जागा कोई, कौन सो गया
ढूँढ रहा जो तृप्ति जग में
प्यास और भी तीव्र बढ़े,
सूना-सूना सा जीवन वन
जब तक उससे नयन न लड़े !
जब तक कुछ भीतर न पाया
बाहर का सब कुछ फीका है,
मौन उतर जाता जब भीतर
जग भी तब लगता नीका है !
वाणी खो गयी मौन प्रकटता
शब्द निशब्द में ले जाते हैं,
जग भी यह सीढ़ी बन जाता
उस असीम तक हम जाते हैं !
जो कहना था कह न पाया
कह-कह कर मन मौन हो गया
भीतर गूंजी धुन वंशी की
जागा कोई, कौन सो गया !
भीतर बाहर जो मौन है
वह मन लीन हुआ है धुन में,
डूब गया जो उस अनंत में
जागा है बस उस गुन-गुन में !