RE: शब्दों के लिंग निर्धारण

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DrKavita Vachaknavee

unread,
Dec 16, 2015, 5:21:53 PM12/16/15
to ha
हिन्दी में तो केवल संज्ञा शब्दों पर ही यह तथाकथित 'समय और ऊर्जा व्यर्थता' होती है जबकि अंग्रेजी में तो भाषा के इक-इक शब्द का उच्चारण  सीखने में होती है। परन्तु शायद वहाँ किसी के पास फुरसत नहीं कि बता सके कि अंग्रेजी में कमियाँ हैं। उल्टे उन्होंने संसार की सबसे सक्षम भाषाओं में उसे ला खड़ा किया है और वह भी केवल 200 साल की अल्पावधि में। या शायद उनके लिए रॉकेट भाषा से कम महत्त्व की वस्तु है और हमारे भाषातकनीक वालों के लिए रॉकेट भाषा से अधिक महत्त्व की।भगवान जाने।

वैसे यह भी जोड़ना अनिवार्य है कि जर्मन भाषा में भी संस्कृत और हिन्दी की भाँति प्रत्येक संज्ञा शब्द के लिंग होते हैं। पूरा सच तो यह है कि हमसे भी बहुत अधिक कॉंप्लिकेटेड तरह से होते हैं। मैं पता लगाने को उत्सुक हूँ कि उनके तकनीक वालों ने उनके भाषा विशेषज्ञों को उनकी भाषा की कमियाँ गिनवाईं या नहीं या वे अपनी भाषा के कारण कितना पिछड़े रह गए।  संयोग से विभाजित जर्मनी के पश्चिमी जर्मनी में उस समय मेरे पति रहे जब पश्चिमी जर्मनी सुपर पॉवर था और अनुभव की बात कहूँ तो वे इसका श्रेय अपनी भाषा और भाषायी अस्मिता के प्रति निष्ठा को देते थे। 

जय हो हिन्दी के भविष्य की। 

शुभेच्छु
कविता वाचक्नवी

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GangaSahay Meena <gsmee...@gmail.com>: Dec 16 07:39AM +0530

अच्छा साक्षात्कार है। साझा करने के लिए शुक्रिया सुयश जी।
On 14-Dec-2015 8:43 pm, "Suyash Suprabh (सुयश सुप्रभ)" <
Hariraam <hari...@gmail.com>: Dec 16 11:37AM +0530

बिल्कुल प्रांसगिक तथ्य है:
 
इसी सन्दर्भ में काका हाथरसी की कविता उल्लेखनीय है:
 
स्त्रीलिंग पुल्लिंग
 
 
काका से कहने लगे ठाकुर ठर्रा सिंह
दाढ़ी स्त्रीलिंग है, ब्लाउज़ है पुल्लिंग
ब्लाउज़ है पुल्लिंग, भयंकर गलती की है
मर्दों के सिर पर टोपी पगड़ी रख दी है
कह काका कवि पुरूष वर्ग की किस्मत खोटी
मिसरानी का जूड़ा, मिसरा जी की चोटी।
 
दुल्हिन का सिन्दूर से शोभित हुआ ललाट
दूल्हा जी के तिलक को रोली हुई अलॉट
रोली हुई अलॉट, टॉप्स, लॉकेट, दस्ताने
छल्ला, बिछुआ, हार, नाम सब हैं मरदाने
पढ़ी लिखी या अपढ़ देवियाँ पहने बाला
स्त्रीलिंग जंजीर गले लटकाते लाला।
 
लाली जी के सामने लाला पकड़ें कान
उनका घर पुल्लिंग है, स्त्रीलिंग दुकान
स्त्रीलिंग दुकान, नाम सब किसने छाँटे
काजल, पाउडर, हैं पुल्लिंग नाक के काँटे
कह काका कवि धन्य विधाता भेद न जाना
मूँछ मर्द को मिली, किन्तु है नाम जनाना।
 
ऐसी – ऐसी सैंकड़ो अपने पास मिसाल
काकी जी का मायका, काका की ससुराल
काका की ससुराल, बचाओ कृष्णमुरारी
उनका बेलन देख काँपती छड़ी हमारी
कैसे जीत सकेंगे उनसे करके झगड़ा
अपनी चिमटी से उनका चिमटा है तगड़ा।
 
