स्वामी श्रीशरणानन्द जी के कल्याणकारी प्रवचन
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1A
स्वामीजीका परिचय (देवकीमाँ)
About Swamiji
1B
राग-रहित होना-अचाह होना
2A
सेवासे अचाह-अप्रयत्न की सामर्थ्य
2B
हरि: आश्रय और विश्राम
3A
मेरा कुछ नहीं है- मुझे कुछ नहीं चाहिये
3B
काम आ जाओ- कुछ न चाहो
4A
प्रभु मेरे अपने हैं- सबकुछ प्रभु का है
4B
दृश्य से विमुख होते ही भूलजनित भिन्नताका नाश
5A
काल्पनिक ममता तोड़के वास्तविक आत्मीयता अपनायें
5B
हमें जो चाहिए वह सृष्टि के आश्रित नहीं है
6A
सत्तारुपसे परमात्मा ही परमात्मा है
6B
हम अपनी दृष्टि में कैसे है?
7A
प्रेमियोंमें अपना संकल्प नहीं होता, न उसे भोग चाहिये न मोक्ष
7B
श्रीकृष्ण ब्रजलीला तथा तात्पर्य
8A
बल संसार के लिए ज्ञान अपने लिये तथा विश्वास परमात्मा के लिए
8B
प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग से अविनाशी स्वाधीन जीवन
9A
उदारता-स्वाधीनता-प्रेम
9B
निरसता कैसे मिटे?
10A
अचाह हो जाये-मरने से न डरे
10B
सुख-दु:ख के सदुपयोग से रसरुप जीवन
11A
काम का नाश
11B
स्वधर्म-शरीरधर्म
12A
मिला हुआ अपने लिए नहीं
12B
सेवा की आवश्यकता,महाप्रयाण संदेश (देवकी माँ द्वारा)
13A
संगीतमय प्रार्थना-कीर्तन-भजन
13B
देवकी माँ का प्रवचन
14A
शान्ति का सम्पादन करें- मूक सत्संग करें
14B
प्रवृति-निवृति-शरणागति द्वारा चिरविश्राम
15A
सुख-दु:ख मंगलमय विधानसे निर्मित परिस्थिति है
15B
अपने सुख-दु:ख का कारण दूसरों को न मानें
16A
इन्द्रियज्ञान-बुद्धिज्ञानका प्रभाव
16B
हमें ऐसी बात नहीं करनी है जो हम अपने प्रति नहीं चाहते
17A
परिस्थिति जीवन नहीं है
17B
योग-बोध-प्रेम
18A
अपने सभी संकल्प अपने विश्वासपात्र के हवाले कर देना है
18B
संकल्प पूर्ति और निवृति के अतीत भी जीवन है
19A
अपने जाने हुए असत् के त्यागसे वर्तमानमें सिद्धि
19B
वस्तुको अपना न माननेसे सत्य मिलता है
20A
प्राप्त-परिस्थिति साधन-सामग्री है।
20B
सेवाका अर्थ किसीका दु:ख मिटाना नहीं है, अपना सुख बाँटना है
21A
सभी चाह(कामना) मिटाई जाती है, पूरी नहीं की जाती
21B
उपदेश करनेवाली सेवा कम-से-कम की जायेउपदेश करनेवाली सेवा कम-से-कम की जाये
22A
असाधन को जानना परम साधन है
22B
जाने हुए असत् को प्रकट करें
23A
किये हुएकी आसक्ति हमें विश्राम नहीं देती
23B
"है" में नहीं बुद्धि-"नहीं" में है बुद्धि
24A
दूसरोंकी धरोहरको आदरपूर्वक भेंट कर देना सेवा है
24B
अप्राप्त की कामना प्राप्तकी ममता दरिद्रता सिद्ध करती है
25A
जो पराये दु:खसे दु:खी नहीं होता उसे अपने दु:खसे दु:खी होना पड़ेगा
25B
वे चाहे जैसे हो-चाहे जहाँ हो-चाहे सो करे, अपने है और प्रिय है (प्रेम की दीक्षा)
26A
विवेकविरोधी कर्म-संबंध-विश्वासका त्याग सत्संग है
26B
अनन्तकी प्रियतासे अनन्तको रस मिलता है
27A
जगत् का निर्माण मानवके लिए-मानवका निर्माण प्रभु के लिए
27B
श्रीरामचरित्रके (श्रीकैकेयीजी-श्रीभरतजी) प्रेमी भक्त तथा तात्पर्य
28A
पराधीनता पसंद न करें- मिली हुई स्वाधीनताका दुरुपयोग न करें
28B
प्रभु को समझना नहीं है- स्वीकार करना है
29A
प्रेमीजन कृप्या यह कैसेट सुनना न चुकें
29B
होनेवाला चिंतन करनेवाला चिंतन से मिटेगा यह भ्रम है (हँसी)
30A
हम रस के भोगी है या रस के दाता है
30B
सेवाका विवेकात्मक रुप "अधिकार-त्याग", भावात्मक रुप "प्रियता", क्रियात्मक रुप मिले हुए का सदुपयोग है
31A
सांप्रदायिक भेद बुरा नहीं है लेकिन जो प्रीतका भेद हुआ वह बुरा है।
31B
जो चाहिये वो भी चाहिये, जो नहीं चाहिये वो भी चाहिये इस रोगने आजके धनीको महानिर्धन बना दिया है।
32A
यह बात अपने जीवनमें से निकाल दो कि हमारा कर्तव्य कोई दूसरा बतायेगा।
32B
जिसको जैसा देखना चाहते हो उसे वैसा ही समझो।
33A
कोई भी व्यक्ति सर्वांशमें, सर्वदा, और सभीके लिए दोषी नहीं होता।
33B
संकल्प निवृतिसे जो शान्ति,शक्ति,स्वाधीनता मिलती है वह संकल्प पूर्तिसे नहीं मिलती।
34A
दु:खका प्रभाव सुखमें दु:खका दर्शन और दु:खका भोग सुखकी दासतामें आबद्ध करता है।
34B
आवश्यकता अनेक कामनाओंको खा लेती है।
35A
परिस्थितिसे रागरहित,विचारसे वासनारहित, विश्वाससे समर्पित-शरणागत हो जाये।
35B
अविनाशी,स्वाधीन,रसरुप,चिन्मय जीवन संसारकी सहायता से नहीं मिल सकता।
36A
प्रभुविश्वासी,प्रभुप्रेमी,शरणागत कौन शीर्षक देंगें? कृप्या सुनकर अनुभव करें !
