बस में २ तरफ़ा हमला और मैं बेचारा अकेला

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Vipul

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Jul 16, 2010, 9:35:51 AM7/16/10
to Hans Hindi Monthly
कल मुझे एक जरूरी काम से कंही जाना था पर ऑफिस में थोड़े काम की वजह से
में वो काम नहीं कर पाया । खैर उसका कोई मलाल नहीं । मैं भी रोज की तरह
मस्ती में ऑफिस से घर की तरफ गुनगुनाते हुए निकला । इस बात से अनजान की
आज बस में आज मेरे पर हमला होने वाला है । रास्ते में अचानक मेरी संवेदी
तंत्रिकाओं ने कुछ जानी पहचानी खुशबू को महसूस किया । वो खुशबू गरमागरम
समोसे की थी । ये मेरी कुछ कमजोरीयों में से एक है अगर मेरे पास जेब में
रूपये पर्याप्त मात्र में हैं यअ थोड़े कम भी हैं तो में समोसे खा कर
बाकि चीजों से समझोता कर सकता हूँ पर गरम समोसों से नहीं । मैंने तुरंत
खुशबू की दिशा में कदम बढ़ा दिए । और समोसो को खा कर हो दम लिया । वो
पुदीने वाले समोसे और पुदीने वाली चटनी के साथ लगता था अगर दिल्ली में
कंही स्वर्ग है तो यंही है यंही है और यंही है । वैसे भी मैंने दिल्ली
में इतने अच्छे और सस्ते (दिल्ली के हिसाब से ) समोसे शायद पहली बार खा
रहा था । समोसे खाने की मेरी अपनी ही अदा है । अगर दुकान में जगह है तो
में गरम समोसे वंही खाना पसंद करता हूँ वर्ना चलते चलते खाना में पसंद
करता हूँ । एक बार समोसे एक बार चटनी , फिर समोसा फिर चटनी , बस यही क्रम
चलता है । और बीच बीच में गरम आलू से जीभ का जलना भी बड़ा अच्छा लगता है
पर संतोष नहीं होता की समोसे को ठंडा होने दू तब खाऊ । इन समोसे के चक्कर
में कब बस स्टैंड पर पहुंचा पता ही नहीं चला । फिर भी मेरे समोसे मेरे
हाथ की शोभा बढ़ा रहे थे । कुछ लोग के मुह में पानी और कुछ के जलन हो रही
थी मेरे इस तरह खाने की अदायगी से । पर में भी मानने वाला कहाँ था चाहे
समोसा कितना भी गरम क्यों ना हो । फिर जब बस आई तो जल्दी से उपर चढ़ना भी
नहीं भुला सीट जो हथियानी थी । यहीं से मेरे रात की पीड़ा शुरू हुई ।
मैंने सीट तो हथिया ली पर जल्दी जल्दी में ये नहीं देखा की पिच कौन बैठा
था । इसका एहसास मुझे बैठे और लगभग सभी अच्छी सीटों के भर जाने के बाद
हुआ । मेरे पीछे जो जनाब बैठे थे वो शायद साउथ के कोई जनाब थे । और किसी
महिला मित्र से अपनी भाषा में बतिया रहे थे । और ना जाने वो किस भाषा का
प्रयाग कर रहे थे मुझे कभी वो तेलगु लगती कभी उड़िया तो कभी कुछ और । बस
बीच बीच में कुछ संस्कृत के शब्द समझ में आ जाते और कभी कुछ इग्लिश के ।
मैं उन्ही शब्दों को सुन कर संतोष करने की कोशिश कर रहा था । ये सारे
स्वर में दाहिने कानो से सुनाई दे रहे थे । और मेरे बाये काम में एक बहुत
की प्रेमिका को समर्पित प्रेमी के शब्द उस अन्य राज्य वाले शब्दो के साथ
में मस्तिष्क में मंथन कर रहे थे । वो अपनी प्रेमिका से बड़े ही अजीब
तरीके से बात कर रहा था । वो कभी उससे प्यार से बात करता कभी गुस्से से
उसका कुछ पता नहीं था की कब क्या कह दे । पर मेरे मस्तिष्क में एक अजीब
से पीड़ा हो रही थी ना मुझे चैन था ना मुझे नींद । मुझे दोनों पर दया आ
रही थी की देखो बेचारे कितने लगन भाव से सरकार को सेवा कर देने में लगे
है और एक मैं हू की चुपचाप इनकी बात सुन रहा हूँ । उन दोनों की बात मेरे
स्टॉप पर आने तक खतम नहीं हुई थी । में उनकी बात से कुछ इस क़द्र बेझिल
हो गया था की मैंने एक स्टॉप पहले उतरने का निर्णय ले लिया । और अपनी सीट
किसी और को देने का प्रयास किया वो मेरे पास वाले मुझसे ज्यादा चालाक
निकले शायद वो उसको पहले से जानते थे और मेरी सीट खाली की खाली ही रही ।
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