मंत्री, संत्री, विधायक सभी शब्द पुल्लिंग
तो भारत सरकार फिर क्यों है स्त्रीलिंग?
क्यों है स्त्रीलिंग, समझ में बात ना आती
नब्बे प्रतिशत मर्द, किन्तु संसद कहलाती
काका बस में चढ़े हो गए नर से नारी
कंडक्टर ने कहा आ गयी एक सवारी।
 
उसी समय कहने लगे शेर सिंह दीवान
तोता – तोती की भला कैसे हो पहचान
कैसे हो पहचान, प्रश्न ये भी सुलझा लो
हमने कहा कि उसके आगे दाना डालो
असली निर्णय दाना चुगने से ही होता
चुगती हो तो तोती, चुगता हो तो तोता।
∼ काका हाथरसी
2015-12-14 20:43 GMT+05:30 Suyash Suprabh (सुयश सुप्रभ) <
> सिर्फ अंग्रेजी में देख सकते हैं आप. देखिए आदिवासी भाषाओं में, लिंग निर्णय
> का इतना बोझ नहीं है. यह आर्य पद्धति है, इसमें ऊर्जा लग रही है. जितनी ऊर्जा
> इसमें लगती है, उतने में तो नौजवान रॉकेट बना लेगा....
 
 
 
 
हरिराम
प्रगत भारत <http://hariraama.blogspot.in>
Yogendra Joshi <yogendr...@gmail.com>: Dec 16 07:33PM +0530

कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी को देश से निष्कासित कर दिया जाना
चाहिए। लिंगभेद तो कई अन्य भाषाओं में भी है। कई भारतीय अंगरेजी को उत्कृष्ट
भाषा मानते हैं, लेकिन भाषावेत्ता कहेंगे कि वहां आदमी को वर्तनी से उलझना
पड़ता है। उसे भी अच्छा नहीं कहा जायेगा। उससे बेहतर अन्य यूरोपीय भाषाएं हैं।
और चीनियों को भी समझाया जाना चाहिए कि वे अपनी भाषा को त्याग दें जिसमें
५०-६० हजार कैरेक्टर और उनके उच्चारण तथा अर्थ सीखना पड़ता है। अब जो सबको
सर्वश्रेष्ठ लगे वैसी भाषा लायें कहां से?
 

Hariraam

unread,
Dec 17, 2015, 2:46:05 AM12/17/15
to hindian...@googlegroups.com
कविता जी,
केवल संज्ञा शब्दों तक ही प्रभाव होता तो ठीक होता, पर लिंग का प्रभाव क्रियापदों पर होने से हिन्दीतर भाषियों को हिन्दी में ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है, यथा--

राम खाता है, सीता खाती है, वे दोनों खाते हैं

परंतु अंग्रेजी में क्रियापदों पर लिंग के कारण खास प्रभाव नहीं पड़ता...
Ram is going, Sita is going, they both are going.

ओड़िआ भाषा में भी क्रियापदों पर लिंग का प्रभाव नहीं पड़ता...
ରାମ ଜାଉଛି, ସୀତା ଜାଉଛି, ସେ ଜାଉଛି

अन्य कुछ भारतीय भाषाओं में भी ऐसा नहीं दिखता..

तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास जैसे महाकवियों के साहित्य जिनपर एम.ए. तक की पढ़ाई होती है, पी.एचडी होती है, उनके साहित्य में ऐसे कोई व्याकरण के नियम नहीं पाए जाते,

भारत के गाँव गाँव में करोड़ों आम जनता  द्वारा प्रयोग की जानेवाली सरल हिन्दी भाषा में क्रियापदों पर लिंग के कारण अन्तर नजर नहीं आता, यथा--

राम जात है, सीता जात है, वे जात हैं, 
माई घर जावत है, भाई घर जावत है, सब घर जावत है... 
माई भात खावत है, भाई भात खावत है, सब भात खावत है... 

काश कि खड़ीबोली हिन्दी के विद्वान हिन्दीतर भाषियों की समस्या को समझने का प्रयास करते, जो जीवनभर अभ्यास करते रहने पर भी शुद्ध हिन्दी (लिंग के अनुसार) बोल-लिख नहीं पाते... 


