१७ दिसम्बर: रहीम को समर्पित; सौजन्य: साहित्यकार तिथिवार

1 view
Skip to first unread message

deepalabh

unread,
Dec 17, 2021, 1:43:57 AM12/17/21
to hindishikShakbandhu

साहन के साह, रसिकों के रसिक, कृष्ण-भक्त, शूरवीर, संत-कवि अब्दुर्रहीम


चाह गयी, चिन्ता मिटी, मनुआ बेपर किया वाह।

जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह

मात्र चौदह शब्दों की इस डिबिया में जीवन के सार की मणि को संभालने वाले संत कवि रहीम, मध्यकालीन युग के एक अहम‍‍ व्यक्तित्व हैं। रहीम ने अपने समय के हर विषय, हर भाव पर कलम चलाई और वह भी उस युग की हर प्रचलित भाषा और बोली में। इसलिए सटीक और सशक्त होने के साथ-साथ उनका साहित्य अपने आप में अकबर और जहाँगीर के काल का संपूर्ण विस्तार समाहित किए हुए है। रहीम के लेखन में एक ओर तुलसीदास-सी आस्था, कबीर-सी दार्शनिकता और सूर-सी भक्ति है; तो वहीं दूसरी ओर शृंगार एवं कामुकता भी। रहीम कवि तो थे ही, साथ ही अकबर के दरबार में उन्हें ऊँचा पद प्राप्त था। वे योद्धा थे, राजनीतिज्ञ थे, सूबेदार थे, कृष्ण के अनन्य भक्त थे और बहुभाषाविद भी। रहीम जीवन के पारखी थे – हर क्षण चैतन्य थे - कब उन्हें कौन-सा चोगा पहनना है, भली-भाँति जानते थे।

रहीम की पृष्ठभूमि

अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना का जन्म एक तुर्क परिवार में हुआ। बैरम ख़ान (रहीम के पिता) हुमायूँ की सेना में थे। वे मुगल सल्तनत के वफ़ादार थे। रहीम के जन्म के समय उनकी उम्र कुछ ६० बरस की थी। हुमायूँ की असमय मृत्यु के बाद उन्होंने उनके १३ वर्षीय पुत्र अकबर को राजसिंहासन पर बैठा दिया एवं उसके परिपक्व होने तक स्वयं राज-काज संभाला। बैरम ख़ान जब हज यात्रा पर गए, तब रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई; उस समय रहीम की उम्र केवल पाँच वर्ष की थी। अकबर ने रहीम को अपना संरक्षण दिया, अपने दत्तक-पुत्र की तरह देखभाल की और हर संभव प्रशिक्षण, शिक्षा और सहूलियत उपलब्ध करवाई। रहीम तीक्ष्ण बुद्धि के धनी एवं मेधावी थे। किशोरावस्था से ही लोग उनसे प्रभावित होने लगे थे। समय आने पर अकबर ने उन्हें ऊँची उपाधि से नवाज़ा और अपने दरबार के जगमगाते रत्नों में शामिल किया।

रहीम के बहुआयामी साहित्य की एक झलक

मध्यकालीन युग का शायद ही ऐसा कोई आयाम हो, जिसे रहीम ने न जिया हो– और जिया भी सिर्फ़ नाम के लिए नहीं, वरन‍ पूरी संपूर्णता के साथ। यूँ लगता है, जैसे रहीम जीवन के अत्यंत कुशल रंगकर्मी थे, जब सिपाही का रोल अदा करते, तो शूरवीर योद्धा बन जाते; जब नगर का विचरण करते, तो स्त्रियों के हृदय के भीतर झाँककर सूक्ष्म कोमल काम-पीड़ित भावनाओं तक की टोह ले लेते; जब अकबर के दरबारी होते, तो एक कुशल राजनीतिज्ञ का फ़र्ज़ अदा करते; और जब याचक द्वार खटखटाता, तो सरल-हृदयी परम-दानी बन उसकी झोली भर देते; जब शास्त्रार्थ की बात होती, तो संस्कृत के प्रकांड पंडित बन जाते; और जब जन-साधारण से बतियाना होता, तो ब्रज और अवधी में दोहे और बरवै कह उठते। जीवन ने भी रहीम की जिजीविषा की पक्की परीक्षा ली। समय ने उन्हें हर रंग दिखाया – जहाँ अकबर के दरबार की शान-ओ-शौकत और मान-सम्मान की चमचमाहट, तो वहीं जहांगीर के शासन काल में बेटों की निर्मम हत्या की गहन कालिमा।

