PRSEC/E/2025/0047269
सम्बंधित मंत्रालय : विधि
हमारे देश में न तो चुनावों की कमी है ना चुनाव लड़ने वालों की, प्रत्येक पद के लिए दर्जनों उम्मीदवार खड़े होते हैं. व्यापारी या व्यवसायी भी बिना अपना धंधा छोड़े चुनाव लड़ सकते हैं. अगर जीत भी गए तो अपना व्यवसाय निर्बाध जारी रख सकते हैं. किन्तु क्या यह संभव है की जिस समय संसद/विधान सभा या निगम का सत्र जारी है तब भी पदाधिकारी सत्र में उपस्थिति छोड़ कर अपने व्यवसाय में लगा रहे? अगर ऐसा है तो उसने चुनाव क्यों लड़ा था? अगर नियम इसकी आज्ञा देते हैं तो क्या यह दिन-दहाड़े लोकतंत्र की निर्मम हत्या नहीं है? ऐसा उन करोड़ों मत दाताओं के हृदय पर प्रहार के समान होगा जिन्होंने उन महानुभाव को चुन कर आगे भेजा है। क्या सत्र में प्रतिभागिता करने से अधिक प्राथमिकता निजी व्यवसाय की हो सकती है? समाचार पत्रों में छपे स्तंभों से इस विषय में भ्रम बना हुआ है।
पद ग्रहण के समय एक सांसद निम्न शपथ लेता है “मैं, अमुक, जो राज्यसभा (या लोकसभा) में स्थान भरने के लिए अभ्यर्थी के रूप में निर्वाचित हुआ हूँ ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धा पूर्वक निर्वहन करूँगा।’
निजी व्यवसाय की खातिर सत्र से अनुपस्थित रहने वाला सदस्य क्या ये कह सकता है कि उसने “कर्तव्यों का श्रद्धा पूर्वक निर्वहन किया है” ये सरासर शपथ का उल्लंघन प्रतीत होता है. इससे अधिक स्पष्ट और सार्वजनिक रूप से नियमों की ह्त्या कैसे हो सकती है. जिन विधि निर्माताओं से क़ानून का सख्त अनुपालन कर उदाहरण स्थापित करने की अपेक्षा है अगर वही ऐसा करेंगे तो समाज को क्या सन्देश जाएगा?
अनुरोध है की विधि मंत्रालय जनता की जानकारी के लिए इस विषय में उचित स्पष्टीकरण जारी करे। और अगर ये सत्य है तो नियमों की समीक्षा की जाए।