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मनुष्य का परम
कर्तव्य है – भगवानके
गुणोंका, उनके नामका, उनकी लीला का
श्रवण, कथन तथा कीर्तन एवं स्मरण करनेमें ही जीवन को लगाना ।
बुद्धिमान मनुष्यको तो दूसरोंके न तो गुण-दोषका चिंतन करना चाहिए, न देखना चाहिए और न उनका वर्णन ही करना चाहिए । उसे तो भगवद-गुण चिंतनसे
ही समय नहीं मिलना चाहिए । पर यदि देखे बिना न रहा जाए तो दूसरोंके गुण देखने
चाहिए और ढूँढ-ढूँढकर अपने दोष देखने चाहिए । न रहा जाए तो दूसरों के सच्चे गुणों की प्रशंसा करनी
चाहिए और अपने दोषोंकी साहस के साथ निंदा । वास्तव में परमार्थ की दृष्टि से तो यह
सब कुछ न करके भगवत-चिन्तन तथा भगवन्नाम-गुणका कथन-कीर्तन-चिंतन ही करना चाहिए ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी,
परमार्थ की मन्दाकिनीं, कल्याण कुञ्ज भाग –
७, पुस्तक कोड ३६४, गीताप्रेस
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!