संघीय सेवा आयोग के "अंग्रेजी प्रेम" और तत्संबंधित दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका के संदर्भ में अपना मत मैं यों व्यक्त करता हूं:
(1) हम भारतीय निहायत स्वार्थी तथा दोहरे चरित्र के धनी हैं। एक ओर तो हम जनहित की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, दूसरी ओर उनका उल्लंघन करके अपने स्वार्थ सिद्ध करने से नहीं हिचकते हैं। हिंदी को केंद्र की राजभाषा क्यों घोषित की गई है जब उसे स्थापित करने के बजाय पीछे धकेला जाना है? अगर अंगरेजी इस देश के लिए अपरिहार्य ही है तो क्यों नहीं उसीको राजभाषा घोषित लिया जाता है जब कि 63 सालों से उसी का प्रयोग हो रहा है और आने वाली सदियों तक प्रयोग होता रहेगा? जब अंगरेजी ही सर्वत्रव्यापी है और सर्वव्यापी बनाए रखनी है तो देशी भाषाओं की बात ही क्यों करते हैं हमारे शासक?
(2) हम इस वास्तविकता को क्यों नकारते आ रहे हैं कि देश का प्रबंधन जब तक उन लोगों के हाथ में है जो अंगरेजी के बल पर उस व्यवस्था पर कब्जा जमाये हैं तब तक हिंदी समेत भारतीय भाषाएं पनप ही नहीं सकतीं? हम इस बात को क्यों नहीं समझते कि वे भले ही मूलतः हिंदीभाषी या अन्य भारतीय-भाषाभाषी हों, उस जगह पहुंचने के बाद वे यह बखूबी समझने लगते हैं कि अंगरेजी उनकी स्वार्थसिद्धि का कारगर माध्यम है? क्यों भूल जाते हैं कि वे अपनी मूल भाषा को तिलांजलि देकर अंगरेजी अपना ही नहीं लेते हैं, बल्कि उसके पक्ष में तमाम दलीलें देने लगते हैं। पता करें कि उच्चपदस्थ लोग कभी हिंदी अख़बार पढ़ते हैं, किसी को हिंदी में कोई बात लिखते हैं?
(3) अंगरेजी के पक्षधर जानते हैं कि अंगरेजी इस देश के 125 करोड़ लोगों की क्या 25 करोड़ की भी जनभाषा नहीं बन सकती है। उन्होंने ऐसी व्यवस्था पैदा की है कि देश न तो अंगरेजी से मुक्त हो सकता है और न ही अंगरेजी जनभाषा बन सकती है। यथास्थिति बनाये रखकर ही उनके हित सुरक्षित-संरक्षित रह सकते हैं इसे वे बखूबी समझते हैं।
(4) इस देश को चलाने वालों, जो देश की अधिसंख्य जनता को अपने अधीन शासित प्रजा के रूप में देखते हैं, के लिए देशहित का मतलब है उनके अपने वर्गीय हित। उन्होंने देश को "इंडिया" तथा "भारत" में विभाजित कर रखा है। वे इंडिया में रहते हैं। उनके लिए भारत के हितों का कोई महत्व नहीं है। उन्होंने संपन्न वर्ग के लिए एक और विपन्न के लिए दूसरी व्यवस्था बना के रखी है। उनके लिए यह माने नहीं रखता है कि अधिसंख्य लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, आदि की व्यवस्था निरर्थक हो चुकी है। ऐसे लोग अंगरेजी की वकालत इंडिया-भारत के भेद को घटाने के लिए नहीं बढ़ाने के लिए करते आ रहे हैं।
(5) जहां तक विशेषज्ञों का सवाल है वे पहले से ही भारतीय भाषाओं के विरुद्ध दुराग्रह-ग्रस्त हैं। जो लोग हिंदी या अन्य देशी भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों को छूने से तक बचते हैं वे अंगरेजी की वकालत तो करेंगे ही। सवाल यह है कि वे अंगरेजी में आम जनता के हित कैसे देखते हैं जिसको अंगरेजी ही नहीं आती। अंगरेजी की बाध्यता आम आदमी को आगे बढ़ने से रोकती है इसे समझते हुए भी वे जिद करें तो चारा क्या है?
(6) सरकारी अधिकारियों को देश की आम जनता से संपर्क साधना होता है न कि अंगरेजों से। ऐसे में उनके लिए देशी भाषाओं की अहमियत अधिक है यह भी इन विशेषज्ञों को स्वीकारने में दिक्कत है।
(7) इन विशेषज्ञों से पूछा जाना चाहिए कि जो चीन हमसे पीछे हुआ करता था आज वो इतना आगे कैसे निकल गया है? क्या अंगरेजी के बल पर? क्या उन्हें इस बात का ज्ञान है कि चीन में अधिकांशतः सभी चीनी भाषा में ही कप्यूटर एवं इंटरनेट का प्रयोग कर रहे है? क्या कोर्रिया-जापान की प्रगति जनता पर अंगरेजी थोपने से प्राप्त की गयी है?
लेकिन "भैंस के आगे बीन बजे भैंस खड़ी पगुराय" । दुराग्रह-ग्रस्त व्यक्ति के सामने तर्कों का कोई अर्थ नहीं रह जाता।