क्या रावण यदि दलित या ओबीसी होते तो दशहरा मातम में बदल जाता?
संजीव खुदशाह
मुझे इस पर लिखने का ख्याल तब आया, जब कॉलोनी के एक WhatsApp ग्रुप पर ब्राह्मण मित्र ने मैसेज भेजा उसका मजमून कुछ इस तरह था की ‘रावण ब्राह्मण जाति से ताल्लुक रखता था। बावजूद इसके उसे प्रति वर्ष बुराई का प्रतीक कहकर जलाया जाता है। यह ब्राम्हण के साथ शोषण जैसा है। यदि यही रावण किसी दलित या ओबीसी जाति का होता, तो लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते। और रावण को जलाने का उत्सव मातम में बदल जाता’। हम यदि वाल्मीकि रामायण की माने तो रावण सारस्वत ब्राम्हण पुलस्त्य ऋषि के पौत्र एवं विश्रवा ऋषि के पुत्र थे।
मैं आज इस पर बात करना चाहता हूं। इस बात पर नहीं कि रावण ऐतिहासिक है या नहीं । या सचमुच उसका जन्म नरक चौदस के दिन हुआ था या नही। मैं इस पर भी बात नहीं करूंगा की रावण की जाति क्या रही होगी। मै इस विषय पर बात करूंगा कि रावण को क्यों जलाते हैं? उसका मकसद क्या है? और कौन लोग रावण को जलाते हैं?
आजकल बहुजन-अंबेडकर वादियों के बीच रावण को मूल निवासियों का राजा कहकर प्रचारित किया जा रहा है। दरअसल यह ब्राह्मण वादियों के समानांतर बेहद जातिवादी सिद्धांत है। जब आप किसी जातिवादी सिद्धांत को मानते हैं तो आप केवल जाति को ही मानते हैं। सिद्धांत आपके लिए कोई मायने नहीं रखता। बहुजन मूवमेंट में भी यही बातें जोरों से घर कर रही हैं। कई मिथको को अपनाया जा रहा है उन्हे नये शिरे से गढा जा रहा है। इसके पहले महिषासुर पर भी बहुजन आंदोलन जोरों पर था। कुछ लोग जो इन बातों को थोड़ा बहुत समझते रहे हैं वह आरोप संघ के माथे पर मढ़ कर कान में रूई डालकर सो जाते।
अब मैं उस WhatsApp पोस्ट की तरफ पुनः जाना चाहूंगा जो एक ब्राम्हण मित्र ने ग्रुप में भेजी थी। दरअसल उस पोस्ट ने मुझे हद तक परेशान कर दिया। और यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया की ब्राम्हण कुमार रावण को आखिर जलाया क्यों जाता है। मैंने अपने अपने स्तर पर इसकी तहकीकात की। ऐतिहासिक स्तर पर जांच पड़ताल की। तो मुझे यह बात छनकर सामने आती हुई नजर आई की दरअसल यह लड़ाई किसी जाति के विरोध के बजाय सच के साथ झूठ की है। और यह लड़ाई आज भी चल रही है। मैं अगर संकुचित शब्दों में कहूं तो ब्राह्मणवाद की लड़ाई यथार्थवाद से चल रही है। यहां पर आप ब्राह्मणवाद को सीधे किसी जाति से जोड़ कर ना देखें। अगर आप ऐसे दृष्टिकोण से देखेंगे तो आप भ्रमित हो जाएंगे और सच्चाई का पता लगाने में मुश्किल आएगी।
दशहरे के समय तमाम ब्राम्हणवादी मीडिया, ब्राह्मणवादी लोग रावण को बुराई एवं अहंकार का प्रतीक कहकर और राम को सच्चाई का प्रतीक कहकर प्रचारित करते हैं। और रावण की हत्या को जायज ठहराते हैं। मैं काफी समय पहले से यह कहता आया हूं कि ब्राह्मणवादी लोग जातिवादी नहीं होते हैं। जातिवादी होते हैं गैर ब्राह्मणवादी लोग। ब्राह्मणवादी लोग केवल ब्राम्हण एवं ब्राह्मणवाद को सर्वोपरि मानते हैं। ब्राम्हण जाति को नहीं। यदि एक शूद्र, ब्राह्मणों की उच्चता, एवं उनके अंधविश्वास को स्वीकारता है, तो वह उसे सिर आंखों का पर बैठाते हैं। लेकिन एक बहुजन वादी लोग एक ब्राह्मण की प्रगतिशीलता को देखते हैं। तो उसको शंका की निगाह से देखते हैं उसे तिरस्कृत करते हैं। वही दूसरी ओर एक ब्राम्हण वादी व्यक्ति अपने विचारधारा पर इतना अडीग होता है की यदि स्वयं ब्राम्हण भी उसका विरोध करेगा तो उसे, उस