शीबा असलम फ़हमी
र इस स्तंभ के प्रारंभिक लेख
से ही कई
मोर्र्चों को एक साथ सर करने की क़वायद
जारी है. ख़घद इसके नामकरण में यह पहलू
उभरता है. ‘परदा इधर परदा उधर’
शीर्षक संपादक महोदय की पेशकश थी.
‘जेंडर जेहाद’ मेरी स्वयं की. संपादक
राजेंद्र यादव चाहते थे कि औरतों के
हवाले से इस्लाम पर वह सब
लिखाμकहाμजांचा जाए जिस पर सारा
समाज भयवश या लेहाज़न चुप्पी साधे
रहता है. उनका सवाल था कि ¯ज़दगी के
हर पहलू, हर फ़ैसले पर पूर्व निर्धारित
निर्देशों से कैसे चला जा सकता है? उनकी
बात सही है. बात में दम यूं भी है कि
मुसलमानों ने उन पूर्व निर्धारित आदेशों से
किस तरह का समाज बनाया? क्या वे
कोई ऐसा अनुकरणीय आदर्श दे सके इस
दुनिया को जिससे उनके दावे सत्यापित हो
जाते? भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि
तो छोड़िए, क्या सऊदी अरब, ईरान,
इंडोनेशिया, आदि ने ऐसा कोई आदर्श
प्रस्तुत किया जिस पर फ़ख्ऱ के साथ बात
हो सके? आखि़र संख्याबल, दौलत,
स्वायत्ता की मौजूदगी से भी मुस्लिम
समाज किसी आदर्श या उसके आस-पास
नहीं पहुंचता तो फिर वह कौन-सा माक़ईल
माहौल होगा जब इस्लाम के बताए रास्ते
पर चलना मुमकिन होगा और एक आदर्श
मुस्लिम समाज अस्तित्व में आएगा? और
तथाकथित इस्लामी सरकारें यदि इस्लाम
के नाम पर सत्तालोलुप, अय्याश, काहिल
और दुश्चरित्रा तानाशाह ही पैदा कर रही
हैं, और अवाम भी उनके साथ है तो फिर
निजात कहां है? और क्यों न मुसलमान
जमातें, तनज़ीमें और फ़िक़्ह के मर्कज़
अपनी दुकानें बंद कर दें?
यह तो हुए इस्लाम पर बज़िद
मुसलमानों से आमतौर पर किए जानेवाले
सवालों का लब्बोलुबाब. अब ज़रा
जेंडर-जेहाद पर थोड़ा-सा मनन.
‘जेंडर’ के साथ ‘जेहाद’ का शब्द
जोड़ने का मेरा मक़सद ही था ‘जेंडर-
जस्टिस’ के तसव्वुर को इस्लाम और
मुस्लिम समाज तक केंद्रित रखना. मेरे
लिए यह चुनाव और मजबूरी दोनों ही है.
‘चुनाव’ इसलिए कि मेरी समझ में यह
बिल्कुल मुमकिन है कि इस्लामी निर्देशों
को महिला सबलीकरण के लिए इस्तेमाल
किया जा सकता है और सेक्यूलर क़ानूनों
से बेहतर किया जा सकता है क्योंकि
हमारा समाज धर्म को क़ानून से ज़्यादा
तरजीह देता है. मजबूरी इसलिए कि मैं
जिस महिला समूह की बात करने जा रही
थी वह इस देश की सबसे पिछड़ी, ग़रीब,
अशिक्षित और बहुसंख्यक पूर्वाग्रह व ‘हेट
क्राइम’ का शिकार आबादी के अंदर का
भी दलित वर्ग है. वह बाक़ी भारतीय
समाजों की महिलाओं के आस-पास कहीं
नहीं ठहरती. भारतीय हिंदू समाज की
दलित महिलाएं भी, भारतीय मुस्लिम
महिलाओं से बेहतर परिस्थिति में हैं. और
सच्चाई तब ज़्यादा भयानक हो जाती है
जब 2005 की सच्चर कमेटी रिपोर्ट यह
बताए कि मुस्लिम समाज में हर पैमाने पर
पिछड़ापन बढ़ रहा है. मतलब यह कि इस
समाज में 1980 के दशक की ‘शाहबानों’
भी बढ़ रही हैं. आखि़र शाहबानों कौन
थीं. एक ग़रीब, अनपढ़, बेसहारा
मां-बीवी-बेटी ही ना?
