जैसी रानी, वैसी वाणी'" अंग्रेजी भाषा स्वीकारी जाने लगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की जानकारी की विपुलता एवं सुलभता के कारण अंग्रेजी सबल बनी। प्रशासन की पहुँच के लिए भी अंग्रेजी का आश्रय बढता गया। जन-मानस की तदनुसार मनोवृत्ति, अंग्रेजी के प्रति मोह बढा, अस्मिता छिपाने लगे। दीनता को ढाँककर सहिष्णु दिखने लगे।
तदनन्तर, प्रतिक्रिया का भाव जागा, अंग्रेजों को भगाया, हम स्वतंत्र हुए, अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति सचेष्ट और कटिबद्ध। स्वतंत्रता के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को समृद्ध और प्रयोज्य बनाने के लिए भारत सरकार ने कई परियोजनाएँ बनाईं, संस्थान खोले, जैसे-वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय। राजभाषा हिन्दी के प्रयोग संवर्धन के लिए भारत सरकार में राजभाषा विभाग खोला गया। लेकिन अंग्रेजी बढती गई, और आज सॉफ्टवेयर जनशक्ति का विशिष्ट गुण बन गयी है, जो भारत को सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महाशक्ति बनाने में सहायक कही जाती है।
२०वीं शताब्दी में गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीव-विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में अनवरत प्रगति हुई। इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी, बायो टेक्नोलॉजी, नेनो टेक्नोलॉजी आदि विज्ञान से संबंधित हैं और इसी से व्युत्पन्न हैं। उद्योग, कृषि, पर्यावरण आदि कई आधारभूत अनुप्रयोग क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ है। भारतवर्ष मानव सभ्यता का महत्त्वपूर्ण उद्गम है। इसके दर्शन, रहस्यवाद, वास्तुशिल्प अभिनव कलाएँ विश्व-विख्यात हैं। बहुत कम लोगों को विदित है कि भारतवर्ष आधारभूत वैज्ञानिक विकास और दृष्टिकोणों का मूल स्रोत भी था। इस अनजाने का कारण है कि विगत सदी में ऐसा कोई बडा शोध कार्य नहीं हुआ, और न ही इस विज्ञान-कार्य के परिदृश्य में समालोचना का लेखा-जोखा हुआ जो भारतीय परंपरा और संस्कृति को पोषित करता हो।
गणित की अनेक उपलब्धियाँ, जिनके आविष्कारकर्ता आजकल पश्चिमी वैज्ञानिक माने जाते हैं, भारतवर्ष में बहुत पहले से ज्ञात थीं। खगोल-विज्ञान, रसायन-विज्ञान, धातु-विज्ञान पादप-विज्ञान में कई आविष्कार और भारतीय दर्शन के अंग के रूप में तर्क, भाषा-विज्ञान और व्याकरण के अति परिष्कृत पहलुओं पर कार्य भारतवर्ष में हुए। १२वीं से १८वीं सदी के केवल ६०० वर्षों में भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर १० हजार से अधिक पुस्तकें लिखी गयीं। भारत की पांडुलिपियों का अनुवाद अरबी और फारसी में हुआ, ज्ञान भारत से बाहर गया। इसी प्रकार भारत ने भी बाहर से वैज्ञानिक विचारों, तरीकों और प्रविधियों को लिया और आत्मसात् किया जो वैज्ञानिक परंपरा की खुले दिमागीपन और तर्कसंगत व्यवहार की विशिष्टताओं का परिचायक है। हम गर्व से स्मरण करें कि हम इसी परंपरा के अंग हैं। हमसे यह वृत्ति बसी हुई है। इसको प्रस्फुटित होने के लिए उपयुक्त वातावरण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है। फिर भी, अपने इतिहास पर आत्मसंतोष कर बैठना नहीं चाहिए। जैसे-जैसे हम भविष्य की ओर बढें, हमें अग्रिम पंक्ति में होना चाहिए, अग्रणी बनकर नेतृत्व देना चाहिए।