का सर कलम करने में तनिक भी देरी नहीं लगाएगा। अब मैं आपको बताना चाहूंगा की राम जाति क्षत्रिय था। लेकिन ब्राम्हण की उच्चता को स्वीकारता था। इसीलिए ब्राह्मणों ने उसे सिर आंखों पर बिठाया और नायक बना दिया। वही रावण वंश के हिसाब से ब्राह्मण था। लेकिन यथार्थवादी था। ब्राह्मणवाद का विरोधी था। तो उन्हीं ब्राम्हणों ने उसकी हत्या करवाई और उसे राक्षस घोषित कर दिया। यही नहीं प्रतिवर्ष उस ब्राम्हण व्यक्ति रावण के पुतले को जलाया जाता है। इतना धृणित व्यवहार तो ब्राम्हणो ने एक शूद्र से भी नही किया। मौत, दर साल मौत की सजा।
यह मामला यहीं तक नहीं रुकता या और आगे बढ़ता है। ब्राह्मणवाद के विरोधी जितने भी लोग रहे हैं। उन्हें खत्म किया जाता रहा है। चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों ना रहे हो। विगत कुछ सालों पहले चाहे वह नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई वे ब्राम्हण जाति से ताल्लुख रखते थे। उसी प्रकार कलबुर्गी एवं गौरी लंकेश लिंगायत ब्राम्हण समप्रदाय से आते थे। बावजूद इसके ब्राह्मणवादियों ने इन्हें बर्दाश्त नहीं किया और इन तीनों प्रगतिशील तर्कशील विद्वानों को जान से हाथ धोना पड़ा। उसी प्रकार नरेन्द्र नायक प्रसिध्द तर्कशील विद्वान जो की चितपावन ब्राम्हण से ताल्लुख रखते है। उन्हे कट्टरवादियों द्वारा जान से मारने की धमकी दी गई है। इसी कड़ी में आप गांधी, कबीर, रयदास की हत्या को जोड़ सकते है।
रावण को प्रतिवर्ष जलाने का मकसद यह है की ब्राह्मणवाद यानी जाति से ब्राह्मण होना सर्वोपरि है यह दर्शाया जाए। साथ साथ शस्त्रधारी जाति क्षत्रिय, ब्राह्मणों की भक्त है। यह बात बार-बार सामने आए ताकि बाकी बनिया समेत शूद्र जातियां प्रश्न उठाएं और उसी तरह ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को मानते रहे। उन्हें कोई चुनौती ना दे सके। इसी कोशिश में प्रतिवर्ष प्रतीक के रूप में रावण के पुतले का दहन किया जाता है। यह ना सिर्फ पुतले का दहन है। बल्कि गैर ब्राह्मणवादी दुश्मनों को ललकार भी है। उनके भीतर भय पैदा करना भी है। ब्राह्मणवादी लोगों का मनोबल बढ़ाना भी है। और अंधविश्वास को स्थापित करना भी इसके पीछे एक महत्वपूर्ण मकसद है।
यहां पर, जैसा कि पिछले साल से एक परंपरा चालू हुई है। नरक चौदस के दिन रावण का जन्मदिन बहुजन और आंबेडकरी विचारधारा के लोगो मनाने की शुरूआत किया गया है। अगर वह यह सोच कर इस जन्म दिन को मनाने की शुरुआत कर रहे हैं की रावण असुर है, मूल निवासी है। तो मेरा ख्याल है कि यह एक धोखा होगा। बहुजन आंदोलन के साथ एक धोका होगा। यह धोका होगा स्वयं रावण के साथ। अगर हम यह जन्म दिन इस मकसद से मना रहे हैं की रावण एक यथार्त वादी एवं गैर ब्राह्मणवादी विचारधारा का व्यक्ति था, तो मैं यह समझता हूं की भविष्य में इसके पीछे कुछ सकारात्मक होने की गुंजाईश छुपी हुई है।
अगर बहुजन आंदोलन, अंबेडकरवादी आंदोलन अपने जातिवादी होने के दुर्गुण से निजात पा लें, तो इस संसार में ऐसी कोई ताकत नहीं है जो उन्हें रोक सकेगी। क्योंकि जिस प्रकार ब्राह्मणवादी होना किसी एक जाति की बपौती नहीं है। उसी प्रकार प्रगतिशील होना भी किसी खास जातियों का एकाधिकार नहीं है। इस बात को समझना होगा और जातिवाद से निकलकर सिद्धांतवाद की ओर जाना होगा। तब कहीं जाकर रावण की जयंती को मनाने का सही मकसद पूर्ण हो सकेगा।
भवदीय
संजीव खुदशाह
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