रहीम ने जीवन की विविधताओं, उन विविधताओं द्वारा प्रस्तुत उत्तरदायित्त्वों और उन उत्तरदायित्त्वों को वहन करने की अनिवार्यताओं को सहज रूप से शिरोधार्य किया; समर्पित भाव से जीवन जिया।

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुणे हाथ॥

उनका यह दोहा बताता है– व्यक्ति कितना भी उद्यम कर ले, महत्वाकांक्षाएँ पाल ले, भ्रम में रहे, लेकिन करम अथवा होनी के आगे इंसान कठपुतली है। सिपहसालार होने के तकाज़े से उनके हिस्से अनेक यात्राएँ आतीं। हिंदुस्तान के कोने-कोने से रहीम वाकिफ़ थे, और इन यात्रायों को उनके अंदर के कवि ने भी भरपूर जिया। वे जहाँ से गुज़रते वहाँ की संस्कृति और भाषा-शैली का समावेश अपने लेखन में करते जाते। कृष्ण के अनन्य भक्त तो थे ही, रामकथा के प्रति भी उनकी गहरी आस्था थी।

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जापर बिपदा परत है, सो आवत यहि देस॥

रहीम को चित्रकूट में राम ही राम दिखाई देते हैं, और वे कह उठते हैं; जिस पर विपत्ति पड़ती है, वह निश्चित ही चित्रकूट आता है। जैसे राम ने वहाँ समय गुज़ारा, वैसे ही रहीम भी अपने बुरे समय में वहाँ थे।


रहीम की दानवीरता बड़ी मशहूर है। दान करते, और दान करते समय सिर झुकाए रहते। जितना ऊँचा हाथ अर्थात‍ जितना बड़ा दान, उतनी ही नीची नज़र। रहीम के समकालीन और दरबार के एक और प्रसिद्ध कवि गंग ने उनके दान देने के इस अनोखे अंदाज़ का कारण एक दोहे के रूप में पूछा-

"ऐसी देनी देंन ज्यूँ, कित सीखे हो सैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊंच्यो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥"

जिसका उत्तर सरल और विनम्र रहीम ने दोहे में ही दिया-

देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, तासों नीचे नैन॥

रहीम दिन-रात देने वाले देनहार के आगे नतमस्तक होते; और लेने, देखने और सुनने वाले रहीम की इस विलक्षण नम्रता पर।

रहीम का ‘नगर शोभा’ ग्रंथ समाजशास्त्र की दृष्टि से एक उत्कृष्ट काव्य है। इसमें उस काल की करीबन ६० जातियों का उल्लेख है। समाजशास्त्रियों के लिए यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ग़ौरतलब है, कि इस काव्य में रहीम का विषय स्त्रियाँ हैं, और ये भाँति-भाँति की पृष्ठभूमियों से आई हुईं, नाना प्रकार के विचारों और भावों से सराबोर स्त्रियाँ हैं। रहीम ने न तो उन्हें टाइपकास्ट (प्रारूप में ढालना) किया है, न लिहाज़ के घुँघटे से छान कर प्रस्तुत किया है, और न ही उपदेशपरक हो उन पर चोट की है। उन्होंने तो सिर्फ़ पूरी ईमानदारी से अपने सूक्ष्म अवलोकन और विचारों को शब्द दिए हैं-

कुच भाटा, गाजर अधर, मुरा से भुज पाई।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई॥

सब्ज़ी बेचने वाली का वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं, लौकी बेचने वाली लेटकर खीरा खा रही है और इस तरह वह ग्राहकों को रिझा रही है। इसी प्रकार हाट में बैठी सजी-धजी, बनी-ठनी सुनारिन सुंदरी के हाव-भाव को वे इस तरह पढ़ते हैं -

