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हमारे देश को दो भयंकर बीमारियां लगी हुई है। यह बीमारी एडस जैसी ही
लाइलाज है। एडस को तो शायद इलाज वैज्ञानिक खोज भी ले लेकिन हमारे देश में
यह जो दो बीमारियां फैली है इसका इलाज ढूंढना भी दूर—दूर तक मुमकिन नजर
नहीं आता। इस बीमारी ने हमारे देश को पूरी तरह से अपने आगोश में ले लिया
है। यह दो बीमारियां है क्रिकेट और अंग्रेजी।
सबसे पहले बात क्रिकेट की करते हैं। यह खेल हमारे मालिक मतलब अंग्रेज लोग
खेला करते थे। भारत में यह खेल इतना प्रसिद्ध होने की एक वजह तो शायद यह
भी है कि हम अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं और हमारे मालिक जो खेल खेलते थे
वह नौकर से मालिक बन जाने पर हमारे रग—रग में फैल गया है। हम उनका खेल
खेलकर, उनकी भाषा बोलकर, उनके जैसे कपड़े पहनकर शायद अपने आप को अंग्रेज
समझने लगते हैं। हमारे देश के
हालत तो इतने खराब है कि अगर कोई अंग्रेज चपरासी भी वहां से भारत आए तो
यहां के लोग उसे सलाम करने से नहीं हिचकिचाते।
यह जानकार आपको बड़ी हैरानी होगी कि 10—15 देश जो क्रिकेट खेलने का
अधिकार रखते हैं उनमें से अधिकतर या लगभग सभी देश अंग्रेजों के गुलाम रहे
हैं। चार तो अकेले दक्षिण एशिया में ही हैं—भारत, पाक, बांग्लादेश और
श्रीलंका! लेकिन यह बात हमारे क्रिकेट में मग्न दीवानों को बुरी लग सकती
है इसलिए मैं उनसे यह सवाल पूछना चाहूंगा कि क्रिकेट खेलने वाले देशों
में— अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी,
फ्रांस और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र
नहीं हैं, जो ओलम्पिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल जीतते हैं? यदि क्रिकेट
दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता तो ये समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी
उपेक्षा क्यों करते ?
क्रिकेट अंग्रेजों के गुलाम देशों के अलावा कहीं नहीं खेला जाता या खेला
भी जाता है तो नाम भर के लिए। इसकी वजह है कि यह खेल इतना लंबा चलता है
कि पूरा दिन, यहां तक कि लगातार पांच—पांच दिन तक भी यह मैच चलता है। लोग
खेल अपने मनोरंजन के लिए खेलते हैं या देखने जाते हैं— इसके लिए वह 2—3
घंटे निकाल सकते हैं। लेकिन पूरा एक दिन और टेस्ट मैचों में पांच दिन तक
लगातार क्रिकेट देखने का काम
हमारे देश के लोग ही कर सकते हैं। क्योंकि वह निठल्ले होते है, उनके पास
करने को कोई काम ही नहीं है। इस तरह किसी देश में अगर धन और समय की
बर्बादी हो तो वह देश कैसे तरक्की करेगा? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि
इस खेल में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं| क्रिकेट के प्रति
भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के
प्रति है
अब बात करते हैं अंग्रेजी की। यह भी हमारे देश की सबसे भयंकर बीमारी है
जो अंदर ही अंदर पूरे देश को खोखला करते चली जा रही हैं। अंग्रेजों के
लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन ‘भद्र
भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा,
वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है| अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी
की निरंतरता के प्रतीक हैं। अगर हमारे देश में किसी व्यक्ति को अंग्रेजी
बोलना नहीं आता और वह सभ्य लोगों के बीच में पहुंच जाए तो यह लोग उस���
'इंसान' समझने से भी इंकार कर देंगे। उसकी पशु की श्रेण��� में गिना
जाएगा। हमारे देश में अपनी भाषा की जितनी बेइज्जती होती है शायद दुनिया
के किसी देश में नहीं होती
होगी। हमारे देश में अगर एक सैनिक की भर्ती की जाती है तो यह नहीं देखा
जाता कि वह निशाना कितना अच्छा लगता है, बल्कि यह देखा जाता है कि वह
अंग्रेजी कितनी अच्छी बोलता है।
हमारे देश की आजादी के बाद जिस तरह अंग्रेजी के वर्चस्व को बढ़ाया गया और
राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषा की तौहीन की गई, उससे यही लगता है कि यह
गरीब, पिछड़े, दलितों को देश की सत्ता में भागीदारी करने से रोकने की
साजिश थी। यह काले अंग्रेज जो कि गोरे अंग्रेजों के दास थे, उन्हीं से
उनके
गुण सीखकर
बाकी भारतीय को गुलाम बनाए रखे हुए हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व का सबसे
ज्यादा फायदा अगड़ी जातियों ने लिया। इस हथियार का प्रयोग करके उन्होंने
आम लोगों के बीच खाई बना दी है। जिससे कि यह लोग अकेले ही मलाई चट करते
रहें।
अगर जल्द ही इसका हल नहीं खोजा गया तो यह लाइलाज बीमारी एक दिन इस पूरे
देश को ही खत्म् कर देंगी।
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Raghunandan Sharma
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