एक
प्रार्थना इह-परमें तुम बने रहो नित संगी एक॥
पद- ७१
जो चाहो तुम,
जैसे चाहो, करो वही तुम, उसी प्रकार।
बरतो नित निर्बाध सदा तुम
मुझको अपने मन-अनुसार॥
मुझे नहीं हो कभी,
किसी भी, तनिक दुःख-सुखका कुछ भान।
सदा परम सुख मिले तुम्हारे
मनकी सारी होती जान॥
भला-बुरा सब भला सदा ही;
जो तुम सोचो, करो विधान।
वही उच्चतम,
मधुर-मनोहर, हितकर परम तुम्हारा दान॥
कभी न मनमें उठे,
किसी भी भाँति, कहीं, कैसी
भी चाह।
उठे कदाचित् तो प्रभु उसे न
करना पूरी, कर परवाह॥
प्यारे ! यही प्रार्थना मेरी,
यही नित्य चरणोंमें माँग-
मिटे सभी ’मैं-मेरा’, बढ़ता रहे सतत अनन्य अनुराग॥
पद- ७२
’भोगोंमें सुख है’-इस भारी भ्रमको हर लो, हे हरि ! सत्वर।
तुरत
मिटा दो दुःखद सुखकी आशाओंको, हे करुणाकर !॥
मधुर
तुम्हारे रूप-नाम-गुणकी स्मृति होती रहे निरन्तर।
देखूँ
सदा,
सभीमें तुमको, कभी न भूलूँ तुमको पलभर॥
ममता
एक तुम्हींमें हो, हो तुममें ही
आसक्ति-प्रीति वर।
बँधा
रहे मन प्रेमरज्जुसे चारु चरण-कमलोंमें, नटवर
!॥
दिखता
रहे मधुर-मनहर मुख कोटि-कोटि शरदिन्दु-सुखाकर।
सुनूँ
सदा मधुरातिमधुर मुनि-मन-उन्मादिनि मुरलीके स्वर॥
तन-मनके
प्रत्येक कार्यसे पूजूँ तुम्हें सदा, हृदयेश्वर।
सहज
सुहृद उदारचूड़ामणि ! दीन-हीन मुझको दो यह वर॥
- परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार- भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तकसे