"Suyash Suprabh (सुयश सुप्रभ)" <translate...@gmail.com>: Nov 21 12:38PM +0530
अनुवाद के क्षेत्र में लगभग एक दशक तक सक्रिय रहने के बाद इसके सैद्धांतिक
पक्ष को ठीक से समझने में मेरी दिलचस्पी जगी। सबसे पहले तो यह सवाल दिमाग़ में
आया कि अनुवाद करते समय हम भाषा, वर्तनी आदि से जुड़े जो विकल्प चुनते हैं
उनका कोई सुव्यवस्थित अध्ययन हुआ है या नहीं। मुझे इस सवाल का जवाब अनुवाद
अध्ययन में एमए करते समय नाइडा
<https://open.unive.it/hitrade/books/NidaBiog.pdf>, न्यूमार्क
<https://nevenjovanovic.github.io/newmark-on-translation/>, वर्मीयर
<https://vermeer-eng.fb06.uni-mainz.de/> जैसे अनुवाद सिद्धांतकारों के
अकादमिक लेखन में मिला। जैसे-जैसे अनुवाद के सिद्धांतों में मेरी रुचि बढ़ती
गई, मुझे अनुवाद के विस्तृत दायरे के बारे में और बहुत कुछ जानने को मिला।
भारत में अनुवाद के इतिहास को ठीक से समझने में मुझे देवशंकर नवीन की
पुस्तक ‘अनुवाद
अध्ययन का परिदृश्य
<https://www.livehindustan.com/ncr/noida/story-book-review-anuwad-adhyan-ka-paridrishay-2007765.html>‘
से बहुत मदद मिली।
कई बार हम किसी धारणा को सिर्फ़ इसलिए सही मान लेते हैं कि अधिकतर लोग उसका
समर्थन करते हैं। केवल सहज-सरल अनुवाद को अच्छा अनुवाद मानने की सोच भी ऐसी
धारणाओं में से एक है। अकादमिक विषय के सिद्धांत की एक अच्छी बात यह होती है
कि उसमें किसी बात को उसका समर्थन करने वालों की संख्या के आधार पर ही सही
नहीं मान लिया जाता है। अनुवाद चिंतक लॉरेन्स वेनुती
<https://liberalarts.temple.edu/academics/faculty/venuti-lawrence> ने
अनुवाद के सहज-सरल होने को उसका एकमात्र गुण मानने की सोच पर सवाल खड़ा किया
है। अनुवाद में पाठ के विदेशीकरण और घरेलूकरण
<https://www2.proz.com/translation-articles/articles/2507/1/What-arguments-are-there-to-justify-rejecting-%E2%80%9Cfluency%E2%80%9D-in-translations-and-adopting-instead-a-%E2%80%9Cforeignising%E2%80%9D-translation-strategy%3F-Discuss-with-reference-to-the-work-of-Venuti-and%7B47%7Dor-Berman./>
से
जुड़े वेनुती के लेखन से हमें पता चलता है कि पाठक की सहूलियत का मामला उतना
सरल नहीं है जितना हम उसे समझते आए हैं। सच तो यह है कि अनुवाद में सहजता लाने
के सचेत प्रयास के कारण कई बार पाठक को अनुवाद में ऐसा कुछ भी नहीं मिलता है
जो उसके अनुभव-संसार का दायरा बढ़ाए। वेनुती ने अमेरिकी प्रकाशन जगत में सरल
अंग्रेज़ी अनुवाद पर ज़ोर दिए जाने को अमेरिका की वर्चस्वकारी संस्कृति से
जोड़कर देखा है। अनुवाद में स्रोत पाठ की संस्कृति की विशिष्टताओं को जगह न
देना सांस्कृतिक श्रेष्ठता के बोध से जुड़ा है जिसमें अन्य संस्कृतियों के
बारे में जानने की ज़रूरत महसूस ही नहीं होती है। वेनुती के लेखन में इस
प्रवृत्ति की आलोचना दिखती है।
अनुवाद की दुनिया में क़दम रखने के बाद अनुभवी अनुवादकों से मुझे यह मालूम हो
गया था कि अनुवाद भाव का होता है न कि शब्द का। लेकिन एक भाषा में कही गई बात
को किसी दूसरी भाषा में व्यक्त करना हमेशा संभव नहीं होता है। चाहे साड़ी या
धोती जैसे पहनावे से जुड़े शब्दों का अनुवाद करना हो या श्राद्ध, मुंडन जैसी
धार्मिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं को विदेशी पाठकों के लिए बोधगम्य बनाना हो,
अनुवादक की चुनौतियों का कोई अंत नहीं होता है। जब आप ऐसे शब्दों का अर्थ
स्पष्ट करने के लिए उनकी व्याख्या करते हैं, तो अनुवाद में मूल पाठ जैसी सहजता
नहीं रह जाती। यह एक आम धारणा है कि केवल शब्दकोश की मदद से कोई भी व्यक्ति
अनुवाद कर सकता है, जबकि सच यह है कि स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की