2015-12-17 3:51 GMT+05:30 DrKavita Vachaknavee <kavita.va...@gmail.com>:
हिन्दी में तो केवल संज्ञा शब्दों पर ही यह तथाकथित 'समय और ऊर्जा व्यर्थता' होती है



Vinod Sharma

unread,
Dec 17, 2015, 8:14:09 AM12/17/15
to hindian...@googlegroups.com
मेरे विचार से भाषा के विषय पर बहस बेमानी है। किसी व्यक्ति या समूह के विचारों से भारत जैसे वृहत देश की हिंदी भाषा प्रभावित नहींं होती। यह जन-भाषा है और किसी नदी की भाँति प्रवाहित होती है। राह की कोई बाधा उसके प्रवाह को न तो रोक सकती है और न ही प्रभावित कर सकती है। भाषा में कोई भी परिवर्तन दिनों या सप्ताहों या महीनों में नहीं होता है। धीरे-धीरे सहज रूप में परिवर्तन होते हैं और उनका आभास आगे आने वाली पीढ़ी को ही हो पाता है। चिंता करने का कोई कारण नहीं है, हाँ, लोगों के व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने विचार हो सकते हैं।
सादर,
विनोद शर्मा 

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Yogendra Joshi

unread,
Dec 17, 2015, 12:36:23 PM12/17/15
to hindian...@googlegroups.com
भाषाएं किसी एक या कुछएक लोगों के विचार से विकसित नहीं होती हैं। उनका उद्भव अलग-अलग क्षेत्रों में वहां की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार हुआ है और वे तदनुरूप विकसित होती आई हैं। उनमें एक प्रकार का स्वतःस्फूर्त परिवर्तन भी होता रहा है। अंगरेजी वह नहीं रह गयी जो ५००-६०० वर्ष पहले थी। हिन्दी भी वह नहीं जो उस काल में थी। हरएक भाषा की कुछ खामियां होती हैं तो कुछ खूबियां भी। यह भी समझना जरूरी है किसी क्षेत्र के बाशिंदे किताबों से भाषा नहीं सीखते हैं बल्कि पैदा होने के बाद सहज रूप से अपने परिवेश से सीखते हैं। व्याकरण के नियम भी वे नहीं जानते, लेकिन उसका प्रयोग स्वतः ही होने लगता है। लिंग की बात हो तो यह सवाल उठता है कि वह हो ही क्यों। अंगरेजी में he, she, it, हो ही क्यों, सबके लिए he,अथवा she अथवा it  पर्याप्त हो सकता था। इसी प्रकार he do कहने में क्या खराबी थी? इस प्रकार के तमाम सवाल उठाए जा सकते हैं।

भाषाओं पर इस प्रकार की बहस बौद्धिक विलासिता (intellectual pleasure) तो दे सकती है, लेकिन कुछ सार्थक और उपयोगी परिणाम उससे मिलेंगे इसमें मुझे शंका है। यह बहस उतनी ही आवश्यक है जितनी लोकसभा में आजकल होती है।


17 दिसंबर 2015 को 6:43 pm को, Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com> ने लिखा:

Hariraam

unread,
Dec 18, 2015, 1:01:10 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
सही है... ग्रामीण भोली भाली जनता की जरूरतों, वैश्विक-प्रसार, इंटरनेट, तकनीकी, मोबाईल, एस.एम.एस., संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषा, हिन्दी में इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की पाठ्य-पुस्तकों आदि की जरूरतों के अनुरूप नई पीढ़ी द्वारा हिन्दी में अनेक सरल प्रयोग बढ़ रहे हैं...

- हरिराम

2015-12-17 18:43 GMT+05:30 Vinod Sharma <vinodj...@gmail.com>:
...भाषा में कोई भी परिवर्तन दिनों या सप्ताहों या महीनों में नहीं होता है। धीरे-धीरे सहज रूप में परिवर्तन होते हैं और उनका आभास आगे आने वाली पीढ़ी को ही हो पाता है।...



Hariraam

unread,
Dec 18, 2015, 1:36:32 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
सही कहा आपने... भाषा किसी कारखाने में नहीं बनाई जाती... 
पर व्याकरण के नियम यदि अस्पष्ट हों, तर्क और विज्ञानसम्मत न हों, अपवादों की भरमार हो तो... आम जनता द्वारा इनका अनुपालन करना सम्भव नहीं हो पाता... वह भाषा केवल गिने-चुने साहित्यकारों की पुस्तकों तक सीमित रह जाती है, पुस्तकालयों में धूल-सनी...