ऋग्वेद की ऋचा का भावांतर उल्लेखनीय है -
हम है दिव्यशक्ति के स्वामी,
बनें अग्रणी नहीं अनुगामी।
अपने ही अनुभव के बल पर,
नए सृजन आधार बनाएँ।।
स्वाधीनता संग्राम के अंतःक्षोभ और पुनर्जागरण ने विज्ञान के पुनरुत्थान के लिए एक ऐसा ही वातावरण दिया था। जहाँ एक ओर पश्चिम में हो रही बडी-बडी वैज्ञानिक उन्नतियों के बारे में सूचना मिल रही थी, वहीं ऐसे महान् भारतीय वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने बिल्कुल मौलिक तरीके से सोचने और काम करने का साहस किया। २०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जगदीश चंद्र बोस, मेघनाद साहा, सी.वी. रमन, श्रीनिवास रामानुजन के महान् कार्य प्रमुख हैं। निकट अतीत में होमी भाभा, एस. चन्द्रशेखर और हरगोविंद खुराना के कार्य उल्लेखनीय हैं।
भारत औद्योगिक क्रांति के लाभ नहीं ले सका, विनिर्माण का आधार मजबूत नहीं बन सका। २०वीं सदी के उत्तरार्ध में कम्प्यूटर का विकास हुआ। सूचना को किसी भी समय, किसी भी स्थान पर, किसी भी रूप में, किसी को भी भेजना संभव हुआ। सूचना की बहुलता ही पर्याप्त नहीं है। सूचना निर्णय में सहायक हो, अनुभवों का सार हो, प्रयोक्ता के स्वभाव, रुचि और कार्य प्रणाली के अनुकूल हों ऐसी सूचना को '"ज्ञान'" कह सकते हैं।
प्रत्येक अर्थ व्यवस्था में मानव संसाधन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। फ्रेडरिक टेलर (१८५६-१९१५) के अध्ययन और विश्लेषण के अनुसार २०वीं शताब्दी में विनिर्माण (मैन्युफेक्चरिंग) के क्षेत्र में श्रमिक-उत्पादकता लगभग ३.५ प्रतिशत वार्षिक दर से ५० गुना हो गयी। इससे आर्थिक और सामाजिक लाभ मिले। जिस देश में श्रमिक उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि न हो सकी, उनकी अर्थ व्यवस्था पिछड गई। श्रमिक-उत्पादकता की भाँति २१वीं शताब्दी में ज्ञानकर्मी की उत्पादकता महत्त्वपूर्ण हो गई है। कार्यविधि के पूर्व नियमन और मशीनीकरण की अपेक्षा कार्य-कर्त्ता को स्वायत्तता और उसके योगदान में नवीनता, नवाचार पर बल दिया जाएगा।
२१वीं शताब्दी में जिन देशों में ज्ञान-कर्मी की योगदान क्षमता अधिक होगी, वे ही अर्थ शक्ति बन सकेंगे। पश्चिम के विकसित देशों में विनिर्माण का आधार है। इसके ज्ञान को वे टेक्नोलॉजी प्र्रबंधन के रूप में बदलकर विश्व स्तर पर आगे है। सूचना क्रांति से सभी देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक पक्ष प्रभावित होते हैं। सॉफ्टवेयर विकास का लगभग ८० प्रतिशत कार्य डेटा एंट्री, डिबगिंग, प्रोग्राम कंवर्जन जैसा सामान्य है, जो विकासशील देशों को आउटसोर्स कर दिया जाने लगा है। सॉफ्टवेयर प्रोडक्ट का केंदि्रक विकास और प्रबंधन का प्रमुख कार्य अपने पास रखकर विकसित देश अधिकाधिक लाभ कमा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर विचारणीय है कि भारत के ज्ञान कर्मी में '"उद्योग कौशल और ज्ञान में नवाचार'" दोनों का समन्वय हो। इस संदर्भ में आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की जानकारी बिना समय खोए जन सामान्य