पदरत्नाकर- परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार- भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तकसे

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Gita Press Literature

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Jul 12, 2013, 8:18:37 PM7/12/13
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  परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार- भाईजी ब्लॉग-
http://hanumanprasadpoddarbhaiji.blogspot.in/
पद- ६८

केवल तुम्हें पुकारूँ प्रियतम ! देखूँ एक तुम्हारी ओर।
अर्पण कर निजको चरणोंमें बैठूँ हो निश्चिन्त, विभोर॥
प्रभो ! एक बस, तुम ही मेरे हो सर्वस्व सर्वसुखसार।
प्राणोंके तुम प्राण, आत्माके आत्मा आधेयाऽधार॥
भला-बुरा, सुख-दुःख, शुभाशुभ मैं, न जानता कुछ भी नाथ !।
जानो तुम्हीं, करो तुम सब ही, रहो निरन्तर मेरे साथ॥
भूलूँ नहीं कभी तुमको मैं, स्मृति ही हो बस, जीवनसार।
आयें नहीं चित्त-मन-मतिमें कभी दूसरे भाव-विचार॥
एकमात्र तुम बसे रहो नित सारे हृदय-देशको छेक।
एक प्रार्थना इह-परमें तुम बने रहो नित संगी एक॥

पद- ७१
जो चाहो तुम, जैसे चाहो, करो वही तुम, उसी प्रकार।
बरतो नित निर्बाध सदा तुम मुझको अपने मन-‌अनुसार॥
मुझे नहीं हो कभी, किसी भी, तनिक दुःख-सुखका कुछ भान।
सदा परम सुख मिले तुम्हारे मनकी सारी होती जान॥
भला-बुरा सब भला सदा ही; जो तुम सोचो, करो विधान।
वही उच्चतम, मधुर-मनोहर, हितकर परम तुम्हारा दान॥
कभी न मनमें उठे, किसी भी भाँति, कहीं, कैसी भी चाह।
उठे कदाचित्‌ तो प्रभु उसे न करना पूरी, कर परवाह॥
प्यारे ! यही प्रार्थना मेरी, यही नित्य चरणोंमें माँग-
मिटे सभी मैं-मेरा’, बढ़ता रहे सतत अनन्य अनुराग॥

पद- ७२
भोगोंमें सुख है’-इस भारी भ्रमको हर लो, हे हरि ! सत्वर।
तुरत मिटा दो दुःखद सुखकी आशा‌ओंको, हे करुणाकर !॥
मधुर तुम्हारे रूप-नाम-गुणकी स्मृति होती रहे निरन्तर।
देखूँ सदा, सभीमें तुमको, कभी न भूलूँ तुमको पलभर॥
ममता एक तुम्हींमें हो, हो तुममें ही आसक्ति-प्रीति वर।
बँधा रहे मन प्रेमरज्जुसे चारु चरण-कमलोंमें, नटवर !॥
दिखता रहे मधुर-मनहर मुख कोटि-कोटि शरदिन्दु-सुखाकर।
सुनूँ सदा मधुरातिमधुर मुनि-मन-‌उन्मादिनि मुरलीके स्वर॥
तन-मनके प्रत्येक कार्यसे पूजूँ तुम्हें सदा, हृदयेश्वर।
सहज सुहृद उदारचूड़ामणि ! दीन-हीन मुझको दो यह वर॥
- परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार- भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तकसे


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