आज के व्यापक प्रयोग में देखें तो...
-- हिन्दी काव्य में तो व्याकरण के नियमों का कोई बंधन नहीं होता... कवि पूर्ण स्वतंत्र मानता है खुद को...
-- अधिकांश हिन्दी अखबारों में आजकल वर्तनी की त्रुटियों की भरमार से लेकर व्याकरण के नियम टूटे हुए दिखते हैं...
-- इंटरनेट में, गूगल सर्च में, इ-ई, उ-ऊ की मात्रा का  अन्तर, लिंग-वचन के नियम टूटकर स्वच्छन्द प्रयोगों की अधिकता मिलती है...
-- तकनीकी, चिकित्सा, विज्ञान विषयों की पुस्तकें हिन्दी में आ रही हैं, कौन-सा रसायन/एलीमेंट/तत्व स्त्रीलिंग होगा, कौन-सा पुल्लिंग?
-- मशीनों के कौन-से पुर्जे स्त्रीलिंग होंगे, कौन-से पुल्लिंग?
-- तृतीय लिंग को कानूनी मान्यता मिलने के बाद, उनके लिए कौन-सा प्रत्यय निर्धारित किया जाए - (खात/खाता/खाती/खाते????)
.... आदि... इत्यादि अनेकानेक के निर्धारण के विवाद खड़े हो रहे हैं... 

लगता है, समय आ गया है... हिन्दी में इसके मूल संस्कृत के नियमों के अनुसार विज्ञानसम्मत सुधार की जरूरत महसूस की जाने लगी है...
समय की जरूरत के अनुसार कुछ परिवर्तन तो स्वतः ही होंगे... 

हिन्दी को समग्र भारतवर्ष के लोगों की मातृभाषा बनाना है, समग्र विश्व की श्रेष्ठ भाषा के रूप देखना चाहते हैं तो हमें समय के साथ होनेवाले बदलावों/सुधारों को स्वीकारना तो पड़ेगा ही...


2015-12-17 23:06 GMT+05:30 Yogendra Joshi <yogendr...@gmail.com>:
...किसी क्षेत्र के बाशिंदे किताबों से भाषा नहीं सीखते हैं बल्कि पैदा होने के बाद सहज रूप से अपने परिवेश से सीखते हैं। व्याकरण के नियम भी वे नहीं जानते,...


pushya mitra

unread,
Dec 18, 2015, 2:27:11 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
सहमति-असहमति अलग है. इसी विषय पर मैंने चार साल पहले एक आलेख लिखा था. आपसे साझा करना चाहूंगा...


जहां घर नर और सड़कें मादा नहीं हैं!

BY AVINASH · JULY 10, 2011

♦ पुष्‍यमित्र

हाल ही में मैनें एक किताब पढ़कर खत्म की है। किताब का नाम है, जहं-जहं चरन परे गौतम के। यह संभवतः गौतम बुद्ध की सबसे रोचक जीवनी है। मगर मेरे लिए इस किताब का नाम भी कम रोचक नहीं। चरण नहीं चरन, पड़े नहीं परे। शब्दों का यह चयन हम बिहारियों के हिंदी उच्चारण की हीन ग्रंथी पर मरहम लगाने सरीखा है। हम लोग अक्सर इस तरह के उच्चारण के लिए दूसरे प्रदेशों में उपहास के पात्र बनते रहे हैं और आज तक यही समझते रहे कि हमारा यह उच्चारण दोष हमारी अयोग्यता का प्रमाण है। इस पुस्तक का शीर्षक पढ़ कर पहली बार यह समझ आया कि इस तरह का उच्चारण हम बिहारियों के सदियों पहले प्राकृत और पालि भाषी होने के कारण है। इन लोक भाषाओं में उच्चारण इसी तरह किया जाता रहा है और बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा के बाद इन भाषाओं को शासकीय स्वीकृति भी मिली। बहरहाल हमारी जीभ उस वक्त जिस तरह उमेठी गयी, उसका असर अब तक कायम है। बिहार के लोग बमुश्किल सौ-सवा साल से हिंदी बोल रहे होंगे, उससे पहले तो इन्हीं या इनकी अपभ्रंश भाषाओं-बोलियों से हमारा काम चलता रहा। चाहे वह भोजपुरी हो या मैथिली, मगही हो या अंगिका। कहने को आज इन्हें हिंदी की बोलियां कह दिया जाता है, पर हकीकत में यह हिंदी से काफी पुरानी बोलियां हैं और प्राकृत व पालि जैसी भाषाओं का ही अपभ्रंश हैं।

