अंग्रेजों
के शासनकाल की बात है : कॉलेज के दो विद्यार्थी परीक्षा देकर लौट रहे थे ।
सिनेमाघर के पास बडी भीड जमा थी लेकिन सबके चेहरे मुरझाये हुए थे ।
विद्यार्थी गोलवलकर शरीर से तो पतले-दुबले थे लेकिन साहसी और बुद्धिमान थे । उन्होंने सिनेमाघर के पास जाकर पता लगाया ।
लोगों ने बताया : ‘‘नई, बढिया फिल्म लगी थी । हम लोग सपरिवार देखने आये थे । फिल्म पूरी हुई तब सिनेमाघर के महिला-द्वार पर अंग्रेज पुलिस दारू पीकर खडी हो गयी है । हमारी बहू-बेटियाँ अंदर रह गयी हैं ।
गोलवलकर ने कहा : ‘‘आप लोग अपनी बहू-बेटियों को लाते क्यों नहीं ?
तब उन लोगों ने दबे स्वर में कहा : ‘‘उनका शासन चल रहा है । पुलिसवाले लोग जवान हैं और दारू पिये हुए हैं ।
गोलवलकर ने अपने साथी से कहा : ‘‘चलो, इनकी मदद करें ।
साथी ने कहा : ‘‘हमको क्या, छोडो इनको ।
वह साथी युवक पढा-लिखा तो था लेकिन मानवीय संवेदना से हीन था । उस मूर्ख
को अपने कत्र्तव्य का भान ही नहीं था कि अपने देशवासी लाचार होकर उन
अंग्रेज गुंडों की पीडा सह रहे थे और वह ‘हमको क्या ? हमारा क्या ? कहकर
अपने करतव्य से च्युत हो रहा था । देशवासियों से अपनेपन का भाव न होने के
कारण वह मुसीबत से जूझने के बजाय दूर भाग रहा था ।
मनुष्य-मनुष्य में
एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता नितांत आवश्यक है । जब तक हम एक -दूसरे को
सहयोग नहीं करेंगे, तब तक हमारी उन्नति भी नहीं होगी । कम-से-कम हममें उस
जटायु जैसी संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए जिसने एक पक्षी होने पर भी
मानवता की रक्षा के लिए दुराचारी रावण का सामना करके सारे जनसमूह को
संवेदना का संदेश दिया । जब एक निहत्था पक्षी भी संवेदना के भाव से युक्त
होकर मानवता की रक्षा हेतु अपने प्राणों की बलि दे सकता है, तो हम
मानव-मानव के प्रति संवेदना क्यों नहीं रखते ?
वह संवेदनहीन साथी तो
चला गया लेकिन दुबले-पतले गोलवलकर ने, जैसे शेर हाथी पर गरजता है, वैसे ही
अंग्रेज पुलिसवालों पर गरजते हुए कहा : ‘‘चले जाओ । फिर उसने अंग्रेजों पर
जोरदार छलांग लगायी... एक की छाती पर और दूसरे के सिर पर लात दे मारी...
दोनों भाग खडे हुए और तीसरे ने माफी माँगते हुए बहू-बेटियों को छोड दिया ।
वह साहसी विद्यार्थी बहू-बेटियों को सुरक्षित छुडाकर ले आया ।
बाहर खडे लोग उसके इस वीरतापूर्ण कार्य के लिए गद्गद होकर स्नेह और आशीर्वाद के वचनों की वर्षा करने लगे ।
सबको सुखी देखने की भावना उस विद्यार्थी में थी । किसी भी देशवासी का कष्ट
न देख सकनेवाले एवं साहस तथा बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण यही विद्यार्थी
गोलवलकर आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक बने और गुरु
गोलवलकर के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
(ऋषि प्रसाद नवम्बर २००१)