रहसनि बहसनि मन हरै, घोर-घोर तन लेहि।
औरन को चित्त चौरि कै, आपुन चित्त न देहि॥

यह सुंदर सुनारिन अपने रूप-सौंदर्य से सबका मन तो चुरा रही है, लेकिन अपना चित्त किसी पर नहीं लूटा रही।
‘मदनाष्टक’ के खड़ी बोली के इस छंद में कवि ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के अलबेले रूप का प्रभावी चित्रण किया है।
कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन वाला चांदनी में खड़ा था॥
कटि-तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला॥

रहीम दोहा, सोरठा, छप्पय आदि अनेक छंदों के प्रयोग में सिद्धहस्त थे, लेकिन बरवै को विशेष रूप से पसंद करते थे। बरवै छंद को उन्होंने रस की खान कहा और ‘बरवै नायिका-भेद’ नामक एक महत्वपूर्ण कृति की रचना बरवै में ही की-

लागे आन नवेलिहि, मनसिज बान।
उकसन लागु उरोजवा, दृग तिरछान॥

उक्त बरवै में नायिका स्वयं पर मोहित है। जैसे ही नयी-नवेली दुल्हनिया को कामदेव के बाण आकर लगते हैं, लज्जा वश उसकी दृष्टि तिरछी हो जाती हैं, और उरोजों में कसाव आने लगता है।

या झर में घर घर में, मदन हिलोर।
पिय नहिं अपने कर में, करमै खोर॥

कामपीड़ित बिरहन कहती है, बाग-बगीचों में, घर-घर में कामदेव हिलोरें मार रहे हैं। चहुँओर प्रेम का वातावरण है। मेरे पास ही मेरा पिया नहीं है, ये और कुछ नहीं बस कर्मों का दोष ही है।

उठि-उठि जात खिरकिया, जोहन बाट।
कत वह आइहि मितवा, सूनी खाट॥

बेचैन नायिका प्रतीक्षारत है। उठ-उठ कर खिड़की के पास जाती है, उसकी राह ताकती है। फिर मन मसोस कर सूने पलंग की ओर देखती है और सोचती है, जाने कब मेरा पिया आएगा!

रहीम ने सब साधा और विचारणीय है, कि दुनिया को सलाह दी ‘सब साधने से सब चला जाता है’-

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥

जिस तरह मात्र जड़ को सींचने से वृक्ष फलों और फूलों से लद जाता है, उसी प्रकार एक काम को साधने से अन्य सभी कामनाओं की सिद्धि भी हो जाती है। कविवर रहीम के जो भिन्न-भिन्न रूप परिलक्षित होते हैं, यथार्थ में वे सारे उनके सांसारिक वृक्ष के फल और फूल थे। उन्होंने जीवन रूपी पेड़ के मूल को साध लिया था।

लेखक परिचय-

ऋचा जैन 

आई टी प्रोफेशनल, कवि, लेखिका और अध्यापिका। प्रथम काव्य संग्रह 'जीवन वृत्त, व्यास ऋचाएँ' भारतीय उच्चायोग, लंदन से सम्मानित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2020 में प्रकाशित। कहानी के माध्यम से जर्मन सीखने के लिए बच्चों की किताब 'श्पास मिट एली उंड एजी' गोयल पब्लिशर्स द्वारा 2014 में प्रकाशित। लंदन में निवास, पर्यटन में गहरी रुचि, भाषाओं से विशेष प्यार।


नोट: इसी आलेख को हमारे ब्लॉग पर पढने हेतु यहाँ क्लिक करें: 

https://hindisepyarhai.blogspot.com/2021/12/blog-post_17.html

विशेष: आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आया होगा| हम इसी प्रकार, प्रतिदिन आपको साहित्य एक नए हस्ताक्षर से मिलवायेंगे| अब तक प्रकाशित हो चुके आलेखों को पढने के लिए आप हमारे ब्लॉग hindisepyarhai.blogspot.com पर जा सकते हैं| 

सादर धन्यवाद!

दीपा लाभ
प्रबंधक, साहित्यकार तिथिवा

Reply all
Reply to author
Forward
0 new messages