तक पहुँच सके जिससे उनका भी नवीनतामय योगदान संभव हो। इसके अतिरिक्त अतीत की गौरवमय परंपरा से जुडकर सतत शोधमय आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की जानकारी नितांत आवश्यक है। लेकिन भाषा बाधक तत्त्व है। भारत में भाषायी विविधता है लेकिन सांस्कृतिक एकता है, वैचारिक समता है। हिन्दी आधे भारत में भलीभाँति और शेष में अधिकांशतः समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी की प्रकृति भी प्रगतिशील है, समाहरण इसकी विशिष्टता है, सरलता इसका आचार है, लचीलापन लोकप्रियकारी है। पहले उर्दू शब्दों का प्रयोग बढा, अब अंग्रेजी शब्दों की बहुलता है। अंग्रेजी विज्ञापनों में हिन्दी पदों का प्रयोग बढता जा रहा है।
अंग्रेजी में उपलब्ध विपुल साहित्य और प्रविधियों को हिन्दी में लाने के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक हैं, लेकिन इस समय अंग्रेजी और हिन्दी में उपलब्ध विज्ञान साहित्य की खाई बडी है, और बढती जा रही है। जनसंख्या अधिक है, अनेक प्रचलित शब्द पराए हैं, जन मानस की जडता नवाचार को नकारती है। बाधक तत्त्व अनेक हैं। सेतु-उपाय ऐसे हों, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर, कम से कम समय में करना संभव हो, सामूहिक योगदान की संभावना है। प्रयोग पर बल हो, ज्ञान और उद्योग में सामंजस्य हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का राष्ट्रीय लक्ष्य हो। इन प्रयासों के मापन, मूल्यांकन और संशोधन की भी व्यवस्था हो। सूचना प्रौद्योगिकी के कारण संभावित '"डिजिटल डिवाइड'" अर्थात् इलेक्ट्राॅनिक रूप में सूचना लेने देने की शक्यता के आधार पर समाज का विभाजन विकराल एवं वीभत्स स्वरूप धारण कर सकता है। इंटरनेट की जानकारी हासिल करने वाले ज्ञानी कहलावेंगे, अधिक कमाएँगे और बाकी बहुसंख्यक लोग सामान्यतर रहेंगे। विषमता विकराल हो सकती है।
स्वतंत्रता के बाद पिछले साठ वर्षों में हिन्दी दिवस का वार्षिक उत्सव मनाया जाता है, आक्रोश को अभिव्यक्ति भी मिलती है। लेकिन '"नौ दिन चले अढाई कोस'" की कहावत की भाँति हिन्दी व्यवहार की स्थिति है। ओह, एक मित्र ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि '"गाडी तो चली लेकिन रिवर्स गियर में'" स्वतंत्रता के समय हमारा संकल्प था, हममें उत्साह था। लेकिन योजनाकारों ने माना कि आर्थिक विकास के लिए अंग्रेजी आवश्यक है। अंग्रेजी में आउटसोर्सिंग काम विपुल मात्रा में होगा। इस सोच में उत्साहित होकर अंग्रेजी को कक्षा-१ से पढाने वकालत और सिफारिश की। लोकतंत्र में जिसमें पावर उसकी बात, विडम्बना है न?
हिन्दी भाषा की उपादेयता इस बात से प्रमाणित होती है कि यह हमारे बहुसंख्य लोगों की भाषा है, साहित्यकार और कवियों की भाषा है, लोकप्रिय फिल्मों की भाषा है। इसमें विज्ञान और व्यापार की अद्यतन जानकारियाँ भी हैं। यह वोट माँगने की इकलौती सशक्त भाषा है। हिन्दी अपनी भाषा है, गुलामी के बाद पश्चिम के समृद्ध समाज से कदम से कदम मिलाने की चाह ने अंग्रेजी को अपनाया, अंग्रेजियत को ओढा। लेकिन अंग्रेजी से आत्म गौरव और लोगों के प्यार का अनुभव नहीं हुआ। आज दिखावा और आत्मगौरव के बीच द्वंद्व है। सभी पेशोपेश में हैं, विचार मंथन करते हैं।
