मराठी और हिन्दी मे पढीए-
पहले मुस्लिम, फिर दलित और अब ओबीसी
इनको डरा डराकर कब तक वोट लेते रहेंगे?
ओबीसीनामा-42. भाग-5. लेखकः प्रो. श्रावण देवरे
पिछले भाग में हमने देखा कि सजीव प्राणियों, विशेषकर मानव और मानव समाज के लिए सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है। यदि कोई समाज घटक असुरक्षित हो जाता है तो उसका पूरे समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का जन्म होता है, यह भी हमने देखा। कोई व्यक्ती या समाज अगर दहशत मे आ जाए तो अपनी जान बचाने के चक्कर मे वो अपनेही दुष्मन से कुछ भी सौदेबाजी (Compromise) करने के लिए तैय्यार हो जाता है। स्वतंत्र भारत की मनुवादी-ब्राह्मणवादी शासक छावणी (Ruling Camp) ने इस डरके सिद्धांत का पहला प्रयोग किया मुस्लीम समाज पर!
भारत में विभिन्न समाज घटकों के बीच अस्थिरता और असुरक्षा पैदा करने के लिए जैसे जातिव्यवस्था का इस्तेमाल किया गया, उसी तरह धर्म का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है।
धार्मिक संघर्ष पैदा करके जातीय संघर्ष को विफल करने में सत्ताधारी प्रस्थापित जातियों को हमेशा सफलता मिलती आई है। एकाध समाज घटक को असुरक्षित कर दिया जाता है, तो उसे फिर से प्रस्थापित जातियों की शरण में जाना पड़ता है। इस प्रकार प्रस्थापितों की छावनी मजबूत होती रहती है.
आइये इसके कुछ उदाहरण देखते हैं!
1940 के दशक तक, धार्मिक संघर्ष का अस्तित्व कहीं भी कुछ खास नहीं था, इसलिए जैसे-जैसे देश का स्वतंत्रता आंदोलन बड़ा होता गया, वैसे-वैसे जातिअंतक सत्य-शोधक आंदोलन भी प्रभावी होता गया। लेकिन देश के धार्मिक विभाजन के कारण जो संहारक संघर्ष खड़ा हो गया उसके कारण धरती पर भारत और पाकिस्तान नाम से दो देश अस्तित्व में आये। भारत का एक बड़ा अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय दो देशों में विभाजित हो गया। बहुत सारे मुसलमानों के पाकिस्तान स्थलांतर होने के कारण मुस्लिम समाज, जो पहले से ही अल्पसंख्यक था, अति-अल्पसंख्यक हो गया। विभाजन के कारण देशभर में हुए धार्मिक दंगों की वजहसे मुस्लीम प्रचंड दहशत में आ गया और असुरक्षित हो गया। इंसान असुरक्षित होने के बाद अपनी जान बचाने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार हो जाता है। विभाजन से पहले मुस्लिम समाज की राजनीतिक पार्टी 'मुस्लिम लीग' थी। लेकिन विभाजन के बाद यह पार्टी मुसलमानों को सुरक्षा नहीं दे सकती थी, क्योंकि वह पाकिस्तान में सत्ताधारी पार्टी बन गई और भारत में सत्ताहीन हो गयी! चूँकि अविभाजित भारत के अविभाजित मुसलमान पूरी तरह से मुस्लिम लीग के साथ होने के कारण कांग्रेस के बराबरी में राजनीतिक सत्ता में सहभागी रहते थे जिसके कारण मुस्लिम लीग के लिए मुसलमानों को सुरक्षा देना आसान होता था। लेकिन विभाजन के बाद मुस्लिम लीग सत्ताहीन होने के कारण मुसलमानों को सुरक्षा नहीं दे सकती थी। हिन्दू महासभा और संघ-जनसंघ हिन्दू-मुस्लिम दंगे कराने में अग्रणी थे। उनसे सुरक्षा पाने के लिए मुसलमानों के पास तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। पत्थरसे ईंट भली यह सिद्धांत काम कर गया। स्वतंत्र भारत की मुस्लिम जनता ने अपनी 'मुस्लिम लीग' पार्टी को छोड़ दिया और कांग्रेस की शरण में चली गई।