ऐसी सामाजिक वास्तविकताओं से
घिरी महिलाओं से मैं फ्ऱायड, कामू, माकर््स
या सूसन ओकिन के हवालों से बात
करूं? धर्म के नाम पर पितृसत्ता और
मर्दवाद की घुट्टी पिये ये औरतें मुझसे भी
वही नहीं कहेंगी जो शाहबानों ने सुप्रीम
कोर्ट और पूरे सेक्यूलर समाज से कहा था
कि ‘मुझे मेरे पक्ष में आया यह फ़ैसला
मंज़्ाूर नहीं क्योंकि यह शरियत के
खि़लाफ़ है लेहाज़ा अल्लाह के हुक्म के
खि़लाफ़ है.’
जिन औरतों को इस्लाम में मौजूद
स्त्राी पक्षी प्रावधान-इक़दाम नहीं मालूम
जबकि वे दिन-रात तथाकथित इस्लाम
‘ओढ़ती-बिछाती’ हैं, नमाज़-रोज़ा,
फ़र्ज़-सुन्नत-नफ़िल की पाबंदी करती हैं
और शौहर को ‘दुनियावी ख़घदा भी
समझती हैं’, उन औरतों को मैं किस
उम्मीद पर मज़हब से बाहर आने का
न्योता दे डालूं? वे क्यों किसी की बातों
में आकर अपने अल्लाह रसूल का बताया
रास्ता छोड़ देंगी?
उन्हें प्रेरित करने के लिए मेरे पास
कौन-सा आदर्श है? किस व्यवस्था ने ऐसे
पुरुष बनाए हैं जो स्त्राी को
मित्रा-साथी-इंसान समझें? और इस सबसे
ऊपर यह कि जो जितना ख्याति प्राप्त
धर्म-विमुख, नास्तिक पुरुष हमारे सामने हैं
उस पर पत्नी-शोषण, नारी-उत्पीड़न और
मर्दवादी व्यवहार के उतने आरोप भी
चस्पां हैं. अगर धर्म-विमुखता किसी
दार्शनिक, कवि, लेखक, साहित्यकार,
आदि-आदि को स्त्राी उत्पीड़न से नहीं रोक
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पाती तो फिर कौन-सी व्यवस्था
‘स्त्राी-मित्रा’ पुरुष का निर्माण करेगी?
कम-से-कम धर्म विमुख या नास्तिक होना
तो कोई गारंटी नहीं है ‘स्त्राी-मित्रा’ समाज
के निर्माण की.
ऐसे में जब तयशुदा तौर पर कोई
एक परफे़क्ट बदल सामने ना हो तो
उपस्थित व्यवस्था में मौजूद तर्क और
तजवीज़ों को क्यों ना काम में लाया जाए?
वे महिलाएं जो अपने जीवन को ‘अल्लाह
के हुक्म’ पर ढालने को तैयार हैं उन्हें
‘अल्लाह के स्त्राी पक्षी हुक्म’ द्वारा एक
आज़ाद, शिक्षित, स्वावलंबी और सवाल
दाग़ने वाला ‘इंसान’ बनाए जाने में ना
सिर्फ़ आसानी है बल्कि ‘चिंतन’ के अगले
चरण में प्रवेश की प्रबल संभावना भी
बनती दिखती है. जो अति उत्साही इस
चरणबद्ध उत्थान के खि़लाफ़ हों वे पहले
अपनी पत्नी, पुत्राी, बहन को धर्म संगत
विवाह संस्था से मुक्त कराएं. तब समाज
में गाल बजाएं. दूसरी बात यह कि पंडिता
रामाबाई, सावित्राीबाई फुले, इस्मत चुग़तई,
बेगम भोपाल, रुक़य्या सख़ावत हुसैन,
महादेवी वर्मा, या आपकी प्रिय लेडी
डाॅक्टर तसलीमा नसरीन, सभी
पढ़ी-लिखी, स्वावलंबी, अपने समय की
शहरी आधुनिकाएं ही तो हैं. तो ऐसी
महिलाएं बनाइए पहले, चुनौतियां तो वे
ख़ुद ही खड़ी कर देंगी.