यहां मेरा अभिप्राय हिंदी भाषा को कमतर बताना नहीं है। हिंदी आज उत्तर भारत की सर्वमान्य भाषा है। भले इसकी उम्र छोटी है, मगर प्रभाव व्यापक। सबसे बड़ी बात कि इस भाषा की बदौलत इस नयी सदी में हम जैसे लाखों लोगों की रोजी-रोटी चल रही है। मेरा आशय सिर्फ खुद जैसे बिहारवासियों की उस हीन ग्रंथि पर मलहम लगाना है, जो उच्चारण और लिंगदोष के नाम पर हम चुपचाप झेलते आये हैं।

उच्चारण दोष का अभियोग तो आवाज की दुनिया के कई दोस्तों को झेलना और भुगतना पड़ता ही है और इस कारण कई बार उन्हें पर्दे के सामने आने का मौका नहीं मिल पाता। मगर अखबारी दुनिया के बिहारवासी साथी ज्यादातर लिंगदोष के मारे हैं। दूसरे प्रांतों के हमारे वरिष्ठ द्विआर्थी तरीके से इस शब्द का उच्चारण करते हैं और हम चुपचाप झेंपते हुए मुस्कुराते रहते हैं। अब जाकर मैंने गौर किया कि हमारी बोलियों में तो संस्कृत की तरह तीन लिंग होते हैं। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और उभय लिंग। यानि हम लोग लिंग विहीन चीजों को लिंग के खांचे में नहीं बांटते। राम पुल्लिंग है और सीता स्त्रीलिंग, मगर राम और सीता का घर हिंदी में भले ही पुल्लिंग होता है, संस्कृत की तरह हमारी बोलियों में उभय लिंग ही होता है। बड़ा पापुलर मजाक है, न्यूज रूम में अक्सर उल्लेख किया जाता है कि हवा बहता है या बहती है का जब फैसला करना हो तो हवा बsहs है कर देना चाहिए। पर हकीकत में हमारी बोलियों में यह इसी तरह इस्तेमाल होता है। हवा बsहs है या हवा बहै छय। घर पुराना हो गया को मैथिली में कहते हैं घर पुरान भs गेल। यहां घर लिंग विहीन है। सचमुच घर लिंग विहीन ही होता है। घर भी, हवा भी, आम भी और हवाई जहाज भी। क्या किसी ने इनका लिंग देखा है? खैर हिंदी वालों ने इनमें स्त्रीत्व और पुरुषत्व तलाश लिये और अब हम भी घर को नर और सड़क को मादा के रूप में देखने की आदत डाल चुके हैं। आने वाले समय में लेस्बियन, गे और किन्नर दावा करने लगे तो हिंदी में संशोधन की जरूरत होगी, मगर फिलहाल घर और सड़क दावा करने वाले नहीं। लिहाजा हमने अपना नजरिया बदल लिया है और अपनी शर्ट को एक खूबसूरत हसीना मानकर खुश होते हैं कि वह हमारे बदन से लिपटी तो है।

उसी तरह हमारी बोलियों में का के की भी अलग नहीं है। मैथिली और भोजपुरी में इन तीनों के बदले सिर्फ के प्रयुक्त होता है। जैसे राम के मेहरारू, राम के कनिया, अहमदिया के दुआर। वहीं अंगिका में इनकी जगह र इस्तेमाल होता है। राम र दुलहिन और अहमदिया र दरबज्जा। कहीं किसी लिंगात्मक विश्लेषण की जरूरत नहीं। आपकी कसम के बदले भोजपुरी भाई कहते हैं तोहार किरिया। हमार भौजी। हम बिहारवासी कई बार कह देते हैं तुम्हारा पापा, तुम्हारा मम्मी और हंसी के पात्र बन जाते हैं। वह इसलिए कि हम अपनी स्थानीय बोलियों में तोहार, तोरे, तोहर से ही बड़े, छोटे सबका का काम चला लेते हैं। मसलन तोहर बाबू या तोहर माय। अगर किसी बड़े को कहना होता है तभी अहां के बाबूजी या अपने के माताजी कहते हैं। यहां हिंदी में कहना पड़ता है, तुम्हारे पिताजी और आपका बेटा। बिहार में तो बेटा भी अहां के और पिताजी भी अहां के ही होता है।