भारत बडा देश है, लोकतांत्रिक व्यवस्था है। विश्व जनसंख्या ६.७ बिलियन; भारत की जनसंख्या १.१३ बिलियन, ०-१४ आयुवर्ग, ३०.८ प्रतिशत; १५-६४ आयुवर्ग ६४.३ प्रतिशत; ६५+आयुवर्ग ४.९६ प्रतिशत। ७२.२२ प्रतिशत गाँवों में (५५०,०००)
भारत की मूल प्रकृति बहुभाषिक है।
भारत सरकार के शिक्षा संबंधी लक्ष्य २०१५ तक
प्राइमरी (५-१९ आयुवर्ग) ः ११३ मिलियन सर्व शिक्षा
सेकंडरी हायर सेकंडरी ७५ प्रतिशत
(१५-१९ आयुवर्ग) ः ११३ मिलियन (८५ मिलियन)
उच्चतर (टर्शरी) (२०-२४) ः ११० मिलियन २० प्रतिशत (२२ मिलियन)
वैश्वीकरण ने अंग्रेजी प्रधान शिक्षा की अनिवार्यता को जॉब के आधार पर मजबूत बना दिया है। योजनाकार कक्षा-१ से अंग्रेजी की पढाई की सिफारिश करते हैं। लेकिन आंकडे बताते हैं कि दसवीं कक्षा तक २/३ ड्राॅप होते हैं, १/३ रह जाते हैं। युवा शक्ति की बार्बादी। ड्राॅपआउट क्यों होते हैं, पढाई समझ नहीं आती, इसलिए। सभी शिक्षा बोर्ड दुःखी हैं कि मैथ्स और साइंस में रिजल्ट अच्छा नहीं आता। लेकिन कोई बोर्ड विज्ञान और गणित की पढाई लोकभाषा में कराने के लिए कटिबद्ध नहीं है।
छबवउ के अनुसार प्ज् ग्रेज्युएट १० प्रतिशत- २० प्रतिशत ही इंडस्ट्री में काम करने लायक होते हैं। उनका आधारभूत विषय ज्ञान अच्छा नहीं होता। पुनश्च युवाशक्ति की बर्बादी।
९० प्रतिशत युवा शक्ति काम लायक नहीं रह जाती है। क्यों, क्या कारण है? आओ, इसका विश्लेषण करें।
मैनेजमेंट के गुरु प्रो. अलबर्ट हम्फी ने किसी बिजनेस की रणनीति बनाने के लिए एनालिसिस विधि प्रस्तावित की। सबल-निर्बल संभाव्य लाभ-चुनौती पक्षों की एनालिसिस से बिजनेस मॉडल के विकल्पों में से चयन कर सकते हैं।
प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी अथवा लोकभाषा (हिन्दी भा. भाषा) के विकल्पों में से एक को चुनकर राष्ट्रीय कार्य योजना को बिजनेस मॉडल की तरह कार्यान्वित करना है। इन विकल्पों की ैॅव्ज् एनालिसिस इस प्रकार कर सकते हैं।
ैॅव्ज् विश्लेषण
अंग्रेजी बनाम लोकभाषा
ै स्ट्रेंथ *(सबल पक्ष) ै स्ट्रेंथ (सबल पक्ष)
ग्लोबलाइजेशन की भाषा स्थानीय परिवेश में घुलमिलकर ज्ञानार्जन
आउट सोर्स में प्रिफरेंस लोकसभा में बेसिक कंसेप्ट्स (मूल संकल्पनाओं)
समाज में अंग्रेजी का स्टेटस की अच्छी समझ
व्यवहारपरक जानकारी होने का आत्मविश्वास
नवाचार प्रवृत्ति का विकास
ॅ वीकनेस (अबल पक्ष) ॅ वीकनेस (अबल पक्ष)
बेसिक कंसेप्ट्स (मूल संकल्पनाओं) की समझ पाश्चात्य दृष्टि से पिछडेपन की निशानी
अच्छी तरह नहीं, रटन्त पढाई
ड्राॅप आउट अधिक
लोकभाषा में कमजोर, परिवेश से संवाद कम
नवाचार का अभाव
व् अपोर्च्यूनिटीज (संभाव्य लाभ) व् अपोर्च्यूनिटीज (संभाव्य लाभ)
अंग्रेजी टर्मिनोलॉजी वाले मेन्युअल कामों को उद्यमितापरक (म्दजतमचतमदमनतपंस) प्रवृत्ति
करने में सरलता कार्य/व्यापार के प्रसार में आसानी
कॉल सेंटर के जॉब में आसानी राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याओं के प्रति
संवेदनशीलता नवाचार प्रवृत्ति से शोध-विकास कार्यों में सफलता
ज् थ्रैट (चुनौतियाँ) ज् थ्रैट (चुनौतियाँ)
राष्ट्रवादी/समाजवादी दृष्टिकोण बडी ताकतों का परोक्ष दबाब
