१‒सबको सूर्योदय से पहले उठना चाहिये ।
२‒उठते
ही भगवान् का स्मरण करना तथा ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च
सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥’ इस प्रकार स्तुति करनी चाहिये ।
३‒ अपने बड़ों को प्रणाम करना चाहिये ।
४-शौच-स्नान करके दंड-बैठक, दौड़-कुश्ती आदि शारीरिक और आसन-प्राणायाम आदि यौगिक व्यायाम करने चाहिये ।
५‒प्रातःकाल ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥’‒इस मन्त्र की कम-से-कम एक माला अवश्य जपनी चाहिये । और जिनका यज्ञोपवीत हो चुका है, उनको सूर्योदय से पूर्व संध्या और कम-से-कम एक माला गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये ।
६‒श्रीमद्भगवद्गीता के
कम-से-कम एक अध्याय का नित्य अर्थसहित पाठ करना चाहिये । इसके लिये ऐसा
क्रम रखा जाय तो अच्छा है कि प्रतिपदा तिथि को पहले अध्याय का, द्वितीया को दूसरे का, तृतीया को तीसरे का‒इस तरह एकादशी तिथि को ११वें अध्याय तक पाठ करके, द्वादशी को १२वें और १३वें अध्यायों का, त्रयोदशी को १४वें और १५वें का, चतुर्दशीको
१६वें और १७वें का तथा अमावस्या या पूर्णिमाको १८वें अध्याय का पाठ कर ले ।
इस प्रकार पंद्रह दिनों में अठारहों अध्याय का पाठ-क्रम रखकर एक महीने में
सम्पूर्ण गीता के दो पाठ पूरे कर लेने चाहिये । तिथि क्षय हो तब ७वें और ८वें
अध्यायों का पाठ एक साथ कर लेना तथा तिथि-वृद्धि होने पर १६वें और १७वें
अध्याय का पाठ अलग-अलग दो दिन में कर लेना चाहिये ।
७‒विद्यालय में
ठीक समय पर पहुँच जाना और भगवत्-स्मरण-पूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिये । किसी
प्रकार का ऊधम न करते हुए मौन रहकर भगवान् के नाम का जप और स्वरूप की स्मृति
रखते हुए प्रतिदिन जाना-आना चाहिये ।
८‒विद्यालय की स्तुति-प्रार्थना आदि में अवश्य शामिल होना और उनको मन लगाकर प्रेमभावपूर्वक करना चाहिये; क्योंकि मन न लगाने से समय तो खर्च हो ही जाता है और लाभ होता नहीं ।
९‒पिछले पाठ को याद रखना और आगे पढ़ाये जाने-वाले पाठ को उसी दिन याद कर लेना उचित है, जिससे पढ़ाई के लिये सदा उत्साह बना रहे ।
१०‒पढ़ाई को कभी कठिन नहीं मानना चाहिये ।
११‒अपनी कक्षा में सबसे अच्छा बनने की कोशिश करनी चाहिये ।
१२‒किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में अपने से अग्रसर होते देखकर खूब प्रसन्न होना चाहिये और यह भाव रखना चाहिये कि यह अवश्य उन्नति कर रहा है, इससे मुझे भी पढ़कर उन्नति करने का प्रोत्साहन एवं अवसर प्राप्त होगा ।
१३‒अपने किसी सहपाठी से डाह नहीं करनी चाहिये और न यही भाव रखना चाहिये कि वह पढ़ाई में कमजोर रह जाय, जिससे उसकी अपेक्षा मुझे लोग अच्छा कहें ।
१४‒किसी भी विद्या अथवा कला को देखकर उसमें दिलचस्पी के साथ प्रविष्ट होकर समझनेकी चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि जानने और सीखने की उत्कण्ठा विद्यार्थियों का गुण है ।