धर्म को छोड़ देने की वकालत करने
वाले अक्सर क़ानून और भारतीय
संविधान को उसका रिप्लेसमेंट बताते हैंलेकिन
ऐसी सलाह देने वाले प्रगतिशील
या नास्तिक कवि, कहानीकार, साहित्यकार
का इस देश के संविधान पर ऐसा अंधा
विश्वास होता है कि वह यह देख ही नहीं
पाते कि भइया ये आपका संविधान ही तो
है जो कई स्थानों पर धर्म के समर्थन में
खड़ा कह रहा है कि ‘धर्म कोई बड़ी
अच्छी चीज़ है इसे बचाने, बढ़ाने और
अपनाने में कोई बुराई नहीं.’ भारतीय
संविधान का सबसे उजला पक्ष फंडामेंटल
राइट्स हैं, जो कि साफ़ तौर पर धर्म और
संस्कृति दोनों के पक्ष में खड़े हैं ऐसे में
जब धर्म और धार्मिकता ऐन संविधान
अनुरूप है तो फिर कान सीधे पकड़ो या
घुमा कर, बात तो वही है. लेकिन आप
कवि हृदय, साहित्य साधकों से क़ानून
संविधान के समर्थन की उम्मीद तो की जा
सकती है क्योंकि ऐसा करना प्रगतिशीलता
की निशानी है, लेकिन उसकी बुनियादी
समझ व जानकारी की उम्मीद नहीं की
जानी चाहिए. इसलिए आप मानवतावादी
कवि हृदयों के तो सात ख़ईन माफ़!
ख़ैर यह तो इस स्तंभ की
विचारधारात्मक स्थिति का स्पष्टीकरण
हुआ. अब बात सेक्यूलर/कम्युनिस्ट/
इस्लाम विरोधी/प्रोग्रेसिव मुसलमानों
सेμजिन्होंने इस स्तंभ में इस्लाम की
स्त्राीवादी या ‘स्त्राी-मित्रा’ व्याख्या की
संभावना को ही नकार दिया. उनका
मानना है कि ‘इस्लाम-इस्लाम करने से
क्या होगा? धर्म तो बहरहाल स्त्राी शोषण
का हथियार है. और इस्लाम-धर्म तो सोने
पर सुहागा!’ ऐसे प्रगतिशीलों से मुझे सिर्फ़
यह पूछना है कि अपने निजी जीवन में
एक गै़र-मुस्लिम से शादी करने के नितांत
निजी और व्यक्तिगत फ़ैसले को अपनी
‘प्रगतिशीलता’ के चेक की तरह वे कब
तक भुनाते रहेंगे? उनके इस निजी फ़ैसले
को जो कि प्रेम संबंध का नतीजा है उसे
आइडियोलाॅजिकल आदर्शवादी आचरण
की तरह मार्केट करके वे दानों हाथों मज़े
लूट रहे हैंसेक्य
ुलर समाज के यह ‘अॅडाप्टेड’
पुत्रा-पुत्रियां अपने मात्रा एक निज़ी फ़ैसले
के सहारे ‘सर्टिफ़ाइड प्रोगे्रसिव’ बन कर
वामपंथी, सरकारी, हिंदू-मुस्लिम एकता
मंचों, एन. जी. ओ. आदि पर साधिकार
चढ़े बैठे हैं लेकिन इनकी प्रगतिशीलता
एक गै़र-र्मुिस्लम से विवाह करने की निज़ी
क्रांति के आगे नहीं बढ़ पाती. यदि किसी
मुसलमान पुरुष का उदाहरण आपके
सामने हो तो स्वयं जांचे कि उस शख़्स ने
अपने ख़ानदान की कितनी लड़कियों को
गै़र मुस्लिम मर्द से विवाह करने को
उकसाया या सार्वजनिक तौर पर कोई