अच्छे टीचर्स का अभाव भारत के योजनाकारों के समझ पिछडे रहने
जो पढा उसे व्यवहार में लाने के लिए का प्रस्ताव
परिवेश नहीं
अपने समाज और संस्कृति से कटे और
पाश्चात्य समाज के भी न बन सके
अंग्रेजी पक्ष लोक भाषा पक्ष
ै;३द्धॅ;.४द्धव्;२द्धज्;.४द्ध त्र .३ ै;४द्धॅ;.१द्धव्;४द्धज्;.२द्ध त्र ५
राष्ट्रीय स्वाभिमान और नवाचार (इन्नोवेशन) प्रवृत्ति से संपन्न व्यक्तित्व के विकास के आधारभूत सिद्धांतों के आधार पर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम लोकभाषा हो, अंग्रेजी न हो। बाद में विदेशी भाषा और विविध विषयों का अध्ययन आसान होगा। ैॅव्ज् एनालिसिस से भी इसकी पुष्टि होती है, जैसा अभी दिखाया गया।
मीडिया, ज्ञान, विज्ञान, प्रौद्योगिकी में हिन्दी का व्यवहार क्यों हो? इससे लोगों की भागीदारी, उद्यमिता और आर्थिक प्रगति पर कैसा प्रभाव होगा? इसे भी ैॅव्ज् एनालिसिस से समझ सकते हैं। इसका एक और फायदा यह होगा कि संभाव्य लाभों को अधिकतम करने और चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रभावी रणनीति बनाने में आसानी होगी।
संक्षेप में, हिन्दी वर्तमान में शिक्षा क्षेत्र में फिसलती जा रही है, राष्ट्र का इन्नोवेशन इंडेक्स (गुणवत्ता सूचकांक) गिरता जा रहा है, लोगों की भागीदारी कम हो रही है।
हिन्दी भाषा की पुस्तकों में विज्ञान परक पाठ बहुत कम होते हैं। शब्द व्युत्पत्ति का ज्ञान नहीं कराया जा रहा। अर्थगत संकल्पनाओं का भेद नहीं बताया जाता। हिन्दी में रचनात्मक लेखन पर बल नहीं दिया जाता।
उच्च शिक्षा में सामाजिक कार्य, केस स्टडीज, फील्ड प्रोजेक्ट लोकभाषा में नहीं होते। गूँगे ज्ञानी से समाज का कितना लाभ होगा।
मीडिया की भाषा प्रोफिट की भाषा है। मीडिया में हिन्दी प्रयोग व्यापारिक लाभ के लिए है, बाजार बढाने के लिए है। हिन्दी शब्दों के अर्थ को समझाया नहीं जाता, इसके निहित गुणों को परिभाषित नहीं कर पाते हैं। शब्द का प्राण अर्थ है। आज शब्द का निष्प्राण स्वरूप प्रचलन में आ रहा है। कई वर्ष पहले सरकार ने हिन्दी को उर्दू-मिश्रित प्रचारित किया, आज मीडिया हिन्दी को अंग्रेजी मिश्रित प्रसारित करता है। मेरी समझ में हिन्दी का यह संक्रमण काल है। यह विशेष चर्चा का विषय नहीं है। चलते-चलते एक और बात कहूँगा कि हिन्दी के विविध संस्थान, संस्थाएँ, आयोग आदि अलग-अलग मठ बन गए हैं। इन मठों के बीच तालमेल बहुत कम है।
हिन्दी वर्तमान में उपेक्षित सी, असंगठित सी, किंकर्त्तव्यविमूढ स्थिति में है। लेकिन, एक महत्त्वपूर्ण कार्य बिना गाल बजाए सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुआ है जो निराशा को आशा में बदलने, अबला को सबला बनाने में बहुत सहायक सिद्ध होगा।
कम्प्यूटर पर हिन्दी में आलेख, सूचियाँ, डेटाबेस, पुस्तकें आदि के लिए टूल्स बन गए हैं। इंटरनेट से हिन्दी में ई-मेल, ब्लॉग, कॉन्फ्रेरसिंग कर सकते हैं। फॉन्ट, कन्वर्जन यूटिलिटी, ऑफिस सॉफ्टवेयर, ओसीआर, बोल-पहचान, वर्तनी जाँच, ट्रांसलेशन सपोर्ट मुक्त रूप में मिल रहे हैं, बहुतेरे मुफ्त में भी। आज एकमत होना है, कोडिंग के लिए यूनीकोड ;न्छप्ब्व्क्म्द्धए कंटेंट के लिए ;ग्डस्द्ध का प्रयोग करें। सीमेंटिक और सर्विसेज के समारहण (इंटीग्रेशन) पर विकास कार्य तेजी से करने की आवश्यकता है। हिन्दी संस्थान इंटरनेट पर डिक्शनरी, थेसारस, व्यवहारकोश, टैग कार्पोरा, व्याकरण जाँच नियमावली, उत्तम लेखों का संग्रह, शोध पत्र, अद्यतन शोध विकास का सार-अनुसृजन इंटरनेट पर डालें। याहू, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि पर हिन्दी भी उपलब्ध है।