बिहार में मूलतः चार भाषाएं हैं। भोजपुरी, मैथिली, अंगिका और मगही। इन्हें बोली कहकर इनका महत्व कम नहीं किया जा सकता है। मैथिली और भोजपुरी तो आज भी अंतरराष्ट्रीय सम्मान हासिल कर रही है, जहां तक मगही और अंगिका का सवाल है, ये भी प्राचीन इतिहास के दौर में अंतरराष्ट्रीय भाषाएं रह चुकी हैं। इनका हजारों साल का इतिहास है। अंगिका की अपनी लिपि है। इन भाषाओं का वर्तमान भले ही गर्त में हो मगर इतिहास कई भाषाओं से अधिक समृद्ध रहा है। हमें इन्हीं मातृभाषाओं का सूत्र पकड़ कर हिंदी का दामन थामना पड़ा है। अगर बंगाली, तमिल या कन्नड़ की टूटी-फूटी हिंदी को हम सहिष्णुता दर्शाते हुए झेल लेते हैं तो फिर राजस्थान के मारवाड़ियों, मध्यप्रदेश के बुंदेलियों और बघेलियों और भोजपुरियों, मैथिलों, अंगिका भाषियों और मगहियों को क्यों नहीं। भोपाल में मैं नहीं मे होता है और पत्थर नहीं, फत्तर। पंजाब में स्कूटर नहीं सकूटर होता है और धर्मेंद्र नहीं धरमेंदर। हमारे यहां भी सरक हेमामालिनी का गाल जैसा बनता है जनाब।

Pushya Mitra(पुष्‍य मित्र। ज़मीनी पत्रकार। माखनलाल पत्रकारिता युनिवर्सिटी से डिग्री लेने के बाद हिंदुस्‍तान भागलपुर में लंबे समय तक रहे। फिर नौकरी छोड़ कर बाढ़ राहत के कामों में लगे। इन दिनों प्रभात खबर से जुड़े हैं। उनसे push...@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


Hariraam

unread,
Dec 18, 2015, 6:24:23 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com, DrKavita Vachaknavee
यह विषय आपस में तर्क हेतु नहीं, बल्कि कुछ समस्याओं का समाधान करने के लिए उठा है...

-- हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने के लिए प्रयास जारी हैं, विश्व के अन्य भाषा-भाषियों को तुरन्त सरल सही अनुवाद उपलब्ध करवाना, भाषा-तकनीकी,आदि की अनेक व्यवस्थाएँ की जानी है। विश्वभर के लोगों को हिन्दी सिखाने का प्रयास भी किया जाना है...
-- तकनीकी, चिकित्सा, विज्ञान आदि विषयों की पुस्तकें हिन्दी में बन रही हैं, कौन-सा रसायन/एलीमेंट/तत्व स्त्रीलिंग होगा, कौन-सा पुल्लिंग?
-- मशीनों के कौन-से कलपुर्जे स्त्रीलिंग होंगे, कौन-से पुल्लिंग?
-- क्या ज्ञान-विज्ञान की समस्त विधाओं के सभी शब्दों के निर्जीव वस्तओं, पुर्जों, कार्यों के स्त्रीलिंग-पुल्लिंग निर्धारित करते हुए शब्दकोश बनाने होंगे?
-- वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा बनाई गई विभिन्न विषयों की शब्दावलियों में शब्दों का कोई लिंग निर्धारण नहीं मिलता, क्या वह भी निर्धारित करने होंगे? 
-- तृतीय लिंग को कानूनी मान्यता मिलने के बाद, उनके लिए कौन-सा प्रत्यय निर्धारित किया जाए - (खात/खाता/खाती/खाते????)
-- आदि... इत्यादि अनेकानेक के निर्धारण सवाल खड़े हुए हैं... 