1992 में सत्ताधारी कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद को गिराने में संघ-भाजपा की मदद की। कांग्रेस की इस विश्वासघाती छुपी हुई धार्मिक राजनीति के कारण मुस्लिम जनता कांग्रेस से नाराज हो गई और मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव जैसे कुछ क्षेत्रीय दलों की शरण में चली गई। कांग्रेस की सत्ता डगमगा गयी।
अब आइए एक और उदाहरण देखें! 1956 में डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (शेकाफे) पार्टी का रूपांतरण रिपब्लिकन पार्टी में हो गया। रिपब्लिकन पार्टी दलितों के बीच दलितों की अपनी पार्टी के रूप में लोकप्रिय थी। कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड के विश्व प्रसिद्ध भूमिहीन-आंदोलन के कारण रिपब्लिकन पार्टी को गैर-दलित जातियों के बीच भी मान्यता मिलने की शुरुआत हो गई थी। 1957 के दूसरे आम चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के 7 सांसदों के चुनकर आने के कारण दलित समाज की राजनीतिक शक्ति प्रभावशाली दिखने लगी थी। लेकिन 1967 के लोकसभा चुनाव में रिपब्लिकन सांसदों की संख्या घटकर मात्र एक रह गई और महाराष्ट्र में तो शून्य हो गई. दलित समाज की राजनीतिक स्थिति भले ही कमजोर हुई थी, लेकिन उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी प्रगति की थी।
हालाँकि वे राजनीति से सरकार में प्रवेश नहीं कर सके, लेकिन शिक्षा और आरक्षण की मदद से प्रशासन में मौके के और महत्वपूर्ण मलाईदार पदों को हासिल कर प्रशासन में उनकी भागीदारी बढ़ रही थी। इससे सवर्ण जातियों को मिर्ची लगने लगी। इसके परिणामस्वरूप दलितों के विरुद्ध सवर्ण जातियों के दंगे बड़े पैमाने पर शुरू हो गये। दंगों का मुख्य विषय आरक्षण विरोध ही था। क्योंकि आरक्षण के कारण उन्हें प्रशासन में शक्तिशाली पद मिल रहे थे। ग्रामीण दलित बस्तियों पर हमले ये रोज रोज की घटना बन गए थे। ऐसी भयग्रस्त परिस्थिति में दलित समाज असुरक्षित हो गया। इस अन्याय-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए 'दलित पैंथर' नामक एक आक्रामक संगठन की स्थापना हुई। लेकिन राजनीतिक तौर पर शून्य पर आ चुके दलित समाज ने अपनी राजनीतिक दिशा बदल ली। असुरक्षा के कारण दलितों ने अपनी रिपब्लिकन पार्टी को छोड़कर कांग्रेस की शरण ली।
कांग्रेस एक जलता हुआ घर है, ऐसा बाबासाहेब ने कई बार कहां है। उसके बावजूद दलित जातियां केवल सुरक्षा के लिए कांग्रेस को वोट देती है। रिपब्लिकन पार्टी, (RPI), बहुजन समाज पार्टी (BSP) व वंचित बहुजन आघाडी (VBA) यह सभी पार्टियां दलित-राजनीतिक विकल्प है। लेकीन आज भी दलित समुदाय के राजनीतिक नेता, विद्वान एवं सामाजिक कार्यकर्ता अपनी दलित-पार्टियों को छोड़कर कांग्रेस को फिर से सत्ता में बिठाने के लिए खुलेआम अभियान चलाते नजर आते हैं।पत्थर से भली ईंट। लेकीन ईंट भी सर फोडणे का काम करती है। अपना सर टुटनाही नही चाहिए, यह स्वतंत्रता हमे नही है। इसलिए हम यह पहले से तय कर लेते है की हमे अपना खुदका सर फोड लेना है। हमे स्वतंत्रता इतनीही है की सर को पत्थरसे तोड लेना है या ईंट से।
सुरक्षा के लिए कोई भी समझौता करने का तीसरा बड़ा उदाहरण अभी हाल ही में महाराष्ट्र में हुआ है। ओबीसी के खिलाफ मराठा संघर्ष भड़क उठा और ओबीसी 'असुरक्षित' हो गया। शरद पवार के नेतृत्व मे माविआ (इंडिया) गठबंधन ने जरांगे फैक्टर को हिंसक बनाने का काम किया। आगजनी, मारपीट, तोड़फोड़, उपद्रव, गालीगलौज जैसी सभी हिंसक घटनाएं गाँव गाँव में होने के कारण महाराष्ट्र के ओबीसी भयभीत और असुरक्षित हो गए।