36B
भगवत् अवतार और भगवान् के चरित्रमें जो ऐश्वर्य,सौन्दर्य,माधुर्य है वो मानवमें भी है।
37A
भूखसे(दु:खसे) भी अपना मूल्य बढ़ाओ और भोजनसे(सुखसे) भी अपना मूल्य बढ़ाओ।
37B
साथी,सामान करनेकी शक्ति रहते हुए आराम करना अकेला होना पसंद करें।
38A
मानव ही बल का सदुपयोग करके बुराई का उत्तर भलाई से दे सकता है।
38B
सुखियोंमें उदारता और दु:खियोंमें त्याग नहीं रहता तब लड़ाई होती है।
39A
अपने सुख के लिये किया हुआ जप,तप,दान,भजन राक्षसी स्वभाव है,मानव-स्वभाव नहीं है।
39B
मुझे कुछ नहीं चाहिये,प्रभु मेरा अपना है,सबकुछ प्रभु का है। (उद्द्भवजीका व्रज आना)
40A
कर्म का फल अविनाशी नहीं होता, और वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य द्वारा हम स्वाधीन नहीं होते।
40B
मीराके प्रभु गिरधर नागर मिल बिछुड़न नहीं कीजै।(मीरा चरित्र)
41A
जो देना है वो संग्रहके रुपमें, जो लेना है वो कामनाके रुपमें मौजूद है जो लेना है उसकी कामना छोड़ दो, जो देना है उसे उदारतापूर्वक दे दो शेषजो रहेगा उसीका नाम जीवन है।
41B
मृत्यु जिसका वियोग करायेगी उसका अगर हम वियोग स्वीकार कर ले तो फिर जीवनमें कोई भय नहीं रहेगा।
42A
प्रत्येक वस्तु ईश्वरवादीकी दृष्टिसे प्यारे प्रभु की है, अध्यात्मवादीकी दृष्टिसे माया मात्र है और भौतिकवादीकी दृष्टिसे जगतकी है।
42B
जगत भगवान् ही है और कुछ नहीं है- यह विश्वास जिसको हो जाये उसका भगवान् सबसे बढ़िया रहता है। (यह कृपासाध्य है)
43A
अगर तुम अपने लिये सोचते हो तो कभी दरिद्रता नहीं जायेगी।
43B
सेवाका अन्त त्यागमें होता है और सेवाका फल योग होता है।
44A
व्यक्ति है समाज के अधिकारों का पुंज और समाज है व्यक्ति के कर्तव्यका क्षेत्र।
44B
देखे हुए जगत के साथ रहना बनेगा नहीं इसलिये सुने हुए परमात्माको पसंद करो और देखे हुए शरीरके द्वारा संसारकी सेवा करो।
45A
प्रेमी हो जाता है अचाह और प्रेमास्पदमें उत्पन्न होती है चाह; प्रेम प्रेमास्पदको प्रेम के अधीन कर देता है।
45B
"मेरे नाथ!" प्रार्थना का महत्व।
46A
बुराई न करने से भले होते हैं, भलाई करनेसे भले नहीं होते।
46B
अचाह होने से जरुरी कामनायें पूरी हो जायेगी और अनावश्यक कामनाओंका नाश हो जायेगा।
47A
प्रेम देनेके लिये दो बातें है- मेरा करके मेरे पास कुछ नहीं है. मुझे कुछ नहीं चाहिये और जिसको प्रेम सेना है वो ही मेरे अपने है।(मीरा चरित्र)
47B
प्रिय को रस देनेकी लालसा प्रेमियोंमें रहती है।(श्रीकृष्णके लिये गोपियोंका प्रेम)
48A
मजहब व्यक्तिगत सत्य होता है धर्म सार्वभौमिक (universal) सत्य होता है।
48B
उदार होकर संसारके लिये, स्वाधीन होकर अपने लिये और प्रेमी होकर प्रभु के लिये उपयोगी हो सकते हैं।
49A
"मेरा परमात्मा है"- यह प्रेमी होने के लिये हैं। "मैं परमात्माका हूँ"- यह अभय होनेके लिये है। "परमात्मा है"- यह अचाह होनेके लिये है।
49B
हमें परमात्मा चाहिये, परमात्मासे हमें कुछ नहीं चाहिये।
50A
ईश्वर हमको प्यारा लगे क्योंकि हमारे प्यारसे उसे रस मिलेगा।
50B
पूर्ण भिखारी बनता है प्रेमका और जो अपूर्ण है उसे सुलभ होता है प्रेम। (यह स्वामी श्रीरामसुखदासजी और स्वामी श्रीशरणानन्दजी का आपसी संवाद है।)