१. भारत सरकार नीतिगत निर्णय की घोषणा करे कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम लोकभाषा (राजभाषा) हो। नॉलेज कमीशन अपनी सिफारिशों में कक्षा-१ से अंग्रेजी शिक्षा की अनिवार्यता पर संशधन करे।
२. विज्ञान और भाषा का संबंध दृढ किया जाए। १९८० के दशक में छब्म्त्ज् ने हिन्दी में विज्ञान पुस्तक लेखन की पहल की। यह प्रशंसनीय कार्य था। इसे फिर से शुरू कराया जाए। इसी प्रकार का हिन्दी में सुबोध पुस्तक लेखन दूसरे विभागों में अनिवार्य हो।
३. छब्म्त्ज्ए ब्ठैम्ए छप्व्ै जैसी संस्थाएँ स्कूल स्तर पर पुस्तक लेखन का कार्य मौलिक रूप से हिन्दी में करावें, उसके बाद अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाए।
४. उच्चतर शिक्षा में प्रोजेक्ट हिन्दी में भी अनिवार्य हो, तभी समाज के प्रति संवेदनशीलता बढेगी और उच्चतर शोधपरक ज्ञान की मोटेतौर पर जानकारी जन सामान्य को भी मिलती रहेगी।
५. भारत सरकार द्वारा वित्तीय अनुदान प्राप्त सभी सेमीनार, कॉन्फ्रेंस, सिम्पोजियम, संगोष्ठियों में शोध पत्र २० प्रतिशत हिन्दी में हों। पेनल में हिन्दी मीडिया का प्रतिनिधि अवश्य हो। सिफारिशें संबंधित विभाग की वेबसाइट पर भी हिन्दी में अवश्य हों।
६. अनुसृजन परियोजना के माध्यम से अद्यतन शोध विकास की सामग्री को विज्ञानी, शोध सहायक और भाषाविद् की टीम हिन्दी में अनुसृजित करे। इसमें सामाजिक उपादेयता होगी, सुबोध संप्रेषणीय सामग्री होगी।
७. कृषि विस्तार परियोजन की तर्ज पर प्ज् क्लीनिक का आयोजन किया जाए जिनमें लोकभाषा/हिन्दी में ओपन सॉफ्टवेयर के प्रयोग संवर्धन और इसमें कठिनाइयों के निराकरण तथा उद्यमियों की प्ज् समस्याओं का समाधान दिया जाए। ऐसी परियोजना भारत सरकार ड।प्ज् जैसे उद्योग संघों से मिलकर शुरू करे।
८. हिन्दी भाषा से संबंधित संस्थाएँ-केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, वै.त. शब्दाबली आयोग आदि की एक उच्चस्तरीय समीक्षा-समिति हो जिसमें २/३ विज्ञानी सदस्य हों। यह समिति हर तिमाही पर इनके लक्ष्य और उपलब्धि का ऑडिट करे, मार्गदर्शन करे।
९. तकनीकी शिक्षा में हिन्दी का संक्षिप्त भाषा विज्ञान और विज्ञान लेखन विषय को भी जोडा जाए। इसकी रूपरेखा बनाएँ।
१०. हिन्दी सॉफ्टवेयर की जाँच और प्रयोग संवर्धन के लिए हिन्दी संस्थाओं का संघ जिम्मेदारी ले, भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग को फीडबेक देकर गुणवत्ता और प्रसार को बढावा दे।
संघे शक्ति कलियुगे। सभी भारतीय भाषा समितियों और भाषा संस्थानों का संघ सिफारिशों को भारत और राज्य सरकारों के योजनाकारों को भेजे। फॉलो अप करे।
मीडिया की अहम भूमिका है। मीडिया, ज्ञान-प्रधान समाज के लिए समझ, लोक व्यवहार, इन्नोवेशन एवं उद्यमिता की प्रवृत्ति की आवश्यकता पर बल दे, और इन सिफारिशों को जोर देकर पेश करे।