ऐसा वक्तव्य दिया जिससे यह बढ़े, यह
भी देखें कि उसने अपने पुत्रा-पौत्रा-
भतीजों-भांजों आदि के ख़तने पर, या
दूसरी मज़हबी दीक्षाओं पर, परिवार का
सदस्य होने के नाते कोई विरोध किया या
नहीं? परिवार में संपत्ति के बंटवारे में वह
देश के क़ानून का पालन करता है या कि
धार्मिक आदेशों का और क्या उसने
अंतिम क्रिया पर कोई सेक्यूलर-वसीयत
बनाई है? मैं तो एक ऐसे भी ‘बड़े-भाई’
को जानती हूं जो मुझसे इस स्तंभ के
चलते ख़फ़ा हैं कि मैं कन्फ़यूज़ कर रही
हूं और लच्छेदार बातें कर रही हूं. यह
सेक्यूलर बड़े भाई बीवी की इच्छा के
चलते मजबूरन ‘हाजी हैं’ और औलादों
का रिश्ता मुसलमानों में करने वाले स्वयं
‘संपादक’ भी हैं. इन्होंने अपने पत्रिका में
कभी कोई लेख महिला पक्ष में नहीं छापा,
हां मुसलमान पुरुष पक्ष और स्वयं अपने
पक्ष में हर बार रोना रोने के लिए कुख्यात
हैं. ऐसे प्रोगे्रसिव मुसलमान मर्दों की भी
कमी नहीं जो एक मुसलमान बीवी के
साथ-साथ एक मुसलमान या गै़र मुस्लिम
दोस्त (रखैल) का भी मुसलसल इंतज़ाम
किए हुए हैं. जब और हठधर्मी दिखानी हो
तो ‘इस्लाम’ ही के रास्ते ये दूसरी शादी
कर लेते हैं, बिना पहली पत्नी को आज़ाद
किए.
अब आइए ज़रा प्रोगे्रसिव मुसलमान
महिला की प्रोफ़ाइल भी देखें ज़रा. प्रेम-
विवाह कर परिवार से ज़रा कट कर हुई
क्षतिपूर्ति को पूरा करने के लिए यह वर्ग
भी सार्वजनिक स्तर पर प्रगतिशीलता की
मिसाल और स्त्राीवादी एजेंडे की
झंडाबरदार बन जाती हैं. पर इनका
स्त्राीवाद ‘इस्लाम की मुख़ालफ़त’ के आगे
नहीं बढ़ पाता. आमतौर पर स्त्राीवादी
विचारक जिन प्रतीकों, चिद्दों, रिवाजों को
पुरुषवादी और धार्मिक आदर्श स्त्राीत्व से
जोड़ती हैं ये प्रगतिशील महिलाएं उन्हें
अपनाकर अपने ‘सेक्यूलर चेक’ को कैश
करवा रही हैं. इनकी प्रगतिशीलता मुस्लिम
समाज के नारी-निर्माण के चिद्दों से परहेज़
में है पर वे हिंदू-समाज के ऐसे चिद्दों को
सहर्ष और सार्वजनिक तौर पर अपनाती
हैं. एक हिंदू समाज की नारीवादी महिला
जिनसे परेहज़ करेगी ये वही सब
‘इस्तेमाल’ करके ही तो ‘प्रोगे्रसिव’ हो
जाती हैं. कितना आसान फ़ार्मूला है
गै़र-मुस्लिम से प्रेम-विवाह करने वालों का
‘सर्टिफ़ाइड प्रोगे्रसिव’ अवतार में सावर्जिक
जीवन शुरू करने का. इन्हें सिर्फ़ दो ही
काम करने हैं एक यह कि वह सार्वजनिक
रूप से इस्लाम को गाली दें और हो सके
तो भाजपा/अटल/आडवानी समर्थक बन
जाएं फिर तो 5-6 सरकारी कमेटियों में
