३५७८. हम यहाँ याद में तड़फड़ाते रहे
हम यहाँ याद में तड़फड़ाते रहे
तुम बहारों में मस्ती लुटाते रहे
दिन गुज़रते रहे अश्क थम न सके
आओगे तुम यही ख़्याल आते रहे
कोई होंगी तुम्हारी भी मज़बूरियाँ
सोच कर ग़म तुम्हारा भुलाते रहे
बेवफ़ाई तुम्हें रास यूँ आ गई
दाग नामे-वफ़ा पे लगाते रहे
हम ख़लिश राह तकते रहे रात दिन
झूठ तुम बस तसल्ली दिलाते रहे.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
१३ अक्तूबर २०११
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