-- हिन्दी भाषा साहित्य, (कविता-कहानी आदि) तक सीमित नहीं, ज्ञान-विज्ञान के सभी विषयों का कार्य इसमें किया जाना है...
-- हिन्दी की जननी संस्कृत मानी जाती है, तो क्या संस्कृत की तरह इसमें 'नपुंसक लिंग' को शामिल किया जाए? या ज्ञान विज्ञान के सभी तकनीकी/वैज्ञानिक/अभियांत्रिकी/चिकित्सा/एनाटोमी/अंतरिक्ष विज्ञान/गणित... इत्यादि सभी विषयों के निर्जीव पदार्थों/पुर्जों/रसायनों/कार्यों आदि के शब्दों के "पुल्लिंग/स्त्रीलिंग" निर्धारित किए जाएँ?

माननीय विद्वानों से केवल इसी बिन्दु पर ही ठोस विचार प्रकट करने हेतु निवेदन है। इस बिन्दु से अन्य के बारे में हो तो Edit subject करके विषय बदलकर अपने विचार पोस्ट करने हेतु निवेदन है।




2015-12-18 14:13 GMT+05:30 (Dr.) Kavita Vachaknavee <kavita.va...@gmail.com>:
...क्रिया पद के लिंगाधारित रूप केवल दो प्रकार के होते हैं, जिसे स्त्रीलिंग पुलिङ्ग आ गया उसे क्रियापद में तत्संबंधी सीखने को शेष रह क्या गया ?...


narayan prasad

unread,
Dec 18, 2015, 7:49:56 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
मेरे विचार में, जिन संज्ञा शब्दों का अभी तक व्याकरणिक लिंग प्रचलित कोशों में उपलब्ध नहीं है, उन सब को और नए-नए निर्मित तकनीकी संज्ञा शब्दों को पुँल्लिंग माना जाय, केवल दीर्घ ईकारांत शब्दों को छोड़कर ।


<<-- तृतीय लिंग को कानूनी मान्यता मिलने के बाद, उनके लिए कौन-सा प्रत्यय निर्धारित किया जाए - (खात/खाता/खाती/खाते????)>>

क्रियारूप के लिए उस शब्द को पुँल्लिंग मानकर ।

--- नारायण प्रसाद

Vinod Sharma

unread,
Dec 18, 2015, 7:52:39 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
विषय अत्यंत जटिल है। यदि संस्कृत को आधार बना कर नपुंसक लिंग का समावेश किया जाता है, तो लिंग-भेद संबंधी समस्या के और अधिक जटिल होने की पूरी संभावना है। पहले ही सरलता के पक्षधर शुद्धतावादियों पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी थोपने का आरोप लगाते रहे हैं।
दूसरा उपाय क्रिया-पदों को लिंग-मुक्त करने का हो सकता है (जैसा हमारे ग्रामीण अंचलों की बोलियों में होता है), जो लिंग-भेद की समस्या का उन्मूलन कर सकता है, किंतु यह हिंदी जैसी विशाल भाषा में आमूल-चूल परिवर्तन जैसा होगा। 
फिलहाल तो इन दो उपायों के अतिरिक्त कोई तीसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है। 

2015-12-18 16:54 GMT+05:30 Hariraam <hari...@gmail.com>:

narayan prasad

unread,
Dec 18, 2015, 8:21:44 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
<<यदि संस्कृत को आधार बना कर नपुंसक लिंग का समावेश किया जाता है, तो लिंग-भेद संबंधी समस्या के और अधिक जटिल होने की पूरी संभावना है।>>

मेरे विचार से कोई समस्या नहीं होगी । क्रियारूप तो पुँल्लिंग या स्त्रीलिंग के अनुसार ही होगा । जो संज्ञा शब्द नपुंसक लिंग में होगा उसका भी क्रियारूप हमेशा पुँल्लिंग के अनुसार ही होगा । कोई नया क्रियारूप गढ़ा नहीं जाएगा ।


Vinod Sharma

unread,
Dec 18, 2015, 8:37:44 AM12/18/15
to hindian...@googlegroups.com
यदि वर्तमान दो लिंगों में से ही एक, अर्थात पुल्लिंग का प्रयोग नपुंसक लिंग, अनिर्धारित-लिंग वाले शब्दों और संदेह की स्थिति में भी, किया जाता है तो निश्चय ही सरल समाधान हो सकता है।  
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