विषय: “राष्ट्रपिता” के सम्बोधन कोवैधानिक व सांस्कृतिक दृष्टि से पुनः परखने हेतु अनुरोध।

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Sanjeev Goyal

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Sep 28, 2025, 10:46:22 AM (3 days ago) Sep 28
to dwarka-residents

PRSEC/E/2025/0054999

 

सम्बन्धित मंत्रालय : गृह


महोदय,

 

एक नागरिक होने के नाते, एक ऐसे विषय पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ, जो भावनात्मक, वैधानिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह विषय है – "राष्ट्रपिता" जैसे सम्बोधन का औचित्य एवं वैधानिक स्थिति।

 

संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि भारत सरकार द्वारा सैन्य या शैक्षणिक उपाधियों के अलावा कोई अन्य उपाधि नहीं दी जा सकतीं, । इसके बावजूद, श्री मोहनदास करमचंद गांधी को सरकारी कार्यक्रमों एवं शैक्षणिक पुस्तकों में “राष्ट्रपिता” कहकर संबोधित किया जाता है, जबकि इस संबोधन को आज तक न तो कोई वैधानिक मान्यता प्राप्त है, और न ही इसकी कोई संवैधानिक आधारशिला है।

 

इतिहास में गांधीजी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता, उन्होंने अपनी समझ, कार्य शैली व तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप अपना कर्त्तव्य निर्वहन किया।  अपना किंतु यह भी सर्वविदित है कि उनके कुछ निर्णयों पर समय-समय पर गंभीर प्रश्नचिन्ह उठते रहे हैं – जैसे विभाजन के समय पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाना, कश्मीर पर पाक समर्थित हमले का विरोध न करना, सरदार पटेल को प्रधानमंत्री न बनने देना, सभी संपत्तियों व भूमि के बंटवारे के उपरांत भी बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिमों को भारत में रहने देने की जिद करना, देश के टुकड़े की मांग करने वाले मुस्लिम नेताओं को संविधान-निर्माण समिति में सम्मिलित करना, और उनके इस भाव वाले कथन कि “यदि मुसलमान हमला करें, तो हिंदू को अपनी गर्दन प्रस्तुत कर देनी चाहिए।” क्या आज तक किसी ने भी श्री नाथु राम गोडसे के गांधीजी के निर्णयों के प्रति विचारों से असहमति प्रकट की है?

 

ऐसी जानकारी से आज की पीढ़ी में भ्रम और द्वंद उत्पन्न हो रहा है। डिजिटल युग में जब ऐतिहासिक तथ्यों तक स्वतंत्र पहुँच संभव है, नई पीढ़ी गांधीजी की विचारधारा को प्रश्नों के घेरे में ले रही है। स्वतंत्रोपरांत उनके अति तुष्टीकरण के कारण आज फिर से  भारतीय समाज विभाजन के उसी दोराहे के ओर अग्रसर प्रतीत होता है। 

 

यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति राष्ट्र को “माता” के रूप में पूजती है। ऐसी स्थिति में किसी को “पिता” कहकर संबोधित करना न केवल सांस्कृतिक रूप से असंगत प्रतीत होता है, वैधानिक दृष्टिकोण से तो यह नितांत अनुपयुक्त है ही

 

अतः मेरा करबद्ध निवेदन है कि निम्न बिंदुओं पर विचार किया जाए:

 

(1)   “राष्ट्रपिता” जैसे संबोधनों की वैधानिक स्थिति स्पष्ट की जाए।

(2)   यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी सरकारी मंच या दस्तावेज़ ऐसे संबोधन का प्रयोग बिना संवैधानिक आधार के न करे।

(3)   नई पीढ़ी को ऐतिहासिक तथ्यों तक निष्पक्ष पहुँच मिले और श्री नाथु राम गोडसे के केस से संबन्धित सम्पूर्ण दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाएँ जिससे इस विषय पर स्वतंत्र विमर्श को प्रोत्साहित किया जाए।

 

विचारार्थ प्रस्तुत। 

 


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