नाम तय. इनके एन. जी. ओ., विदेश
यात्राओं, लाखों के शोध-प्रपोज़ल आदि
को कभी धन की कमी नहीं होतीतयश्
ाुदा तौर पर उच्च जाति से आने
वाले इन प्रोग्रेसिवों को आप हमेशा समान
कुल जाति से विवाह करता ही पाएंगेइनके
बच्चे भी इसी जाति क्रम को ढोते
हुए ‘सर्टिफ़ाइड प्रोगेसिव’ बने रहेंगे. कोई
ताज्जुब नहीं कि कांग्रेस/भाजपा से समान
नज़दीकी/दूरी बनाए रखने वाले इस
प्रोग्रेसिव मुसलमान को हिंदुस्तानी स्टाइल
का वामपंथ ख़ूब रास आता है. मुसलमान
को ज़ात के आधार पर आरक्षण के
खि़लाफ़ यह लोग धर्म के आधार पर
आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं. हां महिला
आरक्षण को समर्थन इनकी फै़शनगत
मजबूरी है. पर वहां भी इन्हें ज़ात-पात
नज़र नहीं आती. इन्हें अपने लिए ही
आरक्षण चाहिए.
यह वर्ग परिवार के नौजवानों को तो
डाॅक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर आदि बना रहा
है पर ग़रीब मुसलमान जो कि मुल्ला वर्ग
के चंगुल में फंसा दीन और दुनिया की
दुविधा में न इधर का रहा न उधर, का
उनकी निजात का इन र्सिर्टफ़ाइड प्रोगेसिव
मुसलमान के पास कोई कार्यक्रम नहीं. वे
आसान रास्ता जिसे इस्लाम की भत्र्सना
कहते हैं, चुन कर अपना कर्तव्य पूरा कर
लेता है. ज़ाहिर है कि ताक़तवर कठमुल्ला
माफ़िया से कौन उलझे क्योंकि जिस दिन
इनके विरोध में कठमुल्ला वर्ग अंगद पांव
जमा देगा उस दिन कांग्रेस हो या भाजपा
यह दोनों में से किसी के काम के ना रहेंगे
क्योंकि वोट बैंक तो बहरहाल मौलाना ही
के पास है, ये बेचारे तो थाली का बैंगन...
इसलिए समझदारी इसी में है कि मुसलमान
क़ौम को, स्त्राी-पुरुष को मुल्ला क़यादत से
छुटकारा दिलाने के सायास प्रयासों को न
शुरू कर, बस इस्लाम की भत्र्सना से काम
चला लो. ऐसा करने से मौलाना और
प्रोगे्रसिव एक-दूसरे का रास्ता काटे बग़ैर ही
सार्वजनिक जीवन में मलाई चाटते रहते हैंमौलानाओं
का नाम ले-ले कर,
उनकी हरकतों को सार्वजनिक तौर पर
गिन-गिन कर उनसे सीधे दुश्मनी मोल
लेने की आ बैल मुझे मार वाली नासमझी
कोई बेवकूफ़ ही करेगा, जो मैं लगातार
कर रही हूं. इसके पीछे सिर्फ़ इतनी समझ
है कि एक धार्मिक महिला समूह को पहले
वो सब अधिकारμशिक्षा, रोज़गार, संपत्ति,
जो उसे धर्म से प्राप्त हैं, हासिल करने
दीजिए. बाक़ी का रास्ता वो खुद तय कर
लेगीअगले
अंक में इस्लाम में परदे, बुरक़े,
नक़ाब, हिजाब और महिला सबलीकरण
के अंतर्संबंधों पर चर्चा होगी.