सामाजिक-सांस्कृतिक जटिलताओं को ठीक से नहीं जानने वाले व्यक्ति से अच्छे
अनुवाद की उम्मीद नहीं की जा सकती है। दो भाषाओं के पाठ असल में सममूल्य होते
ही नहीं है। उनमें सममूल्यता की जगह समतुल्यता का संबंध होता है। यही वजह है
कि नाइडा ने अनुवाद में निकटतम और सहजतम समतुल्यता की बात कही है न कि एक भाषा
के कथ्य के सममूल्य अर्थ को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करने की।
नाइडा ने अपनी पुस्तक ‘टूवर्ड ए साइंस ऑफ़ ट्रांसलेटिंग
<https://books.google.co.in/books/about/Toward_a_Science_of_Translating.html?id=T9A7EAAAQBAJ&redir_esc=y>‘
में बाइबिल के उन संदर्भों का उल्लेख किया है जो समतुल्यता से जुड़ी जटिलताओं
को सामने लाते हैं। उदाहरण के लिए, बाइबिल में इस बात का उल्लेख है कि लंबे
बाल रखना पुरुषों को शोभा नहीं देता है। लेकिन इक्वाडोर की जिवारो जनजाति के
लोगों को यह बात अटपटी लगेगी क्योंकि वे लंबे बाल रखते हैं। इस जनजाति की
औरतें छोटे बाल रखती हैं। दक्षिण अफ़्रीका के कुछ हिस्सों के लोग अपने मुखिया
का स्वागत करने के लिए उसके रास्ते में पड़े पत्तों और शाखाओं को साफ़ कर देते
हैं। बाइबिल में यह लिखा गया है कि जब ईसा मसीह येरूशलम जा रहे थे तब
श्रद्धालु उनके रास्ते पर पत्ते और शाखाएँ फेंककर उनका स्वागत कर रहे थे। जहाँ
लोग रास्ते में पड़े पत्ते और शाखाएँ साफ़ करने को स्वागत से जोड़कर देखते
हैं, उनके लिए इस प्रसंग को समझना मुश्किल है। इस तरह, हम देखते हैं कि
समतुल्यता को केवल शब्द के स्तर पर नहीं समझा जा सकता है, बल्कि इसे विभिन्न
संस्कृतियों की मान्यताओं, अवधारणाओं आदि के बड़े दायरे में देखना होगा।
कई अनुवादकों का मानना है कि अनुवाद अध्ययन से अनुवादक को किसी तरह की मदद
नहीं मिलती है। वे कुछ अच्छे अनुवादकों के नाम गिनाते हुए कहते हैं कि
उन्होंने अनुवाद सिद्धांतों की जानकारी के बिना इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त
की है। उनकी इस बात से यहाँ तक मेरी सहमति है कि अनुवादक अपने कौशल के लिए
सिद्धांत पर निर्भर नहीं होते हैं। लेकिन जब बात अनुवाद अध्ययन को सिरे से
ख़ारिज करने तक पहुँच जाती है तो मैं असहमति जताना ज़रूरी समझता हूँ। अकादमिक
दुनिया में अनुवाद अध्ययन की स्थिति बेहतर होने से अनुवादक से जुड़े मसलों के
प्रति बेहतर समझ पैदा करने में मदद मिलेगी। अधिकतर लोगों को यह पता ही नहीं है
कि किसी भाषा की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं को दूसरी भाषा में अच्छे ढंग
से व्यक्त करने के लिए अनुवादक को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अगर
अनुवाद की जटिलताओं और सभ्यता के विकास में इसके योगदान की विस्तृत जानकारी
स्कूल के स्तर पर ही दे दी जाए, तो पढ़-लिखे लोगों की अनुवाद के प्रति
अतार्किक सोच को बदलना संभव हो जाएगा।
आज अनुवाद अध्ययन में कॉर्पस भाषाविज्ञान, स्कोपस सिद्धांत, शब्दावली प्रबंधन
आदि की पढ़ाई पर ध्यान देकर अनुवादक की व्यावसायिक और व्यावहारिक ज़रूरतें
पूरी करने की कोशिश की जा रही है। साथ ही, औपनिवेशिकता, जेंडर आदि से जुड़े
विमर्श के माध्यम से अनुवाद के वैचारिक दायरे का विस्तार किया जा रहा है।
ज़रूरत बस अनुवाद के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्षों के बीच संवाद में तेज़ी
लाने की है। ऐसा तभी होगा जब पेशेवर अनुवादकों और अकादमिक दुनिया के बीच संवाद
को प्रोत्साहित करने के लिए सांस्थानिक स्तर पर प्रयास किए जाएँगे।
लेखक : सुयश सुप्रभ
https://translatorsofindia.com/moving-between-theory-and-practice/
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