१५‒अपने को उच्च विद्वान् मानकर कभी अभिमान न करना चाहिये, क्योंकि इससे आगे बढ़ने में बड़ी रुकावट होती है ।
१६‒नित्यप्रति बड़ों की तथा दीन-दुःखी प्राणियों की कुछ-न-कुछ सेवा अवश्य करनी चाहिये ।
१७‒किसी भी अंगहीन, दुःखी, बेसमझ, गलती करनेवाले को देखकर हँसना नहीं चाहिये ।
१८‒मिठाई, फल आदि खाने की चीजें प्राप्त हों तो उन्हें दूसरों को बाँटकर खाना चाहिये ।
१९‒न्याय से प्राप्त हुई चीज को ही काम में लाना चाहिये ।
२०‒दूसरे की चीज उसके देने पर भी न लेने की चेष्टा रखनी चाहिये ।
२१‒हर एक आदमी के द्वारा स्पर्श की हुई मिठाई आदि अन्न की बनी खाद्य वस्तुएँ नहीं खानी चाहिये ।
२२‒कोई भी अपवित्र चीज नहीं खानी चाहिये ।
२३‒कोई भी खाने-पीने की चीज ईश्वर को अर्पण करके ही उपयोग में लेनी चाहिये ।
२४‒भूख से कुछ कम खाना चाहिये ।
२५‒सदा प्रसन्नतापूर्वक भोजन करना चाहिये ।
२६‒भोजन के समय क्रोध, शोक, दीनता, द्वेष आदि भाव मन में लाना उचित नहीं, क्योंकि इनके रहने से भोजन ठीक नहीं पचता ।
२७‒भोजन करने के पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुँह‒इन पाँचों को अवश्य धो लेना चाहिये ।

२८‒भोजन के पहले और पीछे आचमन जरूर करना चाहिये ।
२९‒भोजन के बाद कुल्ले करके मुँह साफ करना उचित है; क्योंकि दाँतों में अन्न रहने से पायरिया आदि रोग हो जाते हैं ।
३०‒चलते-फिरते और दौड़ते समय एवं अशुद्ध अवस्था में तथा अशुद्ध जगह में खाना-पीना नहीं चाहिये; क्योंकि खाते-पीते समय सम्पूर्ण रोम-कूपों से शरीर आहार ग्रहण करता है ।
३१‒स्नान और ईश्वरोपासना किये बिना भोजन नहीं करना चाहिये ।
३२‒लहसुन, प्याज, अंडा, मांस, शराब, ताड़ी आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिये ।
३३‒लैमनेड, सोडा और बर्फ का सेवन नहीं करना चाहिये; क्योंकि इनसे संसर्ग-जन्य रोगादि आने की भी बहुत सम्भावना है ।
३४‒उत्तेजक पदार्थों का सेवन कदापि न करें ।
३५‒मिठाई, नमकीन, बिस्कुट, दूध, दही, मलाई, चाट आदि बाजार की चीजें नहीं खानी चाहिये; क्योंकि दूकानदार लोभवश स्वास्थ्य और शुद्धि की ओर ध्यान नहीं देते, जिससे बीमारियाँ होने की सम्भावना रहती है ।
३६‒बीड़ी, सिगरेट, भाँग, चाय आदि नशीली चीजों का सेवन कभी न करें ।
३७-अन्न और जल के सिवा किसी और चीज की आदत नहीं डालनी चाहिये ।
३८‒दाँतों से नख नहीं काटना चाहिये ।
३९‒दातुन, कुल्ले आदि करने के समय को छोड़कर अन्य समय मुँह में अँगुली नहीं देनी चाहिये ।

४०‒पुस्तक के पत्रों को अँगुली में थूक लगाकर नहीं उलटना चाहिये ।
४१‒किसी की भी जूठन खाना और किसी को खिलाना निषिद्ध है ।
४२‒रेल आदि के पाखाने के नल का अपवित्र जल मुँह धोने, कुल्ला करने या पीने आदिके काम में कदापि न लेना चाहिये ।
४३‒कभी झूठ न बोलें । सदा सत्य भाषण करें ।
४४‒कभी
किसी की कोई भी चीज न चुरावे । परीक्षा में नकल करना भी चोरी ही है तथा नकल
करने में मदद देना चोरी कराना है । इससे सदा बचना चाहिये ।
