हाल ही में जनसत्ता के एक पाठक ने इस अखबार के संपादक ओम थानवी को पत्र लिखकर 'पेशोपस' को गलत वर्तनी बताया। ओम थानवी ने जवाब देते हुए दोनों वर्तनियों को सही बताया। मैं ओम थानवी की इस बात से सहमत हूँ, लेकिन मेरा मानना है कि हिंदी में 'पसोपेश' अधिक प्रचलित है। मैं इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूँ।सादर,सुयश
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यह ज़रूरी नहीं है कि शब्दकोश में मौज़ूद हर शब्द हमारे लेखन में
स्वीकार्य माना जाएगा। हमें प्रसंग और पाठक का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
सादर,
सुयश
On May 19, 11:42 am, Vinod Sharma <vinodjisha...@gmail.com> wrote:
> इस विषय में ओम थानवी साहब का खुलासा इतना स्पष्ट है कि उसके बाद किसी एक
> प्रयोग को सही और दूसरे को गलत कहना बेमानी हो जाता है। हाँ यहा कहा जा सकता
> है कि अमुक शब्द-युग्म अधिक प्रचलन में है और अमुक कम। इसका समानार्थी हिंदी
> में भी है- आगे-पीछे और पीछे-आगे। आगे-पीछे अधिक प्रचलन में है तो इसका मतलब
> यह नहीं कि पीछे-आगे गलत है।
>
> 2012/5/19 lalit sati <lalitanu...@gmail.com>
>
>
>
>
>
>
>
> > जी हां, लगता यही है कि *पसोपेश* सही है, और *पेशोपस* भी। थानवी साहब भी यही
> > लिखते हैं "पेशोपस (पेश-ओ-पस) लिखें तब भी वही अर्थ होगा, जो पसोपेश
> > (पस-ओ-पेश) लिखने का। "
>
> > 2012/5/19 Zulekha Khatoon <zulekha.khat...@gmail.com>
>
> >> सही लफ्ज *पसोपेश* है। यह '*पस*', '*ओ*' और '*पेश*' से बना है।
> >> *पस* का मतलब पीछे है - जैसे *पस*मंजर। *ओ* और के लिए है।
> >> *पेश* के मतलब है आगे - *पेश*नजर, पेश पेश रहना।
> >> पस-ओ-पेश का मतलब हुआ पीछे और आगे - कभी पीछे, कभी आगे । अनिश्चितता...
> >> मेरे हिसाब से हमें इस लफ्ज को लेकर किसी पस-ओ-पेश में पड़ने की कोई जरूरत
> >> नहीं।
> >> सादर
> >> जुलेखा
>
> >> 2012/5/18 Bhavna Mishra <mishrabha...@gmail.com>
>
> >>> प्रचलित प्रयोग तो 'पसोपेश' ही है. बोलने में भी और लिखने में भी.
> >>> कई शब्दों के प्रचलित रूप इतने ग्राह्य हो चुके होते हैं कि जब उन शब्दों
> >>> के मूल रूप का प्रयोग करो तो लोग उल्टा उन्हें गलत कहते हैं.
>
> >>> 2012/5/18 Suyash Suprabh (सुयश सुप्रभ) <translatedbysuy...@gmail.com>
>
> >>>> ललित जी,
>
> >>>> अब मैं 'पशोपेश' को लेकर 'पसोपेश' में नहीं हूँ, लेकिन 'पेशोपस' ने मुझे
> >>>> पसोपेश में डाल दिया है। ऐसा लगता है कि हिंदी में बहुत कम लेखक इस वर्तनी का
> >>>> प्रयोग करते हैं।
>
> >>>> सादर,
>
> >>>> सुयश
>
> >>>> 18 मई 2012 7:48 pm को, lalit sati <lalitanu...@gmail.com> ने लिखा:
>
> >>>> सुयश भाई मैं भी पशोपेश में था, अब पेशोपस में हूं :)
>
> >>>>> 2012/5/18 lalit sati <lalitanu...@gmail.com>
>
> >>>>>> *जनसत्ता के पाठक व संपादक की पेशोपस का पूरा विवरण यह रहा :*
>
> >>>>>> जनसत्ता 16 मई, 2012: ओम थानवी के ‘अनन्तर’ (13 मई 2012) में ‘पेशोपस’
> >>>>>> शब्द गलत लिखा गया है। यह फारसी का शब्द है और हिंदी में ‘पशोपेश’ नाम से चलता
> >>>>>> है। हिंदी में उर्दू-फारसी के शब्द हिंदी में गलत ढंग से लिखे जाते हैं और
> >>>>>> उनका प्रचलन आम हो गया है। उनका उपयोग करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए।
> >>>>>> वरना आज की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता इनका सत्यानाश करने पर तुली हुई
> >>>>>> है। हिंदी पत्रकारिता की अलख जगाने वालों से अतिरिक्त सावधानी की उम्मीद की
> >>>>>> जाती है। हिंदी के हरदेव बाहरी और ‘वृहत्त हिंदी शब्दकोश’ (5 खंड), हिंदी
> >>>>>> साहित्य सम्मेलन में भी ये शब्द नहीं हैं। शायद हमारे हिंदी के विद्वान नहीं
> >>>>>> चाहते होंगे कि हम किसी पशोपेश में पड़ें। मोहम्मद अब्दुल्ला खां खिशगी के
> >>>>>> उर्दू शब्दकोश ‘फरहंगे आमरा’ में सही शब्द ‘पसोपेश’ है जिसका अर्थ आगा-पीछा
> >>>>>> सोचना दिया गया है।
> >>>>>> *’राजेंद्र उपाध्याय, नई दिल्ली*
>
> >>>>>> *लेखक का जवाब:* आपने इस ‘शिकायत’ को लेकर फोन किया था, तब भी बताया था
> >>>>>> कि प्रयोग सही है। फिर बताना चाहूंगा कि नागरी में उर्दू-हिंदी का सबसे
> >>>>>> प्रामाणिक शब्दकोश मुहम्मद मुस्तफा खां ‘मद्दाह’ का है (उत्तर प्रदेश हिंदी
> >>>>>> संस्थान)। इसमें पेशोपस शब्द मिलता है, पसोपेश नहीं मिलता। ऐसे ही,
> >>>>>> उर्दू-हिंदी शब्दकोश (स्वराज प्रकाशन) और जदीद उर्दू-हिंदी कोश (भुवन वाणी
> >>>>>> ट्रस्ट) में भी पेशोपस मिला है। मेरे पास उर्दू-हिंदी के ये तीन ही कोश हैं।
> >>>>>> चौथा आपके ध्यान में हो तो बताएं ताकि मंगवा सकूं। आपका कहना सही है कि हिंदी
> >>>>>> में पसोपेश (शायद त्रुटिवश आपने पशोपेश लिखा है) प्रयोग चलता है। उर्दू के
> >>>>>> जानकार बताते हैं कि यह प्रयोग भी गलत नहीं है। फारसी में ‘और’ के लिए ‘ओ’
> >>>>>> प्रयोग है। पेश का अर्थ है आगे या सामने, पस माने पीछे। पेशोपस असमंजस के अर्थ
> >>>>>> में रूढ़ है, जब आगा-पीछा न समझ पड़ता हो। पेशोपस (पेश-ओ-पस) लिखें तब भी वही
> >>>>>> अर्थ होगा, जो पसोपेश (पस-ओ-पेश) लिखने का। जैसे दीवारो-दर भी ठीक होगा,
> >>>>>> दरो-दीवार भी। शबो-रोज भी और रोजो-शब भी। यह ऐसा ही है जैसे हिंदी में आप
> >>>>>> रात-दिन कहें, चाहे दिन-रात। कविता में जरूर छंद की दृष्टि से फर्क पड़ता है।
> >>>>>> फरहंगे आमिरा का जिक्र आपने किया है। उर्दू विद्वान बताते हैं कि उससे
> >>>>>> बड़े बहु-खण्डी कोश उर्दू में मौजूद हैं। इनमें नूर उल लुगात (जिल्द-2, पृष्ठ
> >>>>>> 204) में पेशोपस दिया गया है और मोहज्जब उल लुगात (जिल्द-3, पृष्ठ 193) में भी
> >>>>>> पेशोपस ही है।
> >>>>>> अब इतने उदाहरण देने के बाद आप गुलजारे नसीम के इस शेर पर गौर फरमाएं और
> >>>>>> अपनी पेशोपस को दूर करने का यत्न करें:
> >>>>>> दम धागे में रिश्ता-ए-नफस के
> >>>>>> फंदे में फंसा है पेशोपस के
> >>>>>> मीर अनीस का यह शेर और भी मशहूर है:
> >>>>>> क्या दम का भरोसा कि चरागे शहरी हैं
> >>>>>> कुछ पेशोपस इतना नहीं हम भी सफरी हैं
> >>>>>> *ओम थानवी*
> >>>>>> (
> >>>>>>http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/19465-201...
> >>>>>> )
>
> >>>>>> 2012/5/18 Suyash Suprabh
>
> ...
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हाल ही में जनसत्ता के एक पाठक ने इस अखबार के संपादक ओम थानवी को पत्र लिखकर 'पेशोपस' को गलत वर्तनी बताया। ओम थानवी ने जवाब देते हुए दोनों वर्तनियों को सही बताया। मैं ओम थानवी की इस बात से सहमत हूँ, लेकिन मेरा मानना है कि हिंदी में 'पसोपेश' अधिक प्रचलित है। मैं इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूँ।सादर,सुयश
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