तत्कालीन गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री फडणवीस ने जरांगे फैक्टर को नियंत्रित करने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया। जरांगे का उपोषण ख़त्म करने की कोशिश की। भाजपा का डी.एन.ए ओबीसी है फडणवीस के इस ऐलान के बाद गांव के आम ओबीसी को लगने लगा कि फड़णवीस और बीजेपी ही ओबीसी के तारनहार हैं। अगर इस विधानसभा चुनाव में शरद पवार की पार्टी सत्ता में आती है तो जरांगे फैक्टर को सत्ता की ताकत मिलेगी और गांव गांव में ओबीसी पर हमले तेज हो जाएंगे और ओबीसी समाज का नर-संहार (Genocide) हो सकता है। यह स्वाभाविक भय ओबीसी के मन में घर कर गया।
छ: महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में महाविकास आघाडी (इंडिया) गठबंधन को मतदान करने वाला 'प्रगतिशील ओबीसी' विधानसभा चुनाव में पूर्ण रूप से भाजपा की शरण में चला गया और भाजपा-महायुती भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। यह परिवर्तन जैसे हरियाणा मे हुआ, वैसे महाराष्ट्रामे भी होना था, और वो हो गया।
सतत बिखरा हुआ महाराष्ट्र का ओबीसी पहली बार जानबूझकर तय करके राजनैतिक दृष्टि से एकत्र आया है, भले ही भय के कारण ही सही लेकिन पहली बार अपने अस्तित्व के लिए एकत्र आया है और शक्तिशाली सत्ताधारी मराठा जाति के सामने खड़ा हो गया है, जरांगे फैक्टर की हिंसा का ओबीसी ने लोकतांत्रिक तरीके से उत्तर दिया है। मराठा पार्टी और मराठा मुख्यमंत्री को सत्ता में बिठाने के जरांगे के स्वप्न को उध्वस्त कर दिया है।
ओबीसी अपने भारी वोटों के बदले में फडणवीस से क्या अपेक्षा करते हैं? अब ओबीसी के कारण सत्ता में आए और मुख्यमंत्री बनकर लौटे फडणवीस को ओबीसी के खिलाफ हिंसा करने वाले दंगाइयों को कानून का डंडा दिखाना चाहिए और ओबीसी को सुरक्षा देनी चाहिए, इतनी सी अपेक्षा है। यदि फडणवीस ने इसमें भी कामचोरी की तो उनका भी महाविकास आघाडी व शरद पवार की तरह पानीपत करने में अब ओबीसी सक्षम हो चुका है। फडणवीस ने इस तथ्य पर ध्यान दिया ही है, इस बात को ध्यान में रखकर कार्रवाई हो यही अपेक्षा! एक बार कांग्रेस, एक बार भाजपा ऐसा ही चिलम-तंबाकू का खेल ओबीसी अब नहीं खेलेगा। कभी तो एक बार वह अलग विचार निश्चित रूप से करेगा इसका पूरा विश्वास है!
वह अलग विचार क्या होगा और उस विचार के अनुरूप क्या कदम उठाना है , इस पर अगले छठे भाग में चर्चा करते हैं!
तब तक के लिए, जय ज्योति, जयभीम, सत्य की जय हो!
-प्रोफे. श्रावण देवरे, संस्थापक-अध्यक्ष,
ओबीसी पॉलिटिकल एलायंस,
ईमेलः obcp...@gmail.com
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लेखन तिथि: 15 दिसंबर 2024
मराठी से हिन्दी अनुवाद- चन्द्रभान पाल
महत्वपूर्ण नोट: 1) लेखाचा हा पाचवा भाग दैनिक बहुजन सौरभ ने ‘‘मराठी भाषेत’’ दिनांक 17 डिसेंबर 2024 रोजी प्रकाशित केलेला आहे.
2) लेखाचा हा पाचवा भाग साप्ताहिक *वभव, एकसत्ता ने वेबसाईटवर ‘‘मराठी भाषेत’’ दिनांक 16 डिसेंबर 2024 रोजी प्रकाशित केलेला आहे. त्याची लिंक पुढीलप्रमाणे- https://aklujvaibhav.in/?p=7712
https://vrutteksattanews.blogspot.com/2024/12/42-5.html
3) इस आर्टिकल P-5 की ‘‘हिन्दी’’ pdf copy की लिंक-
4) इस आर्टिकल P-5 की ‘‘मराठी’’ pdf copy की लिंक-
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