४५‒माता, पिता, गुरु आदि बड़ों की आज्ञा का उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करे । बड़ों के आज्ञा-पालन से उनका आशीर्वाद मिलता है, जिससे लौकिक और पारमार्थिक उन्नति होती है ।
४६‒किसी से लड़ाई न करे ।
४७‒किसी को गाली न बके ।
४८‒अश्लील गंदे शब्द उच्चारण न करे ।
४९‒किसी से भी मार-पीट न करे ।
५०‒कभी रूठे नहीं और जिद्द भी न करे ।
५१‒कभी क्रोध न करे ।
५२‒दूसरों की बुराई और चुगली न करे ।
५३‒अध्याप कों एवं अन्य गुरुजनों की कभी हँसी-दिल्लगी न उड़ाये, प्रत्युत उनका आदर-सत्कार करे तथा जब पढ़ाने के लिये अध्यापक आयें और जायें, तब खड़े होकर नमस्कार करके उनका सम्मान करे ।
५४‒समान अवस्थावाले और छोटों से प्रेमपूर्वक बर्ताव करे ।
५५‒नम्रतापूर्ण, हितकर, थोड़े और प्रिय वचन बोले ।
५६‒सबके हित की चेष्टा करे ।
५७‒सभा में सभ्यता से आज्ञा लेकर नम्रतापूर्वक चले । किसी को लाँघकर न जाय ।
५८‒सभा या सत्संग में जाते समय अपने पैर का किसी दूसरे से स्पर्श न हो जाय, इसका ध्यान रखे, अगर भूल से किसी के पैर लग जाय तो उससे हाथ जोड़कर क्षमा माँगे ।
५९‒सभा में बैठे हुए मनुष्यों के बीच में जूते पहनकर न चले ।
६०‒सभा में भाषण या प्रश्रोत्तर करना हो तो सभ्यतापूर्वक करे तथा सभा में अथवा पढ़ने के समय बातचीत न करे ।
६१‒सब को अपने प्रेमभरे व्यवहार से संतुष्ट करने की कला सीखे ।
६२‒आपसी कलह को पास न आने दे । दूसरों के कलह को भी अपने प्रेमभरे बर्ताव और समझाने की कुशलता से निवृत्त करने का प्रयत्न करे ।
६३‒कभी प्रमाद और उद्दण्डता न करे ।
६४‒पैर, सिर और शरीर को बार-बार हिलाते रहना आदि आदतें बुरी हैं, इनसे बचे ।
६५‒कभी किसी का अपमान और तिरस्कार न करे ।
६६‒कभी किसी का जी न दुखाये ।

६७‒कभी किसी से दिल्लगी न करे ।
६८‒शौचाचार, सदाचार और सादगी पर विशेष ध्यान रखे ।
६९‒अपनी वेष-भूषा अपने देश और समाज के अनुकूल तथा सादी रखे । भड़कीले, फैशनदार और शौकीनी के कपड़े न पहने ।
७०‒इत्र, फुलेल, पाउडर और चर्बी से बना साबुन, वैसलिन आदि न लगाये ।
७१‒जीवन खर्चीला न बनाये अर्थात् अपने रहन-सहन, खान-पान, पोशाक-पहनावे आदि में कम-से-कम खर्च करे ।
७२‒शरीर को और कपड़ों को साफ तथा शुद्ध रखे ।
७३‒शारीरिक और बौद्धिक बल बढ़ानेवाले सात्त्विक खेल खेले ।
७४‒जूआ, ताश, चौपड़, शतरंज आदि प्रमादपूर्ण खेल न खेले ।
७५‒टोपी और घड़ी का फीता, मनीबेग, हैंडबेग, बिस्तरबंद, कमरबंद और जूता आदि चीजें यदि चमड़े की बनी हों तो उन्हें काम में न लाये ।
७६‒सिनेमा, नाटक आदि न देखे; क्योंकि इनसे जीवन खर्चीला तो बनता ही है, शौकीनी, अभक्ष्य-भक्षण, व्यभिचार आदि अनेक दोष भी आ जाते हैं, इससे जीवन पापमय बन जाता है ।
७७‒बुरी पुस्तकों और गंदे साहित्य को न पढ़े ।
७८‒अच्छी पुस्तकों को पढ़े और धार्मिक सम्मेलनों में जाय ।
७९‒गीता, रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थों का अभ्यास अवश्य करे ।

८०‒पाठ्य-अन्य अथवा धार्मिक पुस्तकों को आदर-पूर्वक ऊँचे आसन पर रखे । भूल से भी पैर लगने पर उन्हें नमस्कार करे ।
८१‒अपना ध्येय सदा उच्च रखे ।
८२‒अपने कर्तव्य-पालन में सदा उत्साह तथा तत्परता रखे ।
८३‒किसी भी काम को कभी असम्भव न माने, क्योंकि उत्साही मनुष्य के लिये कठिन काम भी सुगम हो जाते हैं ।
८४-किसी भी काम को करने में भगवान् श्रीराम को आदर्श माने ।
८५‒भगवान् को इष्ट मानकर और हर समय उनका आश्रय रखकर कभी चिन्ता न करे ।
८६‒अपना प्रत्येक कार्य स्वयं करे । यथासम्भव दूसरे से अपनी सेवा न कराये ।
८७‒सदा अपने से बड़े और उत्तम आचरणवाले पुरुषों के साथ रहने की चेष्टा करे तथा उनके सद्गुणों का अनुकरण करे ।
८८‒प्रत्येक
कार्य करते समय यह याद रखे कि भगवान् हमारे सम्पूर्ण कार्यों को देख रहे
हैं और वे हमारे हित के लिये हमारे अच्छे और बुरे कार्यों का यथायोग्य फल
देते हैं ।
८९‒सदा प्रसन्नचित्त रहे ।
९०‒धर्म-पालन करने में होनेवाले कष्ट को प्रसन्नतापूर्वक सहन करे ।
९१‒न्याययुक्त कार्य करने में प्राप्त हुए कष्ट को तप समझे ।
९२‒अपने-आप आकर प्राप्त हुए संकट को भगवान्का कृपापूर्वक दिया हुआ पुरस्कार समझे ।
९३‒मन के विपरीत होने पर भी भगवान् के और बड़ों के किये हुए विधान में कभी घबराये नहीं, अपितु परम संतुष्ट और प्रसन्न रहे ।
९४‒अपने में बड़प्पन का अभिमान न करे ।
९५‒दूसरों को छोटा मानकर उनका तिरस्कार न करे ।
९६‒किसी से घृणा न करे ।
९७‒अपना बुरा करनेवाले के प्रति भी उसे दुःख पहुँचाने का भाव न रखे ।
९८‒कभी किसी के साथ कपट, छल, धोखाबाजी और विश्वासघात न करे ।
९९‒ब्रह्मचर्य का पूरी तरह से पालन करे । ब्रह्मचारी के लिये शास्त्रों में बतलाये हुए नियमों का यथाशक्ति पालन करे ।
१००‒इन्द्रियों का संयम करे । मन में भी किसी बुरे विचार को न आने दे ।
१०१‒अपने से
छोटे बालक में कोई दुर्व्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसको समझाये अथवा उस
बालक के हित के लिये अध्यापक अथवा अभिभावकों को सूचित कर दे ।
१०२‒अपने से बड़े में कोई दुर्व्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसके हितैषी बड़े पुरुषों को नम्रतापूर्वक सूचित कर दे ।
१०३‒अपनी दिनचर्या बनाकर तत्परता से उसका पालन करे ।
१०४‒सदा दृढ़प्रतिज्ञ बने ।
१०५‒प्रत्येक वस्तु को नियत स्थानपर रखे और उनकी सँभाल करे ।
१०६‒सायंकाल संध्या के समय भी प्रातःकाल के अनुसार भगवान्के ‘हरे राम’ मन्त्र की कम-से-कम एक माला अवश्य जपे और जिसका यज्ञोपवीत हो गया हो, उसको सूर्यास्त के पूर्व संध्या तथा कम-से-कम एक माला गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये ।
१०७‒अपने में से दुर्गुण-दुराचार हट जायँ और सद्गुण-सदाचार आयें, इसके लिये भगवान् से सच्चे हदयसे प्रार्थना करे और भगवान् के बल पर सदा निर्भय रहे ।
१०८‒अपने पाठ को याद करके भगवान् का नाम